कात्‍यायनी की बीस कविताएं


कात्‍यायनी की बीस कविताएं


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1. बेहतर है...
मौत की दया पर
जीने से
बेहतर है
ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश

के हाथों मारा जाना!

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2. ऐसा किया जाय कि...
ऐसा किया जाय कि

एक साजिश रची जाय।

बारूदी सुरंगें बिछाकर

उड़ा दी जाय

चुप्पी की दुनिया।

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3. उनका भय
जब हम गाते हैं तो वे डर जाते हैं।

वे डर जाते हैं जब हम चुप होते हैं।

वे डरते हैं हमारे गीतों से

और हमारी चुप्पी से भी!

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4. दीवारों के बारे में
कभी वहाँ नहीं थीं दीवारें

जहाँ आज हैं।

जहाँ आज हैं

कभी वहाँ नहीं होंगी दीवारें।

दीवारें होती हैं

नहीं होने के लिए।

नवम्बर, 1992
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5. अच्छी और बुरी किताबों के बारे में
(एक लोकप्रचलित मान्यता)

अच्छी और सुन्दर किताबें
इंगित करती हैं बाहर - दुनिया की ओर।

बुरी किताबें
हमें बाहर से भीतर की ओर लाती हैं

अपने सफ़ों के बीच क़ब्रों में
ढकेल देती हैं।

नवम्बर, 1992
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6. इन्क़लाब के बारे में कुछ बातें
नहीं मिलती है
रोटी कभी लम्बे समय तक

या छिन जाती है मिलकर भी बार-बार
तो भी आदमी नहीं छोड़ता है

रोटी के बारे में सोचना
और उसे पाने की कोशिश करना।

कभी-कभी लम्बे समय तक आदमी नहीं पाता है प्यार
और कभी-कभी तो ज़िन्दगी भर।
खो देता है कई बार वह इसे पाकर भी
फिर भी वह सोचता है तब तक

प्यार के बारे में
जब तक धड़कता रहता है उसका दिल।

ऐसा ही,
ठीक ऐसा ही होता है

इन्क़लाब के बारे में भी।
पुरानी नहीं पड़ती हैं बातें कभी भी

इन्क़लाब के बारे में।
नवम्बर, 1992
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7. देह न होना
देह नहीं होती है
एक दिन स्त्री

और 
उलट-पुलट जाती है

सारी दुनिया
अचानक!

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8. सात भाइयों के बीच चम्पा
सात भाइयों के बीच

चम्पा सयानी हुई।

बाँस की टहनी-सी लचक वाली,

बाप की छाती पर साँप-सी लोटती

सपनों में

काली छाया-सी डोलती

सात भाइयों के बीच

चम्पा सयानी हुई।

ओखल में धान के साथ

कूट दी गयी

भूसी के साथ कूड़े पर

फेंक दी गयी।

वहाँ अमरबेल बनकर उगी।

झरबेरी के सात कँटीले झाड़ों के बीच

चम्पा अमरबेल बन सयानी हुई।

फिर से घर आ धमकी।

सात भाइयों के बीच सयानी चम्पा

एक दिन घर की छत से

लटकती पायी गयी।

तालाब में जलकुम्भी के जालों के बीच

दबा दी गयी।

वहाँ एक नीलकमल उग आया।

जलकुम्भी के जालों से ऊपर उठकर

चम्पा फिर घर आ गयी,

देवता पर चढ़ायी गयी

मुरझाने पर मसलकर फेंक दी गयी,

जलायी गयी।

उसकी राख बिखेर दी गयी

पूरे गाँव में।

रात को बारिश हुई झमड़कर।

अगले ही दिन

हर दरवाज़े के बाहर

नागफनी के बीहड़ घेरों के बीच

निर्भय-निस्संग चम्पा

मुस्कुराती पायी गयी।

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9. गार्गी
मत जाओ गार्गी प्रश्नों की सीमा से आगे

तुम्हारा सिर कटकर लुढ़केगा ज़मीन पर,

मत करो याज्ञवल्क्यों की अवमानना,

मत उठाओ प्रश्न ब्रह्मसत्ता पर,

वह पुरुष है!

मत तोड़ो इन नियमों को।

पुत्री बन पिता का प्यार लो

अंकशायिनी बनो

फिर कोख में धारण करो

पुरुष का अंश

मत रचो नया लोकाचार

मत जाओ प्रश्नों की सीमा से आगे।

गार्गी, तुम जलो रुपयों की ख़ातिर

बिको बीमार बेटे की ख़ातिर

नाचो इशारों पर

गार्गी तुम ज़रा स्मार्ट बनो

तहज़ीब सीखो

सीढ़ी बन जाओ हमारी तरक्की की

गार्गी तुम देवी हो-जीवनसंगिनी हो

पतिव्रता हो गार्गी तुम

हम अधूरे हैं तुम्हारे बिना

महान बनने में हमारी मदद करो

दुनिया को फतह करने में

आसमान तक चढ़ने में

गार्गी तुम एक रस्सी बनो।

त्याग-तप की प्रतिमा हो तुम

सोचो परिवार का हित

अपने इस घर को सँभालो

मत जाओ प्रश्नों की सीमा से आगे

तुम्हारा सिर कटकर लुढ़केगा ज़मीन पर!

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10. प्रार्थना

प्रभु!

मुझे गौरवान्वित होने के लिए

सच बोलने का मौका दो,

परोपकार करने का

स्वर्णिम अवसर दो प्रभु मुझे।

भोजन दो प्रभु, ताकि मैं

तुम्हारी भक्ति करने के लिए

जीवित रह सकूँ।

मेरे दरवाज़े पर थोड़े से ग़रीबों को

भेज दो,

मैं भूखों को भोजन कराना चाहता हूँ।

प्रभु, मुझे दान करने के लिए

सोने की गिन्नियाँ दो।

प्रभु, मुझे वफादार पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र

लायक भाई और शरीफ पड़ोसी दो।

प्रभु, मुझे इहलोक में

सुखी जीवन दो ताकि बुढ़ापे में

परलोक की चिन्ता कर सकूँ।

प्रभु,

मेरी आत्मा प्रायश्चित करने के लिए

तड़प रही है,

मुझे पाप करने के लिए

एक औरत दो!

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11. अपराजिता
सृष्टिकर्त्ता ने नारी को रचते समय बिस्तर, घर, जेवर, अपवित्र इच्छायें, ईर्ष्या, बेईमानी और दुर्व्यवहार दिया।-मनु
हाँ

उन्होंने यही

सिर्फ यही दिया हमें

अपनी वहशी वासनाओं की तृप्ति के लिए

दिया एक बिस्तर,

जीवन घिसने के लिए, राख होते रहने के लिए

चौका-बर्तन करने के लिए बस एक घर,

समय-समय पर

नुमाइश के लिए गहने पहनाये,

और हमारी आत्मा को पराजित करने के लिए

लाद दिया उस पर तमाम अपवित्र इच्छाओं

और दुष्कर्मों का भार।

पर नहीं कर सके पराजित वे

हमारी अजेय आत्मा को

उनके उत्तराधिकारी

और फिर उनके उत्तराधिकारियों के उत्तराधिकारी भी

नहीं पराजित कर सके जिस तरह

मानवता की अमर-अजेय आत्मा को,

उसी तरह नहीं पराजित कर सके वे

हमारी अजेय आत्मा को

आज भी वह संघर्षरत है

नित-निरन्तर

उनके साथ

जिनके पास खोने को सिप़फ़र् जंजीरें ही हैं

बिल्कुल हमारी ही तरह!

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12. वह रचती है जीवन और...
नारी की रचना इसलिए हुई है कि पुरुष अपने पुत्रों देवताओं से वंश चला सके।- ऋग्वेद संहिता
नारी की रचना हुई मात्र वंश चलाने के लिए,

जीवन को रचने के लिए

-उन्होंने कहा चार हज़ार वर्षों पहले

नये समाज-विधान की रचना करते हुए।

पर वे भूल गये कि

नहीं रचा जा सकता कुछ भी

बिना कुछ सोचे हुए।

जो भी कुछ रचता है-वह सोचता है।

वह रचती है

जीवन

और जीवन के बारे में सोचती है लगातार।

सोचती है-

जीवन का केन्द्रबिन्दु क्या है

सोचती है-

जीवन का सौन्दर्य क्या है

सोचती है-

वह कौन-सी चीज़ है

जिसके बिना सब कुछ अधूरा है

प्यार भी, सौन्दर्य भी, मातृत्व भी...

सोचती है वह

और पूछती है चीख़-चीख़कर।

प्रतिध्वनि गूँजती है

घाटियों में मैदानों में

पहाड़ों से, समुद्र की ऊँची लहरों से टकराकर

आज़ादी! आज़ादी!! आज़ादी!!!

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13. नहीं हो सकता तेरा भला
बेवकफू जाहिल औरत!

कैसे कोई करेगा तेरा भला?

अमृता शेरगिल का तूने

नाम तक नहीं सुना

बमुश्किल तमाम बस इतना ही

जान सकी हो कि

इन्दिरा गाँधी इस मुल्क की रानी थीं!
(फिर भी तो तुम्हारे भीतर कोई प्रेरणा का संचार नहीं होता)

रह गयी तू निपट गँवार की गँवार।

पी.टी. उषा को तो जानती तक नहीं,

मार्गरेट अल्वा एक अजूबा हैं

तुम्हारे लिए।
क ख ग घ’ आता नहीं
मानुषी’ कैसे पढ़ेगी भला!

कैसे होगा तुम्हारा भला-

मैं तो परेशान हो उठता हूँ!

आज़िज़ आ गया हूँ मैं तुमसे।

क्या करूँ मैं तुम्हारा?

हे ईश्वर!

मुझे ऐसी औरत क्यों नहीं दी

जिसका कुछ तो भला किया जा सकता!

यह औरत तो बस भात राँध सकती है

और बच्चे जन सकती है

इसे भला कैसे मुक्त किया जा सकता है?

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14. लौह पुरुष
आज भी

लोहे के ही बनते हैं

लौह पुरुष

जंगरोधी इस्पात के

आविष्कार के बावजूद।

बदलते नहीं हैं लौह पुरुष,

अड़ जाते हैं

खड़े-खड़े

जंग खाकर

झड़ जाते हैं।

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15. तर्क के बारे में
तर्क

दुनिया के सबसे सुन्दर फूल की तरह

खिलता है,

एकदम मानवीय प्यार की तरह,

मेहनत की ज़मीन पर उगे

अनुभव के पौधे पर।

शोभा पाता है तर्क

मेहनत करने वालों के पास।

तर्क सुन्दर होता है

क्योंकि वह बताता है

कारण का कार्य से सम्बन्ध।

वह बताता है

चीज़ों के होने के बारे में,

गतियों के रहस्यों के बारे में।

बताता है वह

रहस्य और अन्धकार

और कृत्रिमता

और निरुपायता से

मुक्ति के बारे में

इसलिए ज़रूरी है तर्क करना

और लोगों को बताना

तर्क के बारे में।

जो चाहते हैं दुनिया को चलाना ऐसे ही

जैसे कि वह चल रही है

वे डर जाते हैं

जब हम शुरू करते हैं

तर्क करना।

नवम्बर, 1992
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16. जानने-सीखने-पढ़ने-लिखने के बारे में कुछ बातें
आज की दुनिया में

चीज़ों को जानने-समझने का

यह भी है एक रास्ता

कि लीचड़ों और लद्धड़ों को देखकर

जाना जाये उदारमना और स्फूर्तिमान

होने का अर्थ

और ऊबे हुए लोगों को देखकर

महसूस की जाये प्यार करने की ज़रूरत।

कि ढोंगियों को देखकर

सीखी जाये साफ़गोई,

नक़लचियों को देखकर मौलिकता

और कूपमण्डूकों के रूबरू खड़े होकर

अपने दिमाग़ी खुलेपन का जायज़ा लिया जाये।

कि मनहूसों को देखकर ख़ुश रहना

और चापलूसों को देखकर सीख लिया जाये

निर्भीकता के साथ अपनी बात कहना,

अकेले लोगों को देखकर

सीख लिया जाये

अपने लोगों के बीच जीना।

कि सीख लिया जाये

कायरों को देखकर लड़ना,

समझौतापरस्तों को देखकर विरोध करना

और मौक़ापरस्तों को देखकर

धारा के विरुद्ध तैरना।

ऐसे ही आप करते जाइये,

पहले लोगों को देखकर सीखिये

फिर चीज़ों को देखकर सीखना भी

सीख जायेंगे।

फिर आप समझ जायेंगे

अख़बार की ख़बरों को पढ़कर

न सिर्फ़ वाज़िब ढंग से प्रतिक्रिया व्यक्त करना

बल्कि उन्हें महसूस करना,

दमन को देखकर प्रतिरोध करना,

जु़ल्म को देखकर बग़ावत करना

और लगातार हारना देखकर

जीतने की तलब महसूस करना।

फिर आप यहीं नहीं रुकेंगे।

आप ज़रूरत महसूस करेंगे

ज़्यादा से ज़्यादा जानने की,

पढ़ने की, लिखने की।

फिर आप सीख जायेंगे कविताएँ पढ़ना,

और हो सकता है, लिखना भी।

आप सीख जायेंगे

दर्शन पढ़ना, इतिहास पढ़ना

और इन्हें ज़रूरत के मुताबिक़ पढ़ना

और ज़रूरत के मुताबिक़

ज़्यादा से ज़्यादा समझते जाना।

इसी तरह से शुरू कीजिये आप,

अगर पढ़ने से घबराते हों,

या आपके पास समय कम हो

और आप फँसे हों रोज़मर्रे के कामों में

बुरी तरह

तो इस तरह से शुरू करके देखिये।

जुलाई, 1988
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17. ज़रूरत के बारे में बातें
कभी नहीं ख़त्म होतीं

ज़रूरत के बारे में बातें।

बहुत छोटी हो सकती है या बहुत बड़ी,

पर हर ज़रूरत एक ज़रूरत होती है

और उसके बारे में बातें करना

ज़रूरी-सा लगता है, मसलन

उतनी ही ज़रूरत इस बात की है

कि जीवन की हर प्रबल अनुभूति

एक व्यापक ज़रूरत बनकर,

जैसे कि वासनायुक्त प्यार की

उद्दाम भौतिक अनुभूति में भी निहित कविता,

उतर जाये कविता में

राग और रंग

और रूप और लय

और शब्द बनकर,

जितनी ज़रूरत इस बात की है

कि कविता के प्रबलतम ज्वार

और कोमलतम प्रवाह से

आप्लावित कर दी जाये

जीवन की हर अनुभूति,

मसलन प्यार की हर दैहिक,

ठोस अभिव्यक्ति तक।

उतनी ही ज़रूरत है

अपने लोगों की हर चाहत को

कविता में रखने की,

जितनी ज़रूरत है लोगों की चाहतों में

कविता को शामिल करने की।

उतनी ही ज़रूरत है

लोगों का लड़ना कविता में आने की

जितनी यह कि

कविता भी

लोगों के लड़ने की

ज़रूरत बन जाये।

जितनी ज़रूरत है

लोगों को जीवन की,

जीवन को मुक्ति की,

मुक्ति को युद्ध की

युद्ध को कविता की,

उतनी ही ज़रूरत है कविता को

लोगों की, जीवन की, मुक्ति और युद्ध की।

नारे को जितनी ज़रूरत है कविता की

उतनी ही कविता को ज़रूरत है नारे की।

पर 

हर ज़रूरत को पूरा करते समय

पूरा ख़याल रखा जाना चाहिए इसका कि

चीज़ें ज़रूरत से

न कम हों

न ज़्यादा।

जुलाई, 1998
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18. नयी इबारत के बारे में
लगभग मृत्यु-सा

होता है

शान्त-भयावह

स्लेट का स्याह कालापन,

इबारत

जब मिटा दी गयी होती है।

झाँकती होती हैं

मगर फिर भी पीछे से

मिटाये गये

अक्षरों-शब्दों की छायाएँ

स्मृतियों की तरह।

हमेशा ही फिर से

लिखी जाती है

इबारत 

काले समय जैसी स्लेट की छाती पर

चमकती हुई

पहले से बेहतर

और सुन्दर-सुगढ़।

न हो यदि ऐसा,

अप्रासंगिक हो जायेगी स्लेट

जैसे कि

समय,

जीवन,

यह देश,

या कि यह पूरी दुनिया।

जनवरी, 1993
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19. सबसे सुन्दर आदत के बारे में
उन्हें अच्छा लगता है

लूट और तबाही का मिट जाना

इस दुनिया से।

नैसर्गिक लगता है उन्हें

कि लोग प्यार करें अपने लोगों से

और अपनी मेहनत से।

उन्हें स्वाभाविक लगता है कि

लोग वह करें जो उनकी क्षमता हो

और पायें वह

जो उनकी ज़रूरत हो।

इसलिए वे कोशिश करते हैं

आदतन,

ताउम्र,

बिना थके हुए

ऐसा कुछ करते रहने की

कि वह हो सके

जो अच्छा है,

नैसर्गिक और स्वाभाविक है।

नवम्बर, 1992
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20. जीवन के बारे में कुछ बातें

थोड़ा-सा प्यार मिला

थोड़ी नफ़रत

थोड़ी उत्तेजना

थोड़े तनाव और थोड़ी चुनौतियाँ,

थोड़े लम्हे छोटे-छोटे दुखों के, सुखों के।

नहीं मिला

नहीं मिला कहीं भी

आराम का विराम

न ही पूरी तुष्टि।

इसीलिए

जीवन रहा

बहता हुआ काल के प्रवाह में

दिक् के विस्तार में

पाती रही - खोती रही

बार-बार उसको मैं।

जीवन था वह।


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