हरिशंकर परसाई की कलम से - व्यंग्य : टार्च बेचने वाला


हरिशंकर परसाई की कलम से
व्यंग्य
 : टार्च बेचने वाला

वह पहले चौराहों पर बिजली के टार्च बेचा करता था। बीच में कुछ दिन वह नहीं दिखा। कल फिर दिखा। मगर इस बार उसने दाढी बढा ली थी और लंबा कुरता पहन रखा था।
मैंने पूछा, “कहाँ रहेऔर यह दाढी क्यों बढा रखी है?”
उसने जवाब दिया, “बाहर गया था।
दाढीवाले सवाल का उसने जवाब यह दिया कि दाढी पर हाथ फेरने लगा। मैंने कहा, “आज तुम टार्च नहीं बेच रहे हो?”
उसने कहा, “वह काम बंद कर दिया। अब तो आत्मा के भीतर टार्च जल उठा है। ये ' सूरजछाप ' टार्च अब व्यर्थ मालूम होते हैं।
मैंने कहा, “तुम शायद संन्यास ले रहे हो। जिसकी आत्मा में प्रकाश फैल जाता हैवह इसी तरह हरामखोरी पर उतर आता है। किससे दीक्षा ले आए?”
मेरी बात से उसे पीडा हुई। उसने कहा, “ऐसे कठोर वचन मत बोलिए। आत्मा सबकी एक है। मेरी आत्मा को चोट पहुँचाकर आप अपनी ही आत्मा को घायल कर रहे हैं।
मैंने कहा, “यह सब तो ठीक है। मगर यह बताओ कि तुम एकाएक ऐसे कैसे हो गएक्या बीवी ने तुम्हें त्याग दियाक्या उधार मिलना बंद हो गयाक्या
हूकारों ने ज्यादा तंग करना शुरू कर दिया ? क्या चोरी के मामले में फँस गए हो ? आखिर बाहर का टार्च भीतर आत्मा में कैसे घुस गया ?”
उसने कहा, “आपके सब अंदाज गलत हैं। ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक घटना हो गई हैजिसने जीवन बदल दिया। उसे मैं गुप्त रखना चाहता हूँ। पर क्योंकि मैं आज ही यहाँ से दूर जा रहा हूँइसलिए आपको सारा किस्सा सुना देता हूँ।उसने बयान शुरू किया पाँच साल पहले की बात है। मैं अपने एक दोस्त के साथ हताश एक जगह बैठा था। हमारे सामने आसमान को छूता हुआ एक सवाल खड़ा था। वह सवाल था - ' पैसा कैसे पैदा करें?' हम दोनों ने उस सवाल की एक-एक टाँग पकड़ी और उसे हटाने की कोशिश करने लगे। हमें पसीना आ गयापर सवाल हिला भी नहीं। दोस्त ने कहा -यारइस सवाल के पाँव जमीन में गहरे गड़े हैं। यह उखडेगा नहीं। इसे टाल जाएँ।
हमने दूसरी तरफ मुँह कर लिया। पर वह सवाल फिर हमारे सामने आकर खडा हो गया। तब मैंने कहा -यारयह सवाल टलेगा नहीं। चलोइसे हल ही कर दें। पैसा पैदा करने के लिए कुछ काम- धंधा करें। हम इसी वक्त अलग- अलग दिशाओं में अपनी- अपनी किस्मत आजमाने निकल पड़े। पाँच साल बाद ठीक इसी तारीख को इसी वक्त हम यहाँ मिलें।
दोस्त ने कहा -यारसाथ ही क्यों न चलें?”
मैंने कहा -नहीं। किस्मत आजमानेवालों की जितनी पुरानी कथाएँ मैंने पढ़ी हैंसबमें वे अलग अलग दिशा में जाते हैं। साथ जाने में किस्मतों के टकराकर टूटने का डर रहता है।
तो साहबहम अलग-अलग चल पडे। मैंने टार्च बेचने का धंधा शुरू कर दिया। चौराहे पर या मैदान में लोगों को इक्कठे कर लेता और बहुत नाटकीय ढंग से कहता -आजकल सब जगह अँधेरा छाया रहता है। रातें बेहद काली होती हैं। अपना ही हाथ नहीं सूझता। आदमी को रास्ता नहीं दिखता। वह भटक जाता है। उसके पाँव काँटों से बिंध जाते हैंवह गिरता है और उसके घुटने लहूलुहान हो जाते हैं। उसके आसपास भयानक अँधेरा है। शेर और चीते चारों तरफ धूम रहे हैंसाँप जमीन पर रेंग रहे हैं। अँधेरा सबको निगल रहा है। अँधेरा घर में भी है। आदमी रात को पेशाब करने उठता है और साँप पर उसका पाँव पड़ जाता है। साँप उसे डँस लेता है और वह मर जाता है।आपने तो देखा ही है साहबकि लोग मेरी बातें सुनकर कैसे डर जाते थे। भरी दोपहरी में वे अँधेरे के डर से काँपने लगते थे। आदमी को डराना कितना आसान है !
लोग डर जातेतब मैं कहता -भाइयोंयह सही है कि अँधेरा हैमगर प्रकाश भी है। वही प्रकाश मैं आपको देने आया हूँ। हमारी ' सूरज छाप ' टार्च में वह प्रकाश हैजो अंधकार को दूर भगा देता है। इसी वक्त ' सूरज छाप ' टार्च खरीदो और अँधेरे को दूर करो। जिन भाइयों को चाहिएहाथ ऊँचा करें।
साहबमेरे टार्च बिक जाते और मैं मजे में जिंदगी गुजरने लगा।
वायदे के मुताबिक ठीक पाँच साल बाद मैं उस जगह पहुँचाजहाँ मुझे दोस्त से मिलना था। वहाँ दिन भर मैंने उसकी राह देखीवह नहीं आया। क्या हुआक्या वह भूल गयाया अब वह इस असार संसार में ही नहीं है ? मैं उसे ढूंढ़ने निकल पडा।
एक शाम जब मैं एक शहर की सडक पर चला जा रहा थामैंने देखा कि पास के मैदान में खूब रोशनी है और एक तरफ मंच सजा है। लाउडस्पीकर लगे हैं। मैदान में हजारों नर-नारी श्रद्धा से झुके बैठे हैं। मंच पर सुंदर रेशमी वस्त्रों से सजे एक भव्य पुरुष बैठे हैं। वे खूब पुष्ट हैंसँवारी हुई लंबी दाढी है और पीठ पर लहराते लंबे केश हैं।
मैं भीड के एक कोने में जाकर बैठ गया।
भव्य पुरुष फिल्मों के संत लग रहे थे। उन्होंने गुरुगभीर वाणी में प्रवचन शुरू किया। वे इस तरह बोल रहे थे जैसे आकाश के किसी कोने से कोई रहस्यमय संदेश उनके कान में सुनाई पड़ रहा है जिसे वे भाषण दे रहे हैं।
वे कह रहे थे -मैं आज मनुष्य को एक घने अंधकार में देख रहा हूँ। उसके भीतर कुछ बुझ गया है। यह युग ही अंधकारमय है। यह सर्वग्राही अंधकार संपूर्ण विश्व को अपने उदर में छिपाए है। आज मनुष्य इस अंधकार से घबरा उठा है। वह पथभ्रष्ट हो गया है। आज आत्मा में भी अंधकार है। अंतर की आँखें ज्योतिहीन हो गई हैं। वे उसे भेद नहीं पातीं। मानव- आत्मा अंधकार में घुटती है। मैं देख रहा हूँमनुष्य की आत्मा भय और पीड़ा से त्रस्त है।
इसी तरह वे बोलते गए और लोग स्तब्ध सुनते गए।
मुझे हँसी छूट रही थी। एक दो बार दबाते-दबाते भी हँसी फूट गई और पास के श्रोताओं ने मुझे डाँटा।
भव्य पुरुष प्रवचन के अंत पर पहुँचते हुए कहने लगे -भाइयों और बहनोंडरो मत। जहाँ अंधकार हैवहीं प्रकाश है। अंधकार में प्रकाश की किरण हैजैसे प्रकाश में अंधकार की किंचित कालिमा है। प्रकाश भी है। प्रकाश बाहर नहीं हैउसे अंतर में खोजो। अंतर में बुझी उस ज्योति को जगाओ। मैं तुम सबका उस ज्योति को जगाने के लिए आह्वान करता हूँ। मैं तुम्हारे भीतर वही शाश्वत ज्योति को जगाना चाहता हूँ। हमारे ' साधना मंदिर ' में आकर उस ज्योति को अपने भीतर जगाओ।साहबअब तो मैं खिलखिलाकर हँस पडा। पास के लोगों ने मुझे धक्का देकर भगा दिया। मैं मंच के पास जाकर खड़ा हो गया।
भव्य पुरुष मंच से उतरकर कार पर चढ रहे थे। मैंने उन्हें ध्यान से पास से देखा। उनकी दाढी बढी हुई थीइसलिए मैं थोडा झिझका। पर मेरी तो दाढी नहीं थी। मैं तो उसी मौलिक रूप में था। उन्होंने मुझे पहचान लिया। बोले -अरे तुम !मैं पहचानकर बोलने ही वाला था कि उन्होंने मुझे हाथ पकड़कर कार में बिठा लिया। मैं फिर कुछ बोलने लगा तो उन्होंने कहा -बँगले तक कोई बातचीत नहीं होगी। वहीं ज्ञानचर्चा होगी।
मुझे याद आ गया कि वहाँ ड्राइवर है।
बँगले पर पहुँचकर मैंने उसका ठाठ देखा। उस वैभव को देखकर मैं थोड़ा झिझकापर तुरंत ही मैंने अपने उस दोस्त से खुलकर बातें शुरू कर दीं।
मैंने कहा -यारतू तो बिलकुल बदल गया।
उसने गंभीरता से कहा -परिवर्तन जीवन का अनंत क्रम है।
मैंने कहा -सालेफिलासफी मत बघार यह बता कि तूने इतनी दौलत कैसे कमा ली पाँच सालों में?”
उसने पूछा -तुम इन सालों में क्या करते रहे?”
मैंने कहामैं तो घूम घूमकर टार्च बेचता रहा। सच बताक्या तू भी टार्च का व्यापारी है?”
उसने कहा -तुझे क्या ऐसा ही लगता हैक्यों लगता है?”
मैंने उसे बताया कि जो बातें मैं कहता हूँवही तू कह रहा था मैं सीधे ढंग से कहता हूँतू उन्हीं बातों को रहस्यमय ढंग से कहता है। अँधेरे का डर दिखाकर लोगों को टार्च बेचता हूँ। तू भी अभी लोगों को अँधेरे का डर दिखा रहा थातू भी जरूर टार्च बेचता है।
उसने कहा -तुम मुझे नहीं जानतेमैं टार्च क्यों बेचूगा ! मैं साधुदार्शनिक और संत कहलाता हूँ।
मैंने कहातुम कुछ भी कहलाओबेचते तुम टार्च हो। तुम्हारे और मेरे प्रवचन एक जैसे हैं। चाहे कोई दार्शनिक बनेसंत बने या साधु बनेअगर वह लोगों को अँधेरे का डर दिखाता हैतो जरूर अपनी कंपनी का टार्च बेचना चाहता है। तुम जैसे लोगों के लिए हमेशा ही अंधकार छाया रहता है। बताओतुम्हारे जैसे किसी आदमी ने हजारों में कभी भी यह कहा है कि आज दुनिया में प्रकाश फैला हैकभी नहीं कहा। क्यों ? इसलिए कि उन्हें अपनी कंपनी का टार्च बेचना है। मैं खुद भर दोपहर में लोगों से कहता हूँ कि अंधकार छाया है। बता किस कंपनी का टार्च बेचता है ?”
मेरी बातों ने उसे ठिकाने पर ला दिया था। उसने सहज ढंग से कहा -तेरी बात ठीक ही है। मेरी कंपनी नयी नहीं हैसनातन है।
मैंने पूछा -कहाँ है तेरी दुकाननमूने के लिए एकाध टार्च तो दिखा। ' सूरज छाप ' टार्च से बहुत ज्यादा बिक्री है उसकी।
उसने कहा -उस टार्च की कोई दुकान बाजार में नहीं है। वह बहुत सूक्ष्म है। मगर कीमत उसकी बहुत मिल जाती है। तू एक-दो दिन रहतो मैं तुझे सब समझा देता हूँ।
'' तो साहब मैं दो दिन उसके पास रहा। तीसरे दिन ' सूरज छाप ' टार्च की पेटी को नदी में फेंककर नया काम शुरू कर दिया।
वह अपनी दाढी पर हाथ फेरने लगा। बोला -बसएक महीने की देर और है। 
'' मैंने पूछा -तो अब कौन-सा धंधा करोगे?”
उसने कहा -धंधा वही करूँगायानी टार्च बेचूँगा। बस कंपनी बदल रहा हूँ।



Comments

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