वैज्ञानिक चेतना और क्रान्तिकारी चेतना
वैज्ञानिक चेतना और क्रान्तिकारी चेतना
कात्यायनी
वैज्ञानिक चेतना जबतक केवल प्रकृति विज्ञान के क्षेत्र में सक्रिय
रहती है, वह मानव जीवन को लगातार उन्नत करने वाली चीज़ों का आविष्कार करती
रहती है। भाप इंजन, रेलवे, आटोमोबाइल, हवाई जहाज, दूरसंचार, कंप्यूटर
आदि से लेकर जीवन रक्षक दवाओं, दर्द निवारक दवाओं, एण्टीबॉयोटिक्स
और अंग प्रत्यारोपण तक --- ऐसी अनगिनत चीज़ें और प्रविधियॉं हैं, जिनके
बिना आज मानव जीवन की कल्प्ना भी नहीं की जा सकती।
वैज्ञानिक चेतना तर्कणा और कारण-कार्य-सम्बन्धों की समझ है जो
पर्यवेक्षण, प्रयोग और सत्यापन की प्रक्रिया से पैदा होती है। यह वैज्ञानिक चेतना
यदि समाज के कुछ उन्नत तत्वों द्वारा आत्मसात कर ली जाती है और वे उसे व्यावहारिक
अहसास और समझ के रूप में जनसमुदाय के मानस में पैठाने में सफल हो जाते हैं तो वह
(जन समुदाय) उसे सामाजिक जीवन के दायरे में भी लागू करता है और प्रगति में बाधक,
अपने
लिए अहितकारी सामाजिक-राजनीतिक ढॉंचे को योजनाबद्ध ढंग से नष्ट करके एक अधिक
तर्कसंगत, न्यायसंगत सामाजिक-राजनीतिक ढॉंचे के निर्माण की सरगर्मियों में जुट
जाता है। लेकिन यह इतना सुगम नहीं होता।
पहली समस्या यह होती है कि वर्गों में बँटे हुए समाज में श्रम-विभाजन
ने मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच के अंतर के जरिए ज्ञान-विज्ञान को
बहुसंख्य्क मेहनतकश जनता से दूर करके मुट्ठी भर विशेष सुविधा प्राप्त बौद्धिकों की निजी सम्पत्ति बना दिया है। यह बौद्धिक वर्ग
ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में पेशे के तौर पर काम करता है। ज्ञान-विज्ञान के
केन्द्र पूँजीवादी समाज में पूँजीपतियों और उनकी सत्ता के
नियंत्रण में होते हैं। वैज्ञानिक और समाज-वैज्ञानिक आम तौर पर इन्हीं
प्रतिष्ठांनों में पगार पर, ठेके पर या कमीशन पर काम करते हैं। उनका
मकसद ज्ञान-विज्ञान के द्वारा व्यापक समाज का हितसाधन और उसकी प्रगति नहीं रह
जाता। वे शासक वर्गों के निर्देश पर, उन्हीं के द्वारा तय किये गये दायरे में
काम करते हैं, उन्हीं की हितपूर्ति के लिए काम करते हैं और बदले में उन्हें आम
मेहनतक़श जनता की अपेक्षा बहुत अधिक सुविधाजनक और सुरक्षित जिन्दगी हासिल होती है।
एक वैज्ञानिक को आम तौर पर इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि उसके आविष्कार से बनी
दवा या बायोजेनेटिक तकनोलॉजी से पूरे समाज को निर्बाध लाभ नहीं पहुँचेगा, बल्कि
आर्थिक हैसियत के हिसाब से लाभ का बँटवारा होगा, क्योंकि पूँजीपति
हर आविष्कार का इस्तेमाल जनहित के लिए नहीं, बल्कि मुनाफा
कूटने के लिए करता है। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि दुनिया के पूँजीपति और
बुर्जुआ राज्य सत्ताऍं उसी तकनोलॉजी के सहारे महाविनाशकारी युद्धास्त्रों का निर्माण करती हैं, जिस तकनोलॉजी से जीवन को बहुत अधिक सुगम
और उन्नत बनाया जा सकता है। उसे इस बात से भी मतलब नहीं होता कि मुनाफे की गलाकाटू
होड़ में लगे पूँजी घराने और राष्ट्र कई वैज्ञानिक खोजों को उत्पादन के अमली स्तर
तक आने ही नहीं देते और पूँजीवादी बाज़ार में इजारेदारी के दौर में विज्ञान और
तकनोलॉजी के विकास के पैरो में भी भारी जंजीरें पड़ गयी हैं। वह बस पगार लेता है
और पूर्वनिर्धारित परियोजनाओं का मशीनी पुर्जा बनकर काम करता रहता है। वैज्ञानिक
प्रगति का उत्स सामाजिक आवश्यकता है। विज्ञान की इस मूल प्रकृति की समझ खोकर वैज्ञानिक
स्वयं अपनी वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि खो देता है और एक मिथ्या चेतना और विघटित
सामाजिक व्यंक्तित्व वाला व्यक्ति बन जाता है। अपने क्षेत्र-विशेष में अलग-थलग,
विखंण्डित
वैज्ञानिक तर्क को लागू करते हुए शोध और आविष्कार करता रहता है, लेकिन
जीवन में चर्च-मन्दिर, पादरी-पुरोहित, व्रत-पूजा आदि के मिथ्याचारों में भी
फँसा रहता है। जीवन में वह स्वयं ''अदृश्य शक्तियों'' के इशारे पर नाचता
रहता है और इसी स्थिति का औंधा परावर्तन उसके मानस में होता है जो उसे धार्मिक और
अंधविश्वासी बनाता है।
एक समाज-वैज्ञानिक के साथ तो स्थिति और भी जटिल एवं विडम्बनापूर्ण
होती है। बुर्जुआ समाज में शुरू से आखिर तक समाज-विज्ञान और मानविकी की सभी शाखाओं
में जो शिक्षा दी जाती है, वह चीज़ों को शासक वर्गों के हितों को
ध्यान में रखकर देखने के लिए हमारे दिमाग को प्रशिक्षित और अनुकूलित करती है।
बुर्जुआ समाज-विज्ञान में सामाजिक यथार्थ का औंधा और विरूपित परावर्तन होता है।
इसकी औसत समझ वाले विद्यार्थियों की भारी संख्या पूँजीवादी
समाज-व्यवस्था में क्लर्क, प्राथमिक-माध्यमिक स्कूल मास्टर, सुपरवाइजर-मैनेजर,
सरकारी
अफसर आदि-आदि के रूप में व्यवस्थित हो जाती है। एक छोटी-सी संख्या उच्च अकादमिक संस्थाओं में पहुँचती है। इन्हीं के बीच से पूँजीवादी
व्यवस्था के नीति-निर्माता, सिद्धान्तकार, रणनीतिविद्,
राजनीतिक
प्रतिनिधि, नौकरशाही के प्रशिक्षक, प्रचारक और प्रवक्ता आगे आते हैं। इनमें
से कोई ''प्रगतिशील'' और सुधारवादी होता है, कोई
व्यवहारवादी, कोई परंपरावादी --- लेकिन सभी शासक वर्ग के हितों को ही कमान में
रखकर काम करते हैं। शिक्षा स्वयं उनके दिमाग को इस प्रकार अनुकूलित कर चुकी होती
है कि उनका चिन्तन इस व्यवस्था की सीमा का अतिक्रमण कर ही नहीं सकता। अतीत की
क्रान्तियों का इतिहास वे जानते और पढ़ते-पढ़ाते हैं लेकिन भविष्य की किसी सामाजिक
क्रान्ति और जनता की सामूहिक सर्जनात्मकता के मूर्त रूपों के प्रति उनका रत्ती भर
भी भरोसा नहीं होता। यही वे बुद्धिजीवी होते हैं जो आर्थिक-सामाजिक शोध-संस्थानों,
विश्वविद्यालयों,
सांस्कृतिक
प्रतिष्ठानों, साम्राज्यवादी वित्तपोषित स्वयंसेवी संगठनों के शोध-अध्ययन एवं
नीति-निर्धारण केन्द्रों , मंत्रालयों की विशेषज्ञ एवं सलाहकार
समितियों, सरकार और पूँजीवादी घरानों के प्रिण्ट मीडिया एवं इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया की नीति और दिशा तय करने वाले नियंत्रण-कक्षों में अपनी सेवा देते हैं और
सुविधा का मेवा पाते हैं। इस वर्ग के बिना पूँजीवादी राजनीतिक तंत्र चल ही नहीं
सकता। शासक वर्ग का राजनीतिक-सांस्कृतिक वर्चस्व इसी के माध्य्म से स्थापित होता
है। यानी यही वर्ग तरह-तरह से जनसमुदाय को यह मिथ्या चेतना देता है कि मौजूदा
व्यवस्था में चाहें जो भी बुराइयॉं हों, इसका
कोई अन्य विकल्प संभव नहीं, अत: सुधारों से
आगे किसी आमूलगामी बदलाव के बारे में सोचना बेवकूफी है और यह भी कि सुधारों की
गुंजाइश अभी है। इस शिक्षा एवं प्रचार से प्रभावित आम जनता बुर्जुआ वर्गों को अपने
ऊपर शासन करने के लिए प्रकारान्तर से सहमति प्रदान कर देती है, क्योंकि
उसे लगता है कि दूसरा कोई विकल्प संभव ही नहीं।
शासक वर्गों के वर्चस्व का यही मूल अर्थ होता है।
इन वैज्ञानिकों और समाज वैज्ञानिकों में एक छोटी सी संख्या ऐसे
संवेदनशील, न्यायप्रिय और जनपक्षधर लोगों की होती है, जो अपने विशिष्ट
व्यक्तिगत इतिहास से पैदा हुए मनोगत कारकों के चलते वैज्ञानिक तर्कणा को उसकी सहज
परिणति तक पहुँचाने में सफल हो पाते हैं। ऐसे लोग पैबन्दसाजी की मानसिकता से मुक्त
हो जाते हैं, पूँजीवाद की सीमाओं को समझने लगते हैं और उसके अतिक्रमण की जरूरत भी
अनुभव करने लगते हैं। फिर भी सुख-सुविधा-सुरक्षा की वर्गीय कमजोरी और अपने सामाजिक
सरोकारों के लिए जोखिम उठाने की अलग-अलग सीमाओं की कमज़ोरी के चलते ऐसे बौद्धिक जन
स्वयं को व्यवस्था परिवर्तन के काम में पूरी तरह से झोंक नहीं पाते। लेकिन इसी
व्यवस्था के बौद्धिक-अकादमिक-सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों के सापेक्षत: अधिक जनवादी
माहौल में जीते हुए ऐसे लोग जनसमुदाय को विविध रूपों में वैज्ञानिक तर्कणा और
इतिहास-बोध से लैस करने का काम किसी न किसी हद तक करते रहते हैं और अपनी प्रगतिशील,
जनपक्षधर
भूमिका का निर्वाह करते रहते हैं। समस्या तब उठ खड़ी होती है जब अकादमिक जगत में
सक्रिय ऐसे समाज वैज्ञानिक इतिहास की सामाजिक क्रान्तियों की समालोचना और समाहार
करने बैठ जाते हैं और क्रान्ति के विज्ञान में इजाफा करने का मुग़ालता पाल बैठते
हैं। लेनिन ने एक बार कहा था कि जनता का उद्देश्य जब प्रोफेसरों को सौंप दिया जाता
है तो उसकी विफलता सुनिश्चित हो जाती है। क्रान्ति का सिद्धान्त केवल क्रान्तिकारी व्यवहार से ही पैदा और विकसित हो सकता है।
क्रान्ति में संलग्न क्रान्तिकारियों का सक्षम नेतृत्व ही
क्रान्ति के विज्ञान को विकसित कर सकते हैं। प्रोफेसर चाहें जितने भी प्रगतिशील और
ईमानदार हों, एक पेशेवर बुद्धिजीवी के तौर पर वे केवल क्रान्तियों के इतिहास और
विज्ञान की व्याख्या कर सकते हैं। क्रान्ति के विज्ञान को विकसित करने के लिए
उन्हें स्वयं क्रान्ति कर्म में सक्रिय रूप से जुटना होगा, स्वयं एक
क्रान्तिकारी बनना होगा।
बुद्धिजीवियों की यह फितरत होती है कि क्रान्तियों के विजय और सफलता
के दौर में वे उनकी जटिल समस्याओं, चुनौतियों और खतरों की अनदेखी करते हुए
अतिआशावादी भावविह्वलता के साथ प्रशंसा और स्तुति में जुट जाते हैं तथा पराजय और
प्रतिक्रान्तियों के दौर में उन्हें अतीत की क्रान्तियों में सबकुछ गलत ही गलत
दीखने लगता है और तरह-तरह के सन्दर्भ-परिप्रेक्ष्य रहित मिथ्याभासी तर्कों और
इतिहास के पूर्वाग्रहपूर्ण ढंग से चयनित या बुर्जुआ स्रोतों से परोसे गये तथ्यों के आधार पर वे क्रान्तियों की उपलब्धियों को सिरे से खारिज करने में
लग जाते हैं। जो ऐसा नहीं करते, वे भी तमाम वैज्ञानिक तर्कणा और
अध्ययन-अनुशीलन के बावजूद, जबतक क्रान्ति की लहर विजयोन्मुख नहीं
होती, तबतक, अपने सहज वर्ग-संस्कार के चलते सामाजिक जनवाद, संशोधनवाद और
सुधारवाद के प्रति विभ्रम पाले रहते हैं। क्रान्ति के बजाय शान्तिपूर्ण संक्रमण से
जीवन की बेहतरी की उम्मीद उन्हें सुकूनतलब लगता है। वे इसके पक्ष में स्वयं अपने
को कन्विंस करते रहते हैं और इसके लिए सैद्धान्तिक तर्क गढ़ते रहते हैं। लगातार
ऐसा करते हुए इनका एक हिस्सा मनोगत तौर पर पतित
भी हो जाता है और सत्ता प्रतिष्ठानों और एन.जी.ओ. में नीति निर्माता की भूमिका
निभाते हुए व्यवस्था के खूनी दामन के दाग़ों को धोने में लग जाता है।
ऐसे तमाम सुधारवादी-उदारवादी बुद्धिजीवी बुर्जुआ जनवाद को आदर्श रूप
में देखना चाहते हैं और यह मिथ्या उम्मीद पाले रहते हैं कि बुर्जुआ वर्ग को
समझा-बुझाकर, दबाव बनाकर, ''अच्छे लोगों'' की सरकार बनाकर
संविधान और बुर्जुआ न्याय संहिता में उल्लिखित आदर्शों को अमली जामा पहनाने के
लिए तैयार किया जा सकता है। ऐसे लोग फासीवाद से नफरत तो करते हैं, लेकिन
इतिहास की शिक्षाओं की अनदेखी करते हुए, यह सोचते रहते हैं कि व्यापक मेहनतक़श
जनता को लामबन्द करके फासीवाद के विरुद्ध सड़कों पर आर-पार की लड़ाई लड़े बिना ही
उसे शिकस्त दी जा सकती है। इसके लिए वे प्रतीकात्मक विरोध-प्रदर्शन करते हैं,
विभिन्न
बुर्जुआ तत्वों के साथ मोर्चे बनाते रहते हैं और सोचते रहते हैं कि चुनाव में यदि
फासीवादी पार्टी हार जाये तो फासीवाद के संकट से छुटकारा मिल जायेगा। ऐसे लोग
पूँजीवाद का विरोध किये बिना फासीवाद का विरोध करना चाहते हैं। क्रान्तिकारी
संघर्षों का जोखिम मोल लिए बिना वे फासीवाद से निजात पा जाना चाहते हैं। फासीवाद
का विरोध वे बुर्जुआ जनवाद की ज़मीन पर खड़े होकर करते हैं, न कि समाजवाद की
ज़मीन पर खड़े होकर ।
भारत के जो ज्यादातर वामपंथी और प्रगतिशील बुद्धिजीवी हैं, उनकी
आज यही स्थिति है।
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