एक अँधेरे समय में न्गूगी का जाना
एक अँधेरे समय में न्गूगी का जाना
कात्यायनी
अफ्रीका के महान जनपक्षधर लेखक न्गूगी वा थ्योंगो नहीं रहे। विगत 28
मई को
87 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
न्गूगी के लेखन की वैचारिकी पर पैट्रिस लुमुम्बा, अमिल्कर
कबराल, नेग्रीट्यूड आन्दोलन के प्रवर्तक एमी सेज़ायर और लियोपोल्ड सेंघोर
तथा फ्रांज फैनन का काफ़ी हद तक प्रभाव दिखता है। उन्हें आम तौर पर एक मार्क्सवादी
ही माना जाता है लेकिन कुल मिलाकर वह एक 'पैनअफ्रीकनिस्ट' क्रान्तिकारी
वामपंथी थे। साम्राज्यवाद के राजनीतिक -सांस्कृतिक वर्चस्व के बारे में उनके
विचारों पर यहाँ-वहाँ उत्तर-उपनिवेशवाद की वैचारिकी की भी प्रभाव-छायाएँ दिखती हैं
लेकिन जैसा कि महान लेखकों के साथ प्रायः होता है, उनके
विचारधारात्मक अंतरविरोधों का अतिक्रमण करते हुए उनका लेखन मुख्यतः, अकुण्ठ
रूप से न केवल साम्राज्यवाद-विरोधी है, बल्कि उस देशी बुर्जुआ वर्ग की भ्रष्ट और
निरंकुश दमनकारी सत्ता का भी विरोध करता है जो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपने
रैडिकल राष्ट्रवादी चरित्र को त्यागकर कालान्तर में साम्राज्यवादी शक्तियों का 'जूनियर
पार्टनर' बन गया था।
न्गूगी ताज़िन्दगी साम्राज्यवाद और पूंँजीवाद के विचारधारात्मक,
राजनीतिक
और सांस्कृतिक वर्चस्व के विरुद्ध अपनी लेखनी को हथियार बनाकर लड़ते रहे। अफ्रीकी
जनसमुदाय के सामाजिक जीवन, संस्कृति और आत्मिक जगत का सजीव परावर्तन
हमें उनकी रचनाओं में देखने को मिलता है। और बेशक़, ताज़िन्दगी वह
इसकी क़ीमत भी चुकाते रहे। उनकी पूरी ज़िन्दगी जेल, यंत्रणा, निर्वासन
की और हत्या तक की कोशिशों से बच निकलने की एक लम्बी कहानी है।
न्गूगी के क्रान्तिकारी यथार्थवाद की कुछ वैसी ही अफ्रीकी देशज
विशिष्टताएँ हैं जैसे मारखेज के क्रान्तिकारी यथार्थवाद हमें लातिन अमेरिकी
रंग-गंध रचा-बसा नज़र आता है। इतना तय है कि बीसवीं शताब्दी की दुनिया के महान
क्रान्तिकारी साहित्य की वैश्विक धरोहर में न्गूगी की उपस्थिति में शायद ही किसी
को सन्देह हो।
न्गूगी का पहला बहुचर्चित और पुरस्कृत उपन्यास 'वीप
नॉट, चाइल्ड' एक गिकुयू परिवार की कहानी कहता है जो आपातकाल और माउ माउ विद्रोह के दौरान केन्याई स्वाधीनता संग्राम के प्रवाह में शामिल हो जाता है।
1965 में प्रकाशित उनका दूसरा उपन्यास 'द रिवर बिटवीन', जो सबसे पहले
लिखा गया था लेकिन प्रकाशित बाद में हुआ, अलग हो जाने वाले एक प्रेमी जोड़े की
कहानी बयान करते हुए ईसाइयत और औपनिवेशिक संस्कृति के साथ पारम्परिक जीवन पद्धति
और विश्वासों के टकराव का प्रामाणिक चित्रण प्रस्तुत
करता है। 1967 में प्रकाशित 'अ ग्रेन ऑफ़ ह्वीट' कला की दृष्टि से अपेक्षतया अधिक परिपक्व उपन्यास था जो स्वतंत्रता
संघर्ष और उसके बाद के समय के दौरान के विभिन्न सामाजिक, नैतिक और नस्ली
मुद्दों पर केन्द्रित था। 1971 में प्रकाशित जिस उपन्यास ने न्गूगी को
पश्चिमी साहित्यिक जगत में चर्चा के केन्द्र में ला दिया था, वह था
'पेटल्स ऑफ़ ब्लड'! इस उपन्यास में स्वाधीनता-प्राप्ति के
बाद पूर्वी अफ्रीकी देशों में उभरी सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का, विदेशी
कम्पनियों द्वारा जारी किसानों और मज़दूरों के शोषण-उत्पीड़न का तथा भ्रष्ट,
लोलुप
और निरंकुश देशी बुर्जुआ वर्ग का विशद चित्रण प्रस्तुत किया गया है।
न्गूगी का मानना था कि उपनिवेशवादियों ने उपनिवेशों की जनता के
मानसिक उपनिवेशन के लिए और अपने विचारधारात्मक -राजनीतिक-सांस्कृतिक वर्चस्व को
मजबूत बनाने के लिए भाषा का एक हथियार केवल रूप में इस्तेमाल किया, देशी
भाषाओं को पिछड़ा और हीन बताते हुए पराधीनों पर अपनी भाषा को थोपा और उनके बीच से
अपने विश्वस्त सहयोगी के रूप में एक मध्यमवर्गीय अभिजन बौद्धिक समाज पैदा किया जो
अपने औपनिवेशिक स्वामियों की भाषा पढ़ता-बोलता था और श्रेष्ठता बोध से ग्रस्त रहता
था जबकि आम लोग उस भाषा को लेकर हीनता-ग्रंथि से ग्रस्त रहते थे। भाषा के जरिए
मानसिक उपनिवेशन की यह प्रक्रिया उत्तर-औपनिवेशिक काल में भी जारी रही और
नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के वर्तमान दौर में भी जारी है। अधिकांश भूतपूर्व
उपनिवेशों में शासन, उच्च शिक्षा, शोध, ज्ञान-विज्ञान की
भाषा मुख्यतः पुराने उपनिवेशवादी शासकों की ही भाषा है और यह धारणा जनमानस में आज
भी गहराई से पैठी हुई है कि उच्च संस्कृति और चिन्तन तो पश्चिमी देशों की भाषाओं
में ही हो सकता है। ऐसे सभी देशों में अभिजन समाज के विशेषाधिकारों को और विशेष
सामाजिक हैसियत को सुरक्षित बनाने में यूरोपीय भाषाओं में उनकी शिक्षा -दीक्षा की
विशेष भूमिका होती है। न्गूगी ने मानसिक उपनिवेशन की इस सांस्कृतिक समस्या के हर
पहलू पर और इसमें भाषा की भूमिका पर लगातार लिखा और विपुल मात्रा में लिखा। आगे
चलकर, अपने विश्वास और प्रतिबद्धता को ख़ुद अपने व्यवहार में उतारते हुए
अपने रचनात्मक लेखन के माध्यम के तौर पर उन्होंने अंग्रेजी का परित्याग कर दिया और
अपनी मातृभाषा गिकुयू में लिखना शुरू कर दिया। अब उनकी रचनाएँ पहले गिकुयू में
लिखी जातीं थीं और छपती थीं और फिर उसके बाद अंग्रेज़ी में अनूदित होकर छपतीं थीं।
गिकुयू भाषा में लिखे गये और फिर अंग्रेज़ी में अनूदित होकर छपे अपने
उपन्यास 'डेविल ऑन द क्रॉस' (1980) में न्गूगी ने अपने देश-काल के
सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ को एक तरह की रूपकीय शैली में, कुछ-कुछ पारम्परिक
गाथागीत गायकों की याद दिलाने वाली शैली में, प्रस्तुत किया है
। यथार्थ और फंतासी की बुनावट करते हुए इसमें शैतान के साथ उन विभिन्न प्रकार के
खलनायकों की मीटिंग का ब्यौरा पेश किया गया है जो ग़रीबों का शोषण करते हैं। 1986
में
प्रकाशित न्गूगी का बहुचर्चित उपन्यास 'मातीगारी'
उत्तर-औपनिवेशिक
केन्याई समाज के
पूँजीवाद पर और नये आर्थिक अभिजन समाज में व्याप्त धार्मिक पाखण्ड और भ्रष्टाचार
को बेहद तीखे ढंग से निरावृत करता है। । न्गूगी का अंतिम उपन्यास 'विज़र्ड
ऑफ़ द क्रो' (2004) उपनिवेशवाद की विरासत को व्यंग्य और फंतासी के दोहरे लेंसों से देखते
हुए उसके सारतत्व को उद्घाटित करने की कोशिश करता है। वह इसकी परिणति को केवल देशी
बुर्जुआ वर्ग की निरंकुश तानाशाह सत्ता के रूप में ही नहीं देखता बल्कि उस
संस्कृति में भी देखता है जिसका आमूलगामी रूपांतरण विऔपनिवेशीकरण के रूप में नहीं
हुआ है, बल्कि इस नयी देशी बुर्जुआ संस्कृति में साम्राज्यवादी संस्कृति के
तत्वों के अतिरिक्त औपनिवेशिक अतीत के सांस्कृतिक तत्व भी संघटक अवयव के रूप में
मौजूद हैं।
न्गूगी ने उपन्यासों के अतिरिक्त कई नाटक भी लिखे और पाठकों में
लोकप्रिय होने के साथ ही वे अफ्रीकी देशों के अतिरिक्त यूरोप-अमेरिका में भी मंचित
हुए। लेकिन इनके चलते न्गूगी को सत्ताधारियों का कोपभाजन भी होना पड़ा। केन्याई
बुर्जुआ समाज के ताकतवर लोगों के जीवन में व्याप्त नैतिक अध:पतन, सांस्कृतिक
खोखलेपन, पाखंड और संकीर्णता पर चोट करने वाले नाटक 'आइ विल मैरी ह्वेन
आइ वांट' (1977) के मंचन के बाद न्गूगी को बिना किसी मुकदमे के एक साल तक जेल में दिन
बिताने पड़े। जेल के इन अनुभवों पर केन्द्रित उनकी पुस्तक 'डिटेन्ड: अ
राइटर्स प्रिज़न डायरी' 1981 में प्रकाशित हुई।
साहित्य, संस्कृति, भाषा और राजनीति के विविध प्रश्नों पर न्गूगी ने प्रचुर मात्रा में
लिखा और भाषण दिये। इनमें से अधिकांश 'होमकमिंग' (1972), 'राइटर्स
इन पॉलिटिक्स' (1981), 'डीकोलोनाइज़िंग द माइण्ड : पॉलिटिक्स ऑफ़ लैंग्वेज इन अफ़्रीकन
लिटरेचर' (1986), बैरल ऑफ़ अ पेन'(1983), मूविंग द सेंटर'(1993) और 'पेनप्वाइंट्स,
गनप्वाइंट्स
एण्ड ड्रीम्स'(1998) संकलनों में मौजूद हैं।
आज साम्राज्यवाद के नवउदारवादी दौर में हम विश्व स्तर पर धुर-दक्षिणपंथी और फ़ासिस्ट उभारों के साक्षी हो रहे हैं।
ऐसे अंधकारमय दौर में दमनकारी सत्ताओं के विरुद्ध वर्ग संघर्ष के सांस्कृतिक
मोर्चे के सिपाही सिर्फ़ वही लेखक और संस्कृतिकर्मी हो सकते हैं जिनमें न्गूगी
जैसी समझौताहीनता और साहस हो, जो न्गूगी की तरह ही अपने समाज की नब्ज़
महसूस करते हों और जो न्गूगी की ही तरह सच्चे अर्थों में जनता के आदमी हों। बेशर्म
समझौतों, घिनौने दोहरेपन, गलीज कायरता के घटाटोप में कितने
कवि-लेखक-संस्कृतिकर्मी हैं जो न्गूगी की तरह जीने और लिखने की कुव्वत रखते हैं?
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