आज के दौर में नौजवानों से चंद बातें ...
आज के दौर में नौजवानों से चंद बातें ...
कविता कृष्णपल्लवी
ये बातें "बुद्धि" और व्यावहारिकता के अपच-गैस से पीड़ित
लोगों, या महज
"वाद-विवाद-संवाद" का आनंद लेने वाले 'खलिहर' निठल्लों या बाल की खाल निकाल
कर ढोलक छवाने वाले गुणी जनों के लिए नहीं हैं। घोंसलावादी
"सद्गृहस्थों" के लिए भी नहीं हैं। अगर आप थोड़ा लीक से हटकर चलने के
बारे में सोचते हैं, अगर आप दुनिया बदलने के सपने और परियोजना के बारे में कुछ
सोचते-विचारते हैं, अगर आपकी आत्मा यथास्थिति के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए बीच-बीच में
तड़प उठती है, अगर आपके दिल में आम मेहनतक़श अवाम के
जीवन, सपनों,
संघर्षों और मिशन के
साथ एकरूप हो जाने का काव्यात्मक विचार कभी-कभी आता हो और
यह लगता हो कि आपके कलेजे में इतना दम है, तभी यह टिप्पणी पढ़िएगा। अन्यथा रहने ही दीजिएगा।
आपसे न हो सकेगा।
कल, यानी 5 मई को, कार्ल मार्क्स का जन्मदिन है। नई सदी में विश्व पूँजीवाद दीर्घकालिक मंदी और
ठहराव की जिस दुश्चक्रीय निराशा से गुज़र रहा है, उसने सिद्ध कर दिया है कि मार्क्स की
ऐतिहासिक भविष्यवाणी सही थी I मार्क्स-एंगेल्स और उनके महान उत्तराधिकारी लेनिन,
स्तालिन और माओ अपने
समय से भी कहीं अधिक प्रासंगिक हमारे आज के समय में सिद्ध हो रहे हैं। अगर
सर्वहारा वर्ग पूँजीवाद की क़ब्र खोदने के अपने ऐतिहासिक मिशन को पूरा नहीं करेगा
तो दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में जारी विनाशकारी युद्ध और गृहयुद्ध, फासिस्ट ताक़तों के
उभार और मुनाफ़े की अंधी हवस के चलते हो रही पर्यावरण की भयंकर तबाही के चलते यह
सदी बीतते-बीतते मानव सभ्यता का अंत हो जाएगा।
मनुष्यता को बचाने का एक ही विकल्प है : कार्ल मार्क्स की "वापसी", उनके महान क्रांतिकारी उत्तराधिकारियों की, विशेषकर लेनिन की "वापसी"। मेरा मतलब अवतारवाद से नहीं है, बल्कि मार्क्सवाद के तमाम अकादमिक और सामाजिक जनवादी और संशोधनवादी विकृतियों को सिद्धांत और व्यवहार में एकदम ध्वस्त करके मार्क्सवाद की क्रांतिकारी अंतर्वस्तु के प्राधिकार को फिर से स्थापित करने से है। बर्नस्तीनों, काउत्स्कियों, ख्रुश्चेवों, देंगों और भारत के संसदीय जड़वामन भाकपा-माकपा-भाकपा (मा-ले) टाइप पार्टियों, या स्वयंभू "माओवादी" "वामपंथी" दुस्साहसवादी कठमुल्लों के बूते की यह बात ही नहीं है कि वे मार्क्सवाद की क्रांतिकारी और वैज्ञानिक अंतर्वस्तु के पुनरुत्थान के -- एक नए सर्वहारा पुनर्जागरण और नए सर्वहारा प्रबोधन के ऐतिहासिक कार्यभार के -- वाहक बन सकें। कुलकों की पालकी ढोते हुए नरोदवाद का 'कच्छा-कड़ा-कृपाण' धारण करते और राष्ट्रवाद का परचम उठाकर छोटे बुर्जुआओं से गलबहियाँ डाले दलदल की ओर विपथगमन करते मूढ़मति, हठी, कठमुल्ले "क्रांतिकारी" वामपंथी भी यह नहीं कर सकते।
आज के फासिस्ट कराल दुष्काल में, हम तो सीधे भारत के ईमानदार, संवेदनशील, जागरूक युवाओं से
पूछना चाहते हैं कि उन्हें लम्बी-चौड़ी आदर्शवादी बातें बघारने के बाद अंततोगत्वा
एक सुरक्षित घोंसला बनाने के लिए इसी सिस्टम का पुर्जा बन जाना है; तूफानी गरुड़ के बारे
में कविताएँ पढ़ने के बाद आँगन की मुर्गी की तरह फुदक-फुदककर जीना है; या फिर
मार्क्स-एंगेल्स, लेनिन, माओ के रास्ते पर चलना है, भगतसिंह के रास्ते पर चलना है। इतिहास की आवाज़
सभी कानों को नहीं सुनाई पड़ती। जिन कानों को सुनाई पड़ती है, उन्हें तय करना होगा कि क्या वे भविष्य की
इमारत की नींव के पत्थर बनने के लिए तैयार हैं ? जो लोग श्रम और पूँजी के शिविरों के बीच
जारी विश्व-ऐतिहासिक महासमर के मात्र प्रथम चक्र में श्रम के शिविर की पराजय से
निराश हो गए हैं और पूँजीवाद को ही 'इतिहास का अंत' मान बैठे हैं, उन्हें रुककर ज़रा यह सोचना चाहिए कि
मार्क्स के जीवन-काल में न कोई समाजवादी देश था, न ही अभी सर्वहारा वर्ग के व्यापक आधार
वाले क्रांतिकारी संगठन ही उठ खड़े हुए थे I मज़दूर आन्दोलन में वैज्ञानिक समाजवाद से
अधिक तरह-तरह के अराजकतावादी और सुधारवादी-अर्थवादी विचारों का बोलबाला था I
मार्क्स के कठिन
जीवन के बारे में क्या कहें। अगर आप नहीं जानते तो उनकी कोई प्रामाणिक जीवनी ज़रूर
पढ़ लीजिये। इन हालात में भी 1844 के आसपास से लेकर अपनी अंतिम साँस तक
मार्क्स इस विश्वास पर अडिग रहे कि मानवता का भविष्य केवल कम्युनिज्म ही हो सकता
है, जिस
मंजिल तक दुनिया समाजवाद के लम्बे संक्रमण काल और तमाम चढ़ावों-उतारों के बाद
पहुँचेगी। उनकी कृतियों से सैकड़ों ऐसे उद्धरण ढूँढ़कर निकाले जा सकते हैं जो
मार्क्स के इस अटूट विश्वास को कहीं काव्यात्मक तो कहीं वैज्ञानिक-दार्शनिक
अभिव्यक्ति देते हैं।
नौजवान साथियो। आज के फासिस्ट कराल दुष्काल में मार्क्स को पढ़िए,
लेनिन को पढ़िए,
स्तालिन और माओ को
पढ़िए, बीसवीं
सदी की सर्वहारा क्रांतियों के बारे में पढ़िए। फिर अगर कलेजे में दम हो तो आइये,
हम अपने विचार बताते
हैं और आठ-दस दिनों तक बैठकर विचार-मंथन करते हैं कि इक्कीसवीं सदी में अक्टूबर
क्रान्ति के नए संस्करणों के निर्माण की दिशा क्या होगी, स्वरूप क्या होगा, रास्ता क्या होगा और एक नयी शुरुआत कहाँ
से और कैसे की जाए। मैं यह बात विशेष तौर पर उन नौजवानों से कह रही हूँ जिनके
अन्दर 'लकीर की
फकीरी' और ;स्व' से मुक्त होने का दम
है। 'आँगन की
मुर्गियाँ', 'इतिहास के अंत' पर और समाजवाद की "मृत्यु" पर छाती
पीटती रुदालियाँ, शब्दवीर कुर्सीतोड़ "चिन्तक", लिब्बू और चोचल ढेलोक्रैट इस टिप्पणी न
पढ़ें और अगर पढ़ें भी तो भूल जाएँ। उनसे बात करने की जगह मज़दूर इलाके की किसी
टपरी में बैठकर चाय पीना और गप्प करना मैं ज्यादा पसंद करूँगी। अगर अपनी सोच को
व्यवहार में उतारने का दम हो तो संवाद करो, नहीं तो रास्ता नापो। बात करें साफ़।
अंत में मैं मार्क्स की 'प्रोमेथियन स्पिरिट' पर वर्षों पहले लिखी अपनी टिप्पणी दे रही
हूँ, यह
सोचकर कि इस अमानवीयता, स्वार्थ, निराशा, दुनियादारी, वाचाल दोमुंहेपन और व्यक्तिवाद के समय
में भी कुछ नौजवान तो ऐसे होंगे ही जिनकी आत्मा को झकझोरा जा सकता है, जिनकी रातों की नींद
हराम की जा सकती है और जिन्हें सिद्धांत और व्यवहार की दुनिया में निर्भीक गरुड़ की
तरह उड़ान भरने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।
*
मार्क्स की जिस 'प्रोमेथियन स्पिरिट' की बात अक्सर की जाती है वह तो छात्र-जीवन
में ही उनमें घर कर चुकी थी। "सच तो यह है कि मैं देव-मंडली से घृणा करता
हूँ"-- प्रोमेथियस की इस साहसी गर्वोक्ति के अनुरूप मार्क्स न केवल सभी
"सांसारिक देवताओं" से युवावस्था में ही घृणा करने लगे थे, बल्कि निरंकुश
सत्ताधारियों के नीच चाकरों को "डरपोंक खरगोश" कहकर उन्हें चुनौती भी
देने लगे थे। सरकारी नौकरी के प्रस्ताव को उन्होने प्रोमेथियस के ही अंदाज़ में
गर्वीले ढंग से ठुकरा दिया ;
"दुर्भाग्य के बदले में कर लूँ मैं
चाकरी
जान लो अच्छीतरह, यह हो नहीं सकता।
पिता जीयस का बन जाऊँ खिदमतगुज़ार?
बेहतर है इससे, चट्टान से बंधा रहूँ।
"
(मार्क्स : 'प्रकृति के डेमोक्रिटियन और एपीक्यूरियन दर्शन
के बीच अंतर')
मार्क्स के अत्यधिक साहसी सत्ता-विरोधी और "वामपंथी" होते
जा रहे रुख से उनके ब्रूनो बावेर जैसे वे तरुण हेगेलपंथी दोस्त भी घबराने लगे थे
जो सिद्धान्त के क्षेत्र में साहस की डींगें मारा करते थे। ब्रूनो बावेर ने
मार्क्स से यह अनुरोध किया था कि वे अपने शोध-प्रबंध की चुनौती भरी प्रस्तावना का
स्वर नरम कर दें और प्रतिक्रियावादी मंत्री एइखहोर्न से माफी मांग लें। उन्होने
मार्क्स को दार्शनिक संघर्षों में सतर्क रहने और सरकार की आलोचना से बाज आने की
सलाह दी जिसे मार्क्स ने कंधे उचकाकर हवा में उड़ा दिया।
युवा एंगेल्स तब मार्क्स के संपर्क में आ चुके थे और दुनिया की महानतम
मैत्रियों में से एक की शुरुआत हो चुकी थी। एंगेल्स ने भी मार्क्स की तरह
युवावस्था में काव्य-प्रयोगों में कुछ हाथ आजमाये थे। 1841 में उन्होने 'विश्वास की विजय' नामसे एक कविता लिखी थी जिसकी शुरू की चार
पंक्तियों में ब्रूनो बावेर का एक व्यंग्यचित्र है और फिर कविता में मार्क्स का
प्रवेश होता है एक दुर्द्धर्ष योद्धा के रूप में :
"बक रहा है तैश में वह मरियल शैतान-सा सब्ज़पोश,
कुटिल चेहरे पर है उसके क्रोध, अशांति और जोश।
बाइबिल पर एतराज़ों का है एक सैलेरवां
हाथ में परचम लिए करता है सैरे-आसमां।
और फिर तूफान की मानिंद ये कौन आ
गया ?
त्रियेर का बाशिंदा, काले बाल, गुस्से से भरा
उसकी आमद जैसे एक पर्वत-सा हो आ फटा ,
जिसकी आँखों से टपकता है उन्मत्त हौसला।
हाथ बेबाकी से हैं कुछ इसतरह आगे बढ़े ,
फेंक देगा आसमानों की तनाबें नोचके।
"
इस अंधेरे समय में हमारे देश के प्रबुद्ध युवाओं को भी सोचना ही होगा
कि उन्हें माँद में रहने वाले 'डरपोंक खरगोश' जैसे सुरक्षावादी बुद्धिजीवियों का जीवन
चुनना है या प्रोमेथियन स्पिरिट में एक तूफानी जीवन जीना है, हरजगह अन्याय के
खिलाफ मोर्चा लेते हुए और मुक्ति-मार्ग का संधान करते हुए।
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