घरेलू हिंसा के संरचनागत पक्ष पर कुछ बातें संक्षेप में

घरेलू हिंसा के संरचनागत पक्ष पर कुछ बातें संक्षेप में

कविता कृष्णपल्लवी

घरेलू हिंसा के सवाल को मैं थोड़े व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखती हूँ। दरअसल, विवाह या परिवार जैसी संस्थाओं की मूल प्रकृति ही पितृसत्तात्मक है और प्रागैतिहासिक वर्ग-समाजों से लेकर पूँजीवाद के युग तक -- परिवार वर्ग-समाज का एक बुनियादी स्तम्भ रहा है। यह वर्ग और जेंडर से सम्बंधित जड़ीभूत संस्कारों और पूर्वाग्रहों का प्रशिक्षण-केंद्र है जहाँ स्त्री को वफ़ादार, आज्ञाकारी गुलाम बनने का और पुरुष को कुशल, मक्कार या दमनकारी शासक बनने का प्रशिक्षण दिया जाता है। जिन परिवारों में खुले तौर पर स्त्रियाँ घरेलू हिंसा का शिकार नहीं होतीं वहाँ शान्ति उनके पूर्ण आत्म-समर्पण और व्यक्तित्वहीनता की शर्त पर स्थापित एक विषैली, दमघोंटू शान्ति होती है। 'अरेंज्ड मैरिज' में तो एक खूँटे पर "पवित्र गाय" बाँध दी जाती है जिसका काम पुरुष-रूपी साँड़ को "कामदेव" मानकर उसे प्यार करने का दिखावा करते हुए अपना शरीर सौंपना, उससे बच्चे जनना (ताकि उसका वंश चले) और उसकी हर इच्छा पूरी करते हुए आजीवन उसकी सेवा करना होता है। इन्हीं अर्थों में फ्रेडरिक एंगेल्स ने बुर्जुआ विवाह को एक "संस्थाबद्ध वेश्यावृत्ति" की संज्ञा दी थी। लेकिन हमारे विकृत, मानवद्रोही सामाजिक ढाँचे में प्रेम-विवाह की स्थिति भी कुछ ख़ास अच्छी नहीं होती। दैहिक आवेग और उत्सुकता की शान्ति के बाद दम्पतियों का आत्मिक जीवन बासी, गंधाता हुआ कचरे की ढेरी बनकर रह जाता है। और इसके लिए दोषी लोग नहीं बल्कि यह सामाजिक ढाँचा होता है जहाँ सारी मानवीय चीज़ें आने-पाई के ठण्डे पानी में डुबो दी जाती हैं। पूँजीवादी समाज में प्रेम-रिक्तता को मार्क्स की 'एलियनेशन' (अलगाव) की अवधारणा को ही समझकर ठीक से समझा जा सकता है। पूँजीवादी समाज के श्रम-विभाजन के परिणामस्वरूप मनुष्य मानवीय उत्पादन से, हर प्रकार के मानवीय सृजन से, अलग हो जाता है, फिर मनुष्य मनुष्य से अलग हो जाता है, फिर वह प्रकृति से अलग हो जाता है, फिर वह सभी मानवीय भावनाओं व गुणों से अलग हो जाता है, फिर वह स्वयं से अलग हो जाता है, यानी आत्म-अलगाव या आत्म-निर्वासन का शिकार हो जाता है। अपवादों को छोड़ दें तो, ऐसे समाज में आम बुर्जुआ नागरिक प्यार करने की क्षमता खो देता है। अगर वह प्यार करता भी है तो वह प्यार का मिथ्याभास होता है, एक विभ्रम होता है। या फिर वह 'ऑब्जेक्टीफिकेशन' यानी वस्तुकरण का शिकार हो जाता है, यानी शासक यानी पुरुष, स्त्री को वस्तु की तरह प्यार करता है और स्त्री स्वयं को 'वस्तु' समझने की मानसिकता से ग्रस्त हो जाती है।


घरेलू हिंसा बुर्जुआ समाज में स्त्री-पुरुष संबंधों में अंतर्व्याप्त विकृति और निस्सारता का नितांत अमानवीय विस्फोट होती है। आम तौर पर परिवारों में एक अलिखित समझौता चलता रहता है। स्त्री को सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा के साथ-साथ समाज में "आदर्श दम्पति" की स्थापित छवि चाहिए। गृह-स्वामी को पत्नी के रूप में एक सेविका और प्रबंधक चाहिए। बच्चों को एक वित्त-पोषक चाहिए और बाप को बुढापे का सहारा और वंश-बेलि को आगे बढाने वाली संतानें चाहिए। इसलिए दमघोंटू बासीपन पर रागात्मक संबंधों का मुलम्मा चढ़ा रहता है। दफ्तर, स्कूल-कॉलेज और अन्य सामाजिकताओं के बीच सभी व्यस्त रहते हैं और जब घर पर मिल-बैठते हैं तो थोड़ा-बहुत प्यार-लगाव के ड्रामेबाजी से काम हो जाता है। अगर इसी परिवार को दिन-रात साथ रहने के लिए एक घर में क़ैद कर दिया जाए (जैसे कि, मिसाल के तौर पर, लॉकडाउन के दिनों में) तो रागात्मक संबंधों की सारी कलई बहुत जल्दी उतर जाती है, ड्रामा के स्क्रिप्ट के सारे डायलाग ख़तम हो जाते हैं, सारे सम्बन्ध अपने असली अमानवीय रूप में नंगे होकर सामने आ जाते हैं और पिता और पति के रूप में गृहस्वामी के "बल का शासन" अपने नग्न-निरंकुश रूप में घर भर में श्मशानी नृत्य करने लगता है। वर्त्तमान 'लॉकडाउन' के दौरान घरों में मनमुटावों और झगड़ों के, और घरेलू हिंसा के बढ़ने की जितनी खबरें विभिन्न सर्वेक्षणों के जरिये सामने आ रही हैं, वो तो आइसबर्ग का पानी के बाहर दीखने वाला छोटा सा हिस्सा भर हैं। असलियत कहीं इससे अधिक विराट, भयानक और विकृत है। मेरी एक परिचित साइकियाट्रिस्ट मित्र ने बताया कि इस दौरान घरेलू स्त्रियों के डिप्रेशन में बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ोत्तरी हुई है। पश्चिमी समाजों में भी घरेलू झगड़ों के साथ तलाक के मामले लॉकडाउन के दौरान बढे हैं। वहाँ कम से कम एक राहत की बात है कि तलाक को लेकर कोई 'सोशल टैबू' नहीं है और स्त्रियाँ प्रायः आर्थिक तौर पर स्वावलंबी हैं, या इतनी क्षमता रखती हैं। भारत में तो स्त्री मर-मरकर भी, किसी पशुवत इंसान के साथ जीती रहेगी, पर समाज में 'तलाकशुदा' का लेबल लगवाकर नहीं जीना चाहेगी। दूसरी समस्या उसकी आर्थिक पर-निर्भरता की भी है। इसलिए, भारतीय दाम्पत्य में जितनी सड़ांध है, वह पश्चिमी समाजों से कई गुना अधिक है।

कहने का मतलब यह कि हमारा आत्मिक और पारिवारिक जीवन हमारे सामाजिक ढाँचे और परिवेश से विच्छिन्न, एक द्वीप सरीखा कदापि नहीं हो सकता। हम एक ऐसे बीमार, सड़े-गले समाज में जी रहे हैं जिसमें हमारी आत्मा में भी दीमक लग चुके हैं। सारी मानवीयता को सिक्कों से तोलने वाली दुनिया के कायदे-क़ानूनों में बंधकर जीते हुए हम अपनी मानवीयता को, प्यार कर सकने की, दोस्ती कर सकने की अपनी क्षमता को, कत्तई बचाए नहीं रख सकते। अगर इसी दुनिया में जीते हुए अपनी मनुष्यता को, प्यार कर पाने की अपनी क्षमता को, बचाए रखना है तो बस एक ही रास्ता है, और वह यह है कि इस दुनिया के बीमार, अन्यायपूर्ण, अमानवीय ढाँचे के विरुद्ध विद्रोह कर दो, इसके सड़े-गले क़ायदे-क़ानूनों के ख़िलाफ़ आजीवकों और लोकायतों की तरह, सांख्य और न्याय-वैशेषिक के दार्शनिकों की तरह, बुद्ध और कबीर की तरह, दिदेरो, रूसो, वौल्तेयर की तरह, मार्क्स-एंगेल्स, लेनिन और माओ की तरह, भगत सिंह और राहुल सांकृत्यायन की तरह, सीना तानकर खड़े हो जाओ। जो जिस हद तक, ईमानदारी से अन्याय के विरुद्ध लड़ेगा, उसी हद तक वह एक इंसानी ह्रदय का दुर्लभ उपहार अर्जित कर सकेगा, उसी हद तक वह प्यार कर पाने की, दोस्ती कर पाने की इंसानी क़ूव्वत हासिल कर पायेगा। एक साहसी, न्यायनिष्ठ और पारदर्शी व्यक्तित्व ही प्यार कर सकता है। बाकी तो बहुत सारे ड्रामेबाज़ मिलेंगे जो प्यार का ड्रामा सिनेमा के परदे पर यह काम करने वाले अभिनेताओं से भी बेहतर ढंग से कर लेते हैं, प्यार पर काफी गंभीर लेक्चर भी दे लेते हैं और सबसे मज़े की बात यह है कि खुद को ही इस भ्रम में रख लेते हैं कि वे अनुपम-अद्वितीय "प्रेम-विशेषज्ञ" हैं। इस सम्बन्ध में मुझे तुर्गनेव के एक पात्र का यह कथन याद आता है कि 'उन व्यसनों और बुराइयों की तुम सर्वाधिक निंदा करो जिनके तुम स्वयं शिकार हो।'

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