कविता - हम जनता हैं / अल्वी सिनेर्वों
कविता - हम जनता हैं
अल्वी सिनेर्वों
जब
मेरे बेटे का जन्म हुआ था, मुझमें बेहद लड़कपन था।
झुकी
मैं उसकी आँखों में झाँकने के लिए
हज़ार
माताओं ने झाँका मेरे साथ
सारे
आतंक मौजूद थे
और
जैसे काफी के बुरादे से भविष्य पढ़ती बूढ़ी औरत
मैंने
देखा वह जो घटित होने वाला था।
बाहर
हो रहा था ध्वनित ग्रीष्म और गा रही थी चिड़िया।
वह
था जमाना स्वास्तिकों का, फौजी बूटों का।
मैं
ही नहीं थी अकेली जो अपने बच्चे को छोड़ने पर मज़बूर हुई
सिर्फ
मैं ही नहीं थी जिसे उठा ले जाया गया।
हम
बहुत सारे थे और कई देशों में,
घबराहट
से भरी, जल्दबाज़ी में बच्चों को सहलाती
आंसुओं
के घूँट पीती हुई
अपने
चेहरों को दूसरी ओर करती माताएँ।
हज़ार
रातों और दिनों के बाद मैं वापस लौटी,
हर
बार हत्यतित, कई देशों में,
फाँसी
दी हुई, गोलियों से दागी हुई,
गैस
की कोठरियों में दम घुटी हुई,
भस्म
कर दी गयी और भस्मि से उठ खड़ी हुई
जीवित
अंतहीन माँ, जन्मदान के आनन्द से भरपूर।
मैं
वापस लौटी बिल्कुल परिवर्तित,
पवित्र
और निरातंकित ।
आज
मेरी अगण्य सन्तानें हैं
वे
फूट रही हैं कोंपलों की तरह खंडहरों में
वे
हरेक झोपड़ी में जन्मी हैं,
जो
दलों के फाटकों से बाहर निकल रही हैं,
ये
नीली झीलों जैसी आँखों वाली
ये
जिनकी त्वचा में सूरज की गर्माहट है
युद्ध
के बाद की फसल।
और
इनके लिए आज मैं बोल रही हूँ
क्योंकि
अमन के लिए इन्हें गया है ,
लेकिन
मौत के व्यापारियों ने अपना
सफर
शुरू कर दिया है
एक
बार फिर, वे यहाँ हैं
बहुत
दूर से वे आ रहे हैं, महासागर से पार
जेबों
में कागज, जोबानों पर विचित्र शब्द
(मार्शल
प्लान, उधार के लिए डॉलर, पुनर्निर्माण के लिए कर्ज)।
क्या
इन शब्दों को समझती हो माताओं?
तुम
अपनी बेटियों के बालों को लटों में संवारती हो
जो
तुम्हारे हाथों में बढ़ते हैं जैसे पके अनाज की पीली फसल,
अपने
बेटों के बाड़े होने पर ख़ुश होती हुई, तुम
रोज़मर्रा
की चिंताओं के साथ-साथ,
तुम
जिसे घर के कुएँ तक पहुँचने की जल्दी रहती है,
तुम
जो चौका-बासन करती हो, कपड़े धोती हो, पैबंद लगाती हो,
क्या
समझती हो तुम अखबारों के ये शब्द
जिन्हें
एक गहरी सांस के साथ अनदेखा कर देती हो।
तुम,
जिसकी
रोज़मर्रा की जिंदगी में रेडियो से आवाज़ें टपकती रहती हैं,
एक
कान से भीतर और दूसरे से बाहर ?
आज
मैंने अपनी कविता को फाड़, टुकड़े-टुकड़े कर डाला है
इन
शब्दों की मीमांसा के लिए ।
ओह
कुरूप कविताहीन शब्दों-
तुमसे
कहीं सुंदर होते हैं बादल और हवा
और
दो मनुष्यों का प्रेम,
इनका
अर्थ है युद्ध ! मौत इन बच्चों के लिए
जो
फर्श पर खेल रहे हैं!
क्योंकि
मरे चेहरों वाले मर्द आज यात्रा कर रहे हैं
एक
देश से दूसरे देश
(सैनिक
अड्डे, फ़ौजें, मर्द हथियार उठाने में असमर्थ जासूसों के जाल)
कठोर
और भावनाविहीन हृदयों के साथ वे लिख रहे हैं संधियाँ,
वे
विनाश चाहने वाले ब्लैक मेलर
वे
विनम्रता से झुक कर कालाबाजारी करते हुए
दस्तख़त
करते हुए
मनुष्य
के रक्त से
अपने
नहीं, जनता के रक्त से।
जनता
को क्या वे बेच डालेंगे ?
क्या
जनता सदा ही रहेगी इतनी नासमझ ?
भ्रम
में पड़ी हुई और हर हर चीज़ के साथ संतुष्ट :
नायलन
के मोजे और रंगीन टाइयाँ
नौजवानों
के लिए हैं आज,
ताकि
कल वे नृत्य करें मोर्चे पर।
अपने
बेटे के हाथ में मीठी रोटी थमा दो , माँ आज
-कल
क्यों फिर उसकी मौत पे रंज करना ।
मेरे
भीतर माओं का मामतत्व क्रोध में बदल रहा है।
मैं
निहत्थी नहीं हूँ, असंख्य औरतें मेरे साथ हैं
मेरा
हाथ उनके हाथों में हैं, मेरी आवाज़ उनकी आवाज है
हम
सब में जिनकी अनेक बार हत्या की गई
अब
कहाँ बचा है डर !
माओं
का दहाड़ता साहस
और
पत्नियों के सर्पीले घात
और
नवोन्मेष पीढ़ियों की गंभीर चीत्कारें हम में हैं।
यह
देश ख़ैरात के लिए नहीं है
यह
हमारा, हमारी संतानों का है।
इसकी
सख़्त चट्टानी बुनियाद
इसके
जंगल , श्वेत नीली झीलें
शारदीय
सुबहों की चमक, शिशिर का अंधकार,
जमे
हुए बर्फीले चढ़ावों की दमक, जनता के गाये गीत,
इसका
अतीत और इसका
भविष्य
।
तुम
जनता को न बेच सकते हो , न ही विश्वासघात कर सकते हो
हम
हैं जनता।
(साभार-
'युद्धरत आम आदमी' से )
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