"वामपंथी" पत्रकार महोदय का "शोध" और रोष भरा प्रतिवाद : यानी मूर्खता के साथ क्रोध के सम्मिश्रण से उपजा विकट-विचित्र रासायनिक यौगिक

"वामपंथी" पत्रकार महोदय का "शोध" और रोष भरा प्रतिवाद : यानी मूर्खता के साथ क्रोध के सम्मिश्रण से उपजा विकट-विचित्र रासायनिक यौगिक


कविता कृष्‍णपल्लवी

मूर्खेश असीम जी नाराज़ हो गये हैं! बेचारे ने रातभर ‘मज़दूर बिगुल’ की फाइलें खंगाली हैं,कि अपनी वर्तमान मूर्खता को सही सिद्ध करने का कोई रास्ता अतीत में मिल जाए! अन्त में, उन्होंने ‘मज़दूर बिगुल’ के चार वर्ष पुराने एक सम्पादकीय को काफी पुरातात्विक खनन के बाद निकाला है और उसे उद्धृत करके दावा किया है, कि हमने भी तो यह लिखा था कि व्यापारिक पूंजी की कालाबाज़ारी, सट्टेबाज़ी आदि के कारण कीमतें बढ़ती हैं! खुदरा व्यापार व कृषि उपज के बाज़ार के दरवाज़े इस प्रकार की गतिविधियों में संलिप्त कम्पनियों के लिए खोल दिये जाने के कारण भोजन समेत सभी वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोत्तरी होती है! इसमें एक बड़े पूंजीपति घराने अदानी द्वारा किया गया घोटाला भी शामिल है! फिर मूर्खेश जी पूछते हैं कि हमने जब ये बातें लिखीं थीं तब वह सही थीं और जब वह कह रहे हैं, तो वे ग़लत हो गयीं! अब हम कारपोरेट पूंजी की आलोचना पर नाराज़ क्यों हो रहे हैं?


यही तो समस्या है मूर्खेश जी की! हम कारपोरेट पूंजी की आलोचना पर नहीं, बल्कि धनी किसानों-कुलकों की ज़मीन से, छोटी पूंजी की ज़मीन से, यानी टुटपुंजिया ज़मीन पर खड़े होकर, छोटी पूंजी को बचाने का नारा देते हुए बड़ी इजारेदार पूंजी की आलोचना को मूर्खतापूर्ण मानते हैं। यह वह चीज़ है, जिस पर हम लगातार आलोचना पेश करते रहे हैं। लेकिन मूर्खेश जी घाघ और घुन्ने भी हैं! असली मुद्दे को ग़ायब कर जानबूझकर मसले को ऐसे पेश कर रहे हैं, मानो हम स्वतंत्र रूप से कारपोरेट पूंजी का स्वागत कर रहे हैं! मूर्खेश जी अपनी बुद्धि अनुसार बेईमानीपूर्ण चालाकी भी करते रहते हैं!

अब आते हैं इस सवाल पर कि महंगाई बढ़ने में कारपोरेट पूंजी की क्या भूमिका होती है। मज़दूरी-उत्पादों (wage goods) के क्षेत्रों में इजारेदार कम्पनियां सामान्य रूप में इजारेदारी लगान नहीं लगा सकतीं, क्योंकि यह समूचे पूंजीपति वर्ग के खिलाफ जाता है। मैंने पिछली पोस्ट में मार्क्स व लेनिन के सन्दर्भ से इसका तर्क भी स्पष्ट किया था (https://www.facebook.com/kavita.krishnapallavi/posts/3879664822089030)। अन्य सभी सेक्टरों में निश्चित ही इजारेदार पूंजी बाज़ार पर नियंत्रण कायम करके इजारेदार कीमतें तय करती हैं, इजारेदार-लगान (monopoly rent) वसूलती हैं और इस प्रकार महंगाई को बढ़ावा देती हैं। कोई एक कारपोरेट कम्पनी यदि घपला-घोटाला कर किसी मज़दूरी उत्पाद की कीमतों को बढ़ाती है, तो उससे समूचे पूंजीपति वर्ग का रवैया नहीं तय होता है, जैसे कि अदानी के घोटाले की वजह से दाल की कीमतें बढ़ीं थीं। आम तौर पर, निश्चित ही इजारेदार पूंजी इजारेदार कीमतों के ज़रिये महंगाई बढ़ाती है, लेकिन यह बात सामान्य रूप में मज़दूरी उत्पादों के सेक्टरों पर लागू नहीं होती हैं, क्योंकि इसका अर्थ होता है मज़दूरी में बढ़ोत्तरी और नतीजतन मुनाफे की दर में गिरावट, क्योंकि मज़दूरी को एक हद से नीचे नहीं किया जा सकता है। पूंजीपति वर्ग को भी मुनाफे की खातिर मज़दूर वर्ग द्वारा उत्पादन को जारी रखने की आवश्यकता होती है और इसलिए यह उसके लिए अनिवार्य होता है कि मज़दूर वर्ग अपना न्यूनतम भौतिक पुनरुत्पादन कर सके। यही वजह है कि मज़दूरी उत्पाद के क्षेत्रों में इजारेदार लगान एक आम परिघटना हो ही नहीं सकता है। इससे पूंजीपति वर्ग का आम राजनीतिक रवैया तय होता है।

मूर्खेश जी ने हमारे इस तर्क का जवाब देने की बजाय इधर-उधर से गोलमोल बातें की हैं, रात भर बैठकर ‘मज़दूर बिगुल’ के पुराने अंक खंगाले हैं, लेकिन असली मुद्दे पर कोई उत्तर नहीं दिया। अगर वह मानते हैं कि इजारेदार कम्पनियां इजारेदार कीमतें तय कर मज़दूरी उत्पादों की कीमतें बढ़ाती हैं, बेशी मुनाफा वसूलती हैं, जैसे कि आज एमएसपी यानी लाभकारी मूल्य के ज़रिये धनी किसान व कुलक वसूल रहे हैं, तो उन्हें मार्क्स व लेनिन के नज़रिये की आलोचना लिखनी चाहिए। इस प्रश्न पर मूर्खेश जी शान्त हैं, और यूं ही चुल्ल में बड़बड़ा रहे हैं कि हम ब्राह्मणवादी हैं, वगैरह-वगैरह। इससे ब्राह्मणवादी होने का क्या रिश्ता है? अब इनके चेले-चपाटी नारा दे उठे हैं: “ब्राह्मणवाद का बहिष्कार करो।” बिल्कुल करो! दलितों के प्रमुख उत्पीड़क कुलकों के आन्दोलन के भीतर भी जाकर करो! हम तुम्हारे साथ हैं! मगर कुछ तो सड़क पर उतर कर कर लो! सबकुछ फेसबुक पर ही करोगे क्या?

अब आते हैं इस प्रश्न पर कि थोक कीमत सूचकांक में अप्रत्यक्ष कर जुड़ते हैं या नहीं क्योंकि इन महोदय ने कहा तो यही था, हालांकि अब यह इससे मुकर रहे हैं। अब यह मूर्खेश असीम के साथ मुकरेश असीम भी हो गये हैं! जवाब है: नहीं जुड़ते हैं। थोक कीमत सूचकांक फैक्ट्री गेट की लागत व उद्यमी मुनाफे के योग पर आधारित होता है और उस उत्पाद की कीमत पर अप्रत्यक्ष कर बाद में जोड़े जाते हैं। मूर्खेश जी इस बात से मुकर गए हैं कि उन्होंने थोक कीमत सूचकांक में अप्रत्यक्ष कर के शामिल होने की बात की थी। उनके इस बातबदलूपन पर थोड़ा आगे आते हैं। लेकिन पहले यह समझ लेते हैं कि मूर्खेश जी को क्या समझ में नहीं आ रहा है? वह जो कि मार्क्स ने ‘पूंजी’ खण्ड 1 में ही बताया है। हर उत्पाद के उत्पादन में जो इनपुट्स होते हैं, वे उस उत्पाद के लिए अन्तिम उत्पाद नहीं होते हैं, बल्कि उत्पादन के साधन (कच्चा माल व सहायक माल – raw and auxiliary material) होते हैं। लेकिन पूंजीवादी बाज़ार में वे भी माल के रूप में मौजूद होते हैं और उनकी कीमतों में भी अप्रत्यक्ष कर जुड़ते ही हैं। लेकिन यह थोक कीमत सूचकांक के लिए प्रासंगिक नहीं है। क्यों? क्योंकि इस प्रकार आप किसी उत्पादन की पूरी चेन में वे तमाम वस्तुएं जोड़ सकते हैं, जो किसी न किसी स्तर पर इनपुट के रूप में शामिल हुए थे और उनकी कीमत पर भी अप्रत्यक्ष कर जुड़े थे और उन्होंने लागत को अलग-अलग स्तरों पर बढ़ाया था। लागत को बढ़ाने के रूप में पेट्रोल-डीज़ल आदि की कीमतों में तमाम अप्रत्यक्ष करों के जुड़ने से होने वाली बढ़ोत्तरी के बारे में मैंने खुद ही अपनी पोस्ट में लिखा था। उसी बात को दुहराकर मूर्खेश जी दावा कर रहे हैं कि यह अप्रत्यक्ष करों से बढ़ने वाली महंगाई ही तो है! यहां भी मूर्खेश जी मार्क्स के राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में अज्ञान प्रदर्शित कर रहे हैं। अप्रत्यक्ष कर उत्पाद की कीमतों के ऊपर जुड़ते हैं और इसीलिए वे उत्पाद की कीमत में बढ़ोत्तरी करते हैं और इस रूप में महंगाई में बढ़ोत्तरी करते हैं। जब आप थोक व्यापार सूचकांक बनाते हैं, तो उसमें इनपुट्स की कीमतों में अप्रत्यक्ष कर की वजह से हुई बढ़ोत्तरी को नहीं जोड़ सकते, क्योंकि वह पहले ही जोड़ी जा चुकी है और इस प्रकार दोहरे आकलन से बेहद ग़लत नतीजे सामने आते हैं। थोक कीमत सूचकांक में इनपुट्स की कीमतों को जोड़ा जाता है, जिनमें अप्रत्यक्ष कर पहले ही शामिल हैं। इसलिए अन्तिम उत्पाद की कीमत के आकलन में उन अप्रत्यक्ष करों को नहीं जोड़ा जा सकता जो कि पेट्रोल, डीज़ल आदि पर लगे हैं। जब आप पेट्रोल और डीज़ल के ही उत्पादन का अध्ययन करेंगे, तो उसकी क़ीमतों और उसमें आने वाली महँगाई के आकलन में अप्रत्यक्ष करों का आकलन शामिल किया जायेगा। थोक कीमत सूचकांक इसीलिए उस अप्रत्यक्ष कर को दोबारा नहीं जोड़ सकता है, क्योंकि वह ‘डबल कैल्कुलेशन’ की समस्या पैदा करेगा। इस प्रकार तो आप उत्पादन की पूरी चेन में नीचे तक जाकर हर इनपुट पर बढ़ाए गए अप्रत्यक्ष कर को दोबारा जोड़ेंगे तो कोई ग़ज़ब ही थोक कीमत सूचकांक अस्तित्व में आएगा! मिसाल के तौर पर, पेट्रोल की प्रोसेसिंग में भी कई कच्चे माल लगे होंगे और उन पर भी अप्रत्यक्ष कर जुड़े होंगे, और उन कच्चे मालों के उत्पादन में लगे कच्चे मालों की कीमत में भी अप्रत्यक्ष कर जुड़े होंगे...। चूंकि ये कर इनपुट्स की कीमत में शामिल होते हैं, और हर पूंजीपति बाज़ार से उन्हें उन्हीं कीमतों पर ख़रीदता है, इसलिए उसके माल की कीमत के आकलन में दोबारा उन अप्रत्यक्ष करों की गणना नहीं की जा सकती है।

यह वह बात है, जो “आर्थिक मामलों के सोशल मीडिया के जानकार’’ मूर्खेश जी को समझ में नहीं आ रही है। यही कारण है कि ‘मज़दूर बिगुल’ में हमने उनसे लिखवाना भी बन्द कर दिया था, लेकिन उस मुद्दे पर थोड़ा आगे आऊंगी।

मूर्खेश जी ने अपने पिछली पोस्ट में स्पष्ट लिखा था कि थोक कीमत सूचकांक में जो बढ़ोत्तरी हुई है, उसका कारण अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि ही है क्योंकि इस सूचकांक का जिक्र ही मूर्खेश जी ने यह दिखलाने के लिए किया था कि महंगाई बढ़ गयी है। अब वह इस बात से पलटने की कोशिश कर रहे हैं। वरना, यदि वह खुदरा कीमत सूचकांक का भी जिक्र करते तो उन्हें कहना पड़ता की महंगाई में मार्च 2021 के मुकाबले अप्रैल 2021 में कमी आई है! मैंने अपनी पिछली पोस्ट में (https://www.facebook.com/kavita.krishnapallavi/posts/3879664822089030) खुदरा कीमत सूचकांक, यानी जिन कीमतों पर उपभोक्ता माल ख़रीदता है, उसे भी आंकड़ों समेत पेश किया था। मार्च 2021 से अप्रैल 2021 तक इस सूचकांक में गिरावट आई थी। तो मूर्खेश जी को कहना चाहिए था कि लगता है इजारेदार घरानों ने इजारेदार कीमत के ज़रिये महंगाई बढ़ाना बन्द कर दिया है! लेकिन सोशल मीडिया के हमारे “पत्रकार” महोदय की पुरानी आदत रही है कि मनमुआफिक आंकड़े पेश करो, या आंकड़े पेश ही मत करो, और फिर मनमाना दावा कर दो! इस प्रश्न पर भी मूर्खेश जी ने चुप्पी साधी हुई है। अपनी पोस्ट का ज्यादा हिस्सा उन्होंने हमें “ब्राह्मण” आदि कहने में ख़र्च कर दिया है। मैं समझ सकती हूं, रातभर जागकर पोस्ट लिखी होगी, सुबह तक चिड़चिड़ा और बिलबिला गए होंगे!

दूसरी बात, सभी बड़े रीटेल स्टोर्स में वस्तुएं स्थानीय व्यापारियों की दुकानों से कम दामों पर मिलती हैं। यह एक स्थापित तथ्य है। इसका कारण ठीक मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र से ही समझा जा सकता है। मालों के उत्पादन के साथ मालों के संचरण (circulation) में भी श्रमशक्ति खर्च होती है, अन्य वस्तुएं एवं सेवाएं लगती हैं, नतीजतन, उसकी भी एक लागत होती है। संचरण की गतिविधियां जितने छोटे पैमाने पर आयोजित होती हैं, प्रति इकाई लागत उतनी बढ़ती है। ये गतिविधियां जितने बड़े पैमाने पर होती हैं, उतनी ही प्रति इकाई लागत कम होती है। यही वजह है कि जहां व्यापारिक पूंजी के क्षेत्र में बड़ी पूंजी का प्रवेश होता है, वहां प्रति इकाई लागतें कम होती हैं। जहां तक लक्ज़री उत्पादों व उन उपभोक्ता वस्तुओं का प्रश्न है, जो मज़दूर की श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन में नहीं जाती हैं, यानी जो मज़दूरी उत्पाद नहीं हैं, तो उनकी कीमतों में वृद्धि का कारण अपने आप में व्यापार में बड़ी इजारेदार पूंजी का प्रवेश नहीं है। उसकी कई वजहें हो सकतीं हैं, मसलन उन वस्तुओं पर इजारेदार कम्पनियों द्वारा इजारेदार लगान वसूला जाना, उनके उत्पादन की लागत में किन्हीं कारणों से वृद्धि आना, मसलन स्थिर पूंजी के तत्वों का महंगा होना, मज़दूरी बढ़ना, आदि। जो इस बात को नहीं समझता है वह ‘छोटा-मंझोला व्यापारी जिन्दाबाद’ के नारे पर पहुंचेगा। वैसे मूर्खेश जी का यहां पहुंचना लाजिमी है! वह “छोटा सुन्दर होता है” के सिद्धान्त पर पूरी तरह से आ चुके हैं! यह टुटपुंजियों की आम समस्या है! इसीलिए तो कृषि क्षेत्र के छोटे पूंजीपतियों यानी धनी किसानों, कुलकों को बचाने के लिए अपनी ‘यथार्थवादी’ बौड़म ब्रिगेड के साथ कूद चुके हैं।

मूर्खेश जी बार-बार जानबूझकर कहते हैं कि हम कारपोरेट समर्थक हैं! क्यों? क्योंकि उनके पास हमारे तर्कों का कोई जवाब नहीं है। हम कारपोरेटों का विरोध छोटी पूंजी के ज़मीन से करने के विरोधी हैं। सभी लोग जानते हैं कि हमारा स्टैण्ड क्या है: सर्वहारा वर्ग बड़ी इजारेदार पूंजी (कारपोरेट घरानों) का विरोध अपनी स्वतंत्र राजनीतिक अवस्थिति से करेगा, न कि कुलकों-धनी किसानों या छोटे-मंझोले व्यापारिेयों की गोद में बैठकर। ये वे ही कुलक और धनी किसान हैं, जो कि पिछले पांच दशकों में ग़रीब और निम्न-मंझोले किसानों को अपनी मुनाफाखोरी, लगानखोरी और सूदखोरी के ज़रिये उजाड़ने के लिए और व्यापक खेतिहर मज़दूर आबादी, जिसका लगभग 50 फीसदी दलित हैं, के निर्मम और बर्बर शोषण और उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार हैं। यहां तक कि मौजूदा कुलक आन्दोलन के दौरान भी इन कुलकों ने खेतिहर मज़दूरों की मज़दूरी पर कैप फिक्स किये, विरोध प्रदर्शन में आने के लिए उन्हें बाध्य करने के लिए अपनी जातिगत पंचायतों द्वारा उन पर जुर्माने थोपे, जिनमें से अधिकांश स्वयं दलित मज़दूर परिवार हैं, और इन्हीं कुलकों की पूंछ में कंघी करने के लिए मूर्खेश असीम जैसे लोग घूम रहे हैं! ऊपर से तुर्रा यह कि मूर्खेश असीम जैसे लोग “ब्राह्मणवाद” वगैरह की खंजड़ी बजा रहे हैं। वास्तव में तो ये स्वयं ही दलित-विरोधी और ब्राह्मणवादी हैं। सच यह है कि इन दलित मज़दूरों के सबसे बड़े दुश्मन और ब्राह्मणवादी यह स्वयं हैं क्योंकि आज ये दलित मज़दूरों के सबसे प्रमुख शत्रु की गोद गरम करने में व्यस्त हैं, यानी कुलकों व धनी किसानों की! किसी को मूर्ख बोलने से कोई ब्राह्मणवादी नहीं हो जाता, वरना मूर्खेश जी के हिसाब से मार्क्स तो सबसे बड़े ब्राह्मणवादी हो जाएंगे क्योंकि उन्होंने तो वाइटलिंग, वोग्ट और ग्रून जैसे लोगों तक को मूर्ख बोल दिया था। अब जो लगातार मूर्खतापूर्ण बात किये जाएगा, उसे मूर्ख ही तो बोलेंगे! बहरहाल, आज जब कारपोरेट पूंजी खेती के क्षेत्र पर अपना वर्चस्व कायम करना चाहती है और मुनाफे में अपनी हिस्सेदारी को बचाने के लिए यह छोटा लुटेरा वर्ग बिलबिला रहा है, तो उसकी बिलबिलाहट में शामिल होने की चुल्ल लिए कई तथाकथित मार्क्सवादी घूम रहे हैं। उन्हीं में यह ‘यथार्थवादी’ मूर्ख मण्डली भी शामिल है। आगे हम बिन्दुओं में दिखलाएंगे कि ये मूर्ख कैसे हैं क्योंकि कई लोगों को लगता है कि हमने इन्हें मूर्ख क्यों बोला है।

अब आते हैं इस प्रश्न पर कि बड़ी पूंजी के प्रगतिशील होने के क्या मायने हैं, क्योंकि लाख समझाने पर भी ‘यथार्थवादी’ बौड़म ब्रिगेड को यह बात समझ में नहीं आ रही है। इस बार मूर्खेश जी ने कैंसर का उदारहण देकर इस बात को फिर से साबित कर दिया है, कि ‘वह भी तो बढ़ता है, प्रगतिशील होता है, तो क्या उसका समर्थन करें?’ इतनी मूर्खतापूर्ण बात की उम्मीद हमें इन महोदय से....बिल्कुल थी!

बड़ी इजारेदार पूंजी के ऐतिहासिक रूप से प्रगतिशील होने का अर्थ यह है कि छोटी पूंजी के मुकाबले वह प्रगतिशील है और वह समाजवादी व्यवस्था की ज़मीन तैयार करती है, क्योंकि वह उत्पादन और श्रम का और भी ज़्यादा बड़े पैमाने पर समाजीकरण करती है। वैसे तो तात्कालिक तौर पर भी छोटा पूंजीपति मज़दूरों को हमेशा ज़्यादा बेरहमी से लूटता है, लेकिन यह बात फेसबुकिया “वामपंथी” पत्रकार को समझ में नहीं आएगी। बहरहाल, मूर्खेश असीम के अनुसार यह “कैंसर” रुकना चाहिए! छोटी पूंजी की अंतड़ी-पचौनी और जिगर और दिल इस “कैंसर” से बचना चाहिए! क्या ऐसी सोच का मार्क्सवाद-लेनिनवाद से कोई रिश्ता है? आइये देख लेते हैं, क्योंकि मूर्खेश जी हमेशा दूसरों को मार्क्स व लेनिन की मूल रचनाएं पढ़ने की और (अपने अलावा) सब पर सन्देह करने की सलाहें देते रहते हैं, लेकिन खुद इन रचनाओं से पर्याप्त सुरक्षित दूरी बनाए रहते हैं! लेनिन लिखते हैं:

”Thus, the speaker was able to find a criterion for the solution of the problem which at first sight seemed to lead to the hopeless dilemma that brought Sismondi to a halt: both Free Trade and its restraint equally lead to the ruin of the workers. The criterion is the development of the productive forces. It was immediately evident that the problem was treated from the historical angle: instead of comparing capitalism with some abstract society as it should be (i.e., fundamentally with a utopia), the author compared it with the preceding stages of social economy, compared the different stages of capitalism as they successively replaced one another, and established the fact that the productive forces of society develop thanks to the development of capitalism. By applying scientific criticism to the arguments of the Free Traders he was able to avoid the mistake usually made by the romanticists who, denying that the arguments have any importance, “throw out the baby with the bath water”; he was able to pick out their sound kernel, i.e., the undoubted fact of enormous technical progress. Our Narodniks, with their characteristic wit, would, of course, have concluded that this author, who had so openly taken the side of big capital against the small producer, was an “apologist of money power,” the more so that he was addressing continental Europe and applying the conclusions he drew from English life to his own country, where at that time large scale machine industry was only taking its first timid steps. And yet, precisely this example (like a host of similar examples from West-European history) could help them study the thing they are not at all able to understand (perhaps they do not wish to do so?), namely, that to admit that big capital is progressive as compared with small production, is very, very far from being “apologetics.”” (Lenin, A Characterisation of Economic Romanticism)

और देखें:

“In Engels’s opinion the present agricultural crisis is reducing rent and is even tending to abolish it altogether; in other words, agricultural capitalism is pursuing its natural tendency to abolish the monopoly of landed property. No, Mr. N.–on is positively out of luck with his “quotations.” Agricultural capitalism is taking another, enormous step forward; it is boundlessly expanding the commercial production of agricultural produce and drawing a number of new countries into the world arena; it is driving patriarchal agriculture out of its last refuges, such as India or Russia; it is creating something hitherto unknown to agriculture, namely, the purely industrial production of grain, based on the co-operation of masses of workers equipped with the most up-to-date machinery; it is tremendously aggravating the position of the old European countries, reducing rents, thus undermining what seemed to be the most firmly established monopolies and reducing landed property “to absurdity” not only in theory, but also in practice; it is raising so vividly the need to socialise agricultural production that this need is beginning to be realised in the West even by representatives of the propertied classes. And Engels, with his characteristic cheerful irony, welcomes the latest steps of world capitalism: fortunately, he says, there is still enough uncultivated prairie land left to enable things to continue as they have been doing. But our good Mr. N.–on, à propos des bottes, sighs for the “muzhik cultivator” of yore, for the “time-hallowed” . . . stagnation of our agriculture and of all the various forms of agricultural bondage which “neither the strife among the appanage princes nor the Tartar invasion” could shake, and which now—oh, horror!—are beginning to be most thoroughly shaken by this monstrous capitalism! O, sancta simplicitas!” (Lenin, The DEVELOPMENT of CAPITALISM in RUSSIA)

और देखें:

“Imperialism is as much our “mortal” enemy as is capitalism. That is so. No Marxist will forget, however, that capitalism is progressive compared with feudalism, and that imperialism is progressive compared with pre-monopoly capitalism. Hence, it is not every struggle against imperialism that we should support. We will not support a struggle of the reactionary classes against imperialism; we will not support an uprising of the reactionary classes against imperialism and capitalism.” (Lenin, ‘A Caricature of Marxism and Imperialist Economism’)

यह अर्थ होता है बड़ी इजारेदार पूंजी के प्रगतिशील होने का। छोटे पूंजीपति वर्ग के बरक्स बड़ी इजारेदार पूंजी की ऐतिहासिक प्रगतिशीलता को चिन्हित करने का कारपोरेट घरानों का समर्थक होने से कोई रिश्ता नहीं है। ‘यथार्थ’ की बौड़म ब्रिगेड वास्तव सिस्मोंदी, हॉब्सन, नरोदवादियों और अन्य टुटपुंजिया समाजवादियों, कल्याणवादियों के अनुयायी हैं, हालांकि अभी इन्हें यह बात पता नहीं है और इन्हें लगता है कि वे मार्क्सवादी हैं! बहरहाल, पूरी बहस का सन्दर्भ यह था कि क्या कारपोरेट पूंजी की मुख़ालफ़त धनी किसानों-कुलकों के जनविरोधी लाभकारी मूल्य की मांग का समर्थन करके की जा सकती है। इस मूल सन्दर्भ से बातों को काटकर मूर्खेश जी अपने चुनौटी भर दिमाग़ से काफ़ी सयानापन दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन बेकार है।

अगला सयानापन दिखाने का प्रयास मूर्खेश जी ने यह किया है कि हमें अप्रत्यक्ष करों का समर्थक बता दिया है! ऐसी छलांग इन्होंने किस प्रकार ली है, यह तो अपने आप में शोध का विषय है! जिसने मेरी पिछली पोस्ट पढ़ी है वह जानता है कि मैंने यह लिखा है: थोक कीमत सूचकांक में अप्रत्यक्ष करों की गणना शामिल नहीं होती हैं (ठीक इसलिए क्योंकि अप्रत्यक्ष कर विचाराधीन माल की कीमत में जुड़ते हैं, लागत में नहीं और उसकी लागत में जिन इनपुट्स की कीमतें शामिल हैं, उनमें अप्रत्यक्ष कर पहले ही जोड़ा जा चुका है, इसलिए उसे दोबारा नहीं जोड़ा जा सकता)। मूर्खेश असीम का यह दावा कि थोक कीमत सूचकांक में बढ़ोत्तरी का एक कारण अप्रत्यक्ष करों में बढ़ोत्तरी है, वाकई मूर्खतापूर्ण है (और हालांकि अब वह यह कहने से मुकर रहे हैं, लेकिन वह ठीक यही कह रहे थे)। अप्रत्यक्ष कर खुदरा कीमत सूचकांक में बढ़ोत्तरी का कारण है, क्योंकि वह माल की कीमत पर जुड़ते हैं, खुदरा कीमतों को बढ़ाते हैं और राज्य द्वारा वसूला जाने वाला एक ट्रिब्यूट हैं और मार्क्स इसे प्रतिक्रियावादी इसलिए मानते हैं, क्योंकि यह मज़दूरी से कटौती (deduction from wages) है, जबकि प्रगतिशील प्रत्यक्ष कर का पूंजीवादी जनवादी मांगों के दायरे की सीमा में मार्क्स समर्थन करते हैं, जो कि धनिक वर्ग की समृद्धि से कटौती है। लेकिन क्या बहस सामान्य रूप में प्रत्यक्ष कर और अप्रत्यक्ष कर पर हो रही थी? नहीं! तो इस पर मूर्खेश जी बेकार ही ‘मज़दूर बिगुल’ को उद्धृत कर रहे हैं और अन्य सन्दर्भ दे रहे हैं। बात यह थी कि “आर्थिक मामलों के जानकार” इन महोदय को यह पता ही नहीं है थोक कीमत सूचकांक की गणना में अप्रत्यक्ष करों का आकलन शामिल नहीं होता है। अब यह चूहे की तरह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर पर आम सिद्धान्त प्रतिपादन करते हुए बिलबिलाए हुए इधर-उधर भाग रहे हैं।

मूर्खेश जी पूछते हैं कि मैंने खुद ही कहा है कि पूंजीपति वर्ग संकट के काल में मज़दूरों की वास्तविक मज़दूरी को घटाकर मुनाफे की दर को बढ़ाने की कोशिश करते हैं, तो क्या उस कुकर्म में इजारेदार पूंजीपति वर्ग शामिल नहीं है? सारे मूर्खों की एक ख़ासियत होती है: सटीक चिन्तन करने की क्षमता का अभाव। इस कुकर्म में इजारेदार पूंजीपति वर्ग बिल्कुल शामिल होता है, मूर्खेश जी! यह पूरे पूंजीपति वर्ग की ही ख़ासियत है। लेकिन इसका इस बात पर बहस से क्या ताल्लुक है कि इजारेदार पूंजीपति वर्ग मज़दूरी उत्पादों के क्षेत्र में कोई इजारेदार लगान नहीं वसूलता है? एक सवाल नये मूल्य में मज़दूरी का हिस्सा घटाकर बेशी मूल्य की दर और इसलिए मुनाफे की दर को बढ़ाने का है जो कि पूरा ही पूंजीपति वर्ग हर सेक्टर में करता है, और दूसरा मसला, मज़दूरी उत्पादों की उत्पादन की कीमतों (prices of production) के ऊपर बेशी मुनाफा (surplus-profit) वसूलने का है, जो कि पूंजीपति वर्ग के आम राजनीतिक हितों के विपरीत जाता है। पूंजीपति वर्ग मज़दूरी उत्पाद के सेक्टरों में स्वाभाविक कीमत (natural price) या उत्पादन की कीमत (prices of production) के ऊपर कोई बेशी मुनाफा वसूल नहीं करेगा, इसका यह अर्थ किस प्रकार का मूर्ख निकाल सकता है कि मज़दूरी उत्पाद के सेक्टरों में पूंजीपति वर्ग मज़दूरों का शोषण ही बन्द कर देगा, बेशी मूल्य की दर बढ़ाने के लिए मज़दूरी को न्यूनतम शारीरिक आवश्यकता पर लाने का प्रयास ही नहीं करेगा? जाहिर है, मूर्खेश जी को मुनाफे और बेशी मुनाफे में अन्तर नहीं पता है। ऐसी तुलना कोई मूर्ख ही कर सकता है। और फिर जब मैं मूर्ख को मूर्ख कहती हूं, तो लोग कहते हैं कि “मैं बोलती हूं।”

आगे बढ़ते हैं।

मूर्खेश जी पूछते हैं कि जब बड़ी इजारेदार पूंजी खुद ही व्यापारिक पूंजीपति बन जाए, तो फिर तो वह खुद ही कालाबाज़ारी करेगी, कृत्रिम रूप से मालों की कीमत बढ़ाएगी, इत्यादि। बिल्कुल बढ़ाएगी, लेकिन मज़दूरी उत्पाद के क्षेत्र में नहीं। दूसरी बात, व्यापारिक क्षेत्र में इजारेदार पूंजी के प्रवेश का अर्थ प्रतिस्पर्द्धा का ख़त्म होना नहीं होता है। लेनिन और मार्क्स ने इस बात की ओर बार-बार इशारा किया था कि पूर्ण एकाधिकारीकरण कोई दीर्घकालिक परिघटना नहीं बन सकती है। यही वजह है कि इजारेदारीकरण के साथ दुनिया में प्रतिस्पर्द्धा समाप्त नहीं हुई है, बल्कि और भी अधिक तीख़ी और गहरी ह़ई है, जैसा कि लेनिन ने भविष्यवाणी की थी। जब तक पूंजीवादी व्यवस्था है, यह प्रतिस्पर्द्धा रहेगी। इसके अतिरिक्त कोई भी बात आपको काऊत्स्की के अतिसाम्राज्यवाद की थीसिस पर पहुंचाएगी, जिस पर कि ‘यथार्थ’ की मूर्ख मण्डली पहले ही पहुंच चुकी है। किसी एक सेक्टर में इजारेदारी भी स्थायी नहीं होती है, विश्व पूंजीवाद का डेढ़ सौ साल का इतिहास बताता है। क्योंकि इजारेदारी वाले क्षेत्र में कोई नयी छोटी पूंजी नहीं घुस सकती है, लेकिन कोई दूसरी बड़ी इजारेदार पूंजी घुस सकती है। पूरी दुनिया में ही यह होता रहा है और आज भी हो रहा है। भारत के टेलीकॉम सेक्टर में यही हुआ है। इसलिए खुदरा व्यापार में बड़ी कम्पनियों के प्रवेश का अपने आप में अनिवार्यत: यह अर्थ नहीं है कि इजारेदार लगान वसूलकर कीमतों को बढ़ाया जाएगा। जिन सूरतों में ऐसा होगा भी, वह मज़दूरी उत्पाद के क्षेत्र में नहीं होगा। यही वजह है कि बड़े रीटेल शॉप्स पर अन्य वस्तुओं की जो भी कीमतें हों, आम खाद्य वस्तुएं सस्ती होती हैं। ये ख़बरें पढ़ें:

https://economictimes.indiatimes.com/industry/cons-products/food/food-retail-chains-sell-vegetables-fruits-up-to-40-cheaper-than-local-vendors/articleshow/7233455.cms

https://www.livemint.com/Companies/TwsaezuBem9KnACWpq8OlN/Prices-30-cheaper-at-organized-stores-study.html

ये तथ्य बुनियादी मार्क्सवादी समझदारी को पुष्ट करते हैं: पूंजीपति वर्ग कभी भी आम खा़द्य वस्तुओं (यानी जो आम मेहनतकश आबादी के रोज़मर्रा के आहार का अंग है) में इजारेदार लगान वसूल कर महंगाई नहीं चाहता है क्योंकि वह मज़दूरी को बढ़ाता है और मुनाफे की दर को गिराता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि अन्य कारकों के कारण इन वस्तुओं की महंगाई बढ़ ही नहीं सकती है, वह निश्चित ही बढ़ सकती है और बढ़ती भी है। मैंने पिछली पोस्ट में ही लिखा था कि पूंजीवादी बाज़ार अर्थव्यवस्था में हर घटना पूंजीपति वर्ग की इच्छानुरूप नहीं होती है। यह सामान्य-सा तर्क हमारी ‘यथार्थवादी’ मूर्ख मण्डली के समझ में नहीं आ रहा है और आएगा, इसकी उम्मीद भी कम ही है।

इसलिए बिल्कुल सही है कि बड़ा पूंजीपति वर्ग लाभकारी मूल्य को ख़त्म कर खाद्यान्न को सस्ता करना चाहता है, इसलिए नहीं कि मज़दूर वर्ग की मज़दूरी बढ़े बल्कि इसलिए कि पूंजीपति वर्ग का मुनाफा बढ़े क्योंकि तब वह मज़दूरी को घटा सकता है। लेकिन मूर्खेश असीम जानबूझकर हमारे इस तर्क को गोल कर जाते हैं।

हमारा तर्क शुरू से क्या रहा है: यह कि बड़ा पूंजीपति वर्ग लाभकारी मूल्य को समाप्त कर खाद्यान्न को सस्ता करना चाहता है, ताकि मज़दूरी को घटा सके और मुनाफे की दर को बढ़ा सके; मज़दूर वर्ग को लाभकारी मूल्य के समाप्त होने का फायदा तभी मिलेगा जबकि वह संगठित होकर पूंजीपति वर्ग को मज़दूरी कम करने से रोक सके, जिससे कि उसकी वास्तविक मज़दूरी बढ़ेगी। उस सूरत में लाभकारी मूल्य के समाप्त होने का फायदा मज़दूर वर्ग को मिलेगा। मार्क्स ने ठीक यही बात मक्का कानूनों और मुक्त व्यापार के सम्बन्ध में कही थी:

“The English workers have very well understood the significance of the struggle between the landlords and the industrial capitalists. They know very well that the price of bread was to be reduced in order to reduce wages, and that industrial profit would rise by as much as rent fell.” (Marx, On the Question of Free Trade)

हम ठीक यही बात कह रहे हैं: अगर लाभकारी मूल्य के रूप में कुलकों-धनी किसानों को मिलने वाले इजारेदार लगान को समाप्त कर दिया जाय, और मज़दूर संगठित होकर अपनी मज़दूरी को पुराने स्तर पर कायम रखने के लिए न लड़ें, तो इसकी वजह से खाद्यान्न की कीमतों में जो कमी आएगी, उसका लाभ केवल बड़े पूंजीपति वर्ग को मिलेगा। लेकिन जहां तक लाभकारी मूल्य का प्रश्न है, तो उसे बचाने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि वह मज़दूरों की मज़दूरी से भी कटौती करता है, केवल पूंजीपतियों के मुनाफे से नहीं। पिछली बार भी हमने लेनिन का यह उद्धरण दिया था जिससे कि कुढ़मगज़ों की बुद्धि खुले। लेकिन एक बार फिर से इसे देने की आवश्यकता है:

“To proceed: the second distinction between differential rent and absolute rent is that the former is not a constituent part affecting the price of agricultural produce, whereas the latter is. The former arises from the price of production; the latter arises from the excess of market price over price of production. The former arises from the surplus, from the super-profit, that is created by the more productive labour on better soil, or on a better located plot. The latter does not arise from the additional income of certain forms of agricultural labour; it is possible only as a deduction from the available quantity of values for the benefit of the landowner, a deduction from the mass of surplus value—therefore, it implies either a reduction of profits or a deduction from wages. If the price of foodstuffs rises, and wages rise also, the profit on capital diminishes. If the price of foodstuffs rises without an increase in wages, then the workers suffer the loss. Finally, the following may happen— and this may be regarded as the general rule—the loss caused by absolute rent is borne jointly by the workers and the capitalists.” (Lenin, Collected Works, Volume 13, Progress Publishers, Moscow, p. 299)

इसमें आखिरी पंक्ति पर ग़ौर करिये: किसी भी प्रकार के इजारेदार लगान को समाप्त करना मज़दूर वर्ग और पूंजीपति वर्ग दोनों के हित में होता है, हालांकि पूंजीपति वर्ग इसके खत्म होने का पूरा फायदा उठाना चाहता है और मज़दूर वर्ग यदि संगठित हो तो वह उसे ऐसा करने से रोक स्वयं उसका लाभ उठा सकता है।

क्या यह बात कहना बड़ी इजारेदार पूंजी का समर्थन है? यदि हां, तब तो मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन सभी इजारेदार पूंजी के समर्थक थे! यह है ‘यथार्थ’ पत्रिका के इर्द-गिर्द एकत्र शंकर जी की बारात की सोच! अब आप स्वयं सोचें: यदि हम लोगों को अज्ञान के इस कारखाने यानी ’यथार्थ’ नामक इस पत्रिका से बचने की चेतावनी दे रहे हैं, तो क्या ग़लत कर रहे हैं?

अन्त में मूर्खेश जी ने कुछ स्तरहीन बातें की हैं, जिनका जवाब देना मैं ज़रूरी नहीं समझती, मसलन, कि मैं ब्राह्मणवादी हूं, इत्यादि। साथ ही, इनके चेले-चपाटियों और हम लोगों द्वारा निकाले गए कुछ पतित कुत्साप्रचारकों की बात पर भी हम और सभी संजीदा लोग अब केवल हंसते ही हैं, मसलन, कि हम किताब बेचते हैं, आदि। और दलित मज़दूरों के प्रमुख शत्रु धनी किसानों-कुलकों की गोद में बैठकर कोई इस प्रकार की बात कहे कि ‘आप ब्राह्मणवादी हैं’, तो उस पर ठीक से हंसी भी नहीं आ पाती है। इनको हमारे “ब्राह्मणवाद” की याद भी तभी आई है, जब हमने इनको आलोचना के एजेण्डे पर चढ़ाया है! जाहिर है, यह आरोप किलस से ज़्यादा पैदा हुआ है!

अब इस सवाल पर कि हमने ‘मज़दूर बिगुल’ में इन महोदय से लेख लिखवाए थे या नहीं। बिल्कुल लिखवाए थे। ग़लती थी हमारी। लेकिन समझदार से समझदार व्यक्ति को यह समझने में वक़्त लगता है कि कोई मूर्ख है। हमें जैसे-जैसे इस बात का अहसास होता गया, हमने इनके लेखन को ‘मज़दूर बिगुल’ में स्थान देना बन्द कर दिया। हमने नौजवान भारत सभा की ओर से इन महोदय का बेरोज़गारी पर एक लेक्चर भी रखवाया था जिसमें इन्होंने आर्थिक संकट की एक अल्पउपभोगवादी समझदारी पेश की थी, जिसके वीडियो को बाद में हमने ठीक इसी कारण से नौभास के पेज से हटा दिया था। इनकी ऐसी ही समझदारी को पेश करते हुए इनके कुछ लेख ग़लती से ‘मज़दूर बिगुल’ में भी प्रकाशित हो गये थे, जिसके लिए हमें आज तक खेद है। हमें निश्चय ही इनकी मूर्खता के बारे में समीक्षा-समाहार करने में कुछ समय लगा। लेकिन जब हमने यह समीक्षा कर ली, तो इनसे किसी भी प्रकार का बौद्धिक योगदान लेना बन्द कर दिया। ‘मज़दूर बिगुल’ की फाइलें खंगाल कर ऐसे लेख निकालने से कुछ भी सिद्ध नहीं होता, और यह मौजूदा बहस से भाग खड़े होने का एक तरीका मात्र है। मूर्खेश जी को बहस से भागने के लिए पुरातात्विक उत्खनन करने की बजाय, मेरी पिछली पोस्ट में रखे गए ठोस तर्कों, मार्क्स व लेनिन के सन्दर्भों से पेश विचारों का नुक्तेवार खण्डन पेश करना चाहिए था। लेकिन हर बौद्धिक कायर की यह आदत होती है कि ठोस प्रश्नों का ठोस जवाब देने की बजाय किसी न किसी प्रकार की ‘व्हाटअबाउटरी’ करने का प्रयास कर भाग खड़ा हो। मूर्खेश जी यही कर रहे हैं।

मूर्खेश जी कहते हैं कि “हां, मैं पूंजीपति की अच्छी नौकरी करता हूं, अच्छी तनख्वाह उठाता हूं, तो आप भी कौन से मज़दूर हैं।” मूर्खों की एक और भी ख़ासियत होती है: वह कुछ भी कहें ग़लती कर ही जाते हैं। सवाल किसी के सामाजिक वर्ग मूल का नहीं है, उसके पैस्सिव रैडिकल होने का है। अभी कुछ दिनों पहले इन महोदय ने खुद ही कहा था कि उन्हें इस बात का अफ़सोस है व्यवस्था के खिलाफ वह बस लिखते हैं, चेतावनी देते हैं, लेकिन वह खुद कुछ करते नहीं! हमने उनके इसी पैस्सिव रैडिकल होने को निशाने पर रखा है। यह पैस्सिव रैडिकल होना इनके राजनीतिक वर्ग चरित्र को तय करता है, और यह तब भी लागू होता जबकि वह किसी मज़दूर के घर पैदा हुए होते। थोड़ा मार्क्सवाद का अध्ययन करते तो मूर्खेश जी को पता होता कि मार्क्स सामाजिक वर्ग (social class) और राजनीतिक वर्ग (political class) में फर्क करते हैं। मार्क्स खुद भी मज़दूर नहीं थे। इसमें कोई समस्या भी नहीं है। न ही पूंजीपति की नौकरी करने में (और किसकी नौकरी करोगे!?) कोई समस्या है। सवाल पैस्सिव रैडिकल होने का है, जो कि टुटपुंजिया राजनीतिक प्रवृत्ति है। यानी क्रान्ति के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करना लेकिन ज़मीनी तौर पर कुछ न करना! यहीं पर मूर्खेश असीम और उनकी भूतपूर्व शिवदास घोष-मण्डली और हमारा फर्क है, हालांकि न तो वे सामाजिक वर्ग के तौर पर मज़दूर हैं और न ही मैं। दूसरी बड़ी ग़लती यह है कि एक मध्यवर्गीय ठलुआ बुद्धिजीवी होने के बाद राजनीतिक रूप से अपढ़ होना और उसके बावजूद मार्क्सवाद के ज्ञान के मोती बिखेरने का प्रयास करना। ये वे प्रवृत्तियां हैं, जो कि टुटपुंजिया राजनीतिक प्रवृत्तियां हैं। लेकिन चूंकि मूर्खेश जी सामाजिक वर्ग व राजनीतिक वर्ग के बीच मार्क्स द्वारा किये गये अन्तर से अनभिज्ञ हैं और दोनों को गड्डमड्ड कर देते हैं, इसलिए वह सफाई देने और “तुम भी तो मज़दूर नहीं हो” जैसी बचकानी बातें करने लग जाते हैं।

अन्त में, मूर्खेश जी ने धमकी भी दी है कि वह ‘यथार्थ’ में इजारेदार लगान आदि पर अपना “ज्ञान” बिखेरेंगे, उन्हें कोई नहीं रोक सकता! बिल्कुल नहीं रोक सकता, और हम रोकने का प्रयास करने के बारे में सोचेंगे भी नहीं! जीवन में मनोरंजन का भी तो कोई स्थान होता है! लेकिन सच यह है कि इस पत्रिका ने इजारेदार लगान, निरपेक्ष लगान आदि पर अपना “ज्ञान” पहले ही बिखेरा है और पढ़े-लिखे लोगों का काफी मनोरंजन किया है! थोड़ा मनोरंजन आज हमारे पाठक भी कर ही लें! इनकी निम्न अवस्थितियां देखें और बताएं कि इन्हें मूर्ख मण्डली कहा जाना चाहिए या नहीं:

1. इजारेदारी के युग में सभी इजारेदार कम्पनियां महज़ बेशी मुनाफा, यानी वह मुनाफा जो इजारेदार लगान में तब्दील होता है, को हासिल करने की कोशिश नहीं करती हैं, बल्कि वह “अधिकतम मुनाफा” हासिल करने का प्रयास करती हैं! मूर्खतापूर्ण बात! सच यह है कि हर पूंजीपति अधिकतम मुनाफा पाने की कोशिश ही करता है, लेकिन पूंजीवाद के आन्तरिक नियमों के मातहत, वह क्या पा सकता है, मार्क्स इसकी पड़ताल करते हैं। अब मूर्खेश असीम जी को ही ले लीजिये! वह भारत के क्रान्तिकारी आन्दोलन के लिए अपनी आर्मचेयर में बैठे ही ‘लीडिंग लाइट’ बनने की इच्छा रखते हैं, तो इससे क्या फर्क पड़ता है? सवाल यह है कि क्या वह बन पाएंगे? मार्क्स इसी वजह से इच्छाओं की पड़ताल नहीं करते, बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था की आम गति को उजागर करते हुए वास्तविक सम्भावनाओं की पड़ताल करते हैं! मार्क्स बताते हैं कि किसी इजारेदार कीमत के ज़रिये भी कोई इजारेदार पूंजीपति मनमाना मुनाफा हासिल नहीं कर सकता है; उसकी इजारेदार कीमत के लिए उसके उत्पाद हेतु मौजूद प्रभावी मांग एक सीमा का काम करती है। वह इतनी कीमत भी नहीं रख सकता कि कुछ बेशी मुनाफा कमाने योग्य माल भी न बेच सके। लेकिन ‘यथार्थ’ की मूर्ख मण्डली के अनुसार, मार्क्स का यह नियम अब पुराना पड़ गया है, अब इजारेदार कम्पनियां बेशी मुनाफा नहीं बल्कि एक ऐसा “अधिकतम मुनाफा” कमाने वाली हैं, जो किसी भी रूप में विनियमित (regulate) नहीं होगा! यह एकदम मूर्खतापूर्ण बात है। हर इजारेदार पूंजी का मुनाफा अभी भी उसी तरीके से तय हो रहा है, जिस प्रकार से मार्क्स ने बताया था और उसी प्रकार तय हो ही सकता है। यह पूंजी का आन्तरिक नियम है कि कुल सामाजिक स्तर पर किसी भी प्रकार की कीमतें उतना ही मूल्य वास्तवीकृत (realize) कर सकती हैं, जितना पैदा होता है। जो यह नहीं मानता वह मार्क्स का मूल्य का नियम ही नहीं मानता है। ‘यथार्थ’ पत्रिका के इस नज़रिये को जानने के लिए इनके वर्ष 2 अंक 1 में प्रकाशित पीआरसी सीपीआई (एमएल) के लेख को देखें।

2. इनका दावा था कि समाजवाद में श्रमशक्ति एक माल होती है। जब इस पर रगड़ाई हुई तो इन्होंने कहा कि समाजवाद में श्रमशक्ति माल तो नहीं होती, लेकिन उसके मूल्य का आकलन किया जाता है; फिर इन्हें बताया गया कि किसी वस्तु के मूल्य के आकलन का प्रश्न ही तभी उठता है, जब वह माल बने, तो ‘यथार्थ’ के नये अंक (वर्ष 2 अंक 1) में इन्होंने कहा है कि श्रमशक्ति के मूल्य से इनका तात्पर्य असल में ‘श्रम के मूल्य’ से था! यानी पहले से भी बड़ी मूर्खता। श्रम का कोई मूल्य नहीं होता क्योंकि सामाजिक श्रमकाल में नापा जाने वाला वस्तुकृत श्रम स्वयं मूल्य ही होता है। श्रम का मूल्य बोलने का अर्थ है ‘मूल्य के मूल्य’ की बात करना! यह मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र का ‘क ख ग’ है। क्या इस प्रकार के लोगों को मूर्ख नहीं बोला जाना चाहिए? अब अगर मूर्ख को भी मूर्ख नहीं बोलेंगे, तब तो यह शब्द ही डिक्शनरी से हटा देना चाहिए!

3. इन्हें बाज़ार-मूल्य और बाज़ार-कीमत के बीच भी अन्तर नहीं पता है। न ही इन्हें उत्पादन की कीमतों और बाज़ार-मूल्य के बीच अन्तर पता है। साथ ही, इन्हें लगान क्या होता है, इसका अर्थ ही नहीं पता है। इसके लिए ‘यथार्थ’ के वर्ष 2, अंक 1 में लगान पर छपा लेख देखें। उसकी आलोचना यहां देखें: http://ahwanmag.com/archives/7790

4. यह कुलकों-धनी किसानों को उजरती श्रम का शोषक होने के बावजूद, एक नये नाम से नवाज़ते हैं: ‘सामान्य पूंजीवादी किसान’ या ‘किसान बुर्जुआजी’, जो उजरती श्रम का शोषण भी करते रहेंगे, पूंजीपति वर्ग का हिस्सा भी नहीं माने जाएंगे और सर्वहारा वर्ग के मित्र भी होंगे! पाठक ही बताएं ऐसे लोगों को क्या नाम दिया जाय?

5. लाभकारी मूल्य को ‘यथार्थ’ के पुराने अंक में इन्होंने “पुराने रूप में” प्रतिक्रियावादी कहा था और “नये रूप में” प्रगतिशील। इन रूपों का दीदार केवल इन ‘यथार्थवादियों’ को ही हुआ था! लेकिन ‘यथार्थ’ के नये अंक में यह कहते हैं कि स्वामीनाथन कमेटी रिपोर्ट के बाद यानी 2007 के बाद लाभकारी मूल्य एक बेशी मुनाफा बन गया, एक ट्रिब्यूट बन गया और हर ट्रिब्यूट का विरोध किया जाना चाहिए और इस नये रूप में यह ग़लत है! मतलब, झूठ बोलते-बोलते यह बौड़म ब्रिगेड भूल गयी है कि इन्होंने कब क्या झूठ बोला था!

6. इनका दावा है कि भारत में कोई पूंजीवादी ज़मीन्दार नहीं है, लेकिन सारे किसान खुद मालिक भी हैं और काश्तकार भी हैं; लेकिन ये किसके काश्तकार हैं अगर कोई पूंजीवादी भूस्वामी है ही नहीं? ऊपर से वे यह भी कहते हैं कि भारत में ज्यादातर किसान तो लगान के रूप में अपना औसत मुनाफा भी दे बैठते हैं? अगर कोई पूंजीवादी भूस्वामी है ही नहीं, तो किसको लगान देते हैं! और उसके ऊपर यह कहते हैं कि भारत में भूमि का राष्ट्रीकरण हो चुका है! तो फिर सारे फार्मर खुद मालिक कैसे हैं? इसी प्रकार के मजाकिया अन्तरविरोधों में बेचारे फंस गए हैं, क्योंकि ये अपने कुलक-प्रेम में अन्धे हो चुके हैं, ऊपर से मार्क्सवाद का अध्ययन इनका सुभानअल्लाह है!

इसी प्रकार के और भी ढेर सारे नगीने हैं: मसलन, यह कि जनसंहार करने का “अधिकार” पूंजीवादी व्यवस्था में एक बुर्जुआ जनवादी अधिकार होता है, इजारेदार घराने किसानों के काश्तकार बनने जा रहे हैं, लाभकारी मूल्य की लड़ाई सर छोटूराम ने शुरू की थी, अक्तूबर क्रान्ति गांवों में बिना वर्ग संघर्ष के हुई थी, सामूहिकीकरण के दौरान वर्ग संघर्ष हुआ था लेकिन उसमें धनी किसान व कुलक भी सर्वहारा वर्ग के मित्र के रूप में शामिल थे (किसके खिलाफ!?), इत्यादि।

अब मैं पाठकों से पूछना चाहूंगी: ऐसे गिरोह को मूर्ख और बौड़म न कहा जाय तो क्या कहा जाय? मार्क्स आलोचना में किसी प्रकार की मध्यवर्गीय शराफ़त के पक्ष में नहीं थे। जो जैसा है, उसे वैसा ही कहा जा सकता है। जो पाठक ‘यथार्थ’ की ‘अर्थ से अनर्थ करने वाली’ इस मण्डली द्वारा मार्क्सवाद के बारे में भयंकर अज्ञानतापूर्ण और मूर्खतापूर्ण बातों और उनकी आलोचनाओं दिलचस्पी रखते हैं, वह निम्न लिंक्स पर जाकर विस्तृत लेकिन दिलचस्प पेपर्स को पढ़े:

http://ahwanmag.com/archives/7714

http://ahwanmag.com/archives/7719

http://ahwanmag.com/archives/7726

http://ahwanmag.com/archives/7748

http://ahwanmag.com/archives/7790

इन लेखों को पढ़कर आपको स्पष्ट हो जाएगा कि हमने ‘यथार्थ’ की मण्डली को बौड़म ब्रिगेड या मूर्ख मण्डली क्यों कहा है। 

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