अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) के अवसर पर कुछ कविताएं व एक लेख

अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) के अवसर पर कुछ कविताएं व एक लेख
----------------
जो पैदा होंगी हमारे बाद
अज्ञात

ये मत कहो बहनो कि तुम कुछ नहीं कर सकतीं
आस्था की कमी अब और नहीं
हिचक अब और नहीं
आओ, पूछें अपने आप से
क्या चाहते हैं हम?

पूर्ण मुक्ति चाहिए, नहीं चाहते कम
उड़ाने दो माखौल उन्हें, रुक जायेगी हँसी एक दिन
वे दिन क्या दूर हैं?
क्या फ़र्क पड़ता है उससे।

संघर्षों में झेलनी हैं दिक्क़तें और तकलीफ़ें हमें
सुख उन बहनों के लिए होगा, जो पैदा होंगी हमारे बाद।
----------------
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस आज़ादी और सम्मान के लिए लगातार लड़ते रहने की ज़िद के नाम!
कविता कृष्णपल्लवी

मुझमें साँस लेती है आज़ादी।
मेरा ज़ेहन सपनों की वादी है।
बग़ावत मेरी धमनियों-शिराओं में 
खून बनकर बहती है। 
कितनी-कितनी हारों के बाद भी 
दिल मेरा तैयार नहीं छोड़ने को 
लड़ते रहने की जिद।
कई बार काटे गए मेरे पंख 
पर रात भर में ही 
वे फिर उग आये 
और मैं निकल पड़ी खुले आकाश में 
तूफानों के प्रदेश की यात्रा पर।
----------------
मेरे क्रोध की लपटें
एक फ़िलिस्तीनी स्त्री (अनुवाद : वीणा शिवपुरी)

तुमने मुझे बाँधा है
जकड़ा है ज़ंजीरों में
पर लपटें मेरे क्रोध की
धधकती हैं, लपकती हैं।
नहीं कोई आग इतनी तीखी
क्योंकि मेरी पीड़ा के ईंधन से
ये जीती हैं, पनपती हैं।

आग को ठण्डाने के लिए
हँस सकती हूँ मैं भी
उन लोगों की ताक़त पर
हैं नहीं जो इंसान
कहलाने के काबिल भी।

शरीर बाँध सकते हो,
बेड़ियों से, जंज़ीरों से
शब्दों को बन्दी बनाना नहीं मुमकिन
वो तो उड़ जायेंगे
मुक्त पंछियों से।
----------------
लहर
मर्ज़िएह ऑस्कोई (ईरानी क्रान्तिकारी कवयित्री जिनकी शाह-ईरान के एजेंटों ने हत्या कर दी थी)

मैं हुआ करती थी एक ठंडी, पतली धारा
बहती हुई जंगलों,
पर्वतों और वादियों में
मैंने जाना कि
ठहरा हुआ पानी भीतर से मर जाता है
मैने जाना कि
समुद्र की लहरों से मिलना
नन्ही धाराओं को नयी जिन्दगी देना है
न तो लम्बा रास्ता, न तो लम्बा खड्ड
न रूक जाने का लालच
रोक सके मुझे बहते जाने से
अब मैं जा मिली हूँ अन्तहीन लहरों से
संघर्ष में मेरा अस्तित्व है
और मेरा आराम है – मेरी मौत

----------------
यह आर्तनाद नहीं, एक धधकती हुई पुकार है!

स्त्रियों के विरुद्ध दरिन्दगी की बढ़ती घटनाओं और इसके बावजूद समाज में छायी चुप्पी और ठण्डेपन पर प्रसिद्ध कवियत्री और सामाजिक कार्यकर्ता कात्यायनी ने यह कविता मोहनलालगंज बलात्कार की घटना पर लिखी थी।

जागो मृतात्माओ!
बर्बर कभी भी तुम्हारे दरवाज़े पर दस्तक दे सकते हैं।
कायरो! सावधान!!
भागकर अपने घर पहुँचो और देखो
तुम्हारी बेटी कॉलेज से लौट तो आयी है सलामत,
बीवी घर में महफूज़ तो है।
बहन के घर फ़ोन लगाकर उसकी भी खोज-ख़बर ले लो!
कहीं कोई औरत कम तो नहीं हो गयी है
तुम्हारे घर और कुनबे की?
मोहनलालगंज, लखनऊ के निर्जन स्कूल में जिस युवती को
शिकारियों ने निर्वस्त्र दौड़ा-दौड़ाकर मारा 17 जुलाई को,
उसके जिस्म को तार-तार किया
और वह जूझती रही, जूझती रही, जूझती रही—
—अकेले, अन्तिम साँस तक
और मदद को आवाज़ भी देती रही
पर कोई नहीं आया मुर्दों की उस बस्ती से
जो दो सौ मीटर की दूरी पर थी।
उस स्त्री के क्षत-विक्षत निर्वस्त्र शव की शिनाख़्त नहीं हो सकी है।
पर कायरो! निश्चिन्त होकर बैठो
और पालथी मारकर चाय-पकौड़ी खाओ
क्योंकि तुम्हारे घरों की स्त्रियाँ सलामत हैं।
कुछ किस्से गढ़ो, कुछ कल्पना करो, बेशर्मो !
कल दफ्तर में इस घटना को एकदम नये ढंग से पेश करने के लिए।
बर्बर हमेशा कायरों के बीच रहते हैं।
हर कायर के भीतर अक्सर एक बर्बर छिपा बैठा होता है।
चुप्पी भी उतनी ही बेरहम होती है
जितनी गोद-गोदकर, जिस्म में तलवार या रॉड भोंककर
की जाने वाली हत्या।
हत्या और बलात्कार के दर्शक,
स्त्री आखेट के तमाशाई
दुनिया के सबसे रुग्ण मानस लोगों में से एक होते हैं।
16 दिसम्बर 2012 को चुप रहे
उन्हें 17 जुलाई 2014 का इन्तज़ार था
और इसके बीच के काले अँधेरे दिनों में भी
ऐसा ही बहुत कुछ घटता रहा।
कह दो मुलायम सिंह कि ‘लड़कों से तो ग़लती हो ही जाती है,
इस बार कुछ बड़ी ग़लती हो गयी।’
धर्मध्वजाधारी कूपमण्डूको, भाजपाई फासिस्टो,
विहिप, श्रीराम सेने के गुण्डो, नागपुर के हाफ़पैण्टियो,
डाँटो-फटकारो औरतों को
दौड़ाओ डण्डे लेकर
कि क्यों वे इतनी आज़ादी दिखलाती हैं सड़कों पर
कि मर्द जात को मजबूर हो जाना पड़ता है
जंगली कुत्ता और भेड़िया बन जाने के लिए।
मुल्लाओ! कुछ और फ़तवे जारी करो
औरतों को बाड़े में बन्द करने के लिए,
शरिया क़ानून लागू कर दो,
“नये ख़लीफ़ा” अल बगदादी का फ़रमान भी ले आओ,
जल्दी करो, नहीं तो हर औरत
लल द्यद बन जायेगी या तस्लीमा नसरीन की मुरीद हो जायेगी।
बहुत सारी औरतें बिगड़ चुकी हैं
इन्हें संगसार करना है, चमड़ी उधेड़ देनी है इनकी,
ज़िन्दा दफ़न कर देना है
त्रिशूल, तलवार, नैजे, खंजर तेज़ कर लो,
कोड़े उठा लो, बागों में पेड़ों की डालियों से फाँसी के फँदे लटका दो,
तुम्हारी कामाग्नि और प्रतिशोध को एक साथ भड़काती
कितनी सारी, कितनी सारी, मगरूर, बेशर्म औरतें
सड़कों पर निकल आयी हैं बेपर्दा, बदनदिखाऊ कपड़े पहने,
हँसती-खिलखिलाती, नज़रें मिलाकर बात करती,
अपनी ख़्वाहिशें बयान करती!
तुम्हें इस सभ्यता को बचाना है
तमाम बेशर्म-बेग़ैरत-आज़ादख़्याल औरतों को सबक़ सिखाना है।
हर 16 दिसम्बर, हर 17 जुलाई
देवताओं का कोप है
ख़ुदा का कहर है
बर्बर बलात्कारी हत्यारे हैं देवदूत
जो आज़ाद होने का पाप कर रही औरतों को
सज़ाएँ दे रहे हैं इसी धरती पर
और नर्क से भी भयंकर यन्त्रणा के नये-नये तरीके आज़माकर
देवताओं को ख़ुश कर रहे हैं।

बहनो! साथियो!!
डरना और दुबकना नहीं है किसी भी बर्बरता के आगे।
बकने दो मुलायम सिंह, बाबूलाल गौर और तमाम ऐसे
मानवद्रोहियों को, जो उसी पूँजी की सत्ता के
राजनीतिक चाकर हैं, जिसकी रुग्ण-बीमार संस्कृति
के बजबजाते गटर में बसते हैं वे सूअर
जो स्त्री को मात्र एक शरीर के रूप में देखते हैं।
इसी पूँजी के सामाजिक भीटों बाँबियों-झाड़ियों में
वे भेड़िये और लकड़बग्घे पलते हैं
जो पहले रात को, लेकिन अब दिन-दहाड़े
हमें अपना शिकार बनाते हैं।
क़ानून-व्यवस्था को चाक-चौबन्द करने से भला क्या होगा
जब खाकी वर्दी में भी भेड़िये घूमते हों
और लकड़बग्घे तरह-तरह की टोपियाँ पहनकर
संसद में बैठे हों?
मोमबत्तियाँ जलाने और सोग मनाने से भी कुछ नहीं होगा।
अपने हृदय की गहराइयों में धधकती आग को
ज्वालामुखी के लावे की तरह सड़कों पर बहने देना होगा।
निर्बन्ध कर देना होगा विद्रोह के प्रबल वेगवाही ज्वार को।
मुट्ठियाँ ताने एक साथ, हथौड़े और मूसल लिए हाथों में निकलना होगा
16 दिसम्बर और 17 जुलाई के ख़ून जिन जबड़ों पर दीखें,
उन पर सड़क पर ही फैसला सुनाकर
सड़क पर ही उसे तामील कर देना होगा।

बहनो! साथियो!!
मुट्ठियाँ तानकर अपनी आज़ादी और अधिकारों का
घोषणापत्र एक बार फिर जारी करो,
धर्मध्वजाधारी प्रेतों और पूँजी के पाण्डुर पिशाचों के खि़लाफ़।
मृत परम्पराओं की सड़ी-गली बास मारती लाशों के
अन्तिम संस्कार की घोषणा कर दो।
चुनौती दो ताकि बौखलाये बर्बर बाहर आयें खुले में।
जो शिकार करते थे, उनका शिकार करना होगा।

बहनो! साथियो!!
बस्तियों-मोहल्लों में चौकसी दस्ते बनाओ!
धावा मारो नशे और अपराध के अड्डों पर!
घेर लो स्त्री-विरोधी बकवास करने वाले नेताओं-धर्मगुरुओं को सड़कों पर
अपराधियों को लोक पंचायत बुलाकर दण्डित करो!
अगर तुम्हे बर्बर मर्दवाद का शिकार होने से बचना है
और बचाना है अपनी बच्चियों को
तो यही एक राह है, और कुछ नहीं, कोई भी नहीं।

बहनो! साथियो!!
सभी मर्द नहीं हैं मर्दवादी।
जिनके पास वास्तव में सपना है समतामूलक समाज का
वे स्त्रियों को मानते हैं बराबर का साथी,
जीवन और युद्ध में।
वे हमारे साथ होंगे हमारी बग़ावत में, यकीन करो!
श्रम-आखेटक समाज ही स्त्री आखेट का खेल रचता है।
हमारी मुक्ति की लड़ाई है उस पूँजीवादी बर्बरता से
मुक्ति की लड़ाई की ही कड़ी,
जो निचुड़ी हुई हड्डियों की बुनियाद पर खड़ा है।
इसलिए बहनो! साथियो!!
कड़ी से कड़ी जोड़ो! मुट्ठियों से मुट्ठियाँ!
सपनों से सपने! संकल्पों से संकल्प!
दस्तों से दस्ते!
और आगे बढ़ो बर्बरों के अड्डों की ओर!
----------------
धीरे-धीरे आगे बढ़ती है
जेम्स कोनाली

‘आयरलैण्ड की पुनर्विजय’ 1915 से यह कविता ली गई है। जेम्स कोनाली आयरिश क्रान्तिकारी नेता थे, 1916 में डबलिन में इस्टर अभ्युत्थान के बाद ब्रिटिश सरकार ने उन्हें फांसी दे दी थी।

अपनी देह और आत्मा में जकड़ी हुई
सदियों की बेड़ियों को तोड़ने के लिए उठ खड़ी
उन औरतों का प्रयास
आजादी की दिशा में बढ़ा हुआ कदम है
मज़दूर वर्ग को अवश्य ही देना चाहिए साधुवाद
और जोरदार होनी चाहिए
उनकी वाहवाही
अगर दासता के खिलाफ उनकी नफरत और उमंग आजादी की ओर बढ़ती है धीरे-धीेरे
औरतों की सेना
लड़ाकू मज़दूरों की सेना के आगे-आगे।
----------------
तोड़ती पत्थर
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
“मैं तोड़ती पत्थर।”
----------------
मैं कभी पीछे नहीं लौटूँगी
मीना किश्वर कमाल

मैं वह औरत हूँ जो जाग उठी है
अपने भस्म कर दिये गये बच्चों की राख से
मैं उठ खड़ी हुई हूँ और
बन गयी हूँ एक झंझावात
मैं उठ खड़ी हुई हूँ
अपने भाइयों की रक्तधाराओं से
मेरे देश के आक्रोश ने मुझे अधिकार-समर्थ बनाया है
मेरे तबाह और भस्म कर दिये गांवों ने
दुश्मन के खिलाफ नफरत से भर दिया है,
मैं वह औरत हूँ जो जाग उठी है
मुझे अपनी राह मिल गयी है और कभी पीछे नहीं लौटूँगी
मैने अज्ञानता के बन्द दरवाजों को खोल दिया है
मैने सोने की हथकड़ियों को अलविदा कह दिया है
ऐ मेरे देश के लोगों, मैं अब वह नहीं जो हुआ करती थी
मुझे अपनी राह मिल गयी है और कभी पीछे नहीं लौटूंगी।
मैने देखा है नंगे पांव, मारे-मारे फिरते बेघर बच्चों को
मैने मेहंदी रचे हाथों वाली दुल्हनों को देखा है मातमी लिबास में
मैंने जेल की ऊँची दीवारों को देखा है
निगलते हुए आजादी को अपने मरभुक्खे पेट में
मेरा पुनर्जन्म हुआ है आजादी और साहस के महाकाव्यों के बीच
मैंने सीखे हैं आजादी के तराने
आखिरी सांसों के बीच, लहू की लहरों और विजय के बीच
ऐ मेरे देश के लोगों, मेरे भाई
अब मुझे कमजोर और नाकारा न समझना
अपनी पूरी ताकत के साथ मैं तुम्हारे साथ हूँ
अपनी धरती की आजादी की राह पर
मेरी आवाज घुलमिल गयी है हजारों जाग उठी औरतों के साथ
मेरी मुट्ठियां तनी हुई हैं हजारों अपने देश के लोगों के साथ
तुम्हारे साथ मैंने अपने देश की ओर कूच कर दिया है
तमाम मुसीबतों की, गुलामी की तमाम बेड़ियों को
तोड़ डालने के लिए
ऐ मेरे देश के लोगों, ऐ भाई
मैं अब वह नहीं जो हुआ करती थी
मैं वह औरत हूँ जो जाग उठी है
मुझे अपनी राह मिल गयी है और कभी पीछे नहीं लौटूंगी।
----------------
कात्यायनी की दो कविताएँ
 1. अपराजिता
(सृष्टिकर्ता ने नारी को रचते समय बिस्तर, घर, ज़ेवर, अपवित्र इच्छाएँ, ईर्ष्या, बेईमानी और दुर्व्यवहार दिया। – मनु)

हाँ
उन्होंने यही
सिर्फ़ यही दिया हमें
अपनी वहशी वासनाओं की तृप्ति के लिए
दिया एक बिस्तर,
जीवन घिसने के लिए, राख होते रहने के लिए
चौका-बरतन करने के लिए बस एक घर,
समय-समय पर
नुमाइश के लिए गहने पहनाये,
और हमारी आत्मा को पराजित करने के लिए
लाद दिया उस पर तमाम अपवित्र इच्छाओं
और दुष्कर्मों का भार।
पर नहीं कर सके पराजित वे
हमारी अजेय आत्मा को
उनके उत्तराधिकारी
और फिर उनके उत्तराधिकारियों के उत्तराधिकारी भी
नहीं पराजित कर सके जिस तरह
मानवता की अमर-अजेय आत्मा को,
उसी तरह नहीं पराजित कर सके वे
हमारी अजेय आत्मा को
आज भी वह संघर्षरत है
नित-निरन्तर
उनके साथ
जिनके पास खोने को सिर्फ़ ज़ंजीरें ही हैं
बिल्कुल हमारी ही तरह!

2. वह रचती है जीवन और...

(नारी की रचना इसलिए हुई है कि पुरुष अपने पुत्रों, देवताओं से वंश चला सके। – ऋग्वेद संहिता)

नारी की रचना हुई मात्र वंश चलाने के लिए,
जीवन को रचने के लिए
– उन्होंने कहा चार हज़ार वर्षों पहले
नये समाज-विधान की रचना करते हुए।
पर वे भूल गये कि
नहीं रचा जा सकता कुछ भी
बिना कुछ सोचे हुए।
जो भी कुछ रचता है – वह सोचता है।
वह रचती है
जीवन
और जीवन के बारे में सोचती है लगातार।
सोचती है –
जीवन का केन्द्रबिन्दु क्या है
सोचती है –
जीवन का सौन्दर्य क्या है
सोचती है –
वह कौन-सी चीज़ है
जिसके बिना सब कुछ अधूरा है
प्यार भी, सौन्दर्य भी, मातृत्व भी…
सोचती है वह
और पूछती है चीख़-चीख़कर।
प्रतिध्वनि गूँजती है
घाटियों में मैदानों में
पहाड़ों से, समुद्र की ऊँची लहरों से टकराकर
आज़ादी! आज़ादी!! आज़ादी!!!


----------------
रोना स्त्रियोचित है?
कात्यायनी

‘अमां यार, तुम तो बात-बात में औरतों जैसे रोने लगते हो!’ ‘अजी, तुम तो रोने लगे औरतों की तरह।’ रोजमर्रा की जिंदगी में ये जुमले आमतौर पर सुनने को मिल जाते हैं। खासकर बच्चों की हमेशा ही ऐसी भर्त्सना की जाती है—‘मर्द बच्चे हो, बात-बात में टसुए क्यों बहाने लगते हो?’

यह एक आम धारणा है कि रोना स्त्रियों का गुण है, मर्द नहीं रोते। वह कवि-कलाकार हो तो दीगर बात है। कवि-कलाकारों में थोड़ा स्त्रैणता तो होती ही है।

यह पुरुष प्रधान सामाजिक ढांचे में व्याप्त संवेदनहीनता और निर्ममता की मानवद्रोही संस्कृति की ही एक अभिव्यक्ति है। शासक को रोना नहीं चाहिए। रोने से उसकी कमजोरी सामने आ जायेगी। इससे उसकी सत्ता कमजोर होगी। पुरुष रोयेगा तो औरत उससे डरना बंद कर देगी। वह रोयेगा तो औरत उसके हृदय की कोमलता, भावप्रवणता या कमजोरी को ताड़ लेगी। तब भला वह उससे डरेगी कैसे? उसकी सत्ता स्वीकार कैसे करेगी? वस्तुत: यह पूरी धारणा स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के ‘शासक-शासित फ्रेम’ की बुनियाद पर खड़ी है।

लड़कों का औरतों की तरह रोना अपमानजनक है, पर लड़की कोई बहादुरी करे तो उसे ‘मर्द की तरह बहादुर’ कहा जाता है। खुब लड़ी मर्दानी… लड़की बहादुर है तो वह मर्दानी है। बहादुरी स्त्री के लिए गौरव है क्योंकि बहादुरी तो आमतौर पर पुरुष ही करते हैं। औरत का सहज गुण तो भीरुता है।

लेकिन रोना हमेशा ही कातरता या अवशता नहीं होता। रोना घनीभूत दुख, पीड़ा भावोद्रेक और प्यार की अभिव्यक्ति भी होता है। जो संघर्ष करता है वह भी रोता है। पर आज पुरुष और स्त्री में जिन चीजों को असामान्य या अस्वाभाविक कहकर चिन्हित किया जाता है, उनके कारण और मानदंड मुख्यत: वर्तमान नारी उत्पीड़क, पुरुष स्वामित्ववादी और असमानतापूर्ण सामाजिक ढांचे द्वारा निर्धारित होते हैं न कि प्राकृतिक स्थितियों द्वारा।

बच्चों को हम रोज-रोज रोने के बारे में अपनी इस धारणा से और ऐसी ही तमाम धारणाओं से लैस करते हैं, उनकी सहज भावनात्मक अभिव्यक्तियों की खिल्ली उड़ाते हैं और इस तरह तिल-तिल कर उन्हें संवेदनहीन बनाते जाते हैं। वर्तमान समाज के एक आदर्श भावी नागरिक के रूप में उन्हें ढालते जाते हैं। यदि वह लड़का है तो उसे स्त्री पर शासन करने वाले निरंकुश निर्मम व्यक्ति के रूप में और यदि लड़की है तो इसे पुरुष सत्ता को स्वीकारने वाली स्त्री के रूप में ढालने का काम परिवार से लेकर समाज और विद्यालयों तक एक सतत प्रक्रिया के रूप में जारी रहता है।

प्राय: यह भी कहा जाता है कि ख्याल करना, प्यार करना और सेवा-सुश्रुषा स्त्रियों के विशेष गुण है। ऐसा हो सकता है कि प्राकृतिक वस्तुगत स्थितियों और विशिष्टताओं (जैसे गर्भधारण, संतानोत्पत्ति, स्तनपान आदि) के कारण स्त्रियों में ये गुण विशेष रूप से कुछ अधिक मात्रा में पाये जाते हों। पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि ‘केयरिंग’, ‘केयरेसिंग’ या ‘नर्सिंग’ पुरुषों के गुण ही नहीं या कि ये काम या भाव पुरुषोचित नहीं हैं। जब ऐसी बातें की जाती हैं तो उसके पीछे भी यह पूर्वाग्रह काम करता रहता है कि सेवा धर्म स्त्री का धर्म है, स्त्री पुरुष की सेवा करती है और पुरुष स्त्री की हिफाजत करता है आदि-आदि। गौर करने की बात है जब स्त्री-पुरुष के बीच प्यार की अभिव्यक्ति की बात आती है तो पुरुष को भावनात्मक रूप से सक्रिय जीव और स्त्री को मात्र (प्यार का पात्र) एक वस्तु मान लिया जाता है। पुरुष इश्क का साकार रूप होता है और स्त्री हुस्न का। हुस्न प्यार नहीं करता, वह प्यार करने की वस्तु होता है। ‘तू हुस्न है, मैं इश्क हूं, तू मुझमें है मैं तुझमें हूं’। आत्मा-परमात्मा सदृश हुस्न-इश्क की इस एकरूपता में भी द्वैधता है—हर हाल में इश्क पुरुष ही होता है और हुस्न स्त्री ही।

विडंबना यह भी है कि पुरुष प्रभुत्व के सामाजिक-आत्मिक मूल्यों-मान्यताओं-धारणाओं से नारी मुक्ति की पैरोकार स्त्रियां भी ग्रस्त हैं। हावभाव, वेशभूषा तथा जीवनशैली में पुरुषों का अंधानुकरण भी स्त्री की हीन ग्रंथि की ही परिचायक है।

कुल मिलाकर, तर्क, विज्ञान, समानता और जनवाद में विश्वास रखने वाले लोगों को स्त्रियों व पुरुषों में नैसर्गिक व स्वाभाविक माने जाने वाले सभी गुणों के बारे में स्थापित धारणाओं पर पुनर्विचार करना होगा। उन्हें सोचना होगा कि रोना स्त्रियोचित क्यों है और न रोना पुरुषोचित क्यों है।

(‘दुर्ग द्वार पर दस्तक’ से)

बच निकलना
चीज़ों के बारे में
सोचने के लिए कहा उन्होनें
हमें
चीज़ों में बदल डालने के लिए।
हमने सोचा
चीज़ों के बारे में
चीज़ों में बदल जाने से
बचने के लिए।


Comments

Popular posts from this blog

केदारनाथ अग्रवाल की आठ कविताएँ

कहानी - आखिरी पत्ता / ओ हेनरी Story - The Last Leaf / O. Henry

अवतार सिंह पाश की सात कविताएं Seven Poems of Pash