कविता - नया लिबास पहनकर… / ग़ौहर रज़ा
कविता - नया लिबास पहनकर…
ग़ौहर रज़ा
नया लिबास पहनकर के ये क्युं सोचते हो
कि सारे ख़ून के धब्बों को तुम छुपा लोगे?
कि बस्तियों को जलाते रहे हो बरसों से
उन्हीं की राख है अब तक तुम्हारे चेहरे पर
सदाएं बच्चों की आती थीं जब अंधेरों में
तुम्हारे पैर थिरकते थे रक्स करते थे
घरों में सिसकियां आहें या आंसुओं की क़तार
तुम्हारे दिल को सुकूं बख़्शती रहीं अब तक
धरम शराब था
बांटा गया, नशा भी हुआ
और इस नशे में बहुत कुछ लुटा दिया तुमने
हर एक फूल से रंगों से तुमको नफरत है
न जाने कितना असासा जला दिया तुमने
हर एक बाग में नफ़रत के बीज बोते रहे
फसल खड़ी है अब तो काटने को आए हो
फ़रेबो-झूठ की बैसाखियों पर चलते रहे
तो पैर निकाले हैं जाने क्या होगा
शहर शहर को जलाकर हमेशा तुमने कहा
कि यही है मुल्क़ की ख़िदमत, यही वतन से
है प्यार
तुम्हारे क़दमों की आहट से दिल धड़कता था
तुम्हारे बढ़ते क़दम अब भी वहशियाना हैं
ये भूल जाएं और अब सब तुम्हारे साथ चलें
तुम्हारे हाथों के ख़ंजर छिपे हुए तिरशूल
चमकते भालों को भूलें तुम्हारे साथ चलें
दहकते शोलों को भूलें तुम्हारे साथ चलें
तुम्हारे साथ चलें और तुमको मौक़ा दें
कि आबो-ख़ून से आंसू से दिल नहीं बहला
वतन को तोड़ना टुकड़ों में अब भी बाक़ी है
मैं साथ आऊं तुम्हारे और तुमको मौक़ा दूं
वही करोगे जो नस्लों के मानने वाले
वही करोगे जो नफ़रत के पूजने वाले
तमाम मुल्क़ों में करते रहे हैं आज तलक
मैं साथ आऊं तुम्हारे और तुमको मौक़ा दूं
मैं कैसे फूलों को रंगों को सारे बच्चों को
मैं कैसे ख़ून के क़तरों को आज धोखा दूं
लिबास कोई भी हो तन को ढांप सकता है
ये ज़ेहन, सोच, तरीक़े छुपा नहीं सकता
नया लिबास पहनकर के ये क्यूं समजते हो
कि सारे ख़ून के धब्बों को तुम छिपा लोगे ?
Painting - Renato Guttuso, The Massacre 1943, Oil on canvas |
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