मोदी को खड़ा करने-रखने के प्रोजेक्ट पर 50 हजार करोड़ रु किसने खर्चे?
मोदी को खड़ा करने-रखने के प्रोजेक्ट पर 50 हजार करोड़ रु किसने खर्चे?
मुकेश असीम
पिछले 7-8 साल में मोदी को खड़ा
करने-रखने के प्रोजेक्ट पर ज्यादा नहीं तो 50 हजार करोड़ रु का
खर्च तो आया ही है। वो कौन हैं जिन्होने इस खर्च के लिए अपना भंडार खोला? फिर
इतना पैसा नकद सूटकेसों में भरकर इधर से उधर गया होगा, ये तो कोई मूर्ख भी
नहीं सोच सकता।
ये आईएलएफ़एस, आईसीआईसीआई, अनिल अंबानी,
सिटी बैंक, ज़ी, वगैरह जो मामले सामने आ रहे हैं, जिनकी
जांच से घबराकर न्यूयॉर्क में कैंसर का इलाज कराता जेटली अस्पताल के बिस्तर पर से
उठ खड़ा होता है, जांच अधिकारी हटा दिये जाते हैं, सारी
जांच एजेंसियों से लेकर सुप्रीम कोर्ट और रिजर्व बैंक तक हिला दिये जाते हैं,
ये फासिस्ट सामाजिक-राजनीतिक मुहिम को फ़ाइनेंस करने वाली जंजीर की कुछ
कड़ियाँ हैं जो अपनी कमजोरी से टूटने के कगार पर हैं। मजबूत कड़ियाँ अभी टिकी हैं।
पर ये तो बस आगाज है, बहुत कुछ सामने आना बाकी है।
ये सब पूंजीपति और फासिस्ट पार्टी दोनों एक दूसरे के पूरक हैं,
पहला दूसरे का खर्चा चलाता है तो दूसरा सत्ता में आने के बाद पहले को
देश के समस्त सम्पदा व संसाधनों को थाली में परोसकर लूटने के लिए देता है। बहुत
पहले कहे रजनी पाम दत्त के शब्द याद रखने जरूरी हैं, ''चीखते-चिल्लाते
मह्त्वोन्मादियों, गुंडों, शैतानों और
स्वेच्छाचारियों की यह फ़ौज जो फासीवाद के ऊपरी आवरण का निर्माण करती है, उसके
पीछे वित्तीय पूँजीवाद के अगुवा बैठे हैं, जो बहुत ही शान्त
भाव, साफ़ सोच और बुद्धिमानी के साथ इस फ़ौज का संचालन करते हैं और इनका
ख़र्चा उठाते हैं। फासीवाद के शोर-शराबे और काल्पनिक विचारधारा की जगह उसके पीछे
काम करने वाली यही प्रणाली हमारी चिन्ता का विषय है। और इसकी विचारधारा को लेकर जो
भारी भरकम बातें कही जा रही हैं उनका महत्व पहली बात, यानी घनघोर संकट की
स्थितियों में कमजोर होते पूंजीवाद को टिकाये रहने की असली कार्यप्रणाली के संदर्भ
में ही है।''
जो इन पूँजीपतियों का विरोध नहीं करता, वह असल में फासीवाद
का भी विरोध नहीं कर सकता। सत्ता को लेकर बीजेपी से अपने पूरे विरोध के बावजूद भी
कांग्रेस व अन्य चुनावी दल इसीलिए फासीवादी ढांचे पर हमला नहीं कर पाते क्योंकि
उन्हें भी इन पूँजीपतियों के लिए ही काम करना होता है। इसलिए यह उम्मीद पालना कि
अगर चुनाव में मोदी की पराजय हो जाए तो इन सब लूट-घोटालों की जांच होकर किसी को
सजा मिलेगी तो इससे ज्यादा भोलापन कुछ नहीं होगा। इसलिए फासिस्टों की चुनावी पराजय,
अगर हो, तो वह अस्थाई राहत ही होगी। पूंजीवाद के खिलाफ एक
क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण किए बगैर फासीवाद को अंतिम तौर पर पराजित करना नामुमकिन
है। लेकिन जो भी फासीवाद से लड़ने का इरादा रखते हैं उन्हें चुनावी राजनीति के
भरोसे न बैठे रहकर एक फासीवाद विरोधी संयुक्त सर्वहारा मोर्चे की ओर तो कम से कम
बढ़ना ही चाहिए।
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