कला के साथ विचारधारा और राजनीति के अन्‍तर्सम्‍बन्‍ध और ‘प्रतिबद्ध’ सम्‍पादक का भोंड़ा भौतिकवाद

कला के साथ विचारधारा और राजनीति के अन्‍तर्सम्‍बन्‍ध और प्रतिबद्धसम्‍पादक का भोंड़ा भौतिकवाद

 

कात्यायनी 

पंजाब में अभी पंजाबी कवि सुरजीत पातर के कवित्‍व के चरित्र-निर्धारण को लेकर एक बहस जारी है। इस बहस में प्रतिबद्धपत्रिका ने अपना पक्ष रखा और सुरजीत पातर की कविता को क्रान्तिकारी मानने से इंकार किया, हालाँकि अतीत में उनकी अवस्थिति कुछ और थी, जिसे लेकर उन्‍होंने अपनी आत्‍मालोचनापेश की! उनकी दलील एक ओर पातर के कवि-कर्म के एक विश्‍लेषण पर आधारित है, जिसे सुर्ख लीहके साथियों ने ग़लत क़रार दिया है, तो वहीं दूसरी ओर इस बात पर आधारित है कि पातर ने सरकार से पुरस्‍कार लिए, सरकारी संस्‍थाओं में पद ग्रहण किया, इत्‍यादि।  

इसका जवाब देते हुए सुर्ख लीह’ (सुर्ख रेखा) पत्रिका ने प्रतिबद्धकी अवस्थिति की विस्‍तृत आलोचना पेश करते हुए तमाम दूसरी चीज़ों के साथ यह दिखलाया कि प्रतिबद्धके सम्‍पादक महोदय को सुरजीत पातर की कविताओं का न तो टेक्‍स्‍टसमझ आया है और न ही कण्‍टेक्‍स्‍ट। इसके बाद प्रतिबद्धने एक सोशल मीडिया पोस्‍ट में यह वायदा किया कि वह इस आलोचना का आगे विस्‍तृत जवाब देंगे और यह कि प्रतिबद्धकी अवस्थिति को सुर्ख लीहसमझ नहीं पायी है या उसे विकृत किया गया है। ताज्‍जुब की बात यह है कि प्रतिबद्धके सम्‍पादक महोदय ने सुर्ख लीहके लेख की इस बात पर भी आलोचना की है कि उन्‍होंने कई उद्धरणों का सन्‍दर्भ नहीं दिया, हालाँकि प्रतिबद्धतो स्‍वयं ही उद्धरणों का सन्‍दर्भ देना तो दूर झूठे उद्धरण पेश करता रहा है, और चौर्य-लेखन की मिसालें क़ायम करता रहा है। बहरहाल, ‘प्रतिबद्धके सम्‍पादक की इन बातों का जवाब तो सुर्ख लीहके साथी अगर ज़रूरी समझेंगे तो देंगे ही। मैं उस पर कोई टिप्‍पणी नहीं करूँगी।  

शुरू में ही यह स्‍पष्‍ट कर दें कि हम पातर के कवि-कर्म की आलोचनात्‍मक विवेचना करने के लिए फ़िलहाल अपने आपको उपयुक्‍त नहीं पाते हैं क्‍योंकि किसी कवि के कुल कवि-कर्म का विवेचन करने के लिए उसका व्‍यापक अध्‍ययन आवश्‍यक होता है, और उनकी अधिकांश कविताएँ अभी हिन्‍दी में उपलब्‍ध नहीं हैं और जो उपलब्‍ध हैं उनका अध्‍ययन करना कुछ अन्‍य आसन्‍न कार्यभारों के चलते हमारे लिए सम्‍भव नहीं हो पायेगा।

लेकिन अभी हम एक अलग प्रश्‍न पर बात रखेंगे। यहाँ मूल सवाल पद्धति-शास्‍त्र का है। मार्क्‍सवादी साहित्‍यालोचना की पद्धति क्‍या है, उसके सिद्धान्‍त और उसके निर्देशांक क्‍या हैं, यह पहला सवाल है जो मार्क्‍सवादियों के बीच स्‍पष्‍ट होना चाहिए। क्‍या मार्क्‍सवादी साहित्‍यालोचना के आधार पर, हम किसी कलाकार के राजनीतिक व विचारधारात्‍मक पूर्वाग्रहों, उसके क्रान्तिकारी व्‍यवहार में होने या न होने को कोई आधार बना सकते हैं? नहीं। यह मार्क्‍सवादी पद्धति नहीं है। साहित्‍यालोचना की मार्क्‍सवादी पद्धति सबसे पहले किसी कलात्‍मक रचना को उसके इतिहास और साथ ही उसी इतिहास के विचारधारात्‍मक पाठ से उसके रिश्‍ते में सिचुएट करती है और इस बात की पड़ताल करती है कि वह किस हद तक अपने युग की सच्‍चाइयों को परावर्तित करती है। इसी प्रक्रिया में, वह जेनुइन कला और विचारधारा व राजनीति के रिश्‍तों में निहित द्वन्‍द्व को अवस्थित करती है, क्‍योंकि जेनुइन कला का प्रकार्य ही ऐसा है कि एक ओर कलाकार के विचारधारात्‍मक व राजनीतिक पूर्वाग्रहों और दूसरी ओर उसके द्वारा यथार्थ के चित्रण के बीच एक द्वन्‍द्व अनिवार्य और अपरिहार्य रूप से प्रकट होता ही है। आगे हम दिखलायेंगे कि मार्क्‍स, एंगेल्‍स, लेनिन व मैशरी जैसे मार्क्‍सवादी आलोचकों की इस विषय में क्‍या समझदारी है। वजह यह कि इस विषय में प्रतिबद्धके सम्‍पादक ने अपनी दरिद्र समझदारी को अनावृत्‍त कर दिया है। थोड़ा विस्‍तार में देखते हैं।  

 

‘प्रतिबद्ध’ की हालिया पोस्‍ट
‘प्रतिबद्ध’ की हालिया पोस्‍ट

इस बहस में आगे अपने पक्ष को सही सिद्ध करने के लिए ‘प्रतिबद्धकी ओर से अभी हाल ही में एक पोस्‍ट डाली गयी है, जिसमें लोर्का के एक उद्धरण को पेश किया गया है। वह उद्धरण प्रतिबद्धके सम्‍पादक ने काट-छाँट कर पेश किया है, जैसा कि हम अभी थोड़ी देर में देखेंगे। साथ ही, अगर हम उस उद्धरण को पूरा देखें, तो कोई भी क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट उस बात से सहमत नहीं हो सकता जो लोर्का कह रहे हैं। वैसे भी लोर्का की महानता को समझने के लिए हमें प्राथमिक तौर पर लोर्का की कलात्‍मक रचनाओं का अध्‍ययन करना चाहिए, न कि विचारधारा व राजनीति के मामलों में की गयी उनकी स्‍फुट टिप्‍पणियों का। वह कोई कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारी नहीं थे, बल्कि एक रैडिकल, जनपक्षधर, प्रगतिशील व बदलाव के पक्ष में खड़े युगान्‍तरकारी व महान कवि थे। लेकिन विचारधारा व राजनीति के मामले में, और साहित्‍यालोचना के मामले में, जो कि विचारधारा व राजनीति से बेहद क़रीबी से जुड़ा होता है, हम मार्क्‍स, लेनिन, माओ से व ब्रेष्‍ट, लुकाच, बेंजामिन, आइज़ेंस्ताइन, आदि से आलोचनात्‍मक रूप में सीखते हैं। सिद्धान्‍त और राजनीति लोर्का का क्षेत्र नहीं था और उनका कवित्‍व उनकी विचारधारा या राजनीति से यान्त्रिक तरीक़े से निर्धारित नहीं होता है। यह बात हर जेनुइन कलाकार पर लागू होती है। कलाकार की कलात्‍मक रचना की उसकी विचारधारा व राजनीति से एक सापेक्षिक स्‍वायत्‍तता होती है।

 

बहरहाल, लोर्का के उद्धरण को तोड़-मरोड़कर और काट-छाँटकर पेश करते हुए प्रतिबद्धके सम्‍पादक महोदय ने इस जारी बहस का कोई सन्‍दर्भ नहीं दिया है या उसका कोई ज़िक्र नहीं किया है, जो अपने आप में एक चालाकी है। यह इसलिए की गयी है ताकि बाद में वह कह सकें कि मैंने तो पातर पर जारी बहस का कोई ज़िक्र ही नहीं किया, तो फिर कोई इसे उस बहस से कैसे जोड़ सकता है?’ लेकिन ऐसी सफ़ाइयों और दलीलों का कोई फ़ायदा नहीं होता, बस इन्‍हें देने वाला अपने दिल को तसल्‍ली दे रहा होता है। वास्‍तव में, हर समझदार पाठक समझता है कि इस प्रकार की कवायद बहसों से पलायन करने वाले क्‍यों करते हैं।

कहने के लिए असम्‍बद्ध तरीक़े से डाली गयी इस पोस्‍ट से सम्‍भवत: वह यह दिखाना चाहते हैं कि पातर के बारे में उनका फ़ैसला सही है क्‍योंकि लोर्का ने भी यह कहा है कि कोई भी सच्‍चा कवि अनिवार्य रूप से क्रान्तिकारी भी होता ही है और चूँकि पातर क्रान्तिकारी नहीं थे, केवल कलम घसीटते थे, इसलिए उन्‍हें सच्‍चा कवि भी नहीं माना जा सकता है, या, यह कि एक कवि को अगर वास्‍तव में सच्‍चा कवि होना है, तो उसे क्रान्तिकारी भी होना ही पड़ेगा, महज़ कविताएँ लिखने के लिए कागज़ काले करने से काम नहीं बनेगा! बकौल प्रतिबद्धसम्‍पादक, पातर को इसलिए भी क्रान्तिकारी कवि नहीं माना जा सकता क्‍योंकि उन्‍होंने सरकारी संस्‍थाओं में पद ग्रहण किया और सरकारी पुरस्‍कार लिए। लेकिन क्‍या सम्‍पादक महोदय को पता है कि लोर्का ने भी सरकारी संस्‍था में पद ग्रहण किया था? 1930 में जब लोर्का अमेरिका प्रवास से स्‍पेन वापस लौटे, तो उसी समय द्वितीय स्‍पेनी गणराज्‍य की स्‍थापना हुई थी। इस दौरान स्‍पेनी सरकार द्वारा लोर्का को छात्रों की थियेटर कम्‍पनी तियात्रो यूनीवर्सितारियो ला बराकाका निर्देशक नियुक्‍त किया गया था। इसको चलाने का काम शिक्षा मन्‍त्रालय करता था। इसलिए प्रतिबद्धके सम्‍पादक महोदय की दुर्व्‍याख्‍या के ही अनुसार, लोर्का को भी क्रान्तिकारी कवि नहीं माना जाना चाहिए। यही नहीं, व्‍यक्तिगत धरातल पर, लोर्का के रिश्‍ते कई फ़लैंजिस्‍ट कलाकारों से भी थे, जो राजनीतिक तौर पर एक फ़ासीवादी दल से जुड़े थे। इसके पीछे स्‍वयं लोर्का के अस्‍पष्‍ट राजनीतिक व विचारधारात्‍मक पूर्वाग्रह थे, न कि दक्षिणपंथ की ओर उनका कोई झुकाव।

इतना स्‍पष्‍ट है कि जिस उद्देश्‍य के लिए सम्‍पादक महोदय लोर्का का दुरुपयोग करना चाहते हैं, उसके लिए लोर्का की मिसाल पेश करने में काफ़ी दिक्‍कतें पेश आयेंगी। लेकिन तथ्‍यों और इतिहास से सम्‍पादक महोदय का उतना ही लेना-देना है, जितना चीनी लोगों का हिब्रू भाषा से।

मैं इस बात पर इसलिए टिप्‍पणी कर रही हूँ क्‍योंकि (1) लोर्का के पूरे उद्धरण को सम्‍पादक महोदय ने काट-छाँट कर पेश किया है और अगर वह पूरा उद्धरण पेश करते तो वह उससे ख़ुद भी शायद ही सहमत हो पाते; (2) कला और राजनीति व विचारधारा के रिश्‍तों के बारे में यह समझ ही निहायत ग़ैर-मार्क्‍सवादी, यान्त्रिक, कठमुल्‍लावादी और बचकानी है; और (3) किसी भी कलाकार के मूल्‍यांकन के लिए उसके कला-कर्म की मार्क्‍सवादी आलोचना पहला कार्यभार होता है, न कि इन तथ्‍यों की कि वह किसी बुर्जुआ सरकार से पुरस्‍कार ले चुका है, किसी बुर्जुआ सरकार की किसी संस्‍था में किसी पद पर है, या वह ख़ुद क्रान्तिकारी व्‍यवहार में नहीं लगा है या नहीं। इस मामले में एकमात्र अपवाद फ़ासीवादियों व फ़ासीवादी हुक्‍मरानों से गलबँहियाँ करना माना जा सकता है, जो कि आज हिन्‍दी व अन्‍य भाषाओं के कई साहित्‍यकार व बुद्धिजीवी कर रहे हैं क्‍योंकि फ़ासीवादियों के साथ कला महज़ प्रोपगैण्‍डा कला में तब्‍दील हो जाती है, जिस पर पूर्ण फ़ासीवादी नियन्‍त्रण होता है। वहाँ कला की सापेक्षिक स्‍वायत्‍तता राजनीतिक तौर पर दमित हो जाती है। वास्‍तव में, फ़ासीवाद राजनीति का सौन्‍दर्यीकरण करता है, जैसा कि बेंजामिन ने लिखा है और इस प्रक्रिया में फ़ासीवादी राजनीति स्‍वयं एक प्रोपगैण्‍डा की कलात्‍मक रचना’, एक सौन्‍दर्यीकृत ऐक्‍टमें तब्‍दील हो जाती है।

यहाँ प्रतिबद्धके सम्‍पादक महोदय चालाकी करने के चक्‍कर में मूर्खता कर बैठे हैं और सुरजीत पातर पर जारी बहस के सन्‍दर्भ में खुलकर बोलने और सुर्ख लीहकी आलोचना का विशिष्‍ट तौर पर जवाब देने के बजाय उन्‍होंने कला और राजनीति के रिश्‍तों पर एक आम प्रेक्षण रखा है जो सिरे से न केवल ग़लत है बल्कि अहमक़ाना भी है। बेहतर होता कि वह पातर पर जारी बहस का ज़ि‍क्र करते हुए अपनी विशिष्‍ट बात कहते, जिससे कि बाद में बच निकलने के कुछ रास्‍ते निकालने की कोशिशें वह सम्‍भवत: कर सकते थे। लेकिन घुमा-फिराकर बातें करने की तरक़ीब लगाने के चक्‍कर में सम्‍पादक महोदय कला, राजनीति व विचारधारा के आन्‍तरिक रिश्‍तों के बारे में आम तौर पर एक निहायत अहमक़ाना प्रस्‍थापना दे बैठे हैं और इस चक्‍कर में अपने पैरों पर कुल्‍हाड़ी मार बैठे हैं।

मैं इस बात पर अपना मूल्‍यांकन रखने की स्थिति में नहीं हूँ कि पातर एक क्रान्तिकारी कवि हैं या नहीं। इतना अवश्‍य लगता है कि उन्‍हें प्रतिगामी कवि तो कतई नहीं माना जा सकता है, वह कुल मिलाकर एक प्रगतिशील कवि ही माने जायेंगे। इस बात पर शायद ही कोई बहस हो। बहस का मूल मुद्दा हमारे लिए यहाँ पर यह है कि क्‍या किसी जेनुइन कलाकार की विचारधारा व राजनीति के आधार पर (चाहे वह उसकी कला में किसी रूप में प्रकट होती हो या न होती हो, क्‍योंकि कलात्‍मक रचना में कलाकार की विचारधारा व राजनीति का प्रकट होना अपने आप में एक बेहद जटिल द्वन्‍द्वात्‍मक प्रक्रिया होती है) उसके कलाकर्म का या एक कलाकार के तौर पर उसका मूल्‍यांकन किया जा सकता है? कुछ अध्‍ययन और शोध के बाद ही सुरजीत पातर के कवित्‍व के विषय पर हम अपनी पूरी बात रख सकेंगे और अभी फ़ासीवाद और कला के प्रश्‍न पर एक महत्‍वपूर्ण आलेख को तैयार करने का कार्यभार मुझे यह काम तत्‍काल पूरा करने की इजाज़त नहीं देता है।  

लेकिन चूँकि प्रतिबद्धके सम्‍पादक महोदय की यह टिप्‍पणी, कम-से-कम दिखाने के लिए, कलाकार और राजनीति व विचारधारा के रिश्‍तों पर लोर्का का दुरुपयोग व दुर्व्‍याख्‍या करते हुए स्‍वतन्‍त्र रूप से की गयी एक टिप्‍पणी है, इसलिए उसमें निहित ग़लत समझदारी का खण्‍डन करना मैं आवश्‍यक समझती हूँ। इसलिए भी लोर्का की बात को विकृत करके पेश किया गया है और उसकी दुर्व्‍याख्‍या पेश की गयी है।  

प्रतिबद्धके सम्‍पादक महोदय ने लोर्का का यह उद्धरण पेश किया है:  

मैं एक क्रान्तिकारी हूँ, क्‍योंकि ऐसा कोई सच्‍चा कवि नहीं है, जो क्रान्तिकारी न हो।”  

इसका कोई सन्‍दर्भ देना सम्‍पादक महोदय ने आवश्‍यक नहीं समझा है, बस उसकी इमेज को एक बेबसाइट से कॉपी-पेस्‍ट कर दिया है। बेहतर होता कि वह लोर्का की इस पूरी उक्ति और उसके सन्‍दर्भ को देख लेते। लोर्का का यह उद्धरण पुलित्‍ज़र पुरस्‍कार विजेता एलिज़ाबेथ कोल्‍बर्ट ने अपने लेख लेटर फ्रॉम स्‍पेन. लुकिंग फॉर लोर्कामें दिया है, जहाँ वह लोर्का की पूरी उक्ति को पेश करते हुए लिखती हैं:  

यद्यपि लोर्का ने किसी भी पार्टी में शामिल होने से इन्र कर दिया और यह दावा किया कि उनका जीवन और उनका रचना-कर्म किसी भी विचारधारा की सीमा से बाहर हैं। उन्‍होंने माद्रीद में युद्ध के शुरू होने के ठीक पहले एक दोस्‍त को बताया, “मैं कभी राजनीतिक नहीं बनूँगा। मैं एक क्रान्तिकारी हूँ क्‍योंकि ऐसा कोई सच्‍चा कवि नहीं है जो क्रान्तिकारी न हो। क्‍या तुम इससे सहमत नहीं होगे? लेकिन राजनीतिक व्‍यक्ति, वह मैं कभी भी नहीं बनूँगा!”  

यहाँ लेखिका ने लोर्का की उस पूरी बात को उद्धृत किया है, जो उन्‍होंने अपने एक दोस्‍त से कही थी। पार्टीगत राजनीति से लोर्का का दुराव एक जगज़ाहिर तथ्‍य है। वह कभी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी में शामिल नहीं हुए। उनके विचारों में बिखरे तौर पर समाजवाद, अराजकतावाद, रिपब्लिकनवाद के तत्‍व मिलते हैं। लेकिन ये अव्‍यवस्थित हैं और लोर्का ने इन्‍हें अपनी सुसंगत विचारधारात्‍मक व राजनीतिक अवस्थिति के रूप में कभी संरचनाबद्ध किया हो, इसका कोई सन्‍दर्भ लोर्का के पद्य या गद्य लेखन में अभी तक हमें मिला नहीं है। स्‍फुट तौर पर, विभिन्‍न दोस्‍तों, परिचितों, साक्षात्‍कार लेने वालों के समक्ष दी गयी अभिव्‍यक्तियों के आधार पर, इन बिखरे तत्‍वों के बारे में हमें कुछ जानकारी मिलती है जिसके आधार पर ज्‍़यादा से ज्‍़यादा कुछ कयास और अटकलें लगायी जा सकती हैं। उनसे इतना स्‍पष्‍ट है कि लोर्का को विचारधारा व राजनीति के धरातल पर मार्क्‍सवादी कहना मुश्‍क़िल है।  लेकिन उनकी विचारधारा व राजनीति वह चीज़ें नहीं हैं, जिनसे किसी कम्‍युनिस्‍ट को सीखने की आवश्‍यकता है, समझदार कम्‍युनिस्‍ट ऐसा करते भी नहीं हैं और लोर्का भी शायद ही यह माँग अपने पाठकों से करते। जो चीज़ ऐतिहासिक तौर पर सर्वहारा वर्ग की सामूहिक सम्‍पदा का अभिन्‍न अंग है, वह लोर्का का साहित्‍य है। न ही एक कवि के तौर पर लोर्का के मूल्‍यांकन का यह आधार बनाया जा सकता है कि उनकी सचेतन विचारधारा व राजनीति क्‍या थी, या ऐसी कोई सचेतन सुव्‍यवस्थित और सुसंगत अवस्थिति थी भी या नहीं।   

लेकिन आप एक बार लोर्का के उस पूरे उद्धरण पर ग़ौर करें जिसे हमने ऊपर पेश किया है और जिसे प्रतिबद्धके सम्‍पादक महोदय ने तोड़-मरोड़कर और काट-छाँटकर पेश किया है और फिर उसकी निहायत मूर्खतापूर्ण दुर्व्‍याख्‍या की है (यह इनकी पुरानी आदत है, जैसा कि सोवियत संविधान से झूठा उद्धरण पेश करने और अब फ़ासीवाद पर जमकर चौर्य-लेखन करते हुए उनके पकड़े जाने से सिद्ध हो चुका है!)।   

क्‍या प्रतिबद्धके सम्‍पादक महोदय लोर्का की इस पूरी बात से सहमत हैं? क्‍या वह मानते हैं कि कोई ऐसा व्‍यक्ति क्रान्तिकारी हो सकता है जो राजनीतिक न होने के प्रति सशक्‍त आग्रह रखता हो? अगर हैं, तो फिर पातर की आलोचना करने के लिए भी वह बेहद कमज़ोर और मज़ाकिया नैतिक ज़मीन पर खड़े हैं और इस विषय में उनके मुखारबिन्‍द से एक भी शब्‍द का उच्‍चारण ठहाकों के फट पड़ने की ओर ले जा सकता है। वजह यह कि उन्‍हें भी पार्टी राजनीति और आम तौर पर राजनीति से दुराव रखना चाहिए और इस मसले पर लोर्का की उसी उक्ति से सहमति जतानी चाहिए जो उन्‍होंने स्‍वयं काट-छाँटकर पेश किया है!  

वैसे भी लोर्का अपने उक्‍त उद्धरण में कवि के क्रान्तिकारी होने को सीधे क्रान्तिकारी व्‍यवहार में लगे होने, किसी संगठन से जुड़े होने की अनिवार्यता के तौर पर नहीं पेश कर रहे हैं। बातचीत के पूरे सन्‍दर्भ को देखते ही यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि वह जेनेरिक अर्थों में क्रान्तिकारीशब्‍द का प्रयोग कर रहे हैं, यानी आम तौर पर तब्‍दीलीपसन्‍द, तरक्‍कीपसन्‍द और इन्साफ़पसन्‍द होने के अर्थों में। वह कह रहे हैं कि जो कवि यथास्थिति के पक्ष में खड़ा है, उनके पक्ष में नहीं खड़ा जो दबाये, कुचले जाते हैं, बल्कि उनके पक्ष में खड़ा है जो दबा और कुचल रहे हैं, वह कभी जेनुइन कलाकार या कवि नहीं हो सकता है। यथास्थिति के प्रति आलोचनात्‍मकता, शोषित-उत्‍पीड़ित जनों के साथ पक्षधरता और न्‍यायप्रियता एक सच्‍चे कलाकार या कवि की पहचान होती है। जो भी लोर्का के पूरे कथन को पढ़ेगा, जो उन्‍होंने युद्ध शुरू होने से पहले माद्रीद में अपने एक दोस्‍त के सामने कहा था, वह लोर्का की बात को, उसके सकारात्‍मक (सच्‍चे कलाकार की जनपक्षधरता) और नकारात्‍मक (सक्रिय पार्टी राजनीति व आम तौर पर राजनीति से दुराव) दोनों ही आयामों में समझ सकता है। राजनीतिक न होनेके प्रति उनका सशक्‍त आग्रह भी उनकी मनोगत अवस्थिति है, क्‍योंकि हम आइज़ेंस्‍ताइन व ब्रेष्‍ट से इस बात को अच्‍छी तरह से समझते हैं कि हर कला (और वस्‍तुपरक रूप में) कलाकार राजनीतिक होता है, चाहे वह इसके प्रति सचेत हो या न हो। लेकिन प्रतिबद्धके सम्‍पादक महोदय को आम तौर पर मार्क्‍सवादी विश्‍लेषण के ज़रिये सतह को भेदकर सार तक पहुँचने और बारीक मसलों को समझने से मानो एलर्जी-सी है। 

जैसा कि फ़ासीवाद पर अपने लेखन में प्रतिबद्धके सम्‍पादक महोदय दिखला चुके हैं, वह अक्‍सर इधर-उधर से बिना समझे अपने पक्ष में उद्धरण बटोरते घूमते बरामद होते हैं, जिसमें वह किताबों के प्राक्‍कथनया प्रस्‍तावनाको उलटते-पलटते हुए टीपा-टीपी करते हैं, वहाँ से चौर्य-लेखन करते हैं, या फिर किताबों की अनुक्रमणिका (इण्‍डेक्‍स) को देखकर वैचारिक कन्‍द-मूल संग्रहकरते हैं। इसी चक्‍कर में कई बार वह ज़हरीले कन्‍द-मूल को भी उपयोगी खाद्य सामग्री समझ बैठते हैं! हम कह सकते हैं कि विचारों के मामले में सम्‍पादक महोदय अभी कृषि की मंज़िलमें नहीं पहुँच पाये हैं, जहाँ मनुष्‍य पहले से उपलब्‍ध संसाधन का उपभोग मात्र नहीं करता, बल्कि कुछ नया पैदा करता है; वह अभी कन्‍द-मूल संग्रह करनेकी मंज़िल में हैं और उसमें भी आदिम अवस्‍था में हैं, क्‍योंकि वह भी वह ठीक से नहीं कर पाते हैं। दूसरे शब्‍दों में, वह वैचारिक तौर पर अभी नवपाषाणीय युग तक भी नहीं पहुँच पाये हैं, बल्कि पुरापाषाण युग की प्रारम्भिक अवस्‍था में हैं। हम उन्‍हें क्रान्तिकारी आन्‍दोलन का पुरापाषाणीय गुफ़ा-मानव मान सकते हैं।  

मूल मुद्दे पर लौटते हैं। 

कहने की आवश्‍यकता नहीं कि अपने विभिन्‍न विचारधारात्‍मक व राजनीतिक पूर्वाग्रहों के बावजूद, लोर्का एक युगान्‍तरकारी और महान कवि व कलाकार थे। इन दोनों में बातों में क्‍या कोई अन्‍तरविरोध है? कतई नहीं। लोर्का की कलात्‍मक रचनाएँ गहरे मानवीय सरोकरों, न्‍यायप्रियता, जनता की दुख-तक़लीफ़ के प्रति गहरी चिन्‍ता और परिवर्तन और प्रगति के प्रति प्रतिबद्धता में भीगी हुई हैं। उनकी रचनाओं की महानता को समझने और मानने और उनकी प्रशंसा करने के लिए उनकी विचारधारा और राजनीति को मानना न तो आवश्‍यक है और न ही वांछनीय। उल्‍टे निर्धारण के इन दो भिन्‍न स्‍तरों को गड्ड-मड्ड करने से किसी भी कलाकार के विचारधारात्‍मक व राजनीतिक पूर्वाग्रहों की भी सुसंगत आलोचना नहीं पेश की जा सकती और न ही उसके कला-कर्म की एक सुसंगत मार्क्‍सवादी साहित्‍यालोचना पेश की जा सकती है। जो इस बुनियादी मार्क्‍सवादी बात को नहीं समझता वह कला और राजनीति तथा विचारधारा के बीच के रिश्‍तों के बारे में मार्क्‍सवादी समझ से पूर्णत: अनभिज्ञ है। 

क्‍या कोई ऐसा महान कलाकार हो सकता है, जो क्रान्तिकारी न हो? सवाल को थोड़ा और विस्‍तारित करते हैं। क्‍या कोई ऐसा महान जनपक्षधर प्रगतिशील कलाकार हो सकता है जो मार्क्‍सवादी व क्रान्तिकारी न हो? थोड़ा और विस्‍तारित करते हैं: क्‍या कोई ऐसा सच्‍चा कलाकार हो सकता है जो विचारधारा व राजनीति के मामले में न सिर्फ़ मार्क्‍सवादी न हो, बल्कि दार्शनिक तौर पर प्रतिक्रियावादी हो, लेकिन उसकी रचना ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील और जनपक्षधर हो? इन सारे सवालों का जवाब है: हाँ। यह वर्ग समाज के सभी युगों पर लागू होने वाली आम प्रस्‍थापना है। कोई यह नहीं कह सकता कि बाल्‍ज़ाक व तोल्‍स्‍तोय के युग में तो यह प्रस्‍थापना लागू होती थी, लेकिन आज, यानी सर्वहारा क्रान्ति के युग में नहीं लागू होती है। यह एक मूर्खतापूर्ण मनोगतवादी दावा होगा। 

मार्क्‍स, एंगेल्‍स, लेनिन और माओ ने इस बात की ओर कई बार इंगित किया था कि कलाकार की विचारधारा और उसके कलाकर्म का विश्‍लेषण निर्धारण के दो भिन्‍न स्‍तर यानी डिफ़रेण्‍ट लेवल्‍स ऑफ़ डेटरमिनेशनहैं। विशेष तौर पर मार्क्‍स व लेनिन का लेखन इसमें बेहद अहम है, क्‍योंकि कलात्‍मक अधिरचना की समूची अधिरचना से भी अधिक सापेक्षिक स्‍वायत्‍तता को उन्‍होंने स्‍पष्‍ट रूप से रेखांकित किया। कला और विचारधारा तथा राजनीति के बारे में रिश्‍तों को लेकर मार्क्‍सवाद की यह समझ आम तौर पर किसी नये बने मार्क्‍सवादी को भी पहले कुछ महीनों में ही मिल जाती है। लेकिन पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस समझ से प्रतिबद्धके सम्‍पादक का वंचित होना हमारे लिए कोई आश्‍चर्य का मसला नहीं है।  

अगर सम्‍पादक महोदय की मानें, तो प्रेमचन्‍द भी महज़ कलमघसीट थे, बाल्‍ज़ाक या तोल्‍स्‍तोय का तो नाम भी हमें अपनी ज़ुबान पर नहीं लाना चाहिए, यहाँ तक कि नेरूदा और हिकमत का ज़िक्र भी सम्‍पादक महोदय के लिए कुफ़्र होना चाहिए क्‍योंकि उन्‍होंने भी संशोधनवादियों से पुरस्‍कार लिये थे या संशोधनवादी देशों में शरण ली थी। इस प्रकार की कठमुल्‍लावादी यान्त्रिकता की ही उम्‍मीद प्रतिबद्धके सम्‍पादक से की जा सकती है। आपमें से जिन्‍होंने फ़ासीवाद पर उनकी समझदारी की निम्‍न आलोचना नहीं पढ़ी है, वह पढ़कर इस बात को समझ सकते हैं:  

https://anvilmag.in/archives/677 

https://anvilmag.in/archives/685 

https://anvilmag.in/archives/690

https://anvilmag.in/archives/694

https://anvilmag.in/archives/698

https://anvilmag.in/archives/703

 बहरहाल, अभी हम केवल स्‍पष्‍टता के लिए कला और राजनीति के रिश्‍तों के बारे में एंगेल्‍स (जो कि निम्‍न उद्धरणों में मार्क्‍स और उनकी साझा समझ को अभिव्‍यक्‍त कर रहे हैं) व लेनिन के विचारों पर संक्षेप में विचार कर लेते हैं, ताकि सनद रहे।  

एंगेल्‍स ने मार्गरेट हार्कनेस को लिखे पत्र में बाल्‍ज़ाक के बारे में अपने (और मार्क्‍स के) विचार व्‍यक्‍त करते हुए एक कलाकार की विचारधारा व राजनीति तथा उसकी कलात्‍मक रचना के बीच के अन्‍तर को स्‍पष्‍ट करते हुए लिखा:  

तो, बाल्‍ज़ाक राजनीतिक तौर पर एक लेजिटिमिस्‍ट थे; उनकी महान रचना अच्‍छे समाज के अवश्‍यम्‍भावी पतन पर एक सतत् शोकगीत के समान है, उनकी हमदर्दी पूरी तरह से उस वर्ग के साथ है, जो लुप्‍त हो जाने के लिए अभिशप्‍त है। लेकिन इन सबके बावजूद उनका व्‍यंग्‍य कभी उतना तीव्र नहीं होता, उनकी विडम्‍बना कभी उतनी तीखी नहीं होती, जितनी कि वह तब होती है जब वह ठीक उन्‍हीं पुरुषों व स्त्रियों के बारे में लिखते हैं जिनके साथ वह सबसे गहराई से सहानुभूति रखते हैं कुलीन वर्ग। और जिन लोगों के बारे में वह हमेशा अप्रच्‍छन्‍न प्रशंसा भाव के साथ बोलते हैं, वह उनके सबसे तीखे राजनीतिक विरोधी हैं, जैसे कि क्‍लुआत्‍ख़ सें-मेरीके रिपब्लिकन नायक, वह आदमी, जो उस समय (1830-36) व्‍यापक जनसमुदायों के ही प्रतिनिधि थे। ये तथ्‍य कि इस प्रकार बाल्‍ज़ाक स्‍वयं अपनी वर्ग सहानुभूतियों और राजनीतिक पूर्वाग्रहों के विरुद्ध जाने को मजबूर हुए, कि उन्‍होंने अपने प्रिय कुलीन वर्ग के पतन की अनिवार्यता को देखा, और उन्‍हें ऐसे लोगों के रूप में वर्णित किया जिनके साथ यही हो सकता था; और यह कि उन्‍होंने भविष्‍य के असली लोगों को वहाँ देखा, जहाँ, फ़िलहाल, केवल उन्‍हें ही देखा जा सकता था इन्‍हें मैं यथार्थवाद की सबसे महान विजयों में से एक मानता हूँ, और बूढ़े बाल्‍ज़ाक में मौजूद सबसे भव्‍यतम गुणों में से एक मानता हूँ। 

एंगेल्‍स यहाँ जो कहना चाहते हैं, वह महज़ यह है कि कलाकार की राजनीति और विचारधारा उसके कला-कर्म के विश्‍लेषण का प्रमुख आधार नहीं बनती है। निश्चित तौर पर, कलात्‍मक रचना में कलाकार की विचारधारा का फ़ि‍ल्‍टर मौजूद होता है। लेकिन यथार्थ के प्रति उसकी निष्‍ठा के कारण उस फ़ि‍ल्‍टर से छनकर उसके युग का यथार्थ पाठकों के सामने आता ही है, इस प्रक्रिया में स्‍वयं कलाकार के विचारधारात्‍मक पूर्वाग्रहों को अनावृत्‍त करता ही है। यही जेनुइन कला का ऐतिहासिक प्रकार्य होता है, चाहे उसे रचने वाला कलाकार किसी भी विचारधारात्‍मक पृष्‍ठभूमि से आता हो। 

क्‍या किसी कलाकार की कलात्‍मक रचना उसकी प्रतिगामी विचारधारा के बावजूद वस्‍तुगत तौर पर क्रान्तिकारी हो सकती है? जी हाँ। एंगेल्‍स लिखते हैं:  

वैसे लेटा-लेटा मैं और कुछ नहीं बल्कि सिर्फ़ बाल्‍ज़ाक पढ़ रहा हूँ, और मुझे इस भव्‍य बूढ़े को पढ़ने में भरपूर मज़ा आ रहा है। यहाँ पर 1815 से 1848 के फ्रांस के इतिहास के बारे में वैल्‍यूलाबेल, केपफ़ीग, लूई ब्‍लाँ और ऐसे बाक़ी सारों से कहीं ज्‍़यादा जानकारी है। और क्‍या बेबाक-बेलौस अन्‍दाज़ है! उनके काव्‍यात्‍मक न्‍याय में क्‍या क्रान्तिकारी द्वन्‍द्ववाद है! 

लेनिन कला, विचारधारा व राजनीति के रिश्‍तों पर मार्क्‍स व एंगेल्‍स की समझ को नयी ऊँचाइयों तक विकसित करते हैं। तोल्‍स्‍तोय पर लिखे उनके छह लेख मार्क्‍सवादी साहित्‍यालोचना के बुनियादी सिद्धान्‍तों, पद्धति और पहुँच को स्‍पष्‍ट करते हैं और दिखलाते हैं कि वैज्ञानिक आलोचना के कार्यभार क्‍या होते हैं। यहाँ उनके बारे में विस्‍तार में जाना सम्‍भव नहीं होगा। मगर हम तोल्‍स्‍तोय के बारे में लेनिन के विचारों के कुछ अंशों को उद्धृत करेंगे, ताकि प्रतिबद्धके निहायत दरिद्र क़िस्‍म के कठमुल्‍लावाद और यान्त्रिकता को उजागर कर सकें।  

लेनिन ने तोल्‍स्‍तोय पर लिखे अपने प्रसिद्ध लेख लेव तोल्‍स्‍तोय, रूसी क्रान्ति का दर्पणमें लिखा है:  

क्रान्ति के साथ किसी ऐसे महान कलाकार को जोड़ना जो ज़ाहिरा तौर पर उसे समझने में असफल रहा है, और जो ज़ाहिरा तौर पर उससे अलग-थलग खड़ा है, पहली नज़र में अजीब और सतही लग सकता है। एक ऐसा दर्पण जो चीज़ों को सही तरीके से प्रतिबि‍म्बित नहीं करता उसे मुश्‍क़िल से ही एक दर्पण कहा जा सकता है। लेकिन हमारी क्रान्ति एक बेहद जटिल चीज़ है। जो सीधे इस क्रान्ति को कर रहे थे और उसमें भागीदारी कर रहे थे, उस जनसमुदाय के बीच भी ऐसे बहुत से सामाजिक तत्‍व हैं जो निश्चित ही नहीं समझ रहे हैं कि क्‍या घटित हो रहा है और जो उन वास्‍तविक ऐतिहासिक कार्यभारों से अलहदा खड़े हैं जो घटनाक्रम ने उनके सामने रख दिये हैं। और अगर हमारे सामने एक वाकई महान कलाकार है, तो उसने अपनी रचना में इस क्रान्ति के कम-से-कम कुछ मूलभूत पहलू अवश्‍य रखे होंगे।

 

आगे लेनिन लिखते हैं: 

 

तोल्‍स्‍तोय की कृतियों, विचारों, सिद्धान्‍तों तथा उनके द्वारा प्रतिपादित विचारधारा में वास्‍तव में तीव्र विरोधाभास हैं। एक तोल्‍स्‍तोय तो वह महान कलाकार हैं, जिन्‍होंने रूसी जीवन के अद्वितीय चित्र ही नहीं खींचें हैं, वरन् विश्‍व-साहित्‍य को उत्‍कृष्‍टतम उपहार भी भेंट किये हैं। लेकिन दूसरे तोल्‍स्‍तोय एक ख़ब्‍ती ज़मीन्‍दार हैं जिनके दिमाग़ पर सदा ईसा सवार रहता है। एक ओर सामाजिक ढकोसले और पाखण्‍ड के विरुद्ध साफ़ और सच्‍चे दिल से किया हुआ उनका प्रबल प्रतिवाद है, तो दूसरी ओर हमें तोल्‍स्‍तोयवादीके दर्शन होते हैं, अर्थात् रूस के घिसे-पिटे बुद्धिजीवी के, जो सदा विलाप करता रहता है और सबके सामने छाती पीट-पीटकर चिल्‍लाता है : लोगो! मैं बड़ा पतित हूँ, मैं बड़ा पापी हूँ, परन्‍तु मैं आत्‍मोद्धार कर रहा हूँ। देखो, अब मैंने मांस खाना छोड़ दिया है, अब मैं दूध-चावल पर ही गुज़र कर लेता हूँ।एक ओर हम पूँजीवादी शोषण की कड़ी आलोचना पाते हैं, सरकार की हिंसा, राज्‍य-शासन और अदालतों के स्‍वाँग का पर्दाफ़ाश हमें मिलता है, उस गहरे विरोधाभास का नग्‍न चित्रण हम देखते हैं, जिसमें एक तरफ़ सभ्‍यता की उपलब्धियाँ और समृद्धि का विकास है, और दूसरी तरफ़ श्रमिक जनता की बढ़ती ग़रीबी, अध:पतन और क्‍लेश है। दूसरी ओर, उनका यह अहमक़ाना उपदेश मिलता है कि बुराई का प्रतिरोध हिंसा से मत करो!एक तरफ़ अतिगम्‍भीर यथार्थवाद है, जो सब तरह के पाखण्‍ड के पर्दे फाड़ डालता है; दूसरी तरफ़, संसार की सबसे घिनौनी वस्‍तु धर्म का प्रचार किया गया है, पेशेवर पादरियों के स्‍थान पर दूसरी क़िस्‍म के धर्माचार्य बैठाने की कोशिश की गयी है, जो अपनी नैतिक धारणा से प्रेरित होकर इस कार्य को अपनायेंगे। अन्‍य शब्‍दों में, बेहद नफ़ीस और इस कारण ख़ास तौर से घिनौनी क़िस्‍म के पादरीवाद को प्रोत्‍साहन दिया गया है।” 

 

लेनिन स्‍पष्‍ट करते हैं कि एक कलाकार की विचारधारा का मूल्‍यांकन उसके कलाकर्म की साहित्यिक आलोचना का आधार नहीं बन सकता है। वह लिखते हैं: 

 

तोल्‍स्‍तोय की महानता इस बात में है कि रूस में बुर्जुआ क्रान्ति से पहले लाखों रूसी किसानों में जो भावनाएँ एवं विचार पनप रहे थे, उन्‍हें उन्‍होंने अभिव्‍यक्‍त किया है। तोल्‍स्‍तोय की मौलिकता इस बात में है कि उनकी विचार-समष्टि किसानों की बुर्जुआ क्रान्ति के रूप में हमारी क्रान्ति की विशेषताओं को व्‍यक्‍त करती है। इस दृष्टिकोण से देखने पर तोल्‍स्‍तोय के विचारों में जो विरोधाभास हैं, वह सचमुच उन विरोधाभासी परिस्थितियों का प्रतिबिम्‍ब हैं, जिनमें हमारे किसानों को इस क्रान्ति में अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा करनी पड़ी...निस्‍सन्‍देह तोल्‍स्‍तोय की कृतियों में किसानों की इन आकांक्षाओं से अधिक वैचारिक अनुरूपता है, न कि किसी अमूर्त ईसाई अराजकतावादसे, जैसा कि उनकी विचारधाराके बारे में प्राय: कहा जाता है।

 

इसी प्रकार लेनिन ने तोल्‍स्‍तोय की रचनाओं और विचारधारा के मूल्‍यांकन और सर्वहारा वर्ग के नज़रिये से उनके ऐतिहासिक स्‍थान के बारे में लिखते हैं: 

 

तोल्‍स्‍तोय की साहित्यिक रचनाओं का अध्‍ययन करके रूसी मज़दूर वर्ग अपने दुश्‍मनों को ज्‍़यादा अच्‍छी तरह पहचान सकेगा। उनके सिद्धान्‍तों का अध्‍ययन करके समस्‍त रूसी जनता यह ज़रूर जानेगी कि उसकी निजी कमज़ोरी, जिसने उसे अपनी आज़ादी का लक्ष्‍य पूरा करने से रोका, किस बात में निहित थी। आगे बढ़ने के लिए यह जानना ज़रूरी है।

 

ऐसे बहुत-से उद्धरण पेश किये जा सकते हैं। लेनिन ने 1921 में लिखे एक छोटे-से लेख सक्षम रूप से लिखी गयी एक छोटी-सी पुस्‍तकमें एक प्रतिक्रियावादी लेखक एवरचेंको के बारे में अपने विचार रखते हुए कहा कि यह बिल्‍कुल सम्‍भव है कि एक प्रतिक्रियावादी कलाकार एक अच्‍छा कलाकार हो और वह अच्‍छी रचना का लेखन करे। 

 

तोल्‍स्‍तोय के एक आलोचक के रूप में लेनिन ने मार्क्‍सवादी साहित्‍यालोचना के बुनियादी निर्देशांकों को स्‍थापित करने में क्‍या भूमिका निभायी थी, इसके बारे में फ्रांसीसी मार्क्‍सवादी आलोचक पियेर मैशरे का लेख कुछ समस्‍याओं के बावजूद पढ़ने योग्‍य है। लेख का नाम है लेनिन, क्रिटिक ऑफ़ तोल्‍स्‍तोय। इसमें एक जगह मैशरे ने लेनिन के विचारों की व्‍याख्‍या करते हुए लिखा है: 

 

हमने पहले ही दिखला दिया है कि तोल्‍स्‍तोय की साहित्यिक रचनाओं को तोल्‍स्‍तोयवादी विचारधारा के साथ गड्ड-मड्ड नहीं किया जाना चाहिए, जो उसके बीच मौजूद एक बाह्य तत्‍व (foreign body) के समान है। लेकिन यह अन्‍तर अब एक नया महत्‍व ग्रहण कर लेता है: टेक्‍स्‍ट के भीतर ही टेक्‍स्‍ट और उसकी विचारधारात्‍मक अन्‍तर्वस्‍तु के बीच एक विरोधाभास है, कोई सुसंगति होने के बजाय एक विरोधाभास। इस प्रकार, इस तथ्‍य से परे कि यह रचना एक साथ ही कई विभिन्‍न पाठक समुदायों को सम्‍बोधित है (जैसा कि हम देख चुके हैं, साहित्यिक रचना मज़दूर वर्ग की सम्‍पदा है, जबकि उसमें मौजूद सिद्धान्‍त समूची रूसी जनता को समझने का एक ज़रिया है), हम हमेशा समान विषयवस्‍तु पाते हैं: साहित्यिक रचना बेहद गहराई के साथ विसममितिपूर्ण (dissymmetrical) होती है। एक दर्पण से ज्‍़यादा दर्पण होते हैं, और जो छवियाँ वह दिखाते हैं, वह महज़ पूरक नहीं होतीं।” 

 

इन सब बातों का सार क्‍या है

 

सार यह है कि कला (जिसमें कला के समस्‍त रूप शामिल हैं) की विचारधारा और राजनीति से सापेक्षिक स्‍वायत्‍तता होती है। जब हम एक सच्‍चे कलाकार (और कला) की बात करते हैं (न कि किसी प्रोपगैण्‍डा कलाकार और कला की) तो उसकी विचारधारा व राजनीति के मूल्‍यांकन के आधार पर ही उसकी कलात्‍मक रचना का अध्‍ययन नहीं किया जा सकता है। वजह यह कि सच्‍चे कलाकार की विशिष्‍टता ही यह होती है कि वह यथार्थ के प्रति वफ़ादारी रखता है। विराट सामाजिक यथार्थ के एक हिस्‍से को वह ड्रैमेटाइज़या पोएटिसाइज़करता है। वह समूचे सामाजिक यथार्थ, उसके सार, उसके गति के नियमों का सन्‍धान नहीं करता है, न ही कर सकता है और न ही ऐसी बेतुकी अपेक्षा उससे की जानी चाहिए। यह काम इतिहास के विज्ञान यानी ऐतिहासिक भौतिकवाद का है। कला और विज्ञान दोनों ही इतिहास के साथ अलग प्रकार के रिश्‍ते रखते हैं। दोनों ही सत्‍य को अपनी-अपनी तरह से उद्घाटित करते हैं। मार्क्‍सवादी आलोचक पियेर मैशरे के शब्‍दों में कला हमें देखनासिखाती है, जबकि विज्ञान हमें समझनासिखाता है। 

सच्‍चा कलाकार यथार्थ के प्रति वफ़ादारी रखने के कारण सामाजिक यथार्थ के किसी न किसी अंग के विषय में सच्‍चाई को किसी न किसी हद तक उजागर करता है। उसकी कला निश्चित तौर पर उसकी विचारधारा में नहायी होती है, उसी से जन्‍म लेती है। लेकिन यथार्थ के प्रति उसकी वफ़ादारी उसकी कलात्‍मक रचना को उसकी विचारधारा से एक आन्‍तरिक दूरस्‍थीकरण (internal distanciation) करने की इजाज़त देती है। इस प्रक्रिया में कला जो कि विचारधारा से ही पैदा होती है, जो उसमें ही नहायी होती है, वह विचारधारा से एक आन्‍तरिक दूरस्‍थीकरण करती है और स्‍वयं मानो तर्जनी उठाकर इशारा करके उस विचारधारा को भी पाठक/श्रोता/दर्शक के समक्ष किसी न किसी हद तक अनावृत्‍त कर देती है, जिससे कि वह ख़ुद पैदा हुई होती है।  

यही वजह है कि एक ईसाई शान्तिवादी होने के बावजूद तोल्‍स्‍तोय, एक राजतन्‍त्रवादी होने के बावजूद बाल्‍ज़ाक, एक गाँधीवादी होने के बावजूद प्रेमचन्‍द की रचनाएँ ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील और जनपक्षधर हैं और निश्चित अर्थों में क्रान्तिकारी भी हैं, क्‍योंकि वह एक निश्चित विचारधारा से जन्‍म लेने के बावजूद, सामाजिक यथार्थ के सच्‍चे चित्रण के प्रति एक जेनुइन कलाकार की निष्‍ठा के कारण, उससे आन्‍तरिक दूरस्‍थीकरण करती हैं और सामाजिक यथार्थ को भी किसी न किसी हद तक उजागर करती हैं और इसी प्रक्रिया में स्‍वयं कलाकार के विचारधारात्‍मक पूर्वाग्रहों पर से भी किसी न किसी हद तक पर्दा हटा देती हैं। इस पूरी अवधारणा को बेहतर तरीक़े से और विस्‍तार से समझने के लिए आप यह व्‍याख्‍यान सुन सकते हैं:  

https://www.youtube.com/watch?v=h_J0Q5Wb0CY

 

कला की राजनीति व विचारधारा से सापेक्षिक स्‍वायत्‍तता को समझने का सवाल वास्‍तव में आर्थिक आधार से अधिरचना की सापेक्षिक स्‍वायत्‍तता को समझने और, उसके आगे, विचारधारात्‍मक अधिरचना की राजनीतिक अधिरचना से सापेक्षिक स्‍वायत्‍तता को समझने का सवाल है। ठीक यही बात प्रतिबद्धके सम्‍पादक के पल्‍ले नहीं पड़ी है।  

सुरजीत पातर के विशिष्‍ट मसले में भी उनका एक कवि के तौर पर मूल्‍यांकन महज़ इस बात से नहीं हो सकता है कि वह क्रान्तिकारी अभ्‍यास में नहीं लगे थे, या उन्‍होंने बुर्जुआ सरकारों से पुरस्‍कार लिया या उनके मंच पर गये, या उन्‍होंने अपनी रचनाओं में मज़दूरों का चित्रण नहीं किया या कम किया।  

अगर यह किसी कलाकार व उसके कलाकर्म के प्रगतिशील या प्रतिगामी, क्रान्तिकारी या ग़ैर-क्रान्तिकारी होने का पैमाना है, जैसा कि प्रतिबद्धके सम्‍पादक का विचार लगता है, और जो कि उन्‍होंने लोर्का को मिस्‍कोट करके साबित करने की कोशिश की है, तो फिर कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों के कार्डहोल्‍डर साहित्‍यकारों के अलावा (जिनमें से कई दोयम दर्जे़ के कलाकार ही माने जा सकते हैं!) के अलावा सभी साहित्‍यकार प्रतिगामी, ग़ैर-क्रान्तिकारी, यहाँ तक कि प्रति-क्रान्तिकारी हो जायेंगे! फ़िलहाल, सुरजीत पातर के रचना-कर्म का मार्क्‍सवादी विश्‍लेषण करने का कार्य पंजाब के कॉमरेड मुझसे बेहतर कर सकते हैं, इसलिए उस विषय पर अभी मेरा कुछ कहना उचित नहीं होगा। उसके बारे में, सम्‍भवत: भविष्‍य में। लेकिन जो बात कला, कलाकार, राजनीति और विचारधारा के अन्‍तर्सम्‍बन्‍धों के बारे में आम तौर पर प्रतिबद्धसाबित करने का प्रयास कर रहा है, ताकि सुर्ख लीहद्वारा की गयी आलोचना का जवाब दे सके, जो मुश्‍क़िल ही लगता है, वह निहायत ग़ैर-मार्क्‍सवादी, मूर्खतापूर्ण और अज्ञानतापूर्ण है। और एक मार्क्‍सवादी के तौर पर इस विकृतिकरण का जवाब देना हर मार्क्‍सवादी का कर्तव्‍य है।

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