मजदूर वर्ग के बारे में विश्व के महान कवियों की दस कविताएं
मजदूर वर्ग के बारे में विश्व के महान कवियों की दस कविताएं
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हम लोहार
फ़िलिप श्क्युलोव
रूसी भाषा से अनुवाद और गीत का परिचयः गौतम कश्यप
हम लोहार हैं, और हमारी आत्मा है जवान
हम बनाते हैं खुशियों की चाबियाँ।
ऊपर उठते हैं, हमारे मजबूत हथोड़े,
और बजते हैं, फौलादी सीने पर, ठक ठक ठक!
हम कर रहे हैं स्थापित, एक उज्ज्वल पथ,
और निर्मित कर रहे हैं एक स्वतंत्र पथ,
सबके लिए, जो है लम्बे समय से इच्छित।
मिलकर लड़ाइयाँ लड़ी हैं हमने, और हम साथ मरेंगे मरेंगे मरेंगे!
हम लोहार हैं, अपनी प्रिय जन्मभूमि के
हम केवल चाहते हैं, सबकुछ अच्छा,
हम अपनी ऊर्जा व्यर्थ नष्ट नहीं कर रहे हैं,
निरुद्देश्य नहीं चल रहे हमारे हथोड़े , ठक ठक ठक!
और हथोड़े की हर चोट के बाद
धुन्ध छँटेगी, अत्याचार का नाश होगा।
और सारी पृथ्वी के क्षेत्रों के साथ
एक दीन राष्ट्र, उठेगा, उठेगा, उठेगा!
‘हम लोहार हैं’ यह रूसी गीत उन दिनों बहुत प्रसिद्ध हुआ था जब सोवियत
संघ में महान समाजवादी अक्टूबर क्रान्ति अपने चरम पर थी। 1912 ईस्वी
में फ़िलिप श्क्युलोव ने इसकी रचना की थी। 14 वर्षीय किशोर
फ़िलिप एक ग़रीब दम्पति की सन्तान था जो काम की तलाश में शहर गया। वहाँ उसे एक
कारख़ाने में काम मिला लेकिन एक दिन दुर्घटनावश उसका दाहिना हाथ मशीन के अन्दर चला
गया और वह बुरी तरह जख्मी हो गया। उन दिनों कारख़ानों में ऐसी दुर्घटनाएँ आम बात
थी। पूँजीपति वर्ग मज़दूरों के स्वास्थ्य और सुरक्षा के प्रति बिल्कुल बेपरवाह था।
इस दुर्घटना के बाद फ़िलिप दो साल तक अस्पताल में पड़ा रहा और उसके बाद फिर काम की
खोज में निकल पड़ा। उसने छोटी-सी उम्र में ही कविताएँ लिखना प्रारम्भ कर दिया था,
जिसमें
उसके एवं मज़दूरों के कठिन जीवन की व्यथाओं और इच्छाओं का सजीव चित्रण होता था।
फ़िलिप द्वारा रचित गीत ‘हम लोहार’ को तात्कालिक रूसी ज़ार सरकार ने प्रतिबन्धित कर दिया था, लेकिन उसके बावजूद यह गीत मज़दूरों के दिलों में गूँजता रहा। सन 1917 से यह गीत मार्गदर्शक के रूप में मज़दूर वर्ग को आत्मबल प्रदान करता रहा एवं उनके संघर्षों के फ़लस्वरूप महान समाजवादी अक्टूबर क्रान्ति में शोषितों की विजय हुई
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अंधेरे के सभी लोगों के लिए सूर्य के फ़ल हों!
पाब्लो नेरुदा
मैं सोचता हूँ जिन्होंने इतने सारे काम किये
उन सबका मालिक भी उन्हीं को होना चाहिए।
और जो रोटी पकाते हैं उन्हें वह खानी भी चाहिए।
और खदान में काम करने वालों को रोशनी चाहिए।
बहुत हो गया अब बेड़ी में बंधो मैले कुचैले लोगो!
बहुत हो गया अब पीले पड़े मृतको!
कोई भी न रहे बगैर राज किये।
एक भी स्त्री न हो बगैर मुकुट के।
प्रत्येक हाथ के लिए सोने के दस्ताने हों।
अंधेरे के सभी लोगों के लिए सूर्य के फ़ल हों।
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जोसेफ़ स्तालिन की एक दुर्लभ कविता
यह कविता स्तालिन ने महज 16 वर्ष की आयु में लिखी थी। दासता की
बेड़ियों में जकड़े जिन मेहनतकशों के आशा के पंखों के सहारे उड़ने का सपना उन्होंने
देखा था, उन्हीं सपनों को सच्चाई में बदलने का रास्ता स्तालिन की पूरी जिन्दगी
का सफ़रनामा रहा। 1917 की सोवियत समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देने मे वे लेनिन के अगुवा
सहयोगी रहे और नवजात सर्वहारा राज्य के जीवन मृत्यु के संघर्ष में हर पल लेनिन के
भरोसेमन्द साथी रहे। लेनिन की मृत्यु के बाद उन्होंने तीस वर्षों तक सोवियत संघ
में समाजवाद का निर्माण करने में रूस की जनता की रहनुमाई की, द्वितीय
विश्वयुद्ध में हिटलर की फ़ौजों को धूल चटाकर मानवता की रक्षा की और पूरी दुनिया
के संघर्षरत मेहनतकशों, विश्व सर्वहारा और कम्युनिस्ट ताकतों का मार्गदर्शन किया। यह कोई
आश्चर्य की बात नहीं है कि पूरी दुनिया के पूँजीपति, उनका मीडिया और
भाड़े के टट्टू पूँजीवादी बुद्धिजीवी स्तालिन को सबसे अधिक गालियां देते हैं और
उनके खिलाफ़ सबसे अधिक कुत्साप्रचार करते हैं। ऐसा ही कभी रोब्सपियेर (फ्रांसीसी
क्रान्ति का महानायक) के साथ भी हुआ था। तमाम कुत्साप्रचारों के बावजूद पूरी
दुनिया के मेहनतकश प्रथम समाजवादी प्रयोग के मार्गदर्शक को गहरे प्यार और श्रद्धा
से याद करते हैं।
उसकी पीठ और कमर झुक गई थी
लगातार काम करते करते।
जो कल तक दासता की बेड़ियों में बंद
घुटने टेके हुए था,
वह अपनी आशा के पंखों पर उड़ेगा
सबसे ऊपर, ऊपर उठेगा।
मैं कहता हूँ उसकी ऊंचाई पर
पहाड़ तक
अचरज और ईर्ष्या करेंगे।
(1895)
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कचोटती स्वतन्त्रता
तुर्की के महान
कवि नाज़िम हिकमत
तुम खर्च करते हो अपनी आँखों का शऊर,
अपने हाथों की जगमगाती मेहनत,
और गूँधते हो आटा दर्जनों रोटियों के लिए काफी
मगर ख़ुद एक भी कौर नहीं चख पाते;
तुम स्वतंत्र हो दूसरों के वास्ते खटने के लिए
अमीरों को और अमीर बनाने के लिए
तुम स्वतंत्र हो।
जन्म लेते ही तुम्हारे चारों ओर
वे गाड़ देते हैं झूठ कातने वाली तकलियाँ
जो जीवनभर के लिए लपेट देती हैं
तुम्हें झूठों के जाल में।
अपनी महान स्वतंत्रता के साथ
सिर पर हाथ धरे सोचते हो तुम
ज़मीर की आज़ादी के लिए तुम स्वतंत्र हो।
तुम्हारा सिर झुका हुआ मानो आधा कटा हो
गर्दन से,
लुंज-पुंज लटकती हैं बाँहें,
यहाँ-वहाँ भटकते हो तुम
अपनी महान स्वतंत्रता में:
बेरोज़गार रहने की आज़ादी के साथ
तुम स्वतंत्र हो।
तुम प्यार करते हो देश को
सबसे करीबी, सबसे क़ीमती चीज़ के समान।
लेकिन एक दिन, वे उसे बेच देंगे,
उदाहरण के लिए अमेरिका को
साथ में तुम्हें भी, तुम्हारी महान आज़ादी समेत
सैनिक अड्डा बन जाने के लिए तुम स्वतंत्र हो।
तुम दावा कर सकते हो कि तुम नहीं हो
महज़ एक औज़ार, एक संख्या या एक कड़ी
बल्कि एक जीता-जागता इंसान
वे फौरन हथकड़ियाँ जड़ देंगे
तुम्हारी कलाइयों पर।
गिरफ्तार होने, जेल जाने
या फिर फाँसी चढ़ जाने के लिए
तुम स्वतंत्र हो।
नहीं है तुम्हारे जीवन में लोहे, काठ
या टाट का भी परदा;
स्वतंत्रता का वरण करने की कोई ज़रूरत नहीं :
तुम तो हो ही स्वतंत्र।
मगर तारों की छाँह के नीचे
इस किस्म की स्वतंत्रता कचोटती है।
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बीज तुम बोते हो, काटते हैं दूसरे ही…
ब्रिटेनवासियों के नाम
पर्सी बिषी शेली
औद्योगिक क्रान्ति के बाद इंग्लैण्ड में सामन्ती भूस्वामियों और
कुलीनों के शोषण का स्थान पूंजीपतियों के शोषण ने ले लिया। औद्योगिक क्रान्ति के
बाद के इंग्लैण्ड में, मजदूरों और किसानों की जिन्दगी की नारकीय स्थितियों का चित्र आज से
करीब डेढ़ सौ वर्षों पहले वहां के क्रान्तिकारी महाकवि पर्सी बिषी शेली ने अपनी इस
कविता में खींचा था और मेहनतकश अवाम से विद्रोह का आह्वान किया था। वह अमर कविता
हम यहां पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
ओ ब्रिटेनवासियो!
क्यों तुम भू–स्वामियों के हेतु
भूमि जोतते हो,
दे रहे जो नीची से नीची स्थिति तुम्हें?
क्यों तुम उन स्वामियों के हेतु
बुन रहे हो यह
नूतन आकर्षक वस्त्र्
पटुता से, अथक परिश्रम से;
जिससे उन वस्त्रों को, जो कि बहुमूल्य हैं,
क्रूर वे शासक–गण गौरव से पहनें?
क्यों तुम देते हो भोजन, वसन, रक्षा
जन्म से मृत्यु पर्यन्त सदा उनको ही,
वे जो अकृतज्ञ है, काहिल, निखट्टू हैं;
कर रहे हैं शोषण तुम्हारी पसीने की
गाढ़ी कमाई का,
नहीं, नहीं–खून चूसते हैं वे तुम्हारा।
कार्यशील, कर्मठ ओ मानवो, ब्रिटेन के!
इसी हेतु गढ़ते हो क्या तुम
अगणित औजारों को,
अस्त्रों को, शस्त्रों को,
श्रृंखला की कड़ियों को,
जिनके प्रयोगों से निर्दय वे
नर मधुमक्खियों से
डंकहीन होकर भी
लूटें वे तुमको ही?
कर सकें प्रयुक्त सभी वस्तुएं वे
तुम पर ही
जोकि कड़ी मेहनत से तुमने बनाई हैं।
क्या तुम्हारा अवकाश, शान्ति
और विश्राम
आश्रय और भोजन,
प्रेम का सुकोमल अस्तित्व जो कि औषध–सा
घावों को भरता है,
कुछ भी नहीं हैं क्या वह भी
तुम्हारे लिए?
अथवा वह क्या है, जिस हेतु
तुम चुकाते हो,
इतना बड़ा मूल्य
अपने परिश्रम से,
डर–डर कर शोषकों से,
स्वामियों से?
बीज तुम बोते हो,
किन्तु काटते हैं सदैव दूसरे ही उसे;
धन की वह राशि जिसे तुमने ही पाया है,
मांगते हैं, रखते हैं किन्तु दूसरे ही उसे;
वसन और भूषण जो तुमने बनाये हैं,
पहन कर पाते हैं शोभा दूसरे ही उसे;
अस्त्र–शस्त्र जिनका निर्माण तुम करते हो,
किन्तु उसे धारण कर दूसरे सुसज्जित हो
जाते हैं रण में
अपनी विजय के हेतु।
बीज तुम बोओ
किन्तु मत काटने दो
अपनी इन फसलों को
निष्ठुर उन शासकों को;
अर्जन करो, भोग करो अपनी धनराशि का,
किन्तु मत करने दो
दूसरों को कोषों में संचित
यह अपना धन
उन छली प्रवंचकों को,
धनिकों को, स्वामियों को;
नूतन वसन, भूषणों को बुनो तुम,
किन्तु मत पहनने दो
अकर्मण्य कायरों को;
निर्मित करो अस्त्र्–शस्त्र् अपनी सुसज्जा को,
धारण करो स्वयं
….सदैव आत्म–रक्षा के लिए।
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एक पढ़ सकने वाले कामगार के सवाल
बर्तोल्त
ब्रेख्त
किसने बनाया सात द्वारों वाला थीब?
किताबों में लिखे हैं सम्राटों के नाम।
क्या सम्राट पत्थर ढो-ढोकर लाये?
और बार-बार विनष्ट बैबीलोन
किसने उसे हर बार फिर से बनाया?
किन घरों में रहते थे सोना जैसे चमकते लीमा के मजूरे?
कहां बिताई शाम, जब चीन की दीवार बनकर ख़त्म
हुई, उसके राजगीरों ने?
महान रोम भरा पड़ा है विजय तोरणों से।
किसने उन्हें खड़ा किया?
किस पर हासिल की सीजरों ने जीत?
चारणगीत समृद्ध बैंजटियम में क्या महल ही महल
थे वहां रहनेवालों के लिए?
दन्तकथा के अटलाण्टिस में भी
उस राज, जब समन्दर उसे निगल गया, चीखे होंगे डूबनेवाले अपने गुलामों की
खातिर।
नौजवान सिकन्दर ने भारत जीता।
अकेले उसने?
सीज़र ने गालों को मात दी।
क्या उसके साथ एक रसोइया तक न था?
स्पेन का फिलिप रोता रहा, जब उसका बेड़ा तहस-नहस हो गया।
और कोई नहीं रोया?
सातसाला जंग में फ्रेडरिख द्वितीय की जीत हुई।
जीता कौन उसके अलावा?
हर पन्ने पर एक जीत।
किसने पकाए जीत के भोज?
हर दस साल पर एक महान पुरूष।
किसने चुकाए उनके हिसाब?
इतनी सारी रपटें
इतने सारे सवाल।
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राजनीति से तटस्थ बुद्धिजीवियों
ओटो रेने कासियो
(ग्वाटेमाला के क्रांतिकारी कवि (1936-1967))
एक न एक दिन
मेरे देश के
राजनीति से तटस्थ बुद्धिजीवियों
से, आम लोगों द्वारा
जवाब तलब किया जायेगा
पूछा जाएगा
क्या कर रहे थे वे
जब हमारा देश
मर रहा था धीमे-धीमे
पीछे छोड़ दी गई पिछले शाम के डेरे की
छोटी सी बुझती आग की तरह
कोई उनसे उनके लिबास
या लंच के बाद की
लम्बी दोपहरिया नींद
के मुतल्लिक नहीं पूछेगा,
कोई नहीं जानना चाहेगा
'शून्य' के ख़िलाफ़ उनके
अमूर्त, निर्वीर्य विद्रोह के बारे में,
या, उनकी दार्शनिक मीमांसा भरी
धनार्जन पद्धति के बारे में;
उनसे कोई नहीं पूछेगा
ग्रीक मिथकों पर,
न ही उनकी उस आत्म – ग्लानि पर
जो उन्होंने महसूस की थी
जब उनके भीतर का जमीर
एक कायराना मौत
मर रहा था
कोई नहीं जानना चाहेगा
खुद की दोषमुक्ति के
झूठ के साये में जन्में
उनके बेजा-बेहूदे तर्क
उस दिन वे साधारण लोग आयेंगे..
जिन्हें इन राजनीति-तटस्थ लोगों की
किताबों और कविताओं में
कभी जगह तक नहीं मिली
मगर जो उन्हें हर दिन पहुँचाते थे
उनकी डबलरोटी और दूध.
अण्डे और टॉर्टिला;
उनके कपडे रफू करते थे,
उनकी गाड़ियाँ चलाते थे,
वे जिन्होंने इनके बगीचे सँवारे,
पालतू कुत्ते टहलाए,
और बहुत से काम किए;
और वे पूछेंगे,
”क्या किया उस वक्त तुमने
जब गरीब दुख भोग रहे थे?
जब उनके जीवन से
कोमलता और जिजीविषा चुक रहे थे?”
मेरे प्यारे देश के
राजनीति से तटस्थ बुद्धिजीवियों, तब
तुम्हारे पास कहने के लिए कुछ न होगा
खामोशी के गिद्ध
तुम्हारी आँतें निगल जाएंगे
तुम्हारे अपने विषाद
तुम्हारी आत्मा को चबा जाएंगे
और तुम खुद अपनी शर्म से
गूँगे हो जाओगे!
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सेलफ़ोन
निकारागुआ के
महाकवि एर्नेस्तो कार्देनाल की कविता
आप अपने सेलफ़ोन पर बात करते हैं
करते रहते हैं,
करते जाते हैं
और हँसते हैं अपने सेलफ़ोन पर
यह न जानते हुए कि वह कैसे बना था
और यह तो और भी नहीं कि वह कैसे काम करता है
लेकिन इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है
परेशानी की बात यह कि
आप नहीं जानते
जैसे मैं भी नहीं जानता था
कि कांगो में मौत के शिकार होते हैं बहुत से लोग
हज़ारों हज़ार
इस सेलफ़ोन की वजह से
वे मौत के मुँह में जाते हैं कांगो में
उसके पहाड़ों में कोल्टन होता है
(सोने और हीरे के अलावा)
जो काम आता है सेलफ़ोन के
कण्डेंसरों में
खनिजों पर क़ब्ज़ा करने के लिए
बहुराष्ट्रीय निगम
छेड़े रहते हैं एक अन्तहीन जंग
15 साल में 50 लाख मृतक
और वे नहीं चाहते कि यह बात
लोगों को पता चले
विशाल सम्पदा वाला देश
जिसकी आबादी त्रस्त है ग़रीबी से
दुनिया के 80 प्रतिशत कोल्टन के
भण्डार हैं कांगो में
कोल्टन वहाँ छिपा हुआ है
तीस हज़ार लाख वर्षों से
नोकिया, मोटरोला, कम्पाक, सोनी
ख़रीदते हैं कोल्टन
और पेंटागन भी, न्यूयॉर्क टाइम्स
कारपोरेशन भी,
और वे इसका पता नहीं चलने देना चाहते
वे नहीं चाहते कि युद्ध ख़त्म हो
ताकि कोल्टन को हथियाया जाना जारी रह सके
7 से 10 साल तक के बच्चे निकालते हैं कोल्टन
क्योंकि छोटे छेदों में आसानी से
समा जाते हैं
उनके छोटे शरीर
25 सेण्ट रोज़ाना की मजूरी पर
और झुण्ड के झुण्ड बच्चे मर जाते हैं
कोल्टन पाउडर के कारण
या चट्टानों पर चोट करने की वजह से
जो गिर पड़ती है उनके ऊपर
न्यूयॉर्क टाइम्स भी
नहीं चाहता कि यह बात पता चले
और इस तरह अज्ञात ही रहता है
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का
यह संगठित अपराध
बाइबिल में पहचाना गया है
सत्य और न्याय
और प्रेम और सत्य
तब उस सत्य की अहमियत में
जो हमें मुक्त करेगा
शामिल है कोल्टन का सत्य भी
कोल्टन जो आपके सेलफ़ोन के भीतर है
जिस पर आप बात करते हैं करते जाते हैं
और हँसते हैं सेलफ़ोन पर बात करते हुए
अनुवाद: मंगलेश डबराल
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लुटेरा और उसका नौकर
बेर्टोल्ट
ब्रेष्ट
दो लुटेरे लूटमार कर रहे थे हेस सूबे में
तोड़ डाली कितने ही किसानों की गर्दनें,
एक था चिमिरखी किसी भूखे भेड़िये जैसा
दूजा था थुलथुल किसी अघाये पोप के जैसा
मगर क्योंकर था उनकी बनक में इतना अंतर?
क्योंकि एक मालिक था, दूसरा था नौकर।
दूध की मलाई सब मालिक सरपोट जाता
नौकर के हिस्से में महज सपरेटा आता।
लुटेरे जब किसानों की चपेट में आये
और एक रस्सी से गए दोनों लटकाये
एक झूलता हुआ किसी सुखट्टे भूखे भेड़िये सा
और दूजा थुलथुल किसी खाये पीये पोप जैसा
खड़े थे वहां कई, आड़े तिरछे, किसान
था लेकिन सभी का उन्हीं लुटेरों पर ध्यान।
देखा कि सच ही लुटेरों जैसा चेहरा था उस थुलथुल का
मगर उस सुखट्टे ने क्यों साथ दिया उसका?
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मुक्ति
जेम्स रसेल
लॉवेल
अरे मनुष्यो! करते हो गर्वोक्ति
कि तुम सन्तति हो मुक्त और वीर पितरों की,
पर यदि लेता साँस एक भी दास धरा पर,
तो क्या सचमुच तुम हो मुक्त और वीर?
यदि तुमको अहसास नहीं जब
बेड़ी पीड़ा देती एक भाई को,
तो क्या सचमुच तुम नहीं अधम दास
जो क़ाबिल नहीं मुक्त होने के?
क्या है वह सच्ची मुक्ति, जो तोड़े
ज़ंजीरें बस अपनी ख़ातिर,
और भुला दे संगदिल होकर
कि मानवता का क़र्ज़ है हम पर?
नहीं, सच्ची मुक्ति तभी जब हम बाँटें
सब ज़ंजीरें, जो पहने हैं अपने भाई,
और भाव औ’ कर्म से लगकर
हाँ औरों की मुक्ति में तत्पर!
दास तो वे जो भय खाते हैं स्वर देने में
गिरे हुए और दुर्बल की ख़ातिर;
दास तो वे जो नहीं चुनेंगे
घृणा, डाँट और गाली
और दुबककर मुँह मोड़ेंगे
सच से, इस पर सोच ज़रूरी;
दास तो वे जो हिम्मत न करें
दो या तीन भी हों गर सच के हक़ में।
भारत से कोई कवि नहीं है जिसने मज़दूर पर उल्लेखनीय और पठनीय लिखा हो?
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