फासीवाद / साम्‍प्रदायिकता विरोधी दस प्रसिद्ध कविताएं

फासीवाद / साम्‍प्रदायिकता विरोधी दस प्रसिद्ध कविताएं

(1) राजा ने आदेश दिया -- देवी प्रसाद मिश्र

राजा ने आदेश दिया : बोलना बन्द
क्योंकि लोग बोलते हैं तो राजा के विरुद्ध बोलते हैं
राजा ने आदेश दिया : लिखना बन्द
क्योंकि लोग लिखते हैं तो राजा के विरुद्ध लिखते हैं
राजा ने आदेश दिया : चलना बन्द
क्योंकि लोग चलते हैं तो राजा के विरुद्ध चलते हैं
राजा ने आदेश दिया : हँसना बन्द
क्योंकि लोग हँसते हैं तो राजा के विरुद्ध हँसते हैं
राजा ने आदेश दिया : होना बन्द
क्योंकि लोग होते हैं तो राजा के विरुद्ध होते हैं
इस तरह राजा के आदेशों ने लोगों को
उनकी छोटी-छोटी क्रियाओं का महत्त्व बताया

(2) अन्धी वतन परस्ती हमको किस रस्ते ले जायेगी -- गौहर रज़ा (04-03-2016)

धर्म में लिपटी वतन परस्ती क्या-क्या स्वांग रचायेगी
मसली कलियाँ, झुलसा गुलशन, ज़र्द खि़ज़ाँ दिखलायेगी
यूरोप जिस वहशत से अब भी सहमा-सहमा रहता है
खतरा है यह वहशत मेरे मुल्क में आग लगायेगी
जर्मन गैसकदों से अबतक खून की बदबू आती है
अन्धी वतन परस्ती हम को उस रस्ते ले जायेगी
अन्धे कुएँ में झूठ की नाव तेज़ चली थी मान लिया
लेकिन बाहर रौशन दुनिया तुम से सच बुलवायेगी
नफ़रत में जो पले बढ़े हैं, नफ़रत में जो खेले हैं
नफ़रत देखो आगे-आगे उनसे क्या करवायेगी
फ़नकारों से पूछ रहे हो क्यों लौटाये हैं सम्मान
पूछो, कितने चुप बैठे हैं, शर्म उन्हें कब आयेगी
यह मत खाओ, वह मत पहनो, इश्क़ तो बिलकुल करना मत
देश द्रोह की छाप तुम्हारे ऊपर भी लग जायेगी,
यह मत भूलो अगली नस्लें रौशन शोला होती हैं
आग कुरेदोगे चिंगारी दामन तक तो आयेगी

(3) एस.ए. सैनिक का गीत -- बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (अनुवादः सत्यम)

भूख से बेहाल मैं सो गया
लिये पेट में दर्द।
कि तभी सुनाई पड़ी आवाज़ें
उठ, जर्मनी जाग!
फिर दिखी लोगों की भीड़ मार्च करते हुएः
थर्ड राइख़ की ओर, उन्हें कहते सुना मैंने।
मैंने सोचा मेरे पास जीने को कुछ है नहीं
तो मैं भी क्यों न चल दूँ इनके साथ।
और मार्च करते हुए मेरे साथ था शामिल
जो था उनमें सबसे मोटा
और जब मैं चिल्लाया ‘रोटी दो काम दो’
तो मोटा भी चिल्लाया।
टुकड़ी के नेता के पैरों पर थे बूट
जबकि मेरे पैर थे गीले
मगर हम दोनों मार्च कर रहे थे
कदम मिलाकर जोशीले।
मैंने सोचा बायाँ रास्ता ले जायेगा आगे
उसने कहा मैं था ग़लत
मैंने माना उसका आदेश
और आँखें मूँदे चलता रहा पीछे।
और जो थे भूख से कमज़ोर
पीले-ज़र्द चेहरे लिये चलते रहे
भरे पेटवालों से क़दम मिलाकर
थर्ड राइख़ की ओर।
अब मैं जानता हूँ वहाँ खड़ा है मेरा भाई
भूख ही है जो हमें जोड़ती है
जबकि मैं मार्च करता हूँ उनके साथ
जो दुश्मन हैं मेरे और मेरे भाई के भी।
और अब मर रहा है मेरा भाई
मेरे ही हाथों ने मारा उसे
गोकि जानता हूँ मैं कि गर कुचला गया है वो
तो नहीं बचूँगा मैं भी।

एस.ए. – जर्मनी में नाज़ी पार्टी द्वारा खड़ी किये गये फासिस्ट बल का संक्षिप्त नाम। उग्र फासिस्ट प्रचार के ज़रिये इसमें काफ़ी संख्या में बेरोज़गार नौजवानों और मज़दूरों को भर्ती किया गया था। इसका मुख्य काम था यहूदियों और विरोधी पार्टियों, ख़ासकर कम्युनिस्टों पर हमले करना और आतंक फैलाना।
थर्ड राइख़ – 1933 से 1945 के बीच नाज़ी पार्टी शासित जर्मनी को ही थर्ड राइख़ कहा जाता था।

(4) गुजरात-2002 -- कात्यायनी

‘मुझे बताओ-
क्या तुम चुप बैठे रह गये थे
मुझे बताओ!
जब उपद्रवी पगलाये हुए थे,
क्यों नहीं तुमने उठाये हथियार
वज्रधातु के बने अपने वे घन
और उन्हें तब पीट-पाटकर
पटरा क्यों नहीं कर डाला था उस फासिस्टी मलबे को?’
कवि येव्तुशेंको ने पूछा था जो सवाल
फासिस्टी उत्पात के समय फ़िनलैण्ड के लुहारों से
वही प्रश्न उभरता है ज़ेहन में
पर उसको ढाँपता हुआ उठता है यह विकट प्रश्न कि हम,
हम मानवात्मा के शिल्पी, हम जन-संस्कृति के सर्जक-सेनानी,
क्या कर रहे हैं इस समय
क्या हम कर रहे हैं आने वाले युद्ध समय की दृढ़निश्चयी तैयारी
क्या हम निर्णायक बन रहे हैं? क्या हम जा रहे हैं अपने लोगों के बीच
या हम वधस्थल के छज्जों पर बसन्तमालती की बेलें चढ़ा रहे हैं
या अपने अध्ययन कक्ष में बैठे हुए अकेले, भविष्य में आस्था का
उद्घोष कर रहे हैं और सुन्दर स्वप्न या कोई जादू रच रहे हैं
क्या हम भविष्य का सन्देश अपने रक्त से लिखने को तैयार हैं
यदि हाँ, तो चलो चलें
पूँजी के जुए तले पिसते करोड़ों मेहनतकशों के पास
ललकारें उन्हें, याद दिलायें उन्हें उनके ऐतिहासिक मिशन की
और उनके पूर्वजों की शौर्यपूर्ण विजय की एक बार फिर,
और पूछें उनसे कि वे उठ क्यों नहीं खड़े होते
साम्राजियों के दरबारी, पूँजी के टुकड़खोर,
धर्म के इन नये ठेकेदारों के तमाम षड्यंत्रों-कुचक्रों के विरुद्ध,
मुक्ति के स्वप्नों को रौंदती तमाम विनाशलीलाओं के विरुद्ध

(5) हिटलर के तम्बू में -- नागार्जुन
अब तक छिपे हुए थे उनके दाँत और नाख़ून।
संस्कृति की भट्ठी में कच्चा गोश्त रहे थे भून।
छाँट रहे थे अब तक बस वे बड़े-बड़े क़ानून।
नहीं किसी को दिखता था दूधिया वस्त्र पर ख़ून।
अब तक छिपे हुए थे उनके दाँत और नाख़ून।
संस्कृति की भट्ठी में कच्चा गोश्त रहे थे भून।
मायावी हैं, बड़े घाघ हैं, उन्हें न समझो मन्द।
तक्षक ने सिखलाये उनको ‘सर्प नृत्य’ के छन्द।
अजी, समझ लो उनका अपना नेता था जयचन्द।
हिटलर के तम्बू में अब वे लगा रहे पैबन्द।
मायावी हैं, बड़े घाघ हैं, उन्हें न समझो मन्द।

(6) गोरख पाण्डेय की कविता दंगा
1.
आओ भाई बेचू आओ
आओ भाई अशरफ आओ
मिल-जुल करके छुरा चलाओ
मालिक रोजगार देता है
पेट काट-काट कर छुरा मँगाओ
फिर मालिक की दुआ मनाओ
अपना-अपना धरम बचाओ
मिलजुल करके छुरा चलाओ
आपस में कटकर मर जाओ
छुरा चलाओ धरम बचाओ
आओ भाई आओ आओ
2.
छुरा भोंककर चिल्लाये ..
हर हर शंकर
छुरा भोंककर चिल्लाये ..
अल्लाहो अकबर
शोर खत्म होने पर
जो कुछ बच रहा
वह था छुरा
और
बहता लोहू…
3.
इस बार दंगा बहुत बड़ा था
खूब हुई थी
ख़ून की बारिश
अगले साल अच्छी होगी
फसल
मतदान की

(7) साम्प्रदायिक फसाद -- नरेन्द्र जैन

रोजी रोटी का
सवाल खड़ा करती है जनता
शासन कुछ देर सिर खुजलाता है
एकाएक साम्प्रदायिक फसाद शुरू हो जाता है
हर हाथ के लिए काम माँगती है जनता
शासन कुछ देर विचार करता है
एकाएक साम्प्रदायिक फसाद शुरू हो जाता है
अपने बुनियादी हक़ों का
हवाला देती है जनता
शासन कुछ झपकी लेता है
एकाएक साम्प्रदायिक फसाद शुरू हो जाता है
साम्प्रदायिक फसाद शुरू होते ही
हरक़त में आ जाती हैं बंदूकें
स्थिति कभी गम्भीर
कभी नियंत्रण में बतलाई जाती है
एक लम्बे अरसे के लिए
स्थगित हो जाती है जनता
और उसकी माँगें
इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में शासन
अपनी चरमराती कुर्सी को
ठोंकपीट कर पुन: ठीक
कर लेता है।

(8) जब फ़ासिस्ट मज़बूत हो रहे थे -- बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (अंग्रेजी से अनुवादः रामकृष्ण पाण्डेय)

जर्मनी में
जब फासिस्ट मजबूत हो रहे थे
और यहां तक कि
मजदूर भी
बड़ी तादाद में
उनके साथ जा रहे थे
हमने सोचा
हमारे संघर्ष का तरीका गलत था
और हमारी पूरी बर्लिन में
लाल बर्लिन में
नाजी इतराते फिरते थे
चार-पांच की टुकड़ी में
हमारे साथियों की हत्या करते हुए
पर मृतकों में उनके लोग भी थे
और हमारे भी
इसलिए हमने कहा
पार्टी में साथियों से कहा
वे हमारे लोगों की जब हत्या कर रहे हैं
क्या हम इंतजार करते रहेंगे
हमारे साथ मिल कर संघर्ष करो
इस फासिस्ट विरोधी मोरचे में
हमें यही जवाब मिला
हम तो आपके साथ मिल कर लड़ते
पर हमारे नेता कहते हैं
इनके आतंक का जवाब लाल आतंक नहीं है
हर दिन
हमने कहा
हमारे अखबार हमें सावधान करते हैं
आतंकवाद की व्यक्तिगत कार्रवाइयों से
पर साथ-साथ यह भी कहते हैं
मोरचा बना कर ही
हम जीत सकते हैं
कामरेड, अपने दिमाग में यह बैठा लो
यह छोटा दुश्मन
जिसे साल दर साल
काम में लाया गया है
संघर्ष से तुम्हें बिलकुल अलग कर देने में
जल्दी ही उदरस्थ कर लेगा नाजियों को
फैक्टरियों और खैरातों की लाइन में
हमने देखा है मजदूरों को
जो लड़ने के लिए तैयार हैं
बर्लिन के पूर्वी जिले में
सोशल डेमोक्रेट जो अपने को लाल मोरचा कहते हैं
जो फासिस्ट विरोधी आंदोलन का बैज लगाते हैं
लड़ने के लिए तैयार रहते हैं
और चायखाने की रातें बदले में गुंजार रहती हैं
और तब कोई नाजी गलियों में चलने की हिम्मत
नहीं कर सकता
क्योंकि गलियां हमारी हैं
भले ही घर उनके हों

(9) देश काग़ज़ पर बना नक्शा नहीं होता -- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो ?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो ?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है ।
देश काग़ज़ पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियाँ, पर्वत, शहर, गाँव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें ।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है ।
इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
काग़ज़ पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और ज़मीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।
जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अन्धा है
जो शासन
चल रहा हो बन्दूक की नली से
हत्यारों का धन्धा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है ।
याद रखो
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन ।
ऐसा ख़ून बहकर
धरती में जज़्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झंडों को
काला करता है ।
जिस धरती पर
फौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे ख़ून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो –
तुम्हें यहाँ साँस लेने तक का नहीं है अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।
आख़ि‍री बात
बिल्कुल साफ़
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ़
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार ,
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार।

(10) गोयबल्स -- कात्यायनी

असत्य के टॉवर की
ऊपरी मंज़िल पर खड़ा
गोयबल्स हँसता है,
बरसता है
ख़ून सना अन्धकार।
गोयबल्स हँसता है,
उसके क़लमनवीसों की क़लमें
काग़ज़ पर सरसराती हैं
धरती पर घिसटती
क़ैदी के हाथ-पाँवों में
बँधी ज़ंजीरों की तरह।
गोयबल्स हँसता है
और चारों ओर से
हिंस्र पशुओं की आवाज़ें
गूँजने लगती हैं।
नात्सी बूटों की धमक की तरह
गूँजती है
गोयबल्स की हँसी।
गोयबल्स हँसता है
तभी ख़तरे के सायरन
बज उठते हैं।
उसकी हँसी रुकने तक
फ़ायर ब्रिगेड की गाड़ियाँ
सड़कों पर बिखरे
ख़ून के धब्बों को
धोना शुरू कर चुकी होती हैं।
गोयबल्स हँसता है
और हवा में हरे-हरे नोट
उड़ने लगते हैं,
सत्ता के गलियारों में जाकर
गिरने लगते हैं,
ख़ाकी वर्दीधारी घायल स्‍त्री-पुरुषों को
घसीटकर गाड़ियों में
भरने लगते हैं।
गोयबल्स हँसता है
और टॉवर के तहख़ाने में
छापाख़ाने की मशीनें
चल पड़ती हैं।
गोयबल्स हँसता है
तब तक,
जब तक प्रतिवाद नहीं होता।
निर्भीक ढंग से
खड़े रहकर,
सिर्फ़ खड़े रहकर
रोकी जा सकती है
यह मनहूस काली हँसी
और जब लोग
आगे बढ़ते हैं,
यह हँसी एक सन्नाटे में
गुम हो जाती है।

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