इवान तुर्गेनेव के उपन्यास पूर्ववेला की पीडीएफ फाइल PDF File of Ivan Turgenev's Novel - On the Eve
इवान तुर्गेनेव के उपन्यास पूर्ववेला की पीडीएफ फाइल PDF file of Ivan Turgenev's Novel - On the Eve
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उपन्यास के बारे में - ‘पूर्ववेला’ (On the Eve) इवान तुर्गनेव का उपन्यास है, जिसकी पृष्ठभूमि 1853 की गर्मियों की है — ठीक क्रीमिया युद्ध से पहले की, जब रूसी समाज असमंजस, ठहराव और परिवर्तन की चाह से भरा हुआ था। कहानी की नायिका येलेना स्ताखोवा एक संवेदनशील और आदर्शवादी युवती है, जो अपने बुर्जआ परिवार की ऊपरी चमक-दमक और नैतिक जड़ता से ऊब चुकी है। अपने आत्ममग्न कलाकार प्रेमी शुबिन और निष्क्रिय परिवार से असंतुष्ट होकर जीवन में किसी गहरे उद्देश्य की तलाश कर रही है।
उसी दौरान उसकी मुलाकात इनसारोव से होती है — एक बुल्गारियाई क्रांतिकारी, जो अपने देश को ऑटोमन शासन से मुक्त कराने के लिए समर्पित है। येलेना उसके साहस, निष्ठा और आदर्शवादी दृष्टिकोण से प्रभावित होकर उससे प्रेम करने लगती है। उनका यह प्रेम केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि उस समय के रूस में उठ रही नई चेतना का प्रतीक बन जाता है, जो कर्म, संघर्ष और आत्मबलिदान की ओर अग्रसर थी।
येलेना अपने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर इनसारोव से विवाह करती है और उसके साथ बुल्गारिया जाने का निश्चय करती है, लेकिन नियति उन्हें साथ नहीं रहने देती — इनसारोव की बीमारी और मृत्यु येलेना को गहरे आघात में छोड़ देती है। फिर भी, वह उसके आदर्शों से प्रेरित होकर अकेले यात्रा पर निकल पड़ती है। उपन्यास का यह अंत रूसी युवाओं की उस बेचैन आत्मा को दर्शाता है जो परिवर्तन, समर्पण और नये भविष्य की तलाश में “पूर्ववेला” पर खड़ी थी।
On the Eve is a novel set in the summer of 1853, just before the Crimean War, and reflects the mood of uncertainty and yearning for change in Russian society. The story centres on Elena Stakhova, a sensitive and idealistic young woman from the Russian gentry who feels stifled by the trivialities and moral stagnation of her bourgeois environment. Dissatisfied with her suitor Shubin, an introspective artist, and her family’s passivity, Elena seeks a deeper, more meaningful life.
Her quest for purpose is fulfilled when she meets Insarov, a passionate Bulgarian revolutionary committed to the liberation of his homeland from Ottoman rule. Elena falls in love with Insarov, drawn to his strength of character and sense of mission. Their romance is not merely personal but also symbolic, representing a longing for action and purpose in a decaying society. 
Despite her parents’ objections, Elena defies social convention and marries Insarov, planning to accompany him to the Balkans. However, tragedy strikes when Insarov falls ill and dies, leaving Elena adrift yet transformed by her commitment. The novel ends ambiguously, with Elena departing for Bulgaria alone, embodying the idealism and restlessness of Russia's younger generation on the brink of revolution.
तुर्गेनेव का संक्षिप्त परिचय
रूसी राष्ट्रीय संस्कृति के बारे में अपने विचार प्रकट करते हुए सोवियत साहित्य के प्रवर्त्तक गोर्की ने लिखा है : “प्रत्येक रूसी लेखक वास्तव में ही अपनी अलग विशिष्टता लिये हुए था, किन्तु अपने देश के भविष्य, उसकी जनता के भाग्य, पृथ्वी पर उसके देश की भूमिका को समझने, अनुभव करने के दृढ़ प्रयास ने उन सबको एक सूत्र में पिरोया।” यह बात तुर्गेनेव पर भी पूरी तरह से लागू होती है जिन्हें नवीनता की असाधारण अनुभूति, किसी भी उदात्त विचार की तीव्र ग्रहणशीलता और उच्च तथा निश्छल उद्गार-प्रवाह के लिये किसी भी अन्य लेखक से सर्वथा अलग पहचाना जा सकता है।
इवान सेर्गेयेविच तुर्गेनेव का 28 अक्तूबर (9 नवम्बर ) 1818 को ओर्योल नगर में जन्म हुआ।
तुर्गेनेव का बचपन और किशोरावस्था उनकी मां की जागीर, रूस के मध्य भाग में स्थित स्पास्स्कोये-लुतोवीनोवो गांव में बीती। यहीं उन्होंने अपने देश की प्रकृति को, जिसे बाद में अपनी रचनाओं में अमर कर दिया, हृदय की गहराई तक अनुभव और प्यार करना सीखा। किन्तु स्पास्स्कोये-लुतोवीनोवो गांव में किशोर तुर्गेनेव ने छायादार पार्क में पक्षियों की चहक और मधुर तराने ही नहीं सुने, बल्कि किसानों की आहें- कराहें भी सुनीं जिन पर उनकी मां के आदेशानुसार अस्तबल में कोड़े बरसाये जाते थे। पराये दुख-दर्द और सभी तरह के अन्याय के प्रति अत्यधिक अनुभूतिशील तथा संवेदनशील तुर्गेनेव ने भूदासता के अधिकार के विरुद्ध आजीवन संघर्ष करने की प्रतिज्ञा की। अपने इस प्रण के प्रति वह निष्ठावान रहे। ‘शिकारी की टिप्पणियां’ (1847 - 1852) शीर्षक से लिखे गये उनके काव्यमय शब्दचित्र हर्ज़ेन के शब्दों में “भूदास प्रथा के विरुद्ध अभियोगपत्र” हैं। ‘शिकारी की टिप्पणियां’ का मुख्य विषय है किसानों और ज़मींदारों के आपसी सम्बन्ध। तुर्गेनेव ने एक ओर तो ज़मींदारों की स्वार्थ भावना, क्रूरता और स्वेच्छाचारिता तथा दूसरी ओर किसानों की कुशाग्र बुद्धि, सज्जनता तथा संवेदनशीलता, उनकी जन्मजात गुणसम्पन्नता और गहन भावनाओं की क्षमता को उभारा है।
1827 में तुर्गेनेव परिवार मास्को आ गया, जहां भावी लेखक ने विभिन्न प्राइवेट बोर्डिंग स्कूलों में शिक्षा पायी और 1833 में मास्को विश्वविद्यालय के साहित्य-विभाग के विद्यार्थी बने।
कुछ अरसे बाद उनके परिवार के पीटर्सबर्ग चले जाने के फलस्वरूप तुर्गेनेव भी पीटर्सबर्ग विश्वविद्यालय में पढ़ने लगे। तुर्गेनेव के विद्यार्थी जीवन की ख़ास बात यह रही कि उन्होंने साहित्य-सृजन के अपने पहले प्रयोग किये ( मुख्यतः कविताओं के रूप में ) और उस समय के प्रमुखतम लेखकों और साहित्यकारों से उनकी जान-पहचान हो गयी।
विश्वविद्यालय की पढ़ाई समाप्त करने के बाद 1838 में तुर्गेनेव ने स्विट्ज़रलैंड और जर्मनी तथा इसके बाद इटली की लम्बी यात्रा की। बर्लिन विश्वविद्यालय में दाखिला लेकर उन्होंने दर्शनशास्त्र के व्याख्यान सुने। तीस के दशक में निकोलाई स्तानकेविच, तिमोफ़ेई ग्रनोव्स्की और मिखाईल बाकूनिन जैसे जाने-माने रूसी सार्वजनिक कार्यकर्त्ता बर्लिन में थे।
1841 में तुर्गेनेव रूस लौटे और मां के आग्रह पर गृह मन्त्रालय में काम करने लगे। इसके साथ ही वह गहन और गम्भीर साहित्य-सृजन में जुट गये। उनका सृजन-क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत था। वह कवितायें, उपन्यासिकायें, नाटक और उपन्यास रचते थे जिनमें रूसी समाज की विभिन्न श्रेणियों पर प्रकाश डालते थे।
चालीस और पचास के दशकों में लेखक ने कुलीन बुद्धिजीवियों में अपने युग का सुनायक खोजने की कोशिश की। ‘अन्द्रेई कोलोसोव’, ‘श्चीग्रोव्स्की उयेज्द का हेमलेट’, ‘फालतू व्यक्ति की डायरी’, ‘याकोव पासिन्कोव’, ‘आस्या’ उपन्यासिकाओं तथा ‘रूदिन’ और ‘कुलीन घराना’ उपन्यासों में उन्होंने अत्यधिक विकसित और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व तथा युग की सामाजिक परिस्थितियों के बीच उस समय विद्यमान मतभेदों को अभिव्यक्ति दी है। इन वर्षों में रूस में तथाकथित “फालतू लोग” सामने आ गये थे। ये अग्रणी विचारों को ग्रहण करनेवाले कुलीन युवजन के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि थे। किन्तु उनके सभी उदात्त भावावेश तत्कालीन रूस में छायी शिथिलता तथा एक ही ढर्रे की जिंदगी की दीवार से टकराकर रह जाते थे। संघर्ष के लिये आवश्यक दृढ़ संकल्प के गुणों से वंचित ऐसे लोग शब्द-सूरमा, ख्याली या हवाई मानवता के प्रचारक ही बनकर रह जाते थे। ‘रूदिन’ नामक उपन्यास का नायक रूदिन और ‘कुलीन घराना’ उपन्यास का नायक लव्रेत्स्की इसी तरह के नायकों के विशिष्ट उदाहरण हैं।
किन्तु पचास के दशक के अन्त और साठ के दशक के आरम्भ में डेमोक्रेटिक-राज्नोचीन्त्सियों (विभिन्न श्रेणियों के मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी – सं.) के रूप में रूसी समाज में एक नयी सामाजिक शक्ति प्रकट हुई। इस चीज़ के बावजूद कि वैचारिक दृष्टि से तुर्गेनेव उनसे अधिकाधिक दूर हटते जाते थे, एक लेखक के नाते वह जनवादी शिविर में जन्म लेनेवाले इस नये नायक की अवहेलना नहीं कर पाये। इस तरह ‘पूर्ववेला’ और ‘पिता तथा पुत्र’ उपन्यासों का सृजन हुआ।
‘पूर्ववेला’ (1860) उपन्यास में तुर्गेनेव ने क्रियाशील, दृढ़ और लक्ष्यनिष्ठ व्यक्ति के बिम्ब की रचना की। इन्सारोव “सजग-सचेत वीरतापूर्ण प्रवृत्तिवाला” नायक है; वह मातृभूमि के मुक्ति संघर्ष को अपना जीवन समर्पित कर देता है।
‘पिता और पुत्र’ (1862) उपन्यास में राज्नोचीनेत्स बाज़ारोव के रूप में तुर्गेनेव ने साठ के दशक के रूसी जनवादी प्रकृतिवैज्ञानिक-भौतिकवादी, जनता की शिक्षा तथा जीर्ण- शीर्ण परम्पराओं से विज्ञान की मुक्ति के संघर्षकर्त्ता के मुख्य लक्षणों को निरूपित किया है। बहुत-सी बातों में बाजारोव का आत्म-विरोधी बिम्ब उस समय के वास्तविक डेमोक्रेटिक- राज्नोचीन्त्सियों की कुछ असंगतियों को प्रतिबिम्बित करता है।
किन्तु सत्तर के दशक में जब सामाजिक क्षेत्र में नारोदवाद सामने आया तो तुर्गेनेव ने 'नूतन' (1877) उपन्यास लिखा जिसमें नारोदवादियों की गतिविधियों पर रोशनी डाली गयी है।
चालीस के दशक के मध्य से तुर्गेनेव अपना अधिकांश समय विदेश में बिताने लगे। प्रसिद्ध गायिका पोलीना वियार्डो के साथ उनका परिचय, जो इतालवी ऑपेरा की कलाकार के नाते 1843 में पीटर्सबर्ग आयी थीं, उनके प्रवास में सहायक हुआ। तीस साल से अधिक समय तक ये दोनों एक-दूसरे को बहुत प्यार करते रहे और इसने तुर्गेनेव के पूरे जीवन पर अमिट छाप अंकित की।
1848 में तुर्गेनेव पेरिस में थे और उन्होंने अपनी आंखों से वहां की क्रान्तिकारी घटनायें देखीं जिन्होंने उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया। पेरिस में ही लेखक-क्रान्तिकारी अलेक्सान्द्र हर्ज़ेन से उनकी घनिष्ठता हुई। मास्को लौटने पर तुर्गेनेव गोगोल से मिले। इन दो प्रमुखतम रूसी लेखकों के मिलन ने तुर्गेनेव के जीवन में बहुत बड़ी भूमिका अदा की। 1852 में गोगोल की मृत्यु होने पर तुर्गेनेव ने उनके बारे में निधन-लेख लिखा जिसमें रूसी साहित्य में गोगोल के योगदान को बहुत ऊंचा आंका। इसी के परिणामस्वरूप भूदासता के विरुद्ध ‘शिकारी की टिप्पणियां’ के लेखक तुर्गेनेव को पुलिस की निगरानी में उनके स्पास्स्कोये-लुतोवी- नोवो गांव में भेज दिया गया। प्रसिद्ध रूसी अभिनेता मिखाइल श्चेप्किन, ‘सोव्रेमेन्निक’ पत्रिका के सम्पादक कवि और जनवादी निकोलाई नेक्रासोव और महान लेव तोलस्तोय उनसे मिलने के लिये स्पास्स्कोये गये।
1856 के जुलाई महीने में तुर्गेनेव फिर से विदेश चले गये और लगभग स्थायी रूप से वहीं रहने लगे। गर्मियों में ही कभी-कभी वह पीटर्सबर्ग और स्पास्स्कोये-लुतोवीनोवो आते। लन्दन में तुर्गेनेव की हर्ज़ेन से भेंट हुई और उन्होंने उनके हाथ अपनी सामग्री प्रकाशनार्थ भेजी। इंगलैंड में ही उपन्यासकार विलियम थाकरे और इतिहासज्ञ थोमस मकलाय तथा अन्य प्रमुख कलाकारों-लेखकों से उनका परिचय हुआ। इस समय तक तुर्गेनेव विश्व-विख्यात लेखक बन चुके थे। रूसी समाज में भी उनकी साहित्य-सेवा को मान्यता प्राप्त हो चुकी थी। यह मान्यता, उदाहरण के लिये, इस रूप में प्रकट हुई थी कि उन्हें रूसी साहित्य-प्रेमी समाज का सदस्य और इसी प्रकार साहित्य-कोश समिति का सदस्य चुन लिया गया था।
साठ और सत्तर के दशकों में विभिन्न सार्वजनिक कार्यकर्त्ताओं और पत्रकारों तथा साहित्य एवं कला के प्रमुख प्रतिनिधियों के साथ तुर्गेनेव के सम्पर्कों का विस्तार हुआ। 1867 में ‘धुआं’ उपन्यास के प्रकाशित होने पर साहित्य-समीक्षक दुमीत्री पीसारेव से उनका परिचय हुआ और इनके बीच पत्र-व्यवहार होने लगा। 1872 में पेरिस में निर्वासन से भाग आये नारोदवादी आन्दोलन के एक सिद्धान्तकार प्योत्र लव्रोव से उनकी मुलाक़ात हुई और 'नूतन' उपन्यास के लिये तुर्गेनेव ने प्योत्र लव्रोव की रचनाओं का अध्ययन किया। इन्हीं वर्षों में प्रमुखतम फ़्रांसीसी लेखकों ग. फ़्लोबेर, ए. ज़ोला, अ. डोडे तथा ए. गोनकूर के साथ उनकी घनिष्ठता बढ़ने लगी। तुर्गेनेव को इनके बीच सही तौर पर अग्रज माना जाता था। विदेश में तुर्गेनेव रूसी साहित्य के विचारों का अथक रूप से प्रचार करते थे। जब रूसी लेखक सल्तिकोव-श्चेद्रीन, ग्लेब उस्पेन्स्की और अलेक्सेई पीसेम्स्की पेरिस में उनके पास आये तो तुर्गेनेव ने गायिका पोलीना वियार्डो के साथ मिलकर पेरिस के रूसी साहित्य-पाठकों के लिये कई साहित्यिक व्याख्यानों का आयोजन किया। सल्तिकोव-श्चेद्रीन का उन्होंने ज़ोला और फ़्लोबेर से परिचय करवाया। तुर्गेनेव के सहयोग से ही 1877 में पेरिस में रूसी कलाकारों का सहायता-समाज बनाया गया। साहित्य, विज्ञान और कला क्षेत्रों में तुर्गेनेव के कार्य-कलापों का फ़्रांस और इंगलैंड में उचित मूल्यांकन किया गया - 1878 में उन्हें पेरिस में हुए अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य सम्मेलन का उपाध्यक्ष चुना गया और 1879 में ओक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी ने उन्हें विधिशास्त्र के डाक्टर की उपाधि दी।
जीवन के अंतिम वर्षों में तुर्गेनेव ने रूस में भी सार्वजनिक और सांस्कृतिक-प्रबोधक गतिविधियां बढ़ा दीं। 1879 में, जब वह अपने भाई निकोलाई की मृत्यु के सिलसिले में पीटर्सबर्ग आये तो स्वास्थ्य के बहुत ख़राब होने पर भी उन्होंने मास्को के साहित्यिकों और विद्यार्थियों के सामने भाषण दिये। रूसी साहित्य-प्रेमी समाज की बैठक में 7 जून 1880 को तुर्गेनेव ने पुश्किन पर अपना बहुत ही बढ़िया भाषण दिया।
1881 की गर्मी में ही तुर्गेनेव आखिरी बार अपने जन्म-गांव स्पास्स्कोये-लुतोवीनोवो में रहे। पतझर में वह विदेश गये और 1882 के वसन्त में उनकी सेहत बहुत ज़्यादा खराब हो गयी। 22 अगस्त (3 सितम्बर ) 1883 को तुर्गेनेव पेरिस के निकट बुजिवाल में रीढ़ की हड्डी के कैंसर के कारण चल बसे। उनके अस्थि-पुष्प पीटर्सबर्ग के वोल्कोव क़ब्रिस्तान में दफ़न है।
तुर्गेनेव की रचनायें विश्व साहित्य की अमर निधि हैं और उनका नाम सामाजिक चिन्तन के इतिहास में सदा अमर रहेगा। बड़े उत्साह और साहस से उच्च कलात्मक बिम्बों के माध्यम से रूसी जीवन की सचाई, वीरतापूर्ण क्रान्तिकारी युवजन तथा जनता के कल्याण के लिये उनके बलिदानों, प्यार और मैत्री जैसी भावनाओं तथा रूसी प्रकृति के सौन्दर्य को सारी दुनिया के सामने प्रस्तुत करने में उन्हें बड़ी सफलता मिली है।
प्योत्र पुस्तोवोइत
कुछ अरसे बाद उनके परिवार के पीटर्सबर्ग चले जाने के फलस्वरूप तुर्गेनेव भी पीटर्सबर्ग विश्वविद्यालय में पढ़ने लगे। तुर्गेनेव के विद्यार्थी जीवन की ख़ास बात यह रही कि उन्होंने साहित्य-सृजन के अपने पहले प्रयोग किये ( मुख्यतः कविताओं के रूप में ) और उस समय के प्रमुखतम लेखकों और साहित्यकारों से उनकी जान-पहचान हो गयी।
विश्वविद्यालय की पढ़ाई समाप्त करने के बाद 1838 में तुर्गेनेव ने स्विट्ज़रलैंड और जर्मनी तथा इसके बाद इटली की लम्बी यात्रा की। बर्लिन विश्वविद्यालय में दाखिला लेकर उन्होंने दर्शनशास्त्र के व्याख्यान सुने। तीस के दशक में निकोलाई स्तानकेविच, तिमोफ़ेई ग्रनोव्स्की और मिखाईल बाकूनिन जैसे जाने-माने रूसी सार्वजनिक कार्यकर्त्ता बर्लिन में थे।
1841 में तुर्गेनेव रूस लौटे और मां के आग्रह पर गृह मन्त्रालय में काम करने लगे। इसके साथ ही वह गहन और गम्भीर साहित्य-सृजन में जुट गये। उनका सृजन-क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत था। वह कवितायें, उपन्यासिकायें, नाटक और उपन्यास रचते थे जिनमें रूसी समाज की विभिन्न श्रेणियों पर प्रकाश डालते थे।
चालीस और पचास के दशकों में लेखक ने कुलीन बुद्धिजीवियों में अपने युग का सुनायक खोजने की कोशिश की। ‘अन्द्रेई कोलोसोव’, ‘श्चीग्रोव्स्की उयेज्द का हेमलेट’, ‘फालतू व्यक्ति की डायरी’, ‘याकोव पासिन्कोव’, ‘आस्या’ उपन्यासिकाओं तथा ‘रूदिन’ और ‘कुलीन घराना’ उपन्यासों में उन्होंने अत्यधिक विकसित और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व तथा युग की सामाजिक परिस्थितियों के बीच उस समय विद्यमान मतभेदों को अभिव्यक्ति दी है। इन वर्षों में रूस में तथाकथित “फालतू लोग” सामने आ गये थे। ये अग्रणी विचारों को ग्रहण करनेवाले कुलीन युवजन के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि थे। किन्तु उनके सभी उदात्त भावावेश तत्कालीन रूस में छायी शिथिलता तथा एक ही ढर्रे की जिंदगी की दीवार से टकराकर रह जाते थे। संघर्ष के लिये आवश्यक दृढ़ संकल्प के गुणों से वंचित ऐसे लोग शब्द-सूरमा, ख्याली या हवाई मानवता के प्रचारक ही बनकर रह जाते थे। ‘रूदिन’ नामक उपन्यास का नायक रूदिन और ‘कुलीन घराना’ उपन्यास का नायक लव्रेत्स्की इसी तरह के नायकों के विशिष्ट उदाहरण हैं।
किन्तु पचास के दशक के अन्त और साठ के दशक के आरम्भ में डेमोक्रेटिक-राज्नोचीन्त्सियों (विभिन्न श्रेणियों के मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी – सं.) के रूप में रूसी समाज में एक नयी सामाजिक शक्ति प्रकट हुई। इस चीज़ के बावजूद कि वैचारिक दृष्टि से तुर्गेनेव उनसे अधिकाधिक दूर हटते जाते थे, एक लेखक के नाते वह जनवादी शिविर में जन्म लेनेवाले इस नये नायक की अवहेलना नहीं कर पाये। इस तरह ‘पूर्ववेला’ और ‘पिता तथा पुत्र’ उपन्यासों का सृजन हुआ।
‘पूर्ववेला’ (1860) उपन्यास में तुर्गेनेव ने क्रियाशील, दृढ़ और लक्ष्यनिष्ठ व्यक्ति के बिम्ब की रचना की। इन्सारोव “सजग-सचेत वीरतापूर्ण प्रवृत्तिवाला” नायक है; वह मातृभूमि के मुक्ति संघर्ष को अपना जीवन समर्पित कर देता है।
‘पिता और पुत्र’ (1862) उपन्यास में राज्नोचीनेत्स बाज़ारोव के रूप में तुर्गेनेव ने साठ के दशक के रूसी जनवादी प्रकृतिवैज्ञानिक-भौतिकवादी, जनता की शिक्षा तथा जीर्ण- शीर्ण परम्पराओं से विज्ञान की मुक्ति के संघर्षकर्त्ता के मुख्य लक्षणों को निरूपित किया है। बहुत-सी बातों में बाजारोव का आत्म-विरोधी बिम्ब उस समय के वास्तविक डेमोक्रेटिक- राज्नोचीन्त्सियों की कुछ असंगतियों को प्रतिबिम्बित करता है।
किन्तु सत्तर के दशक में जब सामाजिक क्षेत्र में नारोदवाद सामने आया तो तुर्गेनेव ने 'नूतन' (1877) उपन्यास लिखा जिसमें नारोदवादियों की गतिविधियों पर रोशनी डाली गयी है।
चालीस के दशक के मध्य से तुर्गेनेव अपना अधिकांश समय विदेश में बिताने लगे। प्रसिद्ध गायिका पोलीना वियार्डो के साथ उनका परिचय, जो इतालवी ऑपेरा की कलाकार के नाते 1843 में पीटर्सबर्ग आयी थीं, उनके प्रवास में सहायक हुआ। तीस साल से अधिक समय तक ये दोनों एक-दूसरे को बहुत प्यार करते रहे और इसने तुर्गेनेव के पूरे जीवन पर अमिट छाप अंकित की।
1848 में तुर्गेनेव पेरिस में थे और उन्होंने अपनी आंखों से वहां की क्रान्तिकारी घटनायें देखीं जिन्होंने उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया। पेरिस में ही लेखक-क्रान्तिकारी अलेक्सान्द्र हर्ज़ेन से उनकी घनिष्ठता हुई। मास्को लौटने पर तुर्गेनेव गोगोल से मिले। इन दो प्रमुखतम रूसी लेखकों के मिलन ने तुर्गेनेव के जीवन में बहुत बड़ी भूमिका अदा की। 1852 में गोगोल की मृत्यु होने पर तुर्गेनेव ने उनके बारे में निधन-लेख लिखा जिसमें रूसी साहित्य में गोगोल के योगदान को बहुत ऊंचा आंका। इसी के परिणामस्वरूप भूदासता के विरुद्ध ‘शिकारी की टिप्पणियां’ के लेखक तुर्गेनेव को पुलिस की निगरानी में उनके स्पास्स्कोये-लुतोवी- नोवो गांव में भेज दिया गया। प्रसिद्ध रूसी अभिनेता मिखाइल श्चेप्किन, ‘सोव्रेमेन्निक’ पत्रिका के सम्पादक कवि और जनवादी निकोलाई नेक्रासोव और महान लेव तोलस्तोय उनसे मिलने के लिये स्पास्स्कोये गये।
1856 के जुलाई महीने में तुर्गेनेव फिर से विदेश चले गये और लगभग स्थायी रूप से वहीं रहने लगे। गर्मियों में ही कभी-कभी वह पीटर्सबर्ग और स्पास्स्कोये-लुतोवीनोवो आते। लन्दन में तुर्गेनेव की हर्ज़ेन से भेंट हुई और उन्होंने उनके हाथ अपनी सामग्री प्रकाशनार्थ भेजी। इंगलैंड में ही उपन्यासकार विलियम थाकरे और इतिहासज्ञ थोमस मकलाय तथा अन्य प्रमुख कलाकारों-लेखकों से उनका परिचय हुआ। इस समय तक तुर्गेनेव विश्व-विख्यात लेखक बन चुके थे। रूसी समाज में भी उनकी साहित्य-सेवा को मान्यता प्राप्त हो चुकी थी। यह मान्यता, उदाहरण के लिये, इस रूप में प्रकट हुई थी कि उन्हें रूसी साहित्य-प्रेमी समाज का सदस्य और इसी प्रकार साहित्य-कोश समिति का सदस्य चुन लिया गया था।
साठ और सत्तर के दशकों में विभिन्न सार्वजनिक कार्यकर्त्ताओं और पत्रकारों तथा साहित्य एवं कला के प्रमुख प्रतिनिधियों के साथ तुर्गेनेव के सम्पर्कों का विस्तार हुआ। 1867 में ‘धुआं’ उपन्यास के प्रकाशित होने पर साहित्य-समीक्षक दुमीत्री पीसारेव से उनका परिचय हुआ और इनके बीच पत्र-व्यवहार होने लगा। 1872 में पेरिस में निर्वासन से भाग आये नारोदवादी आन्दोलन के एक सिद्धान्तकार प्योत्र लव्रोव से उनकी मुलाक़ात हुई और 'नूतन' उपन्यास के लिये तुर्गेनेव ने प्योत्र लव्रोव की रचनाओं का अध्ययन किया। इन्हीं वर्षों में प्रमुखतम फ़्रांसीसी लेखकों ग. फ़्लोबेर, ए. ज़ोला, अ. डोडे तथा ए. गोनकूर के साथ उनकी घनिष्ठता बढ़ने लगी। तुर्गेनेव को इनके बीच सही तौर पर अग्रज माना जाता था। विदेश में तुर्गेनेव रूसी साहित्य के विचारों का अथक रूप से प्रचार करते थे। जब रूसी लेखक सल्तिकोव-श्चेद्रीन, ग्लेब उस्पेन्स्की और अलेक्सेई पीसेम्स्की पेरिस में उनके पास आये तो तुर्गेनेव ने गायिका पोलीना वियार्डो के साथ मिलकर पेरिस के रूसी साहित्य-पाठकों के लिये कई साहित्यिक व्याख्यानों का आयोजन किया। सल्तिकोव-श्चेद्रीन का उन्होंने ज़ोला और फ़्लोबेर से परिचय करवाया। तुर्गेनेव के सहयोग से ही 1877 में पेरिस में रूसी कलाकारों का सहायता-समाज बनाया गया। साहित्य, विज्ञान और कला क्षेत्रों में तुर्गेनेव के कार्य-कलापों का फ़्रांस और इंगलैंड में उचित मूल्यांकन किया गया - 1878 में उन्हें पेरिस में हुए अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य सम्मेलन का उपाध्यक्ष चुना गया और 1879 में ओक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी ने उन्हें विधिशास्त्र के डाक्टर की उपाधि दी।
जीवन के अंतिम वर्षों में तुर्गेनेव ने रूस में भी सार्वजनिक और सांस्कृतिक-प्रबोधक गतिविधियां बढ़ा दीं। 1879 में, जब वह अपने भाई निकोलाई की मृत्यु के सिलसिले में पीटर्सबर्ग आये तो स्वास्थ्य के बहुत ख़राब होने पर भी उन्होंने मास्को के साहित्यिकों और विद्यार्थियों के सामने भाषण दिये। रूसी साहित्य-प्रेमी समाज की बैठक में 7 जून 1880 को तुर्गेनेव ने पुश्किन पर अपना बहुत ही बढ़िया भाषण दिया।
1881 की गर्मी में ही तुर्गेनेव आखिरी बार अपने जन्म-गांव स्पास्स्कोये-लुतोवीनोवो में रहे। पतझर में वह विदेश गये और 1882 के वसन्त में उनकी सेहत बहुत ज़्यादा खराब हो गयी। 22 अगस्त (3 सितम्बर ) 1883 को तुर्गेनेव पेरिस के निकट बुजिवाल में रीढ़ की हड्डी के कैंसर के कारण चल बसे। उनके अस्थि-पुष्प पीटर्सबर्ग के वोल्कोव क़ब्रिस्तान में दफ़न है।
तुर्गेनेव की रचनायें विश्व साहित्य की अमर निधि हैं और उनका नाम सामाजिक चिन्तन के इतिहास में सदा अमर रहेगा। बड़े उत्साह और साहस से उच्च कलात्मक बिम्बों के माध्यम से रूसी जीवन की सचाई, वीरतापूर्ण क्रान्तिकारी युवजन तथा जनता के कल्याण के लिये उनके बलिदानों, प्यार और मैत्री जैसी भावनाओं तथा रूसी प्रकृति के सौन्दर्य को सारी दुनिया के सामने प्रस्तुत करने में उन्हें बड़ी सफलता मिली है।
प्योत्र पुस्तोवोइत

 
 
 
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