भारत के महान साहित्यकारों में से एक शरत् चन्द्र चट्टोपाध्याय के तीन कालजयी उपन्यासों गृहदाह, शेषप्रश्न व चरित्रहीन की पीडीएफ फाइल
भारत के महान साहित्यकारों में से एक शरत् चन्द्र चट्टोपाध्याय के तीन कालजयी उपन्यासों गृहदाह, शेषप्रश्न व चरित्रहीन की पीडीएफ फाइल
संक्षिप्त परिचय
शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय (15 सितंबर, 1876 - 16 जनवरी,
1938) बांग्ला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार थे। अठारह साल की उम्र में
उन्होंने "बासा" (घर) नाम से एक उपन्यास लिख डाला, पर यह
रचना प्रकाशित नहीं हुई। रवींद्रनाथ ठाकुर और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का उन पर
गहरा प्रभाव पड़ा। शरतचन्द्र ललित कला के छात्र थे लेकिन आर्थिक तंगी के चलते वह
इस विषय की पढ़ाई नहीं कर सके। रोजगार की तलाश में शरतचन्द्र बर्मा गए और लोक
निर्माण विभाग में क्लर्क के रूप में काम किया।
कुछ समय बर्मा रहकर कलकत्ता लौटने के बाद उन्होंने गंभीरता के साथ
लेखन शुरू कर दिया। बर्मा से लौटने के बाद उन्होंने अपना प्रसिद्ध उपन्यास
श्रीकांत लिखना शुरू किया। बर्मा में उनका संपर्क बंगचंद्र नामक एक व्यक्ति से हुआ
जो था तो बड़ा विद्वान पर शराबी और उछृंखल था। यहीं से चरित्रहीन का बीज पड़ा,
जिसमें
मेस जीवन के वर्णन के साथ मेस की नौकरानी से प्रेम की कहानी है।
जब वह एक बार बर्मा से कलकत्ता आए तो अपनी कुछ रचनाएँ कलकत्ते में एक
मित्र के पास छोड़ गए। शरत को बिना बताए उनमें से एक रचना "बड़ी दीदी"
का 1907 में धारावाहिक प्रकाशन शुरु हो गया। दो एक किश्त निकलते ही लोगों में
सनसनी फैल गई और वे कहने लगे कि शायद रवींद्रनाथ नाम बदलकर लिख रहे हैं। शरत को
इसकी खबर साढ़े पाँच साल बाद मिली। कुछ भी हो ख्याति तो हो ही गई, फिर
भी "चरित्रहीन" के छपने में बड़ी दिक्कत हुई। भारतवर्ष के संपादक कविवर
द्विजेंद्रलाल राय ने इसे यह कहकर छापने से मना कर दिया किया कि यह सदाचार के
विरुद्ध है।
बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन को लेकर "पथेर दावी" उपन्यास
लिखा गया। पहले यह "बंग वाणी" में धारावाहिक रूप से निकाला, फिर
पुस्तकाकार छपा तो तीन हजार का संस्करण तीन महीने में समाप्त हो गया। इसके बाद
ब्रिटिश सरकार ने इसे जब्त कर लिया। शरत के उपन्यासों के कई भारतीय भाषाओं में
अनुवाद हुए हैं।
शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के साहित्य ने समाज के निचले तबके को पहचान
दिलाई। यही नहीं, उन्हें उनके इसी दुस्साहस के लिए समाज के रोष का पात्र भी बनना पड़ा।
‘चरित्रहीन’ को जब उन्होंने लिखा था तब उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा था
क्योंकि उसमें उस समय की मान्यताओं और परंपराओं को चुनौती दी गयी थी। शरत्चन्द्र की जनप्रियता उनकी कलात्मक रचना और नपे तुले
शब्दों या जीवन से ओतप्रोत घटनावलियों के कारण नहीं है बल्कि उनके उपन्यासों में
नारी जिस प्रकार परंपरागत बन्धनों से छटपटाती दृष्टिगोचर होती है, जिस
प्रकार पुरुष और स्त्री के सम्बन्धों को एक नए आधार पर स्थापित करने के लिए पक्ष
प्रस्तुत किया गया है, उसी से शरत् को जनप्रियता मिली।
(परिचय साभार - विकीपीडिया)
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