बाल्ज़ाक के कालजयी उपन्यास ‘सूना घर' की पीडीएफ फाइल PDF file of Balzac's Timeless Novel - Eugenie Grandet

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इक्कीसवीं सदी में बाल्ज़ाक

कात्यायनी / सत्यम


बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में, साहित्य के जागरूक यूरोपीय पाठकों के बीच यह मान्यता काफ़ी लोकप्रिय हुआ करती थी कि विश्व का महानतम उपन्यास “युद्ध और शान्ति” है और महानतम उपन्यासकार बाल्जाक हैं।

आज, एक शताब्दी बाद भी, विश्व–साहित्य के अध्येताओं का बहुलांश उपरोक्त धारणा से सहमत मिलेगा। पिछले डेढ़ सौ वर्षों के दौरान दुनिया के पाँच सार्वकालिक महानतम उपन्यासकारों की सूची जब कभी भी बनाई जाती तो उसमें बाल्जाक का नाम शायद सबसे निर्विवाद और सुरक्षित होता। पिछले चार सौ वर्षों के विस्तृत विश्व–ऐतिहासिक कालखण्ड को सामने रखकर यदि उपन्यास–विधा पर केन्द्रित करें तो राबेले, सर्वान्तेस, डेफ़ो, फ़ील्डिंग, स्टर्न, दिदेरो, वाल्टर स्कॉट, स्टेण्ढाल, तुर्गनेव, तोल्स्तोय, दोस्तोयेव्स्की, डिकेन्स, थैकरे, थामस हार्डी, फ्लॉबेयर, ज़ोला, थामस मान, अनातोल फ्रांस, अप्टन सिंक्लेयर, जैक लण्डन, गोर्की, फ़देयेव, शोलोखोव, हेमिंग्वे, फ़ॉकनर, ग्राहम ग्रीन, गैब्रिएल गार्सिया मारख़ेज़” आदि–आदि से निर्मित विविध आलोकमय तारापुंजों के बीच बाल्जाक का नाम ध्रुवतारे की तरह अलग चमकता हुआ नज़र आता है।

उन्नीसवीं शताब्दी के फ्रांस में यथार्थवाद के जन्म और विकास के इतिहास का प्रथम अध्याय वस्तुत: बाल्जाक के रचनात्मक लेखन का पूरा कालखण्ड है। उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप के यथार्थवादी लेखकों की उत्तरवर्ती पीढ़ियों के प्राय: सभी पुरोधाओं पर बाल्जाक ने गहरा प्रभाव छोड़ा। इनमें फ्लॉबेयर से लेकर तोल्स्तोय तक शामिल थे। बीसवीं शताब्दी में गोर्की और शोलोखोव से लेकर लू शुन और प्रेमचन्द तक-अधिकांश महान लेखकों ने उपन्यासकार के रूप में बाल्जाक की सार्वकालिक महानता को स्वीकार किया है और उन्हें यथार्थवाद का आला उस्ताद बताया है। मार्क्सवादी सिद्धान्तकार समालोचक जार्ज लूकाच बाल्जाक, स्टेण्ढाल और तोल्स्तोय की रचनाओं में ही आलोचनात्मक यथार्थवाद की व्यापकता और गहराई सर्वाधिक मानते थे।

यह बहुज्ञात तथ्य अनायास या अप्रत्याशित ज़रा भी नहीं लगता कि वैज्ञानिक समाजवाद के प्रणेता कार्ल मार्क्स सर्वान्तेस और बाल्जाक को तमाम अन्य उपन्यासकारों के ऊपर रखते थे और उनके अनन्य मित्र और सहचिन्तक फ्रेडरिक एंगेल्स भी उनके इन विचारों से पूरी तरह सहमत थे।

फ्रांसीसी मज़दूर आन्दोलन के प्रसिद्ध नेता तथा मार्क्स के शिष्य और दामाद पॉल लफ़ार्ग ने अपने एक संस्मरण में लिखा है : वह (मार्क्स) बाल्जाक के इतने प्रशंसक थे कि राजनीतिक अर्थशास्त्र पर अपनी पुस्तक का लेखन–कार्य समाप्त करते ही वह उनकी महान रचना–श्रृंखला ‘ह्यूमन कॉमेडी’ (La Comedie Humaine) की समीक्षा लिखना चाहते थे। वह बाल्जाक को अपने युग का इतिहासकार ही नहीं मानते थे, अपितु ऐसे पूर्वकल्पित पात्रों का स्रष्टा भी मानते थे जो अभी लुई फिलिप के ज़माने में भ्रूणावस्था में थे तथा जो बाल्जाक के देहावसान के बाद, नेपोलियन तृतीय के काल में ही पूर्णतया विकसित हुए।”

बाल्जाक ने छोटे–बड़े निन्यानबे उपन्यास और कहानियाँ लिखीं और इसे हिन्दी जगत की कंगाली और हिन्दी पाठकों का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि इनमें से हमारी जानकारी के मुताबिक सिर्फ़ दो उपन्यासों (‘ओल्ड गोरियो’ और ‘यूजीन ग्रान्दे’) के अनुवाद ही हिन्दी में उपलब्ध हैं। बाल्जाक की कम से कम प्रतिनिधि रचनाओं को हिन्दी में लाना हमारी समझ से एक बेहद, बेहद ज़रूरी काम है। हर दृष्टि से यह हिन्दी को समृद्ध करेगा। हिन्दी साहित्य को नई सदी के नये यथार्थ, नये स्वप्नों और नई चुनौतियों से जूझने के लिए अपनी जातीय परम्पराओं के अतिरिक्त विश्व–साहित्य की जिस अनश्वर विरासत को आत्मसात करना है, उसमें बाल्जाक के कृतित्व का अनन्य स्थान है।

बाल्जाक ने अपने उपन्यासों–उपन्यासिकाओं की श्रृंखला ‘ह्यूमन कॉमेडी’ को “उन्नीसवीं सदी की जीवन–चर्या का अध्ययन” बताया था। यह पूँजीवादी सामाजिक–आर्थिक संरचना और उसकी राजनीतिक–सांस्कृतिक अधिरचना के निर्माण का प्रारम्भिक दौर था। मार्क्स और एंगेल्स अपने मित्रों को प्राय: सलाह दिया करते थे कि वे फ्रांस में पूँजीवाद के उदय को जानने–समझने के लिए आर्थिक इतिहासकारों के उबाऊ ब्योरों के बजाय बाल्जाक के उपन्यास पढ़ें। कभी–कभी यह देखकर आश्चर्य होता है कि पिछली आधी सदी की क्रमिक पूँजीवादी संक्रमण प्रक्रिया ने हमारे देश में भी चरित्रों–संस्थाओं के जिन ‘टाइपों’ का तथा बाज़ार–अर्थव्यवस्था की जिस मानवद्वेषी संस्कृति का विकास किया है, उन्हें समझने में बाल्जाक से कितनी अधिक मदद मिलती है। हालाँकि उत्तर–औपनिवेशिक समाज, साम्राज्यवादी विश्व–ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तथा भारतीय पूँजीवादी संक्रमण की अपनी कई विशिष्टताएँ और भिन्नताएँ हैं (और इस रूप में हर ऐतिहासिक तुलना या सादृश्यता आंशिक–अधूरी ही होती है), फिर भी अर्थशास्त्री गिरीश मिश्र (‘बाल्जाक : मिरर ऑफ इमर्जिंग माडर्न कैपिटलिज़्म’ के लेखक) के इस विचार से सहमति के पर्याप्त आधार हैं कि : “आज भारत में जो कुछ हो रहा है उसको समझने–बूझने में बाल्जाक जितने सहायक हो सकते हैं उतने हमारे यहाँ के बड़े–बड़े विद्वानों और चिन्तकों के ग्रन्थ और शोध–निबन्ध नहीं, क्योंकि बाल्जाक के पास जो समग्र विश्व दृष्टि, विश्लेषणात्मक दक्षता तथा तथ्यों को परखने और विभिन्न शक्तियों तथा पक्षों के अन्तर्सम्बन्धों की तह तक जाने की जो कला है वह अन्यत्र नहीं दीखती।”

‘ह्यूमन कॉमेडी’ और उसके सर्जक के जीवन की महाकाव्यात्मक त्रासदी

बाल्जाक के जन्म से दस वर्ष पहले, 1789 में महान फ्रांसीसी क्रान्ति सामन्ती सत्ता और सामाजिक–आर्थिक व्यवस्था को धूल में मिला चुकी थी। “अभिजातों को इन्सानों के दर्ज़े तक ऊँचा उठाया जा चुका था।” लेकिन पुरानी व्यवस्था की स्थानापन्न नई पूँजीवादी व्यवस्था अभी सुनिश्चित शक्ल नहीं ले पाई थी। नया सत्ताधारी बुर्जुआ वर्ग दस वर्षों तक सामन्ती पुनर्स्थापना की कोशिशों से, और उससे अधिक जनक्रान्ति की मुख्य ताकत-आम मेहनतकश जनता की प्रतिनिधि शक्तियों से निपटता रहा जो क्रान्ति को आगे ले जाना चाहते थे और प्रबोधनकालीन दार्शनिकों के आदर्शों को वास्तव में, यथार्थ में रूपान्तरित करना चाहते थे। यह जटिल वर्ग–संघर्ष और भीषण सामाजिक उथल–पुथल का तरल परिदृश्य था। कहा जा सकता है कि 1799 में नेपोलियन के सत्तासीन होने के बाद ही, नई, पूँजीवादी सामाजिक–आर्थिक संरचना और राजनीतिक व्यवस्था के निर्माण का काम विधिवत एजेण्डे पर आया। यह एक संयोग ही था कि इसी वर्ष मई में, तूर में ओनोरे द बाल्जाक का जन्म हुआ।

फ्रान्सीसी क्रान्ति और उत्तरवर्ती दशक के उथल–पुथल के दौरान बाल्जाक का परिवार किसान से शहरी मध्यवर्ग बन गया। बाल्जाक की शिक्षा–दीक्षा पेरिस में कालेज द वान्दोम में और पेरिस लॉ स्कूल में हुई। इसके साथ ही वे नोटरी ऑफिस में प्रैक्टिस भी करते रहे। आगे चलकर पेरिस के शहरी जीवन के अपने इन अनुभवों का इस्तेमाल बाल्जाक ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘ओल्ड गोरियो’ में किया। युवावस्था में बाल्जाक की रुझान दर्शन की ओर थी। फ्रांसीसी प्रबोधनकालीन दार्शनिकों के प्रभाव में वे ‘दार्शनिक’ और ‘कलाकार’ की अवधारणाओं को अभिन्न मानते थे और इसी नाते उन्होंने अपने लिए लेखक का कैरियर चुना।

1822-25 के दौरान बाल्जाक ने जां–लुई और अन्य विभिन्न छद्म नामों से अपने आठ उपन्यास प्रकाशित कराए, पर ये सभी असफल रहे। निराश बाल्जाक एक टाइप फाउण्ड्री और प्रेस में हिस्सेदार बन गए, पर व्यवसाय–कुशलता के अभाव के कारण यहाँ भी वे विफल रहे। तीस वर्ष की उम्र में व्यवसाय से अलग होते समय वे कर्ज़ के भारी बोझ से लदे हुए थे, जिसे उतार पाना कभी सम्भव नहीं हो पाया। बहरहाल, इन अनुभवों ने उद्योग, वाणिज्य और वित्त की दुनिया की जिन तफ़सीलों से बाल्जाक का परिचय कराया, उसका इस्तेमाल आगे चलकर उन्होंने अपनी रचनाओं में किया। इन अनुभवों ने बुर्जुआ समाज की संरचना, कार्य–प्रणाली और विभिन्न वर्गों की प्रकृति और व्यवहार को समझने में बाल्जाक की काफ़ी मदद की।

युवा बाल्जाक पर फ्रांसीसी प्रबोधन काल (“एज ऑफ एनलाइटेनमेण्ट’) की भौतिकवादी विचारधारा का गहरा प्रभाव था। समाज में प्रभावी बुर्जुआ सम्बन्धों के वे निर्मम आलोचक थे और उनके प्रति इस हद तक घृणा से भरे हुए थे कि 1832 के आसपास ‘लेजिटिमिस्ट’ (राजतंत्रवादी) राजनीतिक विचारों के पक्षधर हो गये। राजतंत्र को वे राज्यसत्ता का स्थायित्वपूर्ण रूप मानते थे जो बुर्जुआ वर्ग के स्वार्थ पर अंकुश लगा सकता था तथा आर्थिक और नैतिक प्रगति को सम्भव बना सकता था। इसी तरह कैथोलिक धर्म को भी वे बुर्जुआ स्वार्थपरता का तोड़ (“एण्टीडोट’) मानते थे। तोल्स्तोय की ही तरह, बाल्जाक के भी ये अन्तर्निहित अन्तरविरोध उनकी मनोवैज्ञानिक स्थिति के विशुद्ध व्यक्तिगत लक्षणों के ही नहीं, बल्कि समाज के जीवन में वास्तविक अन्तरविरोधों के भी विचारधारात्मक प्रतिबिम्ब थे। बाल्जाक के प्रतिगामी राजनीतिक विचारों के बावजूद, उनके आलोचनात्मक यथार्थवाद की महान क्रान्तिकारी भूमिका की तर्कसंगत व्याख्या फ्रेडरिक एंगेल्स ने इन शब्दों में प्रस्तुत की है : “यह सच है कि बाल्जाक अपने राजनीतिक दृष्टिकोण के मामले में लेजिटिमिस्ट थे; उनका महान कृतित्व उच्च समाज के असाध्य क्षय के बारे में सतत शोकगीत है; उनकी सारी सहानुभूति उस वर्ग के साथ है, जिसके नसीब में विलोप होना लिखा हुआ है। परन्तु यह सब होते हुए भी उनकी व्यंग्योक्तियाँ उतनी अधिक तीक्ष्ण, उतनी अधिक कटु और कभी नहीं होतीं, जितनी उस समय, जब वह ठीक उन पुरुषों और नारियों की, अभिजातों की तस्वीर खींचते हैं, जिनके साथ उनकी सबसे गहरी सहानुभूति है। और जिन लोगों की चर्चा वह सदैव अप्रच्छन्न प्रशंसा के साथ करते हैं, वे उनके कटुतम राजनीतिक विरोधी, जनतंत्रवादी-सेंट मेरी मठ के नायक (जनतंत्रवादी पार्टी के वामपक्ष के वे विद्रोही जिन्होंने 1832 में सेंट मेरी मठ के पास लुई फिलिप के सैनिकों से बैरीकेडी युद्ध लड़ा था-सं.) हैं, जो उस समय (1830–1836) सचमुच जनसाधारण के नायक थे। इस चीज़ को, कि बाल्जाक इस तरह स्वयं अपनी वर्ग–सहानुभूतियों तथा राजनीतिक पूर्वाग्रहों के विरुद्ध खड़े होने के लिए विवश हुए, कि उन्होंने अपने प्रिय अभिजातों के पतन की आवश्यकता देखी और उनका ऐसे लोगों के रूप में वर्णन किया, जो बेहतर नसीब के पात्र नहीं हैं, कि उन्होंने भविष्य के वास्तविक लोगों को वहाँ देखा, जहाँ और केवल जहाँ वे उस समय मिल सकते थे-इस चीज़ को मैं यथार्थवाद की सबसे महती विजयों में से एक, अनुभवी बाल्जाक के भव्यतम गुणों में से एक मानता हूँ।” (मार्गरेट हार्कनेस को चिट्ठी, अप्रैल, 1888)

व्यवसाय में हाथ आज़माने के विफल दौर के बाद बाल्जाक ने एक बार फिर जब लेखन की दुनिया में प्रवेश किया तो पूरी तैयारी के साथ। राबेले, मोलिएर और वाल्टर स्कॉट को अपना मुख्य साहित्यिक गुरु मानते हुए उन्होंने अपनी साधना की नये सिरे से शुरुआत की। ‘दि वाइल्ड ऐस’ज़ स्किन’ (1830–31) को स्वयं बाल्जाक ने अपने कृतित्व का प्रस्थान–बिन्दु बताया है। इस उपन्यास की कहानी सूक्ष्म विस्तारों के साथ इस घटनाक्रम का ब्योरा पेश करती है कि किस तरह एक हत्यारा–बैंकर भ्रष्टाचारी प्रेस के ज़रिए जनमत को मनमुआफ़िक प्रभावित करता है और बढ़ती हुई बुर्जुआ स्वार्थपरता विश्वासों और उसूलों को तबाह कर डालती है। युवा रफाएल द वालेन्तीन, स्वयं से विश्वासघात करने के बावजूद, उन लोगों के प्रति तिरस्कार का रुख अपनाए रहता है जो ज़िन्दगी के मालिक बन बैठे थे। इस उपन्यास में बाल्जाक ने स्वच्छन्दतावादी बिम्ब–विधान, प्रतीकवाद और सजीव चित्रात्मकता–युक्त गम्भीर विश्लेषण के साथ 1830 की क्रान्ति के बाद पेरिस के माहौल को उपस्थित किया है तथा उस दौर के लोगों की जटिल प्रकृति, भावाकुलता की त्रासदी, विज्ञान की दुनिया और जीवन के लगातार बढ़ते उथलेपन का चित्र खींचा है।

1834 में, जिस वर्ष बाल्जाक का शाहकार उपन्यास ‘ओल्ड गोरियो’ प्रकाशित हुआ, उनके दिमाग़ में यह अनूठा विचार आया कि 1829 से लिखे गए उपन्यासों–उपन्यासिकाओं के साथ ही पिरोते हुए आगे उपन्यासों–कहानियों की एक पूरी श्रृंखला प्रस्तुत की जाए। इस श्रृंखला को पहले उन्होंने ‘उन्नीसवीं शताब्दी की जीवन–चर्या का अध्ययन’ (स्टडीज़ ऑफ नाइण्टीथ सेंचुरी मैनर्स) का नाम दिया, लेकिन 1842 तक जब यह महाकाव्यात्मक परियोजना कुछ और परिपक्व और विकसित हो गई तो इसका नाम बदलकर उन्होंने ‘ह्यूमन कॉमेडी’ रख दिया। बाल्जाक इस श्रृंखला में तत्कालीन फ्रांसीसी समाज के सभी वर्गों, संस्तरों, पेशों और विचारधाराओं के लगभग तीन–चार हज़ार पात्रों के माध्यम से उन्नीसवीं शताब्दी के सामाजिक–सांस्कृतिक इतिहास का और उस दिक्–काल के मनुष्य की चेतना और चरित्र का एक अध्ययन प्रस्तुत करना चाहते थे। उन्नीसवीं शताब्दी के फ्रांसीसी समाज और विश्व में सार्वभौमिक अन्तरनिर्भरता के विचार के मूर्त मानव–रूप के कलात्मक अध्ययन–विश्लेषण की इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना का दार्शनिक फ्रेमवर्क अठारहवीं शताब्दी के भौतिकवाद, प्रकृति–विज्ञान के तत्कालीन सिद्धान्तों और विविध रहस्यवादी धर्म–सिद्धान्तों के तत्त्वों के संयोजन से निर्मित हुआ था। ‘ह्यूमन कॉमेडी’ के कुल तीन प्रखण्ड थे : (1) निजी जीवन, प्रान्तीय जीवन, पेरिस के नगरीय जीवन, राजनीतिक जीवन, फौजी जीवन और ग्रामीण जीवन के दृश्यों को उपस्थित करते हुए नैतिकता और तौर–तरीक़ों का अध्ययन; (2) दार्शनिक अध्ययन; और (3) विश्लेषणात्मक अध्ययन। इन तीनों प्रखण्डों की प्राक्कल्पना एक ऐसी कुण्डलाकार संरचना के तीन वृत्तों के रूप में की गई थी जो तथ्यों को कारणों और सिद्धान्तों से जोड़ते हों।

अपनी इस योजना को अमल की प्रक्रिया में ज़्यादा से ज़्यादा ठोस रूप देते हुए बाल्जाक ने 1945 में 144 उपन्यासों की एक पूरी सूची भी प्रकाशित की और इसे क्रियान्वित करने में जी–जान से जुट गये। कभी–कभी तो हफ्तों और महीनों वे घर से बाहर तक नहीं निकलते थे। आर्थिक तंगी ज़बर्दस्त थी। किराए का मकान पेरिस की एक ग़रीब–गन्दी बस्ती में था जहाँ दिन भर लड़ाई–झगड़े का शोर रहता था। इस हो–हल्ले से बचने के लिए, दिन में सोना और रात में काली कॉफी पी-पीकर जागना और धुँआधार, चमत्कारी रफ्तार से लिखना-बस यही बाल्जाक का जीवन था। नतीजतन शरीर छीजता चला गया। 1850 में मात्र इक्यावन साल की उम्र में बाल्जाक की मृत्यु हो गई। 144 उपन्यासों का सपना पूरा नहीं हो सका, ‘ह्यूमन कॉमेडी’ श्रृंखला के अन्तर्गत कुल नब्बे उपन्यास–उपन्यासिकाएँ और कहानियाँ ही लिखी जा सकीं। अपनी ज़िन्दगी के महत्त्वाकांक्षी मिशन को पूरा करने में बाल्जाक ने अपने को इस क़दर झोंक दिया था कि जैसे जीना तक भूल चुके थे। 1832 में रूस में रहने वाली, पोलिश अभिजात समाज की एक महिला एवलिन हांस्का से बाल्जाक का पत्र–व्यवहार शुरू हुआ था। उससे मिलने के लिए उन्होंने 1843 में सेण्ट पीटर्सबर्ग की और 1847–48 में उक्रेन तक की यात्रा भी की। मृत्यु से ठीक पाँच माह पहले ही हांस्का से उनका विवाह हो सका। लेखन–कर्म के अतिरिक्त बाल्जाक ने यदि कुछ और किया तो यह कि 1832 और 1848 में, दो बार ‘चैम्बर ऑफ डेपुटीज़’ की सदस्यता के लिए चुनाव लड़ा और दोनों ही बार विफल रहे। दो बार ‘अकादेमी फ्रांकेस’ के चुनाव में भी (1849) हिस्सा लिया और इसमें भी पराजय ही हाथ लगी।

‘ह्यूमन कॉमेडी’ श्रृंखला के पहले की रचनाओं को लेकर बाल्जाक ने कुल निन्यानबे छोटे–बड़े उपन्यास और कहानियाँ लिखीं। इसके अतिरिक्त उन्होंने पाँच नाटक भी लिखे जिनमें ‘दि स्टेपमदर’ (1848) और ‘ड्रोल स्टोरीज़’ (1831-37) को काफ़ी ख्याति मिली। राबेले और फ्रांसीसी लोक–साहित्य की स्पिरिट में लिखे गए ये नाटक बाल्जाक के मानवतावादी चिन्तन और फ्रांसीसी साहित्य–कला की राष्ट्रीय परम्परा के महत्त्वपूर्ण स्मारक माने जाते हैं।

अपने समय का इतिहासकार, अपने समाज का सचिव

बाल्जाक स्वयं को उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध का इतिहासकार कहा करते थे। यह दौर फ्रांसीसी इतिहास का, बहुसंस्तरीय वर्ग–संघर्ष से भरपूर, उथल–पुथलकारी दौर था। बाल्जाक ने कई जगह कहा है कि वे जिस समाज के ‘स्वनियुक्त सचिव’ और इतिहासकार हैं उसमें आर्थिक सत्ता सामन्ती अभिजनों के हाथों से निकलकर सेठों, बैंकरों और व्यापारियों के हाथों में चली गई है। उनके विचार से 1830 की क्रान्ति के बाद यह तथ्य और अधिक स्पष्ट हो गया था जब गद्दी पर तो लुई फिलिप बैठा था लेकिन सत्ता वस्तुत: पूँजीपतियों के पास थी। बाल्जाक की अन्तर्भेदी दृष्टि ने प्रतीति को भेदकर सार को पहचाना। इस तरह उनका कृतित्व उन्नीसवीं शताब्दी के पहले पाँच दशकों के दौरान सामन्तवाद की पुनर्स्थापना के प्रयासों से लेकर पूँजीवादी व्यवस्था, संस्कृति और सामाजिक मनोविज्ञान के विकास के विविध पक्षों का प्रामाणिक दस्तावेज़ बन गया।

मार्क्स की पुत्री लौरा लफ़ार्ग के नाम अपने एक पत्र में फ्रेडरिक एंगेल्स ने लिखा है : “प्रसंगत:, जब मैं बिस्तर पर लेटा था, तो बाल्जाक को छोड़कर प्राय: कुछ और नहीं पढ़ा, और इस विलक्षण इन्सान की रचनाओं को पढ़कर अत्यन्त आनन्द प्राप्त किया। यहाँ 1818 से लेकर 1848 तक का फ्रांस का इतिहास उससे कहीं ज़्यादा मात्रा में है, जितना सारे वोलाबेलेओं, काप्फिगों, लुई ब्लांओं के पास मिलाकर मिलता है। कैसा साहस है! उनके काव्यमय न्याय में कैसी क्रान्तिकारी द्वन्द्वात्मकता है!” (13 दिसम्बर, 1883)

उन्नीसवीं शताब्दी के नवें दशक की अंग्रेज़ समाजवादी लेखिका मार्गरेट हार्कनेस के नाम पत्र में यथार्थवाद के बारे में अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए एंगेल्स ने बाल्जाक के बारे में लिखा है : “बाल्जाक, जिन्हें मैं अतीत, वर्तमान और भविष्य के तमाम ज़ोलाओं की तुलना में यथार्थवाद का कहीं बड़ा आचार्य मानता हूँ, ‘ह्यूमन कॉमेडी’ में फ्रांसीसी “समाज़ का, ख़ास तौर पर “पेरिस की दुनिया” का सबसे अद्भुत यथार्थवादी इतिहास हमारे सामने पेश करते हैं। उन्होंने उभरते बुर्जुआ वर्ग द्वारा अभिजातों के समाज में, जिसने 1815 के बाद अपना पुनर्गठन किया था और जिसने, जहाँ तक सम्भव हो सकता था, पुरानी फ्रांसीसी नफ़ासत के प्रतिमान फिर से स्थापित किए थे, 1816 से 1848 तक बराबर घुसपैठ का लगभग साल दर साल का ब्योरा वृत्तान्त के रूप में किया है। वह यह बताते हैं कि उनके लिए इस आदर्श समाज के अन्तिम अवशेष किस प्रकार बाज़ारू क़िस्म के नये रईस के आगे धीरे–धीरे धराशाई होते गए या उस द्वारा भ्रष्ट होते गए; ऊँचे समाज की महिला के स्थान पर, जिसके दाम्पत्य जीवन में ग़ैरवफ़ादारी अपने को ठीक उसी ढंग के अनुसार, जिस ढंग से उसका विवाह कर उसे चलता कर दिया गया था, प्रतिष्ठित करने का उपाय मात्र थी, किस तरह बुर्जुआ महिला आई, जो नक़दी या ठाठदार वेशभूषा के लिए अपने पति को दग़ा देती थी। इस केन्द्रीय चित्र के चारों ओर बाल्जाक ने फ्रांसीसी समाज का पूरा इतिहास समेटा है, जिससे मुझे आर्थिक तफ़सीलों तक के मामले में (उदाहरण के लिए, क्रान्ति के बाद चल तथा अचल सम्पत्ति की पुनर्व्यवस्था के बारे में) इस अवधि के सारे के सारे विशेषज्ञों-इतिहासकारों, अर्थशास्त्रियों तथा सांख्यिकीविदों-की पुस्तकों से कहीं अधिक जानकारी मिली।” (अप्रैल, 1888)

बाल्जाक पूँजीवादी व्यवस्था की स्थापना के विश्व–ऐतिहासिक युग के साक्षी बने, जब सत्तासीन होते ही बुर्जुआ वर्ग ‘स्वतंत्रता–समानता–भ्रातृत्व’ के लाल झण्डे को धूल में फेंककर मुद्रा की रक्तपिपासु देवी के चरणों में तांत्रिक साधना करने लगा और चर्च से “पवित्र गठबन्धन” करके सिर पर राजशाही का मुकुट झाड़–पोंछकर रखने के बाद आम जनता को राजदण्ड से हाँकने लगा। प्रबोधनकालीन आदर्शों के अनुरूप तर्कबुद्धिसंगत राज्य और समाज की स्थापना के बजाय चारों ओर मुनाफ़ाख़ोरी, महाजनी, धोखाधड़ी, जालसाज़ी, जमाख़ोरी, सट्टेबाज़ी, अपराध और नैतिक पतन का जो घटाटोप बाल्जाक ने देखा, उसका सटीक वस्तुपरक विवरण एंगेल्स ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया है :

“…वे (प्रबोधनकाल के दार्शनिक-सं.) एक बुद्धिसंगत राज्य तथा बुद्धिसंगत समाज की स्थापना करना चाहते थे। वे ऐसी प्रत्येक वस्तु को निर्ममतापूर्वक हटा देना चाहते थे, जो शाश्वत बुद्धि के ख़िलाफ़ जाती थी। हमने यह भी देखा था कि वह शाश्वत बुद्धि वास्तव में अठारहवीं शताब्दी के उस नागरिक की समझ के आदर्श रूप के सिवा और कुछ नहीं थी, जिसका ठीक उसी समय पूँजीपति के रूप में विकास हो रहा था। इस बुद्धिसंगत समाज तथा बुद्धिसंगत राज्य को फ्राँसीसी क्रान्ति ने मूर्त रूप दिया था। नई व्यवस्था पुरानी परिस्थितियों की तुलना में तो काफ़ी बुद्धिसंगत थी, परन्तु पता चला कि वह सर्वथा बुद्धिसंगत कदापि नहीं है। बुद्धि पर आधारित राज्य पूर्णतया ध्वस्त हो गया। रूसो की सामाजिक संविदा ने आतंक के शासन में मूर्त रूप प्राप्त किया था, जिससे घबराकर पूँजीपति वर्ग ने, जिसका स्वयं अपनी राजनीतिक क्षमता में विश्वास समाप्त हो गया था, पहले डायरेक्टरेट की भ्रष्टता की शरण ली, और अन्त में वह नेपोलियन की निरंकुशता की गोद में जाकर बैठ गया। वायदा किया गया था कि अब सदा शान्ति रहेगी। पर वह शाश्वत शान्ति दूसरे देशों को जीतने के एक अन्तहीन युद्ध में बदल गई। बुद्धि पर आधारित समाज का हाल इससे बेहतर नहीं था। अमीर और ग़रीब का विरोध मिटाकर सामान्य समृद्धि नहीं आई, बल्कि शिल्पी संघों के तथा अन्य प्रकार के उन विशेषाधिकारों के समाप्त कर दिए जाने के फलस्वरूप, जिनसे कुछ हद तक यह विरोध कम हो जाता था, और चर्च की दानशील संस्थाओं के ख़त्म कर दिए जाने  के फलस्वरूप यह विरोध और तीव्र हो गया। पूँजीवादी आधार पर उद्योग का जो विकास हुआ, उसने श्रमिक जनता की दरिद्रता और कष्टों को समाज के अस्तित्व की आवश्यक शर्त बना दिया। अपराधों की संख्या वर्ष प्रतिवर्ष बढ़ती गई। पहले, सामन्ती दुराचार दिन–दहाड़े होता था; अब वह एकदम समाप्त तो नहीं हो गया था, पर कम से कम पृष्ठभूमि में ज़रूर चला गया था। उसके स्थान पर पूँजीवादी अनाचार, जो इसके पहले पर्दे के पीछे हुआ करता था, अब प्रचुर रूप में बढ़ने लगा था। व्यापार अधिकाधिक धोखेबाज़ी बनता गया। क्रान्तिकारी आदर्श सूत्र के “बन्धुत्व” ने होड़ के मैदान की ठगी तथा प्रतिस्पर्धा में मूर्त रूप प्राप्त किया। बलपूर्वक उत्पीड़न का स्थान भ्रष्टाचार ने ले लिया। समाज में ऊपर उठने के प्रथम साधन के रूप में तलवार का स्थान सोने ने ग्रहण कर लिया। लड़कियों के साथ पहली रात को सोने का अधिकार सामन्ती प्रभुओं के बजाय पूँजीवादी कारख़ानेदारों को मिल गया। वेश्यावृत्ति में इतनी अधिक वृद्धि हो गई, जो पहले कभी सुनी नहीं गई थी। विवाह प्रथा पहले की तरह अब भी वेश्यावृत्ति का क़ानूनी मान्यता प्राप्त रूप तथा उसकी सरकारी रामनामी बनी हुई थी, और इसके अलावा व्यापक परस्त्रीगमन उसके अनुपूरक का काम कर रहा था। संक्षेप में दार्शनिकों ने जो सुन्दर वायदे किए थे, उनकी तुलना में “बुद्धि की विजय” से उत्पन्न सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाएँ घोर निराशाजनक व्यंग्यचित्र प्रतीत होती थीं।” (‘ड्यूहरिंग मत–खण्डन’)

यह एक दिलचस्प बात है कि उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में, जब बाल्जाक मुद्रा की सर्वशक्तिमान सत्ता को जीवन की धुरी बनते और मुनाफ़े को समस्त मानवीय भावनाओं की उत्तोलक शक्ति बनते देख रहे थे, लगभग उसी समय वैज्ञानिक समाजवाद के आविष्कारक मार्क्स और एंगेल्स भी यह देख रहे थे कि पूँजीपति वर्ग ने पारिवारिक सम्बन्धों के ऊपर से भावुकता का आवरण उतारकर उन्हें मात्र द्रव्य के सम्बन्धों में बदल डाला है। मार्क्स–एंगेल्स का यह पर्यवेक्षण पहली बार ‘1844 की आर्थिक–दार्शनिक पाण्डुलिपियाँ’ में सामने आया और सर्वाधिक सान्द्र–सटीक और काव्यात्मक शब्दों में उन्होंने इसे 1848 में प्रकाशित ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ में सूत्रबद्ध किया : “पूँजीपति वर्ग ने, जहाँ भी उसका पलड़ा भारी हुआ, वहाँ सभी सामन्ती, पितृसत्तात्मक और काव्यात्मक सम्बन्धों का अन्त कर दिया। उसने मनुष्य को अपने “स्वाभाविक बड़ों” के साथ बाँध रखने वाले नाना प्रकार के सामन्ती सम्बन्धों को निर्ममता से तोड़ डाला; और नग्न स्वार्थ के, “नक़द पैसे–कौड़ी” के हृदयशून्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच और कोई दूसरा सम्बन्ध बाक़ी नहीं रहने दिया। धार्मिक श्रद्धा के स्वर्गोपम आनन्दातिरेक को, वीरोचित उत्साह और कूपमण्डूकतापूर्ण भावुकता को उसने आना–पाई के स्वार्थी हिसाब–क़िताब के बर्फ़ीले पानी में डुबो दिया है। मनुष्य के वैयक्तिक मूल्य को उसने विनिमय–मूल्य बना दिया है, और पहले के अनगिनत अनपहरणीय अधिकारपत्र द्वारा प्रदत्त स्वातंत्र्यों की जगह अब उसने एक ऐसे अन्त:करणशून्य स्वातंत्र्य की स्थापना की है जिसे मुक्त व्यापार कहते हैं। संक्षेप में, धार्मिक और राजनीतिक भ्रमजाल के पीछे छिपे शोषण के स्थान पर उसने नग्न, निर्लज्ज, प्रत्यक्ष और पाशविक शोषण की स्थापना की है।” (कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र)

‘ह्यूमन कॉमेडी’ श्रृंखला के उपन्यासों की अनेकश: घटनाओं और सैकड़ों पात्रों के चिन्तन और व्यवहार के ज़रिए पूँजीवादी समाज के इस सारतत्त्व को बाल्जाक ने सटीक अभिव्यक्ति दी और कहीं–कहीं तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि न केवल पूँजीवादी समाज की आत्मिक रिक्तता के बारे में, बल्कि इतिहास की कूड़ेदानी में धकेल दिए गए सामन्ती अभिजातों की नियति के बारे में भी, अपने ‘लेजिटिमिस्ट’ विचारों के बावजूद, बाल्जाक मार्क्स जैसी ही शब्दावली का प्रयोग करते हैं। हाँ, बाल्जाक की कलात्मक दृष्टि की ऐतिहासिक–वैज्ञानिक सीमा यह थी कि वे उन्नीसवीं शताब्दी के चौथे–पाँचवें दशक में फ्रांस में मज़दूर आन्दोलन की सरगर्मियाँ शुरू हो जाने के बावजूद सर्वहारा वर्ग की ऐतिहासिक भूमिका नहीं समझ सके। वे यह नहीं समझ सके कि, जैसा कि मार्क्स–एंगेल्स ने ‘पवित्र–परिवार’ में लिखा था, “निजी सम्पत्ति सर्वहारा को पैदा करके अपने को जो सज़ा सुनाती है, उसकी सर्वहारा ठीक उसी तरह तामील करता है, जिस प्रकार सर्वहारा उस सज़ा की तामील करता है जो उजरती श्रम ने दूसरों के लिए दौलत और अपने लिए ग़रीबी पैदा कर अपने को दी थी।”

बावजूद इसके, बाल्जाक की कालजयी महानता इस बात में निहित है कि उन्होंने मनुष्य को सामाजिक रूप से सक्रिय प्राणी के रूप में और अपने भाग्य के नियन्ता के रूप में, और अपने नैतिक आग्रहों और आदर्शों के लिए जूझते हुए दिखलाया। अपने अनगढ़–अधूरे वैज्ञानिक विचारों तथा अपने विचारों और आस्था के बीच के अन्तरविरोध के बावजूद, बाल्जाक के सामाजिक मानव के प्रकृत इतिहास–सम्बन्धी सिद्धान्त और फ्लॉबेयर के इस सिद्धान्त में कि कलाकार को देवता के समान तटस्थ होना चाहिए, भारी अन्तर है। राल्फ़ फॉक्स के शब्दों में, “…जीवन को देखने का उनका दृष्टिकोण सच्चे अर्थ में यथार्थवादी था। वह मानव समाज को उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में, एक ऐसी वस्तु के रूप में देखते थे, जो संघर्ष करती है और संघर्ष के दौरान विकसित होती है। फ्लॉबेयर में जीवन जैसे आम और स्थिर हो गया है। 1848 के बाद जीवन को उसके विकास–क्रम में देखना और चित्रित करना सम्भव न रहा, कारण कि वह विकास–क्रम अत्यन्त पीड़ामय था। सो, जीवन उनके लिए एक जमी हुई झील बन गया।” (‘उपन्यास और लोकजीवन’)

1848 के बाद बुर्जुआ उदारवाद और जनतंत्रवाद की सभी धाराएँ नि:सत्व हो चुकी थीं। बुर्जुआ वर्ग का मुख्य काम अब मानवाधिकारों के नाम पर सामन्ती अभिजनों से लड़ना नहीं बल्कि नये उभरते सर्वहारा आन्दोलन से निपटना हो गया था। इस इतिहास–प्रक्रिया की गति–दिशा और ‘पैटर्न’ को समझ और पकड़ पाने में अक्षमता के चलते, बाल्जाक के लेखन में शिखर–बिन्दु तक पहुँचने के बाद बुर्जुआ क्रान्तिकारी यथार्थवाद का विघटन उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मुख्यत: फ्लाबेयर और ज़ोला के लेखन में प्रकृतवाद के रूप में परिलक्षित होता है। वस्तुगत यथार्थ की सारभूत, गहन, द्वन्द्वात्मक गत्यात्मकता में पैठने के बजाय प्रकृतवाद ने कलात्मक सृजन को सांयोगिक, अलग–थलग वस्तुओं तथा परिघटनाओं की निष्क्रिय प्रतिछवि आँकने तक सीमित कर दिया।

स्टेण्ढाल, बाल्जाक और डिकेन्स के लेखन में जहाँ मनुष्य विपरीत स्थितियों के विरुद्ध संघर्ष में सक्षम दीखता था वहीं उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पश्चिमी साहित्यिक यथार्थवाद बुनियादी तौर पर व्यक्तित्व के अलगाव (एलियनेशन), विघटन और अवमूल्यन का तथा चरित्र, इच्छाशक्ति और परिवेश के विरुद्ध संघर्ष–क्षमता में ह्रास का चित्रण करने में संलग्न दीखता है। पश्चिमी यूरोप में पूँजीवाद की निर्णायक जीत और पूँजीवादी व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण के बाद, ऐसा प्रतीत होता है मानो आलोचनात्मक यथार्थवाद की ऊर्जस्वी, आवेगमय धारा वहाँ से विस्थापित होकर रूस में (तुर्गनेव, तोल्सतोय से चेखव तक के लेखन में) और अमेरिका में (मुख्यत: मार्क ट्वेन के लेखन में) प्रवाहित होने लगी थी। कहा जा सकता है कि जॉर्ज इलियट (ब्रिटेन) जैसे कुछ अपवाद भी थे, जिनके लेखन में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भी उदात्त मानवतावाद और मानवीय आदर्शों के लिए संघर्ष की सक्रिय चेतना मौजूद दीखती थी।

मुद्रा की सत्ता के विरुद्ध एक सर्जक का घनघोर युद्ध

नवजात बुर्जुआ समाज की कुरूपता और अमानवीयता की प्रथम प्रतिक्रिया कला–साहित्य की दुनिया में, उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में स्वच्छन्दतावाद (रोमाण्टिसिज़्म) के रूप में सामने आई। स्वच्छन्दतावाद की एक धारा बुर्जुआ वर्ग की विजय की रूढ़िवादी, अतीतोन्मुख प्रतिक्रिया थी जो जनता के प्रति अविश्वास और भय से भरी हुई थी और भ्रामक आदर्शों की रचना करती थी। स्वच्छन्दतावाद की दूसरी धारा प्रकृति से प्रगतिशील थी, इसके द्वारा प्रस्तुत यूटोपिया में “भविष्य की कविता” की अनुगूँजें थीं, फिर भी इस धारा के कलाकारों–रचनाकारों में बुर्जुआ समाज के व्याघातों के प्रति समझदारी, जनसमुदाय के जीवन में दिलचस्पी तथा उसकी सक्रियता में और भविष्य में विश्वास जैसी अभिलाक्षणिकताएँ स्पष्ट दीखती थीं।

उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में उभरे स्वच्छन्दतावाद की उपरोक्त दूसरी धारा अठारहवीं शताब्दी के प्रबोधनकालीन यथार्थवाद की तुलना में अधिक गहन व गहरी थी। इसने मनुष्य के आन्तरिक जगत को चित्रित करते हुए व्यक्तित्व के भीतर के द्वन्द्वों–व्याघातों को तथा इसकी “मनोगत अनन्तता” को उद्घाटित करने का काम किया। साथ ही, स्वच्छन्दतावाद की क्रान्तिकारी धारा ने कला में इतिहासवाद (हिस्टॉरिसिज़्म) और जनसमुदाय से प्रगाढ़ सम्बन्धों के सिद्धान्त प्रस्तुत किये।

1830 के दशक में आलोचनात्मक यथार्थवाद की जो धारा विकसित हुई, जिसके शिखर–पुरुष बाल्जाक थे, उसके स्वच्छन्दतावाद के साथ आनुवंशिक सम्बन्ध थे। दोनों ही कलात्मक विचार–सरणियों की ज़मीन थी-बुर्जुआ क्रान्ति से मोहभंग और पूँजीवादी व्यवस्था का अस्वीकार। स्वच्छन्दतावाद ने यथार्थवाद की इस नई प्रवृत्ति को वस्तुगत यथार्थ की जटिलताओं के साथ ही मनोगत जगत की गहराइयों में भी उतरने की क्षमता दी थी, जिसके सहारे बाल्जाक, स्टेण्ढाल और डिकेन्स बुर्जुआ समाज का विस्तृत–वैविध्यपूर्ण चित्र औपन्यासिक कैनवास पर उकेरने में, “घटनाओं और मनोभावों के वृहद भण्डार के छुपे हुए अर्थ” (बाल्जाक) को उद्घाटित करने में तथा उनके सामाजिक आधार को स्पष्ट कर पाने में सफल रहे। इस दौर में आलोचनात्मक यथार्थवादी साहित्य मुख्यत: उपन्यास–विधा में उभरकर सामने आया। इन उपन्यासों में सम्पत्ति की दुनिया के ख़िलाफ़ व्यक्तियों की अस्मिता और आज़ादी के संघर्ष, व्यापारियों की कुटिल साज़िशों और ग़रीबों के दुर्भाग्य के चित्रण के साथ ही प्राय: यह तस्वीर भी प्रस्तुत की जाती थी कि भौतिक समृद्धि किस तरह नैतिक पतन को जन्म दे रही है, किस तरह जन समुदाय के प्राकृतिक पारस्परिक बन्धन छीज और टूट रहे हैं और किस प्रकार शादी महज़ एक ‘बिजनेस–डील’ होकर रह गई है। लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध का यथार्थवाद अपनी आलोचनात्मक स्पिरिट के बावजूद सर्वनिषेधवादी नहीं था। मानवतावाद और प्रगति में विश्वास इसके बुनियादी सकारात्मक आदर्श थे। बाल्जाक के उपन्यासों के सकारात्मक आदर्श और उनके वैज्ञानिक तर्कणायुक्त निरूपण के बारे में राल्फ़ फ़ॉक्स ने लिखा है :

“ह्यूमन कॉमेडी की भूमिका में ख़ुद बाल्जाक ने बताया है कि वह मानव को समाज की देन के रूप में देखते थे, उसे उसके प्राकृतिक वातावरण के बीच देखते थे, और यह कि वैज्ञानिक ढंग से उसका अध्ययन करने की वैसी ही आकांक्षा वह भी अनुभव करते थे जैसी कि पशुजगत का अध्ययन करने वाले महान प्रकृति–वैज्ञानिक अनुभव करते हैं। उनके राजनीतिक और धार्मिक विचार वही थे जो पुराने सामन्ती फ्रांस के थे, किन्तु मानव के प्रति उनका यह रवैया, मानवीय जीवन के सुखान्त नाटक की उनकी धारणा, क्रान्ति की, उन जैकोबिनों की, जिन्होंने फ्रांसीसी समाज की सामाजिक बेड़ियों को पूरी निर्ममता से चकनाचूर कर दिया था, अभियान करते उन सैनिकों की देन थी, जिन्होंने यूरोप की बादशाहतों को नेपोलियन के नेतृत्व के आगे घुटने टेकने के लिए बाध्य कर दिया था। बाल्जाक, इसमें सन्देह नहीं, फ्रांस के साहित्यिक नेपोलियन थे। उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में सामन्ती विचारों को उतनी ही पूर्णता के साथ नष्ट किया, जितनी पूर्णता के साथ राजनीतिक क्षेत्र में उस महान सैनिक ने सामन्ती व्यवस्था को नष्ट किया था। पुनर्स्थापना काल के फ्रांस में पूँजीवादी समाज की, नये पूँजीवादी सामाजिक सम्बन्धों की आलोचना रोमाण्टिसिज़्म के मध्यकालीन चोले में प्रकट होती थी। अपने व्यक्तिगत जीवन में और इसी प्रकार कला के क्षेत्र में भी, रोमाण्टिकों की स्वच्छन्दताएँ वर्तमान के विरुद्ध उनके विद्रोह को तथा वर्तमान से उनके पलायन को व्यक्त करती थीं। बाल्जाक ने न तो विद्रोह किया न पलायन। रोमाण्टिकों की सारी कल्पना–प्रवीणता, उनकी कविता और यहाँ तक कि उनकी रहस्यवादिता बाल्जाक में मौजूद थी, किन्तु वह उनसे ऊपर उठे और वर्तमान पर अपने यथार्थवादी आक्रमण द्वारा एक नये साहित्य का उन्होंने रास्ता दिखाया। समसामयिक जीवन की वास्तविकता को कल्पनात्मक रूप से धारण करने में वह क़रीब–क़रीब उसी पैमाने पर समर्थ हुए, जिस पर कि राबेले और सर्वान्तेस। किन्तु यह बाल्जाक का सौभाग्य था कि उन्होंने शताब्दी के शुरू के भाग में जीवन बिताया, जबकि राष्ट्रीय शक्ति के उस भीमाकार उभार-जिसने क्रान्ति और नैपोलियनी महाकाव्य की सृष्टि की-की ताकत और तपिश का असर चौथे और पाँचवें दशक के प्रारम्भ के साहित्यिक आन्दोलन में अभी मौजूद था।” (‘उपन्यास और लोक जीवन’)

‘ह्यूमन कॉमेडी’ की नाटकीय महाकाव्यात्मकता के मूल स्रोत उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के युग की नाटकीयता के साथ ही स्वयं मानव अस्तित्व की नाटकीयता में निहित हैं। एक ओर, समाज और इतिहास पर व्यक्ति की निर्भरता को बाल्जाक से पहले किसी भी अन्य लेखक ने इतने व्यापक और गहरे अर्थों में नहीं समझा था। दूसरी ओर, “मुद्रा की सर्वशक्तिमत्ता, सर्वज्ञता और सर्वहितैषिता” (बाल्जाक) से पैदा होने वाले प्रातिनिधिक द्वन्द्वों को भी समझने और अभिव्यक्ति देने में बाल्जाक की क्षमता अचूक और बेजोड़ थी। “फूहड़ धनिक नौबढ़ों” के प्रभाव में अपना मान–सम्मान खो देने वाले अभिजातों (मक्सीम द त्राई, रास्तीनाक व अन्य); चतुर–चालाक डीलरों व अन्य महत्त्वाकांक्षी लोगों और साथ ही उनके शिकार बनने वालोंय लूट के वैधीकरण, विश्वासघात और बेशुमार दौलत को जन्म देने वाले घृणित षड्यंत्रों (‘गोबसेक’, 1930, “यूजीन ग्रान्दे’, 1833 ‘दि नुसिंजेन हाउस’ 1838, दि पींज़ेण्ट्स,’ 1844, कज़िन पोंस, 1846–47 और अन्यय) मृत्यु और निष्क्रिय जीवन में से विकल्प चुनते युवा और नैतिक अध:पतन (रास्तीनाक, लूसियां द रूबम्प्रे और मार्कस); कला की वेश्यावृत्ति (‘लॉस्ट इल्यूजंस’, 1837–43 और “ए डॉटर ऑफ ईव, 1838); एक विद्वान और आविष्कारक की त्रासदीय तथा पारिवारिक और निजी सम्बन्धों में ख़रीदने–बेचने के सिद्धान्तों के वर्चस्व से पैदा होने वाली अनन्त त्रासदियों को बाल्जाक ने पटुता के साथ कथाबन्धों में बाँधकर न केवल उस युग का “प्रकृत इतिहास” लिख दिया, बल्कि मुनाफ़ा, माल–उत्पादन और मुद्रा के वर्चस्व की दुनिया के सारतत्त्व को उद्घाटित करने में अद्वितीय सफलता हासिल की।

कृषि, व्यापार, वित्तीय संस्थाओं, नौकरशाही, शिक्षा, संस्कृति और राजनीति के क्षेत्रों के साथ ही पारिवारिक और आत्मिक जीवन तक में पूँजीवादीकरण के परिणामस्वरूप जो परिवर्तन हो रहे थे और जिस तरह पैसा–परमेश्वर की सत्ता ने धोखाधड़ी, जालसाज़ी, व्यभिचार आदि के साथ अनेक क़िस्म के सफ़ेदपोश अपराधों से समाज को भर दिया था, यह देखते हुए बाल्जाक पूँजीवादी समाज के इस सत्त्व को समझ चुके थे कि “हर सम्पत्ति–साम्राज्य अपराध की बुनियाद पर खड़ा होता है।” मोंतेस्क्यू के इस कथन को वे विशेष तौर पर रेखांकित करते हैं कि “क़ानून एक ऐसा मकड़जाल है, जिसमें से बड़ी मक्खियाँ तो निकल जाती हैं परन्तु छोटी फँस जाती हैं।” उन्होंने जिस तरह भविष्य में युवा और प्रौढ़ होने वाले पूँजीवादी समाज के पात्रों को उनकी शैशवावस्था में ही पहचान लिया था और उनके भावी विकास को अपने उपन्यासों में प्रस्तुत किया था, उसी तरह पूँजीवाद के तमाम अपविकासों–विकृतियों को भी उन्होंने उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के फ्रांसीसी जीवन में प्रवृत्ति–रूप में पहचानने के बाद उपन्यासों में यूँ उपस्थित किया था कि वे आज के जीवन के चित्र प्रतीत होते हैं।

लालफ़ीताशाही, घूसख़ोरी, ‘अण्डरवर्ल्ड’ (‘ओल्ड गोरियो’, ‘लॉस्ट इल्यूजंस’, ‘ए हारलॉट हाई एण्ड लो’, ‘हिस्ट्री ऑफ दि थर्टीन’) और स्टॉक एक्सचेंज की नियामक शक्ति (‘द वाइल्ड ऐस’ज़ स्किन’) की उन्होंने डेढ़ सौ वर्ष पहले इतनी जीवन्त तस्वीर उकेरी थी कि वह आज की प्रतीत होती है। बाल्जाक ने पहली बार राजनीति, राज्यसत्ता और क़ानून की दुनिया के पीछे के भौतिक हितों–स्वार्थों को साहित्य में इतनी वस्तुगत सटीकता और तफ़सीलों के साथ उजागर किया। वे दो टूक शब्दों में कहते हैं : “हमसे सुन्दर चित्रों की माँग की जाती है, किन्तु उनके नमूने इस समाज–व्यवस्था में हैं कहाँ? आपके घिनौने वस्त्र, आपकी अपरिपक्व क्रान्तियाँ, आपका बातूनी बुर्जुआ, आपका मृत धर्म, आपकी निकृष्ट शक्ति, बिना सिंहासन के आपके बादशाह, ये सब क्या इतने काव्यात्मक हैं कि इनका चित्रण किया जाए? हम अधिक से अधिक इनका मख़ौल उड़ा सकते हैं।” अन्तस्तल में गहरे पैठी इस तिक्तता के बावजूद बाल्जाक प्रकृतवादी नियतिवाद का शिकार होने के बजाय सहकार (‘लॉस्ट इल्यूजंस’), दयालुता (‘मास फॉर ऐन एथीस्ट’ आदि), चरित्र की न्यायनिष्ठा (‘कर्नल शाबेर’ में शाबेर) शौर्य, (‘दि कण्ट्री डॉक्टर’, गोग्यूल’), दोटूकपन (‘दि पीज़ेण्ट्स’ में निसेरों), आपसी विश्वास और समर्पण (‘कज़िन पोंस’ में पोंस और श्मूक) आदि उच्च मानवीय आदर्शों के प्रति अपनी अटल आस्था क़ायम रखते हैं।

बाल्जाक की रचनाओं में प्रस्तुत मानवीय सारतत्त्व की व्यापकता और गहराई निस्सन्देह उनमें से अधिकांश को सार्वकालिक महत्त्व वाली क्लासिकी कृतियों की श्रेणी में स्थापित कर देती है। पूँजीवादी समाज के सारतत्त्व को तथा सामाजिक सम्बन्धों और नैतिक मूल्यों को बाल्जाक ने महान कलाकार की अन्तर्दृष्टि के साथ ही एक समाजवैज्ञानिक की वस्तुपरकता के साथ इतनी कुशलता से प्रस्तुत किया है कि हम आज के पूँजीवाद की छायाएँ–छवियाँ भी उनमें देख सकते हैं। विशेषकर भारत में, जहाँ उपनिवेशोत्तरकालीन अर्द्धशती की लम्बी अवधि में रुग्ण–विकलाँग पूँजीवाद पीड़ादाई मन्थर गति से भौतिक–आत्मिक जीवन के रग–रेशे को बेधता रहा है, वहाँ इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ में भी बाल्जाक मानो हमारे आसपास की सच्चाई पर रोशनी डालते और उसे समझने में मदद करते प्रतीत होते हैं।

ऐसा लगता है कि बाल्जाक ने पूँजीवादी समाज की शैशवावस्था में जिन कुरूपताओं–विकृतियों को देखा था, उनके ही और स्पष्ट विकसित रूपों को हम उसके वार्धक्य की अवस्था में देख रहे हैं। कहा भी जाता है कि बुढ़ापा बचपन की वापसी होता है। जो भी हो, इतना तय है कि जब तक निजी सम्पत्ति की दुनिया रहेगी, तब तक बाल्जाक प्रासंगिक बने रहेंगे।

यही बाल्जाक की महानता है।

ग्रामीण जीवन में पूँजी का प्रवेश : बाल्ज़ाक के पर्यवेक्षण और ‘किसान’

बाल्जाक का उपन्यास ‘दि पीज़ेण्ट्री, (‘संस ऑफ दि सॉयल’ नाम से भी अंग्रेज़ी में प्रकाशित) 1844 में प्रकाशित हुआ। यानी यह ‘ह्यूमन कॉमेडी’ श्रृंखला के अन्तिम चरण की रचना है। इसकी गणना बाल्जाक की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और परिपक्व कृतियों में की जाती है।

बाल्जाक की अगली पीढ़ी के प्रसिद्ध लेखक गोंकूर बन्धुओं (जूल और एडमण्ड गोंकूर) की डायरी में ‘किसान’ की चर्चा करते हुए बाल्जाक की ऐतिहासिक महत्ता और मर्मभेदी अर्थवत्ता को इन शब्दों में प्रस्तुत किया गया है :

“मैंने बाल्जाक की कृति ‘किसान’ अभी–अभी दुबारा पढ़कर ख़त्म की है। बाल्जाक को अभी तक किसी ने राजनेता नहीं कहा है, फिर भी वे शायद हमारे समय के महानतम राजनेता थे, ऐसे एकमात्र व्यक्ति थे जो हमारी बीमारी की जड़ को समझ सका। अकेले वही थे, जिसने एक ऊँचाई से, 1789 के उपरान्त फ्रांस के विश्रृंखलन को, क़ानून के पीछे के तौर–तरीक़ों को, शब्दों के पीछे के तथ्यों को, प्रत्यक्ष व्यवस्था की सतह के नीचे व्याप्त निरंकुश स्वार्थों की अव्यवस्था को, दुरुपयोगों का स्थान लेने वाले प्रभावों को, न्यायाधीश के सामने असमानता के द्वारा क़ानून के सामने समानता के विनाश को देखा। संक्षेप में यह कि उन्होंने 1789 के कार्यक्रम में निहित उस झूठ को उजागर किया जिसने बड़े नामों की जगह बड़े सिक्कों की स्थापना की और पदवीधारी कुलीनों (मार्क्विसों) को बैंकरों में तब्दील कर दिया। और यह एक उपन्यासकार था जिसने इस सबके मर्म को समझा।”

बाल्जाक ने ‘ह्यूमन कॉमेडी’ की पूरी परियोजना के अन्तर्गत, अपने चार उपन्यासों में फ्रांसीसी ग्रामीण जीवन के अन्तरंग और बहिरंग को चित्रित करते हुए, सामन्ती भूमि-सम्बन्धों के पूँजीवादी रूपान्तरण तथा आधुनिक पूँजीवाद के विकास में कृषि की भूमिका को, पूँजीवाद के अन्तर्गत गाँव और शहर के बीच लगातार बढ़ती खाई को, छोटे मालिक किसानों पर सूदख़ोर महाजनों की जकड़बन्दी को, शहरी और ग्रामीण महाजनी के फ़र्क़ को, कृषि में माल–उत्पादन के बढ़ते वर्चस्व और किसानी जीवन पर मुद्रा के आच्छादनकारी प्रभाव को तथा किसान आबादी के विभेदीकरण (डिफरेंसिएशन) और कंगालीकरण को जिस अन्तर्भेदी गहराई और चहुँमुखी व्यापकता के साथ प्रस्तुत किया है, वह आर्थिक इतिहास या समाज–विज्ञान की किसी पुस्तक में भी देखने को नहीं मिलता। कृषि के पूँजीवादी विकास और गाँवों में पूँजीवादी भूमि-सम्बन्धों तथा उनकी परिणतियों को सामग्रिक रूप में जानने–समझने के लिए मार्क्स और लेनिन के तद्विषयक लेखन के साथ ही बाल्जाक के इन चार उपन्यासों को और इनमें भी ख़ासकर ‘किसान’ को पढ़ने की सिफ़ारिश पुरज़ोर शब्दों में की जा सकती है।

बाल्जाक शहरी मध्यवर्गीय रोमानी नज़रिए से न तो कहीं ‘अहा, ग्राम्य–जीवन भी क्या है’ की आहें भरते नज़र आते हैं, न ही उन “काव्यात्मक सम्बन्धों” और पुरानी संस्थाओं–सम्बन्धों–चीज़ों के लिए बिसूरते दीखते हैं जिन्हें पूँजी या तो लील जाती है, या पुन:संस्कारित करके अपना लेती है या फिर अजायबघरों में सुरक्षित कर देती है। इसके विपरीत वह ठहरे हुए ग्रामीण जीवन की कूपमण्डूकतापूर्ण तुष्टि के प्रति वितृष्णा प्रकट करते हैं और उस मध्यवर्गीय शहरी नज़रिए की खिल्ली उड़ाते हैं जिसे ग्राम्य जीवन एक ख़ूबसूरत लैण्डस्कैप नज़र आता है।

एक ठण्डी वस्तुपरकता के साथ बाल्जाक गाँवों में व्याप्त पिछड़ेपन, अज्ञानता, विपन्नता, कूपमण्डूकता, निर्ममता और उस अमानवीकरण की चर्चा करते हैं जो मन्थर गति वाले अलग–थलग पड़े “स्वायत्तप्राय” ग्रामीण परिवेश के अपरिहार्य गुण हैं और गाँवों में पूँजी का प्रवेश इन्हें और निर्मम–निरंकुश बनाने का काम ही करता है।

पश्चिमी दुनिया में कृषि में पूँजीवाद का प्रवेश सबसे क्रान्तिकारी ढंग से फ्रांस और अमेरिका में हुआ। वहाँ के बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के उत्तरकालीन परिदृश्य को चित्रित करते हुए बाल्जाक ने दिखलाया है कि ग्रामीण जीवन वहाँ भी लगभग ठहरा हुआ सा है, भविष्य को लेकर कहीं कोई उत्साह नहीं है, बाहरी दुनिया से नाम–मात्र का सम्पर्क है, नये विचारों का प्रभाव नगण्य है। खेतिहर मज़दूर, छोटा मालिक किसान, रिटायर्ड फौजी-सभी आत्मविश्वास से रिक्त, रामभरोसे जी रहे हैं। खेतों में भरपूर हाड़ गलाने के बावजूद कुछ भी हासिल नहीं होता। ग़रीबी, भूमिहीनता, ऋणग्रस्तता, कुपोषण, बीमारी, ग़रीबी के चलते ऊँची जन्म दर और ऊँची मृत्यु दर-विशेषकर शिशु मृत्यु दर तथा अन्धविश्वास और भाग्यवाद का चतुर्दिक बोलबाला है।

पिछली आधी सदी के दौरान, भारत के गाँवों का दु:सह पीड़ादाई मन्थर गति से जो पूँजीवादीकरण हुआ है, उसकी बाल्जाक द्वारा प्रस्तुत फ्रांस के ग्रामीण परिदृश्य से काफ़ी समानता है। भारत में ऐसे विलायतपलट शहरी समाजशास्त्रियों–अर्थशास्त्रियों, कठमुल्लावादी वामपन्थियों और कल्पना और अधकचरी सैद्धान्तिकता के सहारे “यथार्थ” का चित्र खींचने वाले लेखकों की बहुतायत है जो महज़ पिछड़ेपन, प्राक्–पूँजीवादी सामाजिक–आर्थिक अवशेषों, पुराने विचारों–संस्थाओं और बाह्य रूपों के आधार पर आज भी भारत के ग्रामीण जीवन को सामन्तवाद से जकड़ा हुआ मानते हैं और पूँजी की निर्णायक पकड़ को देख ही नहीं पाते। वे पूँजीवाद को उस हद तक आमूल परिवर्तनकारी, क्रान्तिकारी, जनवादी रूप में देखना चाहते हैं जितना वह उस फ्रांस तक में नहीं था जहाँ कि क्लासिकी पूँजीवादी जनवादी क्रान्ति “सर्वाधिक क्रान्तिकारी” ढंग से सम्पन्न हुई थी। ऐसे लोगों को बाल्जाक द्वारा चित्रित फ्रांसीसी ग्रामीण जीवन में पूँजीवादी संक्रमण का अध्ययन करना चाहिए।

किसी कुशल अर्थशास्त्री से भी अधिक कुशलता से बाल्जाक ने इस चीज़ को दिखलाया है कि असमान विनिमय के चलते पूँजीवाद के अन्तर्गत गाँव और शहर का अन्तर बढ़ता ही चला जाता है। भूस्वामी, व्यापारी, सूदख़ोर महाजन और सरकारी अमले-सबकी निगाह किसान द्वारा उत्पादित अधिशेष (सरप्लस) पर रहती है। नक़दी की ज़रूरत तथा विपणन तथा भण्डारण की मजबूरी के चलते किसान सटोरियों, दलालों, आढ़तियों के चंगुल में फँसता चला जाता है और जिस बड़े भूस्वामी के पास पूँजी की ताकत होती है, वह छोटे मालिक किसानों को उजाड़कर खेतिहर मज़दूरों की कतारों में धकेलता चला जाता है। स्वयं बाल्जाक के ही शब्दों में, “छोटे किसान की त्रासदी यह है कि सामन्ती शोषण से मुक्त होकर वह पूँजीवादी शोषण के जाल में फँस गया है।”

ग्रामीण अर्थव्यवस्था और किसानों की स्थिति के हर पहलू को तफ़सील से देखते हुए बाल्जाक ‘किसान’ में समस्या के सारतत्त्व को पकड़ते हैं और बताते हैं कि सवाल भूस्वामित्व की सामन्ती व्यवस्था का नहीं है, बल्कि अपने आप में भू–स्वामित्व की पूरी व्यवस्था का ही है। सामन्ती भूस्वामी की जगह पूँजीवादी फौजी जनरल या ऑपेरा गायिका के आ जाने से आम किसान की स्थिति में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। किसान की ख़ून–पसीने की कमाई के मुख्य अपहर्ता प्राय: सामने नहीं होते। वे बदलते रहते हैं, पर किसानों का रोज़मर्रा के जीवन में जिन बिचैलियों से साबका पड़ता है, उनकी स्थिति अपरिवर्तित रहती है। ‘किसान’ उपन्यास में बाल्जाक रिगू–गोबर्तें गँठजोड़ के रूप में व्यापारी–भूस्वामी–सूदख़ोर गँठजोड़ की किसानों पर चतुर्दिक जकड़बन्दी की तस्वीर उपस्थित करते हैं और दिखलाते हैं कि किस तरह प्रशासन, न्याय, ऋण और व्यापार के पूरे तंत्र पर इस गिरोह का ऑक्टोपसी नियंत्रण क़ायम है।

रिगू पादरी से स्थानीय महाजन बना है जो न सिर्फ़ एक हद तक प्रेमचन्द की कहानी ‘सवा सेर गेहूँ’ के विप्र महाराज की याद दिलाता है बल्कि उन्हीं का उन्नत, ज़्यादा धूर्त संस्करण प्रतीत होता है। बाल्जाक ने रिगू के चरित्र–चित्रण पर एक पूरा अध्याय ख़र्च किया है। बड़ी तफ़सील से वे गोबसेक, ग्राँदे, रूगे आदि शहरी महाजनों से रिगू की तुलना करते हुए शहर और गाँव में महाजनों की और ऋण की भूमिका की भिन्नताओं–समानताओं को निरूपित करते हैं।

ग़ौरतलब है कि ‘पूँजी’ खण्ड–तीन के पहले भाग के पहले अध्याय में लागत, क़ीमत तथा लाभ की विवेचना करते हुए गाँवों में पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के अन्तर्गत सूदख़ोरी द्वारा किसानों को दोहरे स्तर पर निचोड़ने की प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए बाल्जाक के ‘किसान’ उपन्यास को ही कार्ल मार्क्स ने प्रातिनिधिक साक्ष्य के रूप में चुना है। वे लिखते हैं :

“पूँजीवादी उत्पादन द्वारा अभिभूत सामाजिक व्यवस्था में ग़ैर पूँजीपति उत्पादक भी पूँजीवादी अवधारणाओं से ग्रस्त हो जाता है। बाल्जाक, जो सामान्यत: यथार्थ की अपनी गहरी समझ के लिए उल्लेखनीय हैं, अपने अन्तिम उपन्यास, ‘किसान’ में इसका बड़ा ही सटीक वर्णन करते हैं कि किस तरह एक छोटा किसान अपने महाजन के लिए बहुत से काम मुफ़्त करता है, जिसकी सद्भावना को वह बनाए रखने का इच्छुक है, और किस तरह यह सोचता है कि वह महाजन को मुफ्त कुछ नहीं देता, क्योंकि स्वयं अपने श्रम पर उसे नक़द कुछ नहीं ख़र्च करना पड़ता। जहाँ तक महाजन की बात है, वह इस तरह एक तीर से दो शिकार कर लेता है। वह मज़दूरी पर नक़द खर्चा बचाता है और किसान को, जो अपने खेत को श्रम से वंचित करते जाने के कारण धीरे–धीरे कंगाल होता जाता है, सूदख़ोरी के मकड़जाल में अधिकाधिक गहरे फँसाता चला जाता है।”

विचारों से ‘लेजिटिमिस्ट’ होने के बावजूद एक महान कलाकार की युगदर्शी दृष्टि के चलते बाल्जाक इस बात को बख़ूबी समझ रहे थे कि पूँजीवाद की धारा को वापस नहीं पलटा जा सकता। सामन्तवाद के दिन ऐतिहासिक तौर पर पूरे होने के बाद पूँजीपति वर्ग के हितों के अनुरूप ही सामाजिक–आर्थिक क्रिया–व्यापार संचालित होने हैं तथा मूल्य–विचार पुन:संस्कारित होने हैं। जैसे ऋण के प्रश्न को लें। चूँकि ऋण पूँजीवादी कारोबार के लिए अनिवार्य है, अत: न सिर्फ़ इसे मध्ययुगीन पाबन्दियों से मुक्त कर दिया गया, बल्कि सूद को घृण्य, त्याज्य और पाप की श्रेणी से भी बाहर कर दिया गया।

बाल्जाक को यह विश्वास था कि संचार–परिवहन के विस्तार और बाज़ार की शक्तियों के आगमन से गाँव की स्थिति बदलेगी। वे यह भी देख रहे थे कि चूँकि पिछड़ी खेती पूँजीवाद के विकास का आधार नहीं हो सकती, इसलिए एक बार राज्यसत्ता पूँजीपति वर्ग के हाथों में आने के बाद भूमि-सम्बन्धों में बदलाव तथा कृषि–अर्थव्यवस्था का पुनर्गठन अवश्यम्भावी है, लेकिन वे यह भी देख रहे थे कि इस परिवर्तन से गाँव के ग़रीबों-मज़दूरी कमाने वालों और छोटे मालिक तबकों को कोई लाभ नहीं होने वाला।

बाल्जाक भूमि-प्रश्न का कोई तोल्स्तोयपन्थी, गाँधीवादी, नरोदवादी या “सर्वोदयवादी” समाधान नहीं प्रस्तुत करते। यही उनके यथार्थवाद की महानता है जो देश–काल का अतिक्रमण करता प्रतीत होता है। ‘किसान’ उपन्यास में पाठक की मुलाक़ात जां फ्रांस्वा निसेरों नामक व्यक्ति से होती है जिसने क्रान्ति में अपना सर्वस्व झोंककर वीरोचित भूमिका निभाई थी। उसे क्रान्ति से बड़ी अपेक्षाएँ थीं। उसने क्रान्ति से कोई लाभ नहीं उठाया और सुख–सुविधाएँ त्यागकर सादा जीवन बिताने का रास्ता चुना। धनिक वर्गों से उसे घृणा थी। किसानों से उसका आपसी प्यार–विश्वास का रिश्ता था। लेकिन वह भीषण द्वन्द्व का शिकार था। उसकी इच्छा–सदिच्छा से स्वतंत्र जो पूँजीवाद तेज़ी से पनप रहा था, उसकी कुरूपताओं व दुर्गुणों को वह निरुपाय देख रहा था और किंकर्तव्यविमूढ़ था। बाल्जाक ने उसे “क्रान्ति से उपजे कवि” की संज्ञा दी है, जो शायद उसके अन्तर्द्वन्द्व की सर्वाधिक सटीक अभिव्यक्ति है।

हमारा विचार है कि पूँजीवादी संक्रमण से गुज़र रहे गाँवों के सामान्य जन–जीवन के यथार्थ को समझने की दृष्टि से ‘किसान’ उपन्यास आज इक्कीसवीं सदी के भारत में भी अत्यधिक प्रासंगिक है। यही नहीं, भूमि-प्रश्न और उत्पादन–सम्बन्धों को लेकर विमर्शरत अर्थशास्त्रियों और वामपन्थी सामाजिक–राजनीतिक कर्मियों को भी यह उपन्यास अवश्य पढ़ना चाहिए।

…अक्षुण्ण है बाल्ज़ाक की अद्वितीयता, और उनकी प्रासंगिकता भी!

कार्ल मार्क्स के अनुसार, पुनर्जागरण काल में शेक्सपियर ने इस बात को भली भाँति समझा था कि सोने की, मुद्रा की सत्ता कितनी सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। उसके बाद सम्पूर्ण जीवन पर मुद्रा की सूक्ष्म पैठ और व्यापक प्रभाव को यदि किसी ने सबसे सांगोपांग–व्यवस्थित ढंग से समझा तो निस्सन्देह वह बाल्जाक ही थे।

आगे चलकर, मार्क ट्वेन से लेकर गोर्की, जैक लण्डन, अप्टन सिंक्लेयर और फ़ेदिन आदि ने मुद्रा के मानवद्रोही, आत्मा–संहारक और सभ्यता–विनाशक चरित्र के विविध पक्षों को उद्घाटित करते हुए बाल्जाक की परम्परा को ही आगे विस्तार दिया, पर विस्तार और गहराई की दृष्टि से, व्यापकता और सूक्ष्मता की दृष्टि से बाल्जाक की अद्वितीयता आज भी क़ायम है।

पूँजीवाद की कार्य–प्रणाली में चाहे जितने भी बदलाव आएँ, चाहे पूँजीवादी सभ्यता जितने भी रूप बदले, प्रौद्योगिक प्रगति के नये–नये कीर्तिमानों के सहारे चाहे जितने भी भौतिक–आत्मिक ऐन्द्रजालिक दृष्टिभ्रम–मतिभ्रम रचे जाएँ; जब तक सभी मानवीय सम्बन्धों–भावनाओं–मूल्यों को आने–पाई के ठण्डे पानी में डुबोया जाता रहेगा, जब तक श्रमशक्ति बेचने, उजरत कमाने और अधिशेष निचोड़ने का सिलसिला जारी रहेगा, जब तक मुद्रा जीवन, उत्पादन, सर्जना और प्रगति की उत्तोलक–नियामक शक्ति बनी रहेगी, तब तक बाल्जाक एकदम प्रासंगिक बने रहेंगे और इतने सजीव कि लगभग समकालीन प्रतीत होंगे।

(बाल्जाक के उपन्यास ‘किसान’ के राजकमल प्रकाशन से छपे हिन्दी अनुवाद की सम्पादकीय प्रस्तावना के रूप में प्रकाशित)

 

  • सृजन परिप्रेक्ष्‍य, जनवरी-अप्रैल 2002

 

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