लेव तोल्स्तोय के महान उपन्यास ‘आन्‍ना कारेनिना’ का संक्षिप्‍त परिचय व पीडीएफ फाइल

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तोल्स्तोय : रूसी क्रान्ति के दर्पण

परिचय लेखक - सत्यम और कात्यायनी

1873–77 के बीच के पाँच वर्षों का समय तोल्स्तोय ने दूसरे महान उपन्यास ‘आन्ना कारेनिना’ के लेखन में लगाया। 1876–77 में इसका प्रकाशन हुआ।


महाकाव्यात्मक त्रासदी को नये दिक्–काल सन्दर्भों में पुनर्परिभाषित करने का दबाव बनाने वाला यह महान उपन्यास अपराध या पाप के नैतिक प्रश्न को गहरे ऐतिहासिक–सामाजिक सन्दर्भों में प्रस्तुत करते हुए, समाज और स्वयं अपने जीवन के प्रति प्रत्येक व्यक्ति के उत्तरदायित्व को चिन्तन के केन्द्र में उपस्थित करता है। इसके साथ ही, यह तत्कालीन रूसी जीवन के सभी बुनियादी और केन्द्रीय अन्तरविरोधों को भी चित्रित करता है। सामाजिक जीवन की समस्याओं तथा कला और दर्शन के प्रश्नों के साथ ही तोल्स्तोय ने इस उपन्यास में परिवार और नैतिक जीवन की समस्याओं पर केन्द्रित करते हुए स्त्री–प्रश्न को गहरी दार्शनिक चिन्ता के साथ प्रस्तुत किया है। उल्लेखनीय है कि इस उपन्यास के प्रकाशन के बाद, तोल्स्तोय गम्भीर विचारधारात्मक संकट के दौर से गुजरे, जिसकी परिणति के तौर पर, बल के द्वारा बुराई के अप्रतिरोध का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए भी, वे मौजूद व्यवस्था की सभी बुनियादों को खारिज करने तथा सामाजिक ढाँचे की निर्मम–बेलाग आलोचना करने की स्थिति तक जा पहुँचे।

उपन्यास की शुरुआत ओब्लिन्स्की परिवार से होती है, जहाँ तमाम तकलीफ़ें झेलने वाली, धैर्यवान पत्नी डॉली को अपने खुशमिजाज़ और विलासप्रिय पति स्टिवा की बेवफ़ाई के बारे में पता चलता है। तोल्स्तोय ने डॉली को उसकी दयालुता, परिवार का ख्याल रखने की उसकी आदत और दैनन्दिन जीवन के उसके सरोकारों के साथ, उपन्यास के नैतिक कुतुबनुमा के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की है। इसके विपरीत, स्टिवा बदनीयत न होते हुए भी, फ़िज़ूलखर्ची और बरबादी करता रहता है, परिवार की उपेक्षा करता है और सुख–भोग को जीवन का उद्देश्य मानता है। स्टिवा का व्यक्तित्व शायद यह इंगित करने के लिए भी गढ़ा गया है कि अच्छे की तरह बुरा भी, अन्ततोगत्वा इंसान द्वारा क्षण–प्रतिक्षण चुने जाने वाले छोटे–छोटे नैतिक विकल्पों से ही निगमित–निर्धारित होता है।

स्टिवा की बहन आन्ना कठोर, गैर–रोमानी अलेक्सेई कारेनिन की वफ़ादार पत्नी है। कारेनिन सरकारी मंत्री है और आम व्यवहार में अच्छा आदमी है। आन्ना का एक छोटा बच्चा भी है-सेर्योझा। आन्ना अकसर अपनी कल्पना एक रोमानी उपन्यास की नायिका के रूप में करती है और अपने वैवाहिक जीवन में रिक्तता और भावनात्मक अतृप्ति का उसका अहसास गहराता चला जाता है। वह एक फ़ौजी अफ़सर अलेक्सेई व्रोन्स्की के प्रेम में पड़ जाती है। अन्ततोगत्वा वह बच्चे और पति को छोड़कर व्रोन्स्की के साथ चली जाती है। सुखी परिवार और उसमें स्त्री के दायित्वों के बारे में अपने घनघोर प्रत्ययवादी, पितृसत्तात्मक सामुदायिक जीवन–समर्थक किसानी दृष्टिकोण के चलते तोल्स्तोय, समूचे उपन्यास में यह इंगित करना चाहते हैं कि प्यार के जिस रोमानी ख्याल को ज्यादातर लोग प्यार समझते हैं, उसका उन्नत किस्म के प्यार से और अच्छे परिवारों के अन्तरंग प्यार से, कुछ भी लेना–देना नहीं होता। उपन्यास जैसे–जैसे आगे बढ़ता है, आन्ना की अन्तरात्मा पति और बच्चे को छोड़ने के लिए उसे ज्यादा से ज्यादा धिक्कारने लगती है। गहरी मनोव्यथा उसे पागल जैसी मन:स्थिति में पहुँचा देती है और वह यथार्थ से पूरी तरह कट–सी जाती है। अन्त में वह ट्रेन के आगे लेटकर आत्महत्या कर लेती है। जीवन के बारे में वह शायद गलत ढंग से सोच रही थी, यह ख्याल उसके दिमाग में आता है, जब वह पटरी पर लेटी हुई है। पर तब तक देर हो चुकी रहती है।

तीसरी कहानी डॉली की बहन किटी से सम्बन्धित है जो पहले सोचती है कि वह व्रोन्स्की से प्यार करती है, लेकिन बाद में उसे अहसास होता है कि वास्तविक प्यार वह गहन आत्मीय अनुभूति है जो उसके भीतर परिवार के पुराने मित्र कोन्स्तान्तिन लेविन के लिए मौजूद है। उनकी कहानी प्यार, विवाह और पारिवारिक जीवन की सामान्य घटनाओं के इर्द–गिर्द आगे बढ़ती है, जिनमें तमाम कठिनाइयों के बावजूद वास्तविक खुशी और सार्थक जीवन शक्ल अख्तियार करते हैं। पूरे उपन्यास में लेविन मृत्यु के समक्ष जीवन के अर्थ जैसे दार्शनिक प्रश्नों से जूझता रहता है। इन प्रश्नों का कभी उत्तर नहीं मिलता है, लेकिन लेविन जब “सही ढंग से” जीवन बिताते हुए अपने परिवार और दैनन्दिन कामों में लग जाता है, तो ये प्रश्न गायब हो जाते हैं। अपने सर्जक तोल्स्तोय की ही भाँति लेविन भी दार्शनिकों की चिन्तन–प्रणालियों को नकली तथा जीवन की जटिलताओं को पकड़ पाने में अक्षम मानता है।

लेकिन लेविन सिर्फ इतना ही नहीं है। तोल्स्तोय–साहित्य में वह बोल्कोंस्की, बेजुखोव (युद्ध और शान्ति) तथा नेख्लुदोव (पुनरुत्थान) की कतार का पात्र है जो जीवन की सार्थकता की तलाश में अपने सरोकारों के प्रति सजग होते हैं, अपने दायित्व तय करते हैं और लोक–जीवन से जुड़ने की कोशिश करते हैं। साथ ही, उपन्यास में लेविन किसानी यूटोपिया को स्वर देता है और भूदास–प्रथा को विस्थापित करने वाले पूँजीवादी भूमि–सम्बन्धों की पड़ताल किसानी दृष्टि से करता है।

आन्ना कारेनिना’ के लेखन–काल तक तोल्स्तोय किसानों और “अन्तरात्मा के मारे” कुलीन भूस्वामियों के हितों के बीच समन्वय–समझौते की सम्भावनाओं के प्रति अपना विश्वास काफी हद तक खो चुके थे। 1860 के बुर्जुआ भूमि–सुधारों के नतीजों और उनसे जनता के व्यापक मोहभंग ने तोल्स्तोय को विश्वास दिला दिया कि आकस्मिक सामाजिक परिवर्तन पूरी तरह अनुपयोगी हैं। बुर्जुआ प्रगति के प्रभाव में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अवशेषों के ध्वंस को वे गहरी चिन्ता–परेशानी के साथ देख रहे थे। वे यह भी देख रहे थे कि मुद्रा के इर्दगिर्द जीवन को केन्द्रित कर देने वाली बुर्जुआ प्रगति नैतिक मूल्यों को पतन की ओर धकेल रही है, पारिवारिक बन्धन कमजोर पड़ रहे हैं और अपनी पुश्तैनी खेती और जंगल धनिक रियाबिनियों को बेच देने वाले ओब्लोन्स्की परिवार जैसे अव्यावहारिक और झक्की कुलीन तबाह हो रहे हैं।

अपना ऐतिहासिक आशावाद खोते हुए तोल्स्तोय परिवार में और पितृसत्तात्मक लोकाचारों में शरण और सम्बल ढूँढ रहे थे। जीवन में अर्थ की तलाश और अर्थव्यवस्था तथा समाज–व्यवस्था की बुनियादों को समझने की लेविन की सभी कोशिशें उसे एक बन्द गली के छोर पर ला खड़ा करती हैं। उसके तमाम व्यक्तिगत संकटों में पारिवारिक सुख उसके लिए मजबूत सहारे का काम करता है और बूढ़े किसान फोकानिच का यह मासूम–बचकाना विश्वास,  कि वह “अपनी आत्मा की प्रेरणाओं का अनुपालन करता है और ईश्वर को याद करता है।”

लेकिन कलाकार तोल्स्तोय की और उनके यथार्थवाद की महानता इस बात में निहित है कि किसानी–धार्मिक यूटोपिया, पितृसत्तात्मकता के प्रति अतीतोन्मुख लगाव और तात्कालिक मोहभंग और निराशा के बावजूद, उन्होंने वास्तविक लोगों और वास्तविक चीजों को वहाँ और उसी रूप में देखा, जहाँ और जिस रूप में वे मौजूद थीं। सामन्ती अभिजातों के अनिवार्य पतन–विघटन की प्रक्रिया को रेखांकित करने के साथ ही बुर्जुआ समाज की मानव–द्रोही संस्कृति और अनैतिकता को उन्होंने एकदम साफ नजर से देखा जो पितृसत्तात्मक समाज के तमाम काव्यात्मक सम्बन्धों को आने–पाई के ठण्डे पानी में डुबो देती है। यह यथार्थवादी तस्वीर तोल्स्तोय के दार्शनिक–वैचारिक समाधान के पक्ष पर हावी हो जाती है। जहाँ तक तोल्स्तोय के दार्शनिक–वैचारिक समाधान के बचकानेपन का प्रश्न है, उसे बुर्जुआ किसान क्रान्ति के युग की वैचारिक सीमा और कमजोरी की कलात्मक प्रतिछवि के रूप में देखा जाना चाहिये।

आन्ना की कहानी के सूत्र लेविन की कहानी से आवयविक संश्लिष्टता के साथ अन्तर्सम्बद्ध हैं। आन्ना खुद को अपनी भावनाओं के सुपुर्द कर देती है, विवाह के बन्धन की अवहेलना करती है और नतीजतन, उस सबसे ऊँची अदालत में उसकी पेशी होती है, जिसका हवाला लेखक द्वारा इस सूक्ति में दिया गया है : “प्रतिशोध मेरा है। मुझे ही चुकाना होगा।” लेकिन इस अदालत के सामने आन्ना के मुकदमे में, उसके व्यक्तित्व और उसके सामाजिक परिवेश की अनदेखी नहीं करनी होगी। नागरिक और धार्मिक विधि–संहिताओं तथा कुलीन समाज की नैतिकता के असंख्य अलिखित रिवाज़ों–परिपाटियों के द्वारा विवाह की कथित पवित्रता की हिफ़ाज़त की जाती है, लेकिन ईमानदार भावनाओं–अनुभूतियों–कामनाओं का इनके लिए कोई मतलब नहीं। वे इन्हें बस कुचलने–रौंदने का ही काम करती हैं। ज़िन्दगी के लिए आन्ना की तड़प भरी चाहत को कोई रास्ता नहीं मिलता और वह समाज के पाखण्ड की चट्टानी दीवार से जा टकराती है।

लेविन के जीवन और डॉली की नैतिक मान्यताओं के बरक्स आन्ना की त्रासदी को रखते हुए तोल्स्तोय अपनी रोमानी भावनाओं–कामनाओं के बहाव में बहकर जीने के बजाय पारिवारिक पितृसत्तात्मक संरचना के भीतर त्याग और सरोकार के आधार पर पनपने वाले “वास्तविक प्यार” को स्थापित करना चाहते हैं, लेकिन आन्ना के अन्तर्जगत और बहिर्जगत का यथार्थ वस्तुपरक आधिकारिकता के साथ प्रस्तुत करते हुए वे एक बार फिर “यथार्थवाद की विजय” का रास्ता साफ कर देते हैं। स्त्री की दोयम दर्जे की स्थिति वाली सामाजिक संरचना में विवाह और परिवार की संस्थाओं पर, तोल्स्तोय चाहें या न चाहें, प्रश्नचिह्न उठ खड़े होते हैं। समय की यात्रा तोल्स्तोयपंथी समाधान के यूटोपिया को जितना साफ करती जाती है, उतने ही ये प्रश्नचिह्न विकट होते जाते हैं।

स्त्री–प्रश्न पर तोल्स्तोय का चिन्तन और उसके अन्तरविरोध अलग से अध्ययन का एक गम्भीर और दिलचस्प विषय है। इतिहास के लगभग उसी दौर में, रूस के महान क्रान्तिकारी जनवादी दार्शनिक चेर्निशेव्स्की ने स्त्रियों की पारिवारिक गुलामी से मुक्ति और सामाजिक जीवन में भागीदारी के साथ ही क्रान्तिकारी संघर्ष में भी उनकी भूमिका पर बल दिया। ‘क्या करें’ उपन्यास में उन्होंने एक ऐसा स्त्री–चरित्र प्रस्तुत किया जिसने संकीर्ण पारिवारिक दायरे से मुक्त होकर अपनी स्वतंत्र सामाजिक–आर्थिक स्थिति बनाई थी और जो सामाजिक सक्रियताओं में भी संलग्न थी। इसी समय इंग्लैण्ड में जॉन स्टुअर्ट मिल की पुस्तक ‘स्त्री की पराधीनता’ प्रकाशित हुई थी। फ्रांस में स्त्रियों की पारिवारिक गुलामी और सामाजिक असमानता की आलोचना करने वाले, लेखिका जार्ज सांद के उपन्यास कुछ दशक पहले ही छपकर चर्चित हो चुके थे। यही समय था जब मार्क्स और एंगेल्स ने परिवार की पुरुषवर्चस्ववादी संरचना पर सवाल उठाते हुए बुर्जुआ समाज में विवाह को “संस्थाबद्ध वेश्यावृत्ति” का नाम दिया था। अपनी दार्शनिक अवस्थिति के प्रतिगामी चरित्र के बावजूद महान मानवतावादी और यथार्थवादी कलाकार होने के नाते तोल्स्तोय ने (यूटोपियाई, अतीतोन्मुख समाधान सुझाने के बावजूद) परिवार और समाज में घुटती–पिसती स्त्री के यातनामय अन्तर्जगत और बहिर्जगत को वास्तविक रूप में यों चित्रित किया कि निरूपित स्थितियों के भीतर से परिवार और विवाह की पुरुषवर्चस्ववादी संरचना को कटघरे में खड़ा कर देने वाले प्रश्नचिह्न उभर आये। आगे चलकर, ‘पुनरुत्थान’ उपन्यास में भी, हालाँकि मूल कथा नेख्लुदोव के चरित्र के आत्मिक विकास के इर्द–गिर्द आगे बढ़ती है, लेकिन कात्यूशा का जीवन स्त्री–प्रश्न का एक नया आयाम प्रस्तुत करने लगता है।

आन्ना कारेनिना’ का दायरा हालाँकि ‘युद्ध और शान्ति’ की अपेक्षा संकुचित है, लेकिन इस उपन्यास के चरित्र अधिक जटिल हैं। वे अधिक संवेदनशील प्रतीत होते हैं और उनके आन्तरिक तनाव और चिन्ताएँ उपन्यास में समग्र जीवन की अनिश्चितता और अस्थायित्व के परिवेश को परावर्तित करती हैं। ‘युद्ध और शान्ति’ की अपेक्षा चरित्रों के आन्तरिक जीवन का चित्रण भी यहाँ अधिक परिष्कृत और संश्लिष्ट रूप में हुआ है। अपनी पूर्ववर्ती रचनाओं में भी तोल्स्तोय ने नायक की आत्मा के भीतर चल रहे संघर्ष को आन्तरिक एकालाप की युक्ति के माध्यम से दर्शाया है तथा मनोवैज्ञानिक स्थितियों को दर्शाने के लिए ऊपरी तौर पर अप्रासंगिक लगने वाले वर्णनों–विवरणों को प्रस्तुत करने की युक्ति अपनाई है, लेकिन ‘आन्ना कारेनिना’ में प्यार, मोहभंग, ईर्ष्या, निराशा, आत्मिक–प्रबोधन आदि की परिष्कृत अभिव्यक्ति के लिए उपरोक्त प्रविधियों का अधिक दक्ष और अधिक कलात्मक इस्तेमाल किया गया है।

आन्ना कारेनिना’ एक हद तक आत्मकथात्मक उपन्यास भी है। इसे लिखते हुए तोल्स्तोय अपने समय और अपने खुद के जीवन के बारे में स्वयं ही स्पष्ट होने की प्रक्रिया से गुजर रहे थे। उपन्यास में जिन समस्याओं को उठाने और हल करने की कोशिश की गयी थी, उनके प्रति तोल्स्तोय के सरोकार ने 1870 के दशक के अन्त में उन्हें एक नये विचारधारात्मक संकट के भँवर में धकेल दिया और पितृसत्तात्मक किसानी नजरिए के प्रति उनकी पक्षधरता भी संकटग्रस्त हो गयी।

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आधुनिक इतिहास में यदि किसी विचारक-लेखक की ख्याति उसकी ज़िन्दगी में ही पूरी दुनिया में फैल चुकी थी और जीते-जी ही यदि वह एक मिथक बन गया था, तो वे निस्सन्देह लेव तोल्स्तोय ही थे।
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के साहित्यिक परिदृश्य पर जिस तरह बाल्ज़ाक छाये हुए थे, उसी तरह उत्तरार्द्ध के साहित्यिक परिदृश्य पर तोल्स्तोय का प्रभाव-साम्राज्य फैला हुआ था। मानव जीवन की समस्त त्रासदियों-विडम्बनाओं का तर्कपरक, इतिहाससंगत और वस्तुगत निरूपण और व्याख्या करते-करते तोल्स्तोय हालाँकि ऐतिहासिक विकृतियों से मुक्त एक "सच्चे" ईसाई धर्म में, और आत्म-परिष्करण के जरिए आधुनिक सभ्यता की सभी बुराइयों का समाधान प्रस्तुत करते हैं, लेकिन कलात्मक-दार्शनिक चिन्तन के इस अन्तरविरोध के बावजूद वे, मुख्य पहलू की दृष्टि से, एक महान मानवतावादी चिन्तक और महान यथार्थवादी कलाकार थे। अपने ‘लेजिटिमिस्ट' राजनीतिक विचारों के बावजूद बाल्ज़ाक ने ह्रासमान वर्गों की नियति और “भविष्य के वास्तविक लोगों" की स्थिति को अपनी रचनाओं में दर्शाया जिसे फ्रेडरिक एंगेल्स ने “यथार्थवाद की सबसे महती विजयों में से एक, प्रिय बाल्ज़ाक के भव्यतम गुणों में से एक” बताया था। ठीक इसी तरह, तोल्स्तोय ने अपने देशकाल के यथार्थ का जितने सजीव-सटीक ढंग से, और उत्पीड़ित-दमित आम आबादी के प्रति जिस गहरे सरोकार के साथ, अपनी कृतियों में कलात्मक पुनर्सृजन किया, उसका प्रभाव पाठक के मन-मस्तिष्क पर छा जाता है और तोल्स्तोय स्वयं अपने द्वारा प्रस्तुत धार्मिक यूटोपियाई समाधान से इतर समाधान के बारे में सोचने के लिए पाठक को प्रेरित कर देते हैं। दरअसल, जैसाकि लेनिन ने इंगित किया था, तोल्स्तोय के अन्तरविरोध तत्कालीन रूसी समाज के अन्तरविरोधों को प्रतिबिम्बित कर रहे थे और जब संघर्षों ने जनता की चेतना को उन्नत कर दिया तो तोल्स्तोय की कृतियों को पढ़कर उसने वस्तुतः अपनी कमजोरियों के बारे में जानना सीख लिया। आम तौर पर, तोल्स्तोय को उनके दो वृहद और महान उपन्यासों-'युद्ध और शान्ति' तथा 'आन्ना कारेनिना' के लिए जाना जाता है। इनकी गणना निर्विवाद रूप से, अब तक लिखे गये दुनिया के सर्वोत्कृष्ट उपन्यासों में की जाती है। कुछ लोग उनके तीसरे प्रसिद्ध उपन्यास 'पुनरुत्थान' को भी इसी कोटि में शामिल करते हैं। उनकी एक और चर्चित कृति 'इवान इलिच की मौत' की गणना उपन्यासिका के सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों में की जाती है। अपने अन्तिम तीस वर्षों के दौरान एक धार्मिक और नैतिक शिक्षक के रूप में उन्हें विश्वस्तरीय ख्याति मिली। बुराई का प्रतिरोध न करने के उनके सिद्धान्त का गाँधी पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा था। दुनिया आज तोल्स्तोय की धार्मिक मान्यताओं को भुला चुकी है, लेकिन साहित्यकार तोल्स्तोय की ख्याति आज भी अक्षुण्ण है और विश्व - साहित्य की क्लासिकी सम्पदा में अद्वितीय अभिवृद्धि करने वाले महान साहित्य सर्जक के रूप में उन्हें शताब्दियों बाद ही नहीं बल्कि सहस्राब्दियों बाद भी याद किया जायेगा।
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तोल्स्तोय के निधन के बाद लिखे गये अपने लेख में लेनिन ने लिखा था कि तोल्स्तोय “इतनी अधिक संख्या में महान समस्याओं को उठाने में सफल रहे और कलात्मक शक्ति की ऐसी ऊँचाइयों तक ऊपर उठने में सफल रहे कि उनका कृतित्व विश्व साहित्य के महानतम की कोटि में शामिल हो गया।"
तोल्स्तोय ने यूरोपीय मानवतावाद और विश्व साहित्य में यथार्थवादी धारा के विकास को बहुत बड़े पैमाने पर प्रभावित किया। रोम्या रोलॉ, फ्रांस्वा मौरियाक, रोझा मारतन दि गार ( फ्रांस), अर्नेस्ट हेमिंग्वे, थॉमस वुल्फ़ (अमेरिका), जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, जॉन गाल्सवर्दी (ब्रिटेन), थॉमस मान, आना ज़ेगर्स (जर्मनी), यूहान ओग्यूस्त स्ट्रिण्डबर्ग (स्वीडन), रेनर मारिया रिल्के (आस्ट्रिया), लाओ श (चीन) और तोकुतोमी रोका (जापान) आदि दर्जनों प्रसिद्ध लेखकों को तोल्स्तोय ने विचार और कलात्मक यथार्थवादी शैली के धरातल पर प्रभावित किया।
तोल्स्तोय का कृतित्व रूस में और पूरी दुनिया में, यथार्थवाद के विकास की एक नयी मंज़िल का द्योतक है। यह उन्नीसवीं शताब्दी के परम्परागत उपन्यास और बीसवीं शताब्दी के साहित्य को जोड़ने वाली कड़ी है। तोल्स्तोय के यथार्थवाद की अद्वितीय स्वयंस्फूर्तता और प्रत्यक्षता सामाजिक अन्तरविरोधों को उद्घाटित करने वाले कुशाग्र उपकरणों का काम करती हैं। तत्काल प्रभावित करने वाली भावनात्मक अपील और जीवन के रग- रेशे की सजीव प्रस्तुति के साथ सूक्ष्म-सटीक, अन्तर्भेदी बौद्धिक शक्ति और गम्भीर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का सम्मिलन तोल्स्तोय की कला की अभिलाक्षणिक विशिष्टता है। विश्व और मानव जीवन को संचालित करने वाले नियमों की समाकलित समझ तक पहुँचने के लिए तोल्स्तोय का सप्राण- ओजस्वी यथार्थवाद विश्लेषण और संश्लेषण में कुशल द्वन्द्वात्मक समन्वय स्थापित करता है।
तोल्स्तीय के यथार्थवाद ने रूसी राष्ट्रीय परम्पराओं से खाद-पानी लिया था और फिर उसे समृद्ध करते हुए अपना कर्ज मय ब्याज के उतार दिया था। पर राष्ट्रीय से कहीं अधिक इसका दायरा और स्कोप सार्वभौमिक है।
स्थापित विचारों और पूर्वाग्रहों में तोल्स्तोय को कोई विश्वास नहीं था। कुछ भी उनके लिए सन्देह से परे नहीं था, प्रश्नोपरि कुछ भी नहीं था। उन्होंने जीवन के हर पहलू की, नये सिरे से और अपने ढंग से जाँच-पड़ताल की। हर तरह के साहित्यिक 'स्टीरियोटाइपों' को अस्वीकार करते हुए उन्होंने जो खुद देखा, समझा और सहजानुभूत बोध से अर्जित किया उसी को रचना के यथार्थ में ढाला। लोगों के आन्तरिक जीवन, स्वप्नों- आकांक्षाओं और अन्तरात्मा की टीसों को जान लेने की उनकी क्षमता असाधारण थी। दैनन्दिन जीवन और इतिहास से लिये गये दृश्यों की वैविध्यमय पुनर्रचना के मामले में वे अद्वितीय थे।

यथार्थवाद की धारा को इक्कीसवीं सदी में भी आगे जाने के लिए तोल्स्तोय से अभी काफी कुछ लेना है और पहले का भी उनका काफी कर्ज है जो चुकाना है। समकालीन जीवन के संश्लिष्ट यथार्थ की वस्तुगत प्रस्तुति के द्वारा ही, भविष्य और वर्तमान के वास्तविक पात्रों को उनके वास्तविक स्थान पर दिखाकर ही, विगत के कर्ज को उतारा जा सकता है।

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