कहानी - शहादत / न्गुगी वा थ्योंगो Story - The Martyr / Ngũgĩ wa Thiong'o
कहानी - शहादत
न्गुगी वा थ्योंगो
न्गूगी वा थ्योंगो व्यवस्था विरोधी, जनपक्षधर लेखकों की उस गौरवशाली परम्परा की कड़ी हैं, जो हर कीमत चुकाकर भी बुर्जुआ सत्ता प्रतिष्ठानों और सामाजिक ढाँचे के अन्तर्निहित अन्यायी चरित्र को उजागर करते रहे, जिन्होंने आतंक के आगे कभी घुटने नहीं टेके और जनता का पक्ष कभी नहीं छोड़ा। कला-साहित्य के क्षेत्र में आज सर्वव्याप्त अवसरवाद के माहौल में उनका जीवन और कृतित्व अनवरत प्रज्जवलित एक मशाल के समान है। उपनिवेशवाद और समकालीन साम्राज्यवाद की सांस्कृतिक नीति और भाषानीति का तथा उत्तर-औपनिवेशिक समाजों के शासक बुर्जुआ वर्ग की राजनीति, अर्थनीति और संस्कृति का उनका विश्लेषण अपनी कुशाग्रता और मौलिकता की दृष्टि से अनन्य है।
यह परिचय मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान से लिया गया है। इस लेख को पूरा पढ़ने के लिए लिंक पर जायें - http://ahwanmag.com/archives/1387
लेकिन इस हादसे के बारे में मिसेज हिल के यहाँ जितनी तफसील से बातचीत चल रही थी, वैसी शायद ही कहीं हुई हो। मिसेज हिल का मकान एक सुनसान पहाड़ी पर था। उनके पति केन्या के बड़े पुराने बाशिन्द थे और अभी पिछले ही साल जब वे उगांडा की यात्रा पर थे, मलेरिया की चपेट में आकर स्वर्ग सिधार गये थे। उनका एक बेटा और एक बेटी थी और दोनों की शिक्षा 'होम' में यानी इंगलैंड में चल रही थी। मिसेज हिल यहाँ बहुत दिनों से रह रही थीं। उनके पास अपार जमीन थी और देश-भर में उनके बेशुमार चाय बागान थे। अपनी इस जायदाद की बदौलत लोगों में उनकी काफी इज्जत थी-यह और बात है कि कुछ लोग उन्हें पसन्द नहीं करते थे।
इसकी वजह थी यहाँ के मूल बाशिन्दों यानी कालों के प्रति मिसेज हिल का
'उदारवादी' रवैया। हत्या वाली घटना के दो दिन बाद जब मिसेज इस्माइल्स और मिसेज
हार्डी इस पर चर्चा करने के लिए मिसेज हिल के घर पहुँचीं तो उनके चेहरों पर दुख के
साथ-साथ एक विजय की झलक दिखाई दे रही थी-दुख इसलिए कि उनके
सजातीय की हत्या हुई थी और विजय इसलिए कि ये लगातार कहती आयी थीं कि इन कालों पर
कभी भरोसा नहीं करना चाहिए जो इस घटना से साबित हो गया था। अब देखें मिसेज हिल
कैसे कहती हैं कि अगर कालों से ठीक से पेश आया जाए तो इन्हें सभ्य बनाया जा सकता
है।
मिसेज इस्माइल्स दुबली-पतली अधेड़ उम्र की महिला थीं और उनकी तीखी
नाक तथा एक-दूसरे से भिंचे होंठों को देखकर किसी कट्टर धर्म प्रचारक की याद आ जाती
थी। वैसे देखा जाए तो वह अपने विचारों में कट्टर थीं भी। अपने बारे में उन्हें
यकीन था कि उन जैसे चन्द लोगों ने ही इस जंगली लोगों के देश में सभ्यता के
नखलिस्तान बना रखे हैं और अपनी चाल-ढाल, बातचीत तथा आचार-व्यवहार से वह यहाँ के
मूल बाशिन्दों को इस धारणा का अहसास कराती रहती थीं।
मिसेज हार्डी बोअर नस्ल की थीं और काफी पहले दक्षिण अफ्रीका से आकर
यहाँ बसी थीं। किसी भी चीज के बारे में उनकी कोई अपनी राय नहीं होती थी-बेशक,
हर
उस राय से वह इत्तफ़ाक करती थीं, जो उनके पति और उनकी नस्ल के नजरिये से
मेल खाती हो। अब आज ही की मिसाल लें-मिसेज इस्माइल्स की हर बात से वह इत्तफाक कर
रही थीं। मिसेज हिल पर इन बातों का कोई असर नहीं पड़ रहा था। वह अपनी राय पर बराबर
अड़ी हुई थीं कि काले लोग बड़े वफादार होते हैं और जरूरत है तो बस यह कि उनसे ठीक
से व्यवहार किया जाए। वह कहा करती थीं-"बस उन्हें और
कुछ नहीं चाहिए। उनके साथ प्यार से रहो तो वे भी प्यार से रहेंगे। अब मेरे ही 'लड़कों'
को
देखो, वे मुझे कितना प्यार करते हैं। मैं उनसे कुछ भी कह दूँ, वे
इनकार नहीं करते।" यही उनका दर्शन था और इसे मानने वाले उदार और प्रगतिशील किस्म के कुछ
गोरे भी थे। मिसेज हिल ने अपने 'लड़कों' के लिए उदारवादी
किस्म के कुछ काम भी किये थे। उन्होंने इनके लिए न केवल ईंट-गारे के (ध्यान
रखिए-ईंट-गारे के) क्वार्टर बनवाये थे, बल्कि इनके बच्चों के लिए एक स्कूल भी
खोल रखा था। अब यह और बात है कि स्कूल में टीचर ही नहीं थे या बच्चे आधा दिन स्कूल
में और आधा दिन चाय-बागानों में बेगार करके बिता देते थे। पर यहाँ बसे बाकी गोरों
ने तो इतना भी करने का साहस नहीं दिखाया।
"जो भी हुआ वह अत्यन्त भयानक है-बेहद भयानक," मिसेज
इस्माइल्स अपना फैसला दिया। मिसेज हार्डी ने 'हाँ' में
'हाँ' मिलायी। मिसेज हिल खामोश रहीं। ने "आखिर वे ऐसा
करते क्यों हैं? हमने उन्हें सभ्य बनाया, उन्हें गुलामी से निजात दिलायी,
उनके
कबीलों में आये दिन होने वाली मारकाट खत्म करायी. . . हमारे आने से पहले उनकी
जिन्दगी नरक थी-एकदम जंगली।" मिसेज इस्माइल्स एक-एक शब्द को चबा-चबाकर बोल रही थीं, फिर उन्होंने अफसोस में गर्दन हिलाते
हुए फैसला दिया, “लेकिन मैंने बराबर कहा है कि ये कभी सभ्य नहीं हो सकते-कभी नहीं।"
"हमें थोड़ा सब्र से काम लेना चाहिए, " मिसेज हिल ने
धीरे से कहा।
'सब्र! सब्र! और कब तक हम सब दिखाते रहें? गैरस्टोन दम्पति
से ज्यादा सहनशील और सब दिखाने वाला कौन रहा होगा। उनसे ज्यादा दयालु कौन था?
और
जरा सोचो, उन लोगों ने अपने आसपास कितनों को आबाद कर रखा था - जरूर उन्हीं सबों
ने..."
"नहीं, उन्होंने ऐसा नहीं किया होगा।" मिसेज हिल ने
कहा।
“फिर किसने किया? किसने किया?"
“उन सबको फाँसी दे देनी चाहिए।" मिसेज हार्डी ने
सुझाव दिया। उनकी आवाज में दृढ़ता थी।
“और जरा सोचो तो, उन बेचारों को घर के नौकर ने आवाज देकर
सोते से उठाया
“सच?"
"बिल्कुल। घर के नौकर ने दरवाजा खटखटाया और कहा कि वे जल्दी दरवाजा
खोलें। बोला कि कुछ लोग उसका पीछा कर रहे हैं. . ."
“हो सकता है कि कुछ लोग. .."
"नहीं जी। यह तो एक साजिश थी। बहुत बड़ी चाल थी। जैसे ही दरवाजा खुला
बदमाशों का गिरोह अन्दर घुस गया और उन पर टूट पड़ा। सब तो छपा है अखबारों में। "
मिसेज हिल अपराध-भाव से शून्य में देखती रहीं। उन्होंने अखबार भी ठीक
से नहीं पढ़ा था।
चाय का वक्त हो गया था। मिसेज हिल उठीं और दरवाजे तक जाकर बड़े
मुलायम स्वर में उन्होंने आवाज दी, “नजोरोग! नजोरोग!"
नजोरोग उनका नौकर था। वह काफी लम्बे कद का चौड़े कन्धों वाला जवान
था। पिछले दस वर्षों से भी अधिक समय से वह हिल दम्पति के यहाँ नौकरी कर रहा था। वह
अक्सर हरे रंग की पैंट पहनता था और कमर में एक लाल रंग का फेंटा बाँधे रहता था।
आवाज सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा दरवाजे तक आया, “यस मेम साहब।"
"चाय।" मेम साहब ने आदेश दिया।
“यस मेम साहब," और वह झटके में दूसरी मेमसाहबों पर
निगाह फेंकता हुआ चाय लाने चला गया। नजोरोग के आने से बातचीत का सिलसिला टूट गया
था, पर अब फिर शुरू हो गया।
"देखने में ये कितने भोले-भाले लगते हैं," मिसेज हार्डी ने
टिप्पणी की।
"बिल्कुल जी। एक मासूम फूल की तरह, जिनके अन्दर
साँप छुपा रहता है।” मिसेज इस्माइल्स ने शेक्सपीयर की पंक्ति दुहराते हुए अपना
साहित्य-ज्ञान उँडेल दिया। “पिछले दस साल से भी ज्यादा समय से
हमारे साथ है। बहुत ही वफादार है। मुझे बहुत पसन्द करता है।" मिसेज
हिल ने उसकी तरफदारी की।
"जो भी हो, मैं उसे नहीं पसन्द करती। मुझे उसकी शक्ल से भी नफरत है।"
"मैं भी नहीं पसन्द करती।"
चाय आ गयी थी। चाय की चुस्कियों के साथ इस हत्याकांड पर, सरकार
की नीति पर और उन राजनीतिक पाखंडियों पर बातचीत होती रही, जो इस खूबसूरत
देश को नरक बनाने पर आमादा थे। लेकिन मिसेज हिल अपने सिद्धान्तों पर अड़ी ही रहीं
और उन्होंने बताया कि ये राजनीतिज्ञ जो ब्रिटेन में कुछ दिन रहकर अपने को बहुत
पढ़ा-लिखा समझने लगे हैं, दरअसल यहाँ के मूल लोगों की भावनाओं को
कतई समझते नहीं। आप इन्हें प्यार दीजिए और ये लड़के आपको प्यार देने लगेंगे।
बावजूद इसके, मिसेज इस्माइल्स और मिसेज हार्डी के
जाने के बाद वह काफी देर तक सारी बातचीत और इस हत्याकांड पर सोचती रहीं। उन्हें
बेचैनी महसूस होने लगी और पहली बार उन्होंने गौर किया कि वह आबादी से कितनी दूर रह
रही हैं-इतनी दूर कि कोई हमला करे तो वह किसी की मदद भी नहीं पा सकतीं। यह सोचकर
मन को तसल्ली हुई कि उनके पास पिस्तौल है।
रात के खाने के बाद नजोरोग की ड्यूटी खत्म हो गयी। अब वह अपने
क्वार्टर में जाकर आराम करेगा। रोशनी से जगमगाते मकान से बाहर निकलकर अँधेरे की
चादर चीरते हुए वह अपने क्वार्टर की ओर बढ़ा। उसका क्वार्टर पहाड़ी से थोड़ी नीचे
की ढलान पर था। उसने मुँह से सीटी बजाकर रात की खामोशी और अकेलेपन से छुटकारा पाने
की कोशिश की। उसे कामयाबी नहीं मिली। अचानक उसे एक उल्लू की चीख सुनाई पड़ी।
वह रुक गया और चारों ओर देखने लगा। नीचे घोर अन्धकार था। पीछे
मेमसाहब का शानदार बंगला रोशनी में डूबा दिखाई दे रहा था। एक अजीब किस्म के गुस्से
से दहकती उसकी आँखें बंगले पर टिकी रह गयीं। अचानक उसे लगा जैसे वह बूढ़ा हो रहा है।
‘ओफ, तुम...तुम...मैं इतने दिनों से तुम्हारे साथ हूँ और तुमने मेरी ये
हालत कर दी, मेरे अपने ही देश में। बदले में मुझे तुमसे मिला ही क्या?' नजोरोग
की इच्छा हुई कि वह खूब जोर से इस बंगले से यह
सब और न जाने क्या-क्या पूछे जो वर्षों से उसने अपने दिल में जमा कर रखा है। लेकिन
इस बंगले से कोई जवाब तो मिलेगा नहीं। उसने अपनी
बेवकूफी महसूस की और आगे बढ़ गया।
उल्लू की चीख फिर सुनाई पड़ी। दूसरी बार।
'मेमसाहब के लिए चेतावनी', नजोरोग ने सोचा। एक बार फिर उसकी आत्मा
गुस्से में चीत्कार कर उठी, सभी गोरी चमड़ी वालों के खिलाफ,
सभी
विदेशियों के खिलाफ, जिन्होंने ईश्वर द्वारा प्राप्त भूमि से उस जैसे धरती पुत्रों को
बेदखल कर दिया है। आखिर भगवान ने गेकोयो से यही तो वादा किया था कि सारी जमीन
कबीले के पितामह को मिलेगी। फिर हुआ क्या? क्यों हमारी सारी जमीन छीन ली गयी?
उसने अपने पिता को याद किया, अक्सर गुस्से और नफरत के क्षणों में वह
पिता को याद करता है। उनकी मृत्यु एक संघर्ष के दौरान हुई थी- यह संघर्ष था टूटे
पूजा स्थलों को फिर से बनाने का। यही था कुख्यात नैरोबी हत्याकाण्ड जब पुलिस ने उन
लोगों पर गोली चलाई थी, जो अपने अधिकारों के लिए शान्तिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे। पुलिस की
गोली ने पिता की जान ले ली। तब से नजोरोग को अपनी रोजी-रोटी के लिए न जाने कितना
भटकना पड़ा है। कभी गोरों के फार्म पर, कभी यहाँ नौकरी तो कभी वहाँ। इस
सिलसिले में तरह-तरह के लोगों से साबका पड़ा- कोई बहुत दुष्ट था तो कोई बेहद भला,
लेकिन
रौब गाँठने में सब बड़े तेज थे और जिन्हें जितना उचित महसूस होता था, तनख्वाह
देते थे। फिर एक दिन हिल्स परिवार के यहाँ नौकरी करने लगा। यहाँ आना भी एक अजीब
इत्तफाक था। हिल्स परिवार के पास जो जमीन थी, उसका बहुत बड़ा
हिस्सा वही था, जिसे दिखाकर उसके पिता बताया करते थे कि यह जमीन उसके परिवार की है।
पिता की मृत्यु से पहले अकाल पड़ा था और नजोरोग को अपने घर वालों के साथ कुछ दिनों
के लिए मुरांगा जाकर रहना पड़ा था। अकाल खत्म होने पर ही वे लौटे थे और इस बीच
उसकी सारी जमीन पर हिल्स परिवार का कब्जा हो चुका था।
“उस अंजीर के पेड़ को देख रहे हो न! वह सारी जमीन तुम्हारी है। घबराना
नहीं बेटे, गोरों के जाने के बाद हम फिर अपनी जमीन हासिल कर लेंगे।"
उसके
पिता अक्सर तसल्ली देते।
उन दिनों वह छोटा था। पिता की मृत्यु के बाद ये बातें दिमाग से ओझल
हो ही गयी थीं। आज इस पेड़ के पास खड़े होने पर सहसा सब कुछ याद आ गया।
नजोरोग ने मिसेज हिल को कभी पसन्द नहीं किया। दरअसल वह मन ही मन यह
सोचकर इठलाती रहती थी कि उसने मजदूरों के लिए बहुत कुछ किया है और इसी बात से नजोरोग चिढ़ता था। उसने मिसेज इस्माइल्स और मिसेज हार्डी
जैसी निर्दयी औरतों के साथ भी काम किया था। लेकिन उसे हमेशा अपनी स्थिति का एहसास
रहता। मिसेज हिल का उदारतावाद तो सचमुच दमघोंटू किस्म का था। नजोरोग को सभी गोरे
बाशिन्दों से नफरत थी। इनके पाखंड और आत्मसन्तोष से तो इसे और भी ज्यादा चिढ़ थी।
मिसेज हिल भी औरों की ही तरह थीं, लेकिन अपने मातृभाव के कारण वह खुद को
दूसरों से बेहतर समझती थीं। दरअसल वह दूसरों से बदतर थीं, क्योंकि उनके
पास होने पर आप जान ही नहीं पाते थे कि अपनी असली हैसियत क्या है।
अचानक नजोरोग चीख पड़ा, 'मैं तुम सबसे नफरत करता हूँ।' फिर
उसे हल्का-सा सन्तोष हुआ। आज की रात, मिसेज हिल को मरना ही होगा- उसे अपनी
उदार छवि और अपनी नस्ल वालों के पाप का खामियाजा भुगतना ही होगा। इससे कम-से-कम इस
देश से एक गोरा तो कम होगा।
वह अपने कमरे में पहुँच गया। पड़ोसियों के कमरे बन्द हो चुके
थे-कइयों के कमरे में तो बत्ती भी बुझ चुकी थी। या तो सब सो गये थे या दारू पीने
के ठेके पर चले गये थे। उसने लालटेन जलायी और बिस्तर पर बैठ गया। उसका कमरा इतना
छोटा था कि बिस्तर पर बैठकर कोई बाँह फैलाए और हर कोने को छू ले, तो
भी उसे अपनी दो बीवियों के साथ इस कोठरी में-जी हाँ, इसी कोठरी में
रहना पड़ता है। हकीकत तो यह है कि इसी हालत में उसने पाँच साल से भी अधिक समय
गुजार दिया है, लगभग रेंगते हुए! लेकिन मिसेज हिल समझती हैं कि ईंट-गारे की इन
कोठरियों को बनवाकर उन्होंने बहुत बड़ा अहसान कर दिया है।
मिसेज हिल पूछती रहती हैं-'मजुन साना?' (मजे में हो न?)
- दरअसल
यह इनका तकिया कलाम है। जब भी उनके यहाँ कोई मेहमान आता है, वह उन्हें
खींचकर पहाड़ी के छोर तक ले जाती हैं और इशारे से उन कोठरियों को दिखाती हैं,
जिन्हें
उन्होंने मजदूरों के लिए बनवा रखा है।
एक बार फिर नजोरोग के चेहरे पर उदास मुस्कान निखर गयी। उसने सोचा कि
अब इस बेचारी को अपनी नकली दयालुता और झूठे अहसानों की कीमत चुकानी ही पड़ेगी। उसे खुद भी पूरा-पूरा हिसाब करना था। पिता की मौत का
हिसाब, और अपनी पुश्तैनी जमीन के छिनने का हिसाब।
अच्छा ही हुआ जो उसने पिछले दिनों बीवी-बच्चों को कैम्प भेज दिया था। उनके रहने से
थोड़ी दिक्कत हो सकती थी। काम पूरा होने के बाद अगर उसे फरार होना पड़ा तो अब कोई
चिन्ता नहीं रहेगी। अब किसी भी समय सारे 'झीई' (माऊ-माऊ विद्रोह
के समय छापामार दस्तों में सकिय लड़के)
आ सकते हैं। वह उन्हें मिसेज हिल के घर तक पहुँचा आएगा। विश्वासघात, हाँ
विश्वासघात ही। पर कितना जरूरी हो गया है।
उल्लू की चीख कानों में पड़ी, जो अबकी हर बार
से तेज थी। यह तो अपशकुन है। मौत का सूचक है-मिसेज हिल की मौत का। उसकी आँखों के
सामने मिसेज हिल का चेहरा घूम गया। दस साल से भी अधिक समय वह मेमसाहब और बवाना के
साथ गुजार चुका है। मेमसाहब अपने मर्द को बहुत चाहती थीं, इसमें कोई शक
नहीं। उसे याद है जब उगांड़ा में साहब के मरने की खबर आयी थी तो मेमसाहब पागल ही
हो गयी थीं। दुख की उस घड़ी में मेमसाहब का साहबपन एकदम गायब हो गया था और नजोरोग
ने ही उन्हें ढांढस बँधाया था। मेमसाहब के बच्चे। अपनी आँखों से उसने उन्हें बढ़ते
देखा है। किसी भी बच्चे की तरह। खुद उसके बच्चों की तरह। वे अपने माँ-बाप को बहुत
प्यार करते थे और मिसेज हिल भी उन्हें कितना दुलराती रहती थीं। वे अब इंगलैंड में
हैं जहाँ उनके माँ-बाप कोई नहीं हैं, बेचारे!
और तब उसे लगा कि उससे यह काम नहीं होगा। ऐसा क्यों महसूस हुआ,
नहीं
पता, पर अचानक मिसेज हिल उसके मन-मस्तिष्क पर एक औरत के रूप में, एक
पत्नी के रूप में, एक माँ के रूप में छा गयीं। ना, ना, वह
किसी औरत की हत्या नहीं कर सकता। वह किसी माँ को नहीं मार सकता। अपने भीतर आये इस
बदलाव से वह व्यग्र हो उठा। बार-बार कोशिश करने लगा कि वह मिसेज हिल को एक विदेशी
बाशिन्दे के रूप में देखे-खालिस गोरी औरत के रूप में। अगर ऐसा हो सकता तो उसका काम
आसान हो जाता, क्योंकि वह गोरे लोगों से सचमुच नफरत करता था। लाख चाहने पर भी दस
वर्षों के सम्बन्ध को वह भुला नहीं पा रहा था। वह जानता था कि मिसेज हिल अगर बच
गयीं तो भी कालों के प्रति उनका हमदर्दी वाला पाखंड तो बना ही रहेगा। वह क्यों
नहीं मिसेल हिल को महज एक विदेशी के रूप में देख पा रहा है। वह प्रार्थना करने
लगा-हे ईश्वर, दुनिया से जुल्म खत्म करो। अगर अन्याय और जुल्म खत्म हो जाए तो
काले-गोरे का झगड़ा ही न रहे और उसके सामने कभी ऐसी दर्दनाक स्थिति ही न पैदा हो।
अब वह क्या करे? उसने उन 'लड़कों'
(छापामारों)
को खबर कर दी थी- वे अब आते ही होंगे। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। जहाँ तक गोरे
बाशिन्दों की बात है, उसके मन में कोई दुविधा नहीं थी, पर दो बच्चों की
माँ का वह कैसे सफाया कराये ?
बेचैन मन लिये वह बाहर निकल आया।
बाहर घना अँधेरा था। आकाश में तारे एकटक उसे देख रहे थे-ऐसा लगता था गोया उन्हें भी नजोरोग के फैसले का इन्तजार हो। वह तारों से आँखें
नहीं मिला सका और आहिस्ता-आहिस्ता मिसेज हिल के बंगले की ओर चल पड़ा। मेमसाहब को
बचाना ही होगा - उसने तय कर लिया था।
समय बर्बाद करने से कोई फायदा नहीं, पहले ही बहुत
देर हो चुकी है। वे ‘लड़के' आते ही होंगे। अब वह दौड़ रहा था। एक औरत की जान बचाने के लिए दौड़
रहा था। सड़क पर उसे कदमों की आहट सुनाई पड़ी और वह झाड़ी में छुप गया। उसने देखा,
वे
लड़के अपने अभियान पर निकल पड़े थे। उन्हें धोखा देते हुए उसे अजीब-सा लगा। उनके
गुजर जाने के बाद वह और तेजी से दौड़ने लगा। अगर लड़कों को पता चल गया कि उसने
धोखा दिया है तो वे उसे जिन्दा नहीं छोड़ेंगे। पर कोई बात नहीं। एक औरत को बचाने
के लिए उसकी जान भी चली जाए तो कोई परवाह नहीं।
आखिरकार हाँफता-खाँसता और पसीने से तर-बतर वह मिसेज हिल के बंगले तक
पहुँच ही गया और लगातार चीखते हुए उसने कुंडी खटखटायी- “मेमसाहब!
मेमसाहब!"
मिसेज हिल अभी सोयी नहीं थीं। दोपहर की बातचीत के बाद से ही उन्हें
अजीब-सी दहशत हो रही थी। नजोरोग के जाने के बाद एकदम सन्नाटा हो गया था और
उन्होंने आलमारी से पिस्तौल निकाल कर अपने पास रख लिया था। अपनी तरफ से तैयार रहने
में क्या हर्ज है। वह सोच रही थीं-काश! उनके पति आज जीवित होते तो यह अकेलापन नहीं
महसूस होता।
गैरस्टोन दम्पति की हत्या से उन्हें भी दुख था और बार-बार अपने अकेले
होने का एहसास दहशत पैदा कर रहा था। उन्हें नजोरोग का मासूम चेहरा याद आ रहा था।
क्या उसके बीवी-बच्चे भी हैं? कितने बच्चे हैं? कितनी
बीवियाँ हैं? उन्हें हैरानी हुई कि अब से पहले उन्होंने कभी यह क्यों नहीं सोचा।
यह पहला मौका था, जब उनके जेहन में नजोरोग की तस्वीर एक बाल-बच्चे वाले आदमी के रूप
में उभरी थी, वरना वह तो उसे एक नौकर के अलावा कुछ सोच ही नहीं पाती थीं। उन्हें
अपनी इस लापरवाही और अमानवीयता पर मन ही मन दुख हुआ। इन्हीं ख्यालों में वह डूबी
थीं कि उन्हें आवाज सुनाई दी – “मेमसाहब!
मेमसाहब!”
·
अरे यह तो नजोरोग की आवाज है-उनके नौकर की। उनका शरीर पसीने से तर हो
गया। अचानक उन्हें गैरस्टोन दम्पति के साथ हुआ हादसा पूरे विस्तार के साथ दिखाई
देने लगा। अब उनका भी अन्त आ गया है। जिन्दगी के सफर का अन्तिम पड़ाव। आखिर नजोरोग
हत्यारों को यहाँ तक पहुँचा ही गया। वह भय से काँपने लगीं।
अचानक उन्होंने अपने को संभाला और लगा जैसे शरीर की सारी ताकत एक जगह
सिमट आयी है। बेशक, वह अकेली हैं और अभी वे दरवाजे को तोड़ भी देंगे। लेकिन नहीं,
वह
कायरों की तरह नहीं मरेंगी। उन्होंने पिस्तौल को कसकर पकड़ लिया, दरवाजा
खोला और गोली चला दी। गोली चलाने के साथ ही वह चीख पड़ीं- 'आओ, मुझे
मार डालो', और बेहोश होकर गिर पड़ीं। वह जान ही नहीं सकीं कि उन्होंने उस
व्यक्ति को मार डाला है, जो उनकी जान बचाने आया था। पास में
नजोरोग की लाश पड़ी थी।
अगले दिन अखबारों में पूरा विवरण छपा। एक अकेली औरत ने पचास बदमाशों
का बहादुरी से मुकाबला किया और कमाल तो यह है कि एक को मार भी डाला। “हम
लोग तो कहते ही थे कि वे सभी एक जैसे हैं।”
"सब बदमाश हैं।" मिसेज हार्डी ने कहा। मिसेज हिल खामोश
रहीं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब कैसे हुआ। जितना ही वह इस बारे में
सोचतीं, उलझन बढ़ती जाती। वह अभी भी शून्य में देख रही थीं। फिर उन्होंने एक
ठंडी साँस छोड़ी और कहा, "मैं कुछ भी समझ
नहीं पा रही हूँ. . . शायद मैं नजोरोग को जान नहीं पायी।
“क्या? जान नहीं पायीं?"
“अजीब बात है," मिसेज इस्माइल्स ने कहा, “इन
सबों को कोड़े लगाने चाहिए।”
लोग शायद यह कभी नहीं जान पाएँगे कि नजोरोग ने एक शहादत दी। मिसेज हिल के पश्चात्ताप को भी लोग शायद ही समझ सकें।
Story - The Martyr
Ngũgĩ wa Thiong'o
When Mr and Mrs Garstone were murdered in their home by
unknown gangsters, there was a lot of talk about it. It was all on the front
pages of the daily papers and figured importantly in the Radio Newsreel.
Perhaps this was so because they were the first European settlers to be killed
in the increased wave of violence that had spread all over the country. The
violence was said to have political motives. And wherever you went, in the
market places, in the Indian bazaars, in a remote African duka, you were bound
to hear something about the murder. There were a variety of accounts and
interpretations.
Nowhere was the matter more thoroughly discussed than in a
remote, lonely house built on a hill, which belonged, quite appropriately, to
Mrs Hill. Her husband, an old veteran settler of the pioneering period, had
died the previous year after an attack of malaria while on a visit to Uganda.
Her only son and daughter were now getting their education at ‘Home’ – home
being another name for England. Being one of the earliest settlers and owning a
lot of land with big tea plantations sprawling right across the country, she
was much respected by the others if not liked by all.
For some did not like what they considered her too ‘liberal’
attitude to the ‘natives’. When Mrs Smiles and Mrs Hardy came into her house
two days later to discuss the murder, they wore a look of sad triumph – sad
because Europeans (not just Mr and Mrs Garstone) had been killed, and of
triumph, because the essential depravity and ingratitude of the natives had
been demonstrated beyond all doubt. No longer could Mrs Hill maintain that
natives could be civilized if only they were handled in the right manner.
Mrs Smiles was a lean, middle-aged woman whose tough,
determined nose and tight lips reminded one so vividly of a missionary. In a
sense she was. Convinced that she and her kind formed an oasis of civilization
in a wild country of savage people, she considered it almost her calling to
keep on reminding the natives and anyone else of the fact, by her gait, talk
and general bearing.
Mrs Hardy was of Boer descent and had early migrated into
the country from South Africa. Having no opinions of her own about anything,
she mostly found herself agreeing with any views that most approximated those
of her husband and her race. For instance, on this day she found herself in
agreement with whatever Mrs Smiles said. Mrs Hill stuck to her guns and
maintained, as indeed she had always done, that the natives were obedient at
heart and all you needed was to treat them kindly.
‘That’s all they need. Treat them kindly. They will take
kindly to you. Look at my “boys”. They all love me. They would do anything I
ask them to!’ That was her philosophy and it was shared by quite a number of
the liberal, progressive type. Mrs Hill had done some liberal things for her
‘boys’. Not only had she built some brick quarters (brick, mind you) but had
also put up a school for the children. It did not matter if the school had not
enough teachers or if the children learnt only half a day and worked in the
plantations for the other half; it was more than most other settlers had the
courage to do!
‘It is horrible. Oh, a horrible act,’ declared Mrs Smiles
rather vehemently. Mrs Hardy agreed. Mrs Hill remained neutral.
‘How could they do it? We’ve brought ’em civilization. We’ve
stopped slavery and tribal wars. Were they not all leading savage miserable
lives?’ Mrs Smiles spoke with all her powers of oratory. Then she concluded
with a sad shake of the head: ‘But I’ve always said they’ll never be civilized,
simply can’t take it.’
‘We should show tolerance,’ suggested Mrs Hill. Her tone
spoke more of the missionary than Mrs Smiles’s looks.
‘Tolerant! Tolerant! How long shall we continue being
tolerant? Who could have been more tolerant than the Garstones? Who more kind?
And to think of all the squatters they maintained!’
‘Well, it isn’t the squatters who …’
‘Who did? Who did?’
‘They should all be hanged!’ suggested Mrs Hardy. There was
conviction in her voice.
‘And to think they were actually called from bed by their
houseboy!’
‘Indeed?’
‘Yes. It was their houseboy who knocked at their door and
urgently asked them to open. Said some people were after him –’
‘Perhaps there –’
‘No! It was all planned. All a trick. As soon as the door
was opened, the gang rushed in. It’s all in the paper.’
Mrs Hill looked away rather guiltily. She had not read her
paper.
It was time for tea. She excused herself and went near the
door and called out in a kind, shrill voice.
‘Njoroge! Njoroge!’
Njoroge was her ‘houseboy’. He was a tall, broad-shouldered
man nearing middle age. He had been in the Hills’ service for more than ten
years. He wore green trousers, with a red cloth-band round the waist and a red
fez on his head. He now appeared at the door and raised his eyebrows in inquiry
– an action which with him accompanied the words, ‘Yes, Memsahib?’ or ‘Ndio,
Bwana.’
‘Leta Chai.’
‘Ndio, Memsahib!’ and he vanished back after casting a quick
glance round all the Memsahibs there assembled. The conversation which had been
interrupted by Njoroge’s appearance was now resumed.
‘They look so innocent,’ said Mrs Hardy.
‘Yes. Quite the innocent flower but the serpent under it.’
Mrs Smiles was acquainted with Shakespeare.
‘Been with me for ten years or so. Very faithful. Likes me
very much.’ Mrs Hill was defending her ‘boy’.
‘All the same I don’t like him. I don’t like his face.’
‘The same with me.’
Tea was brought. They drank, still chatting about the death,
the government’s policy, and the political demagogues who were undesirable
elements in this otherwise beautiful country. But Mrs Hill maintained that
these semi-illiterate demagogues who went to Britain and thought they had
education did not know the true aspirations of their people. You could still
win your ‘boys’ by being kind to them.
Nevertheless, when Mrs Smiles and Mrs Hardy had gone, she
brooded over that murder and the conversation. She felt uneasy and for the
first time noticed that she lived a bit too far from any help in case of an
attack. The knowledge that she had a pistol was a comfort.
Supper was over. That ended Njoroge’s day. He stepped out of
the light into the countless shadows and then vanished into the darkness. He
was following the footpath from Mrs Hill’s house to the workers’ quarters down
the hill. He tried to whistle to dispel the silence and loneliness that hung
around him. He could not. Instead he heard a bird cry, sharp, shrill. Strange
thing for a bird to cry at night.
He stopped, stood stock-still. Below, he could perceive
nothing. But behind him the immense silhouette of Memsahib’s house – large,
imposing – could be seen. He looked back intently, angrily. In his anger, he
suddenly thought he was growing old.
‘You. You. I’ve lived with you so long. And you’ve reduced
me to this!’ Njoroge wanted to shout to the house all this and many other
things that had long accumulated in his heart. The house would not respond. He
felt foolish and moved on.
Again the bird cried. Twice!
‘A warning to her,’ Njoroge thought. And again his whole
soul rose in anger – anger against those with a white skin, those foreign
elements that had displaced the true sons of the land from their God-given
place. Had God not promised Gekoyo all this land, he and his children, forever
and ever? Now the land had been taken away.
He remembered his father, as he always did when these
moments of anger and bitterness possessed him. He had died in the struggle –
the struggle to rebuild the destroyed shrines. That was at the famous 1923
Nairobi Massacre when police fired on a people peacefully demonstrating for
their rights. His father was among the people who died. Since then Njoroge had
had to struggle for a living – seeking employment here and there on European
farms. He had met many types – some harsh, some kind, but all dominating, giving
him just what salary they thought fit for him. Then he had come to be employed
by the Hills. It was a strange coincidence that he had come here. A big portion
of the land now occupied by Mrs Hill was the land his father had shown him as
belonging to the family. They had found the land occupied when his father and
some of the others had temporarily retired to Muranga owing to famine. They had
come back and Ng’o! the land was gone.
‘Do you see that fig tree? Remember that land is yours. Be
patient. Watch these Europeans. They will go and then you can claim the land.’
He was small then. After his father’s death, Njoroge had
forgotten this injunction. But when he coincidentally came here and saw the
tree, he remembered. He knew it all – all by heart. He knew where every
boundary went through.
Njoroge had never liked Mrs Hill. He had always resented her
complacency in thinking she had done so much for the workers. He had worked
with cruel types like Mrs Smiles and Mrs Hardy. But he always knew where he
stood with such. But Mrs Hill! Her liberalism was almost smothering. Njoroge
hated settlers. He hated above all what he thought was their hypocrisy and
complacency. He knew that Mrs Hill was no exception. She was like all the
others, only she loved paternalism. It convinced her she was better than the
others. But she was worse. You did not know exactly where you stood with her.
All of a sudden, Njoroge shouted, ‘I hate them! I hate
them!’ Then a grim satisfaction came over him. Tonight, anyway, Mrs Hill would
die – pay for her own smug liberalism, her paternalism and pay for all the sins
of her settler race. It would be one settler less.
He came to his own room. There was no smoke coming from all
the other rooms belonging to the other workers. The lights had even gone out in
many of them. Perhaps, some were already asleep or gone to the Native Reserve
to drink beer. He lit the lantern and sat on the bed. It was a very small room.
Sitting on the bed one could almost touch all the corners of the room if one
stretched one’s arms wide. Yet it was here, here, that he with two wives and a
number of children had to live, had in fact lived for more than five years. So
crammed! Yet Mrs Hill thought that she had done enough by just having the
houses built with brick.
‘Mzuri, sana, eh?’ (very good, eh?) she was very fond of
asking. And whenever she had visitors she brought them to the edge of the hill
and pointed at the houses.
Again Njoroge smiled grimly to think how Mrs Hill would pay
for all this self-congratulatory piety. He also knew that he had an axe to
grind. He had to avenge the death of his father and strike a blow for the
occupied family land. It was foresight on his part to have taken his wives and
children back to the Reserve. They might else have been in the way and in any
case he did not want to bring trouble to them should he be forced to run away
after the act.
The other Ihii (Freedom Boys) would come at any time now. He
would lead them to the house. Treacherous – yes! But how necessary.
The cry of the night bird, this time louder than ever,
reached his ears. That was a bad omen. It always portended death – death for
Mrs Hill. He thought of her. He remembered her. He had lived with Memsahib and
Bwana for more than ten years. He knew that she had loved her husband. Of that
he was sure. She almost died of grief when she had learnt of his death. In that
moment her settlerism had been shorn off. In that naked moment, Njoroge had
been able to pity her. Then the children! He had known them. He had seen them
grow up like any other children. Almost like his own. They loved their parents,
and Mrs Hill had always been so tender with them, so loving. He thought of them
in England, wherever that was, fatherless and motherless.
And then he realized, too suddenly, that he could not do it.
He could not tell how, but Mrs Hill had suddenly crystallized into a woman, a
wife, somebody like Njeri or Wambui, and above all, a mother. He could not kill
a woman. He could not kill a mother. He hated himself for this change. He felt
agitated. He tried hard to put himself in the other condition, his former self,
and see her as just a settler. As a settler, it was easy. For Njoroge hated
settlers and all Europeans. If only he could see her like this (as one among
many white men or settlers) then he could do it. Without scruples. But he could
not bring back the other self. Not now, anyway. He had never thought of her in
these terms. Until today. And yet he knew she was the same, and would be the
same tomorrow – a patronizing, complacent woman. It was then he knew that he
was a divided man and perhaps would ever remain like that. For now it even
seemed an impossible thing to snap just like that ten years of relationship,
though to him they had been years of pain and shame. He prayed and wished there
had never been injustices. Then there would never have been this rift – the
rift between white and black. Then he would never have been put in this painful
situation.
What was he to do now? Would he betray the ‘Boys’? He sat
there, irresolute, unable to decide on a course of action. If only he had not
thought of her in human terms! That he hated settlers was quite clear in his
mind. But to kill a mother of two seemed too painful a task for him to do in a
free frame of mind.
He went out.
Darkness still covered him and he could see nothing clearly.
The stars above seemed to be anxiously awaiting Njoroge’s decision. Then, as if
their cold stare was compelling him, he began to walk, walk back to Mrs Hill’s
house. He had decided to save her. Then probably he would go to the forest.
There, he would forever fight with a freer conscience. That seemed excellent.
It would also serve as a propitiation for his betrayal of the other ‘Boys’.
There was no time to lose. It was already late and the
‘Boys’ might come any time. So he ran with one purpose – to save the woman. At
the road he heard footsteps. He stepped into the bush and lay still. He was
certain that those were the ‘Boys’. He waited breathlessly for the footsteps to
die. Again he hated himself for this betrayal. But how could he fail to hearken
to this other voice? He ran on when the footsteps had died. It was necessary to
run, for if the ‘Boys’ discovered his betrayal he would surely meet death. But
then he did not mind this. He only wanted to finish this other task first.
At last, sweating and panting, he reached Mrs Hill’s house
and knocked at the door, crying, ‘Memsahib! Memsahib!’
Mrs Hill had not yet gone to bed. She had sat up, a
multitude of thoughts crossing her mind. Ever since that afternoon’s
conversation with the other women, she had felt more and more uneasy. When
Njoroge went and she was left alone she had gone to her safe and taken out her
pistol, with which she was now toying. It was better to be prepared. It was
unfortunate that her husband had died. He might have kept her company.
She sighed over and over again as she remembered her
pioneering days. She and her husband and others had tamed the wilderness of
this country and had developed a whole mass of unoccupied land. People like
Njoroge now lived contented without a single worry about tribal wars. They had
a lot to thank the Europeans for.
Yes she did not like those politicians who came to corrupt
the otherwise obedient and hard-working men, especially when treated kindly.
She did not like this murder of the Garstones. No! She did not like it. And
when she remembered the fact that she was really alone, she thought it might be
better for her to move down to Nairobi or Kinangop and stay with friends a
while. But what would she do with her boys? Leave them there? She wondered. She
thought of Njoroge. A queer boy. Had he many wives? Had he a large family? It
was surprising even to her to find that she had lived with him so long, yet had
never thought of these things. This reflection shocked her a little. It was the
first time she had ever thought of him as a man with a family. She had always
seen him as a servant. Even now it seemed ridiculous to think of her houseboy
as a father with a family. She sighed. This was an omission, something to be
righted in future.
And then she heard a knock on the front door and a voice
calling out ‘Memsahib! Memsahib!’
It was Njoroge’s voice. Her houseboy. Sweat broke out on her
face. She could not even hear what the boy was saying for the circumstances of
the Garstones’ death came to her. This was her end. The end of the road. So
Njoroge had led them here! She trembled and felt weak.
But suddenly, strength came back to her. She knew she was
alone. She knew they would break in. No! She would die bravely. Holding her
pistol more firmly in her hand, she opened the door and quickly fired. Then a
nausea came over her. She had killed a man for the first time. She felt weak
and fell down crying, ‘Come and kill me!’ She did not know that she had in fact
killed her saviour.
On the following day, it was all in the papers. That a
single woman could fight a gang fifty strong was bravery unknown. And to think
she had killed one too!
Mrs Smiles and Mrs Hardy were especially profuse in their
congratulations.
‘We told you they’re all bad.’
‘They are all bad,’ agreed Mrs Hardy. Mrs Hill kept quiet.
The circumstances of Njoroge’s death worried her. The more she thought about
it, the more of a puzzle it was to her. She gazed still into space. Then she
let out a slow enigmatic sigh.
‘I don’t know,’ she said.
‘Don’t know?’ Mrs Hardy asked.
‘Yes. That’s it. Inscrutable.’ Mrs Smiles was triumphant.
‘All of them should be whipped.’
‘All of them should be whipped,’ agreed Mrs Hardy.
Comments
Post a Comment