फ़‍िलिस्‍तीनी कवि तौफीक ज़ायद की कविता 'असम्भव' Poem “The Impossible” by Palestinian poet Tawfiq Zayyad

 फ़‍िलिस्‍तीनी कवि तौफीक ज़ायद की कविता 'असम्भव'

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समुद्र को जोत दो
तुम्हारे लिए यह काफ़ी आसान होगा
कि एक सुई के छेद से हाथी निकाल लो
या हवा में से भुनी हुई मछली पकड़ लो
समुद्र को जोत दो
या कछुए को आदमी बना लो
पर, हमारे विश्वास की झिलमिलाती चमक को
अत्याचारों से मिटा देना सम्भव नहीं है
या हमारे बढ़ते क़दमों को रोक लेना
एक भी क़दम को
क्योंकि हम हज़ारों विलक्षण लोग हैं
हर जगह फैल रहे हैं
लिडा में, रमल्ला में, गैलिली में

हम लोग यहाँ रहेंगे
तुम्हारे सीने पर पत्थर की तरह
और तुम्हारे गले में हम लोग अटक जायेंगे
शीशे के एक टुकड़े की तरह
कैक्टस के एक काँटे की तरह
और तुम्हारी आँखों में

आग की लपट की तरह
हम लोग यहाँ रहेंगे
हम लोग यहाँ रहेंगे तुम्हारे सीने पर पत्थर की तरह
तुम्हारे शराबखानों में प्लेटें धोते
तुम्हारे मालिकों के प्याले भरते
तुम्हारी गन्दी रसोई साफ़ करते
तुम्हारे नीले दाँतों के बीच से कौर छीनते
अपने भूखे बच्चों के लिए

हम लोग यहाँ रहेंगे तुम्हारे सीने पर पत्थर की तरह
भूख सहते, चीथड़ों में लड़ते
विरोध करते
अपने गीत गाते
सड़कों पर अपने ग़ुस्से का इज़हार करते
गर्व से तुम्हारी जेलों को भरते
नयी पीढ़ी में बदले की आग भरते

हज़ारों विलक्षण लोगों की तरह हम घूमते रहते हैं
लिडा में, रमल्ला में, गैलिली में
हम लोग यहाँ रहेंगे
जाओ और समुद्र को सोख लो
हम लोग यहाँ रहेंगे अपनी धरती और
अपने पेड़ों के सदा जागते प्रहरी

हम लोग यहाँ रहेंगे अपने लक्ष्य को उतारने के लिए
जैसे खमीर फैलता है हम लोग यहीं रहेंगे

बर्फ़ की तरह खून को जमाकर
अपनी शिराओं और दिलों में लाल दोज़ख़ के साथ
अपनी प्यास मिटाने के लिए
हम पत्थरों को निचोड़ देंगे
और धूल फाँककर अपनी भूख मिटा लेंगे
पर हम लोग जायेंगे नहीं
हम यहाँ अपना अनमोल खून बहायेंगे
यही हमारा अतीत है, भविष्य है
यहाँ हम लोग अजेय हैं
इसलिए
खूब गहरे धँस जाओ मेरी जड़ो





Poem “The Impossible” by Palestinian poet Tawfiq Zayyad

 

It would be a thousand times easier for you
to lead an elephant through the eye of a needle
to catch fried fish on scorched earth
to plough the seas
to make crocodiles talk
it would be a thousand times easier
than to extinguish, through persecution
a glimmering thought
of the way we have chosen

As though we were twenty impossibilities
in Al-Lid, Ar-Ramla, and Galilee
we rest on your chest like a wall
we hurt your throat
like splinters of glass, like Indian figs
and we blind your eyes
like an inferno of flames.
Here we rest on your chest like a wall.
We are washing dishes in the restaurants
and fill glasses, for the masters
we clean tiles in black kitchens
and thus we snatch the bread for the little ones
from your blue teeth accustomed to robbery
Here, on your chest we persist,
We'll stay here, a hard wall on your chest
starved, naked
defiant
chanting poems
and filling the angry streets with demonstrations
the prisons with pride
We turn our children into a generation
which carries on our hate, redoubling it
as though we were twenty impossibilities,
in Al-Lid, Ar-Ramla, and Galilee.
Here we shall stay
You may drink the sea
But we'll tend gladly
the olive tree's and fig tree's shade
and plant the thoughts like yeast into the dough

Coldness of ice in our nerves
and glowing fire in our hearts
thus, plagued by thirst
we squeeze the rocks
and our hunger do we still
with earth
We don't give way
We are not miserly with precious blood
Here is our past
here, presence and the future
As though we were twenty impossibilities
in Al-Lid, Ar-Ramla, and Galilee
take hold! you, living roots
and deeply penetrate the ground!
For the pursuer it is worth the trouble
to take a look at the accounts made up
before it is impossible to stop the wheel
For every action, a reaction
read what the Book says
As though we were twenty impossibilities
in Al-Lid, Ar-Ramla, and Galilee

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