‘जय भीम’ फिल्म की समीक्षा Review of Film 'Jai Bheem'
‘जय भीम’: उत्पीड़ितों के ख़ून में डूबी व्यवस्था की न्यायप्रियता स्थापित करने वाली फ़िल्म
आनन्द सिंह
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तमिल फ़िल्म ‘जय भीम’ को देखकर भॉंति-भॉंति के उदारवादी, अस्मितावादी व सामाजिक जनवादी समीक्षक और बुद्धिजीवी लोटपोट हुए जा रहे हैं। आज के फ़ासिस्ट दौर में जब भारत के पूँजीवादी लोकतंत्र में विधायिका और कार्यपालिका ही नहीं बल्कि न्यायपालिका सहित व्यवस्था की सभी संस्थाएँ पूँजी और सत्ता के इशारे पर जनता की छाती पर मौत का ताण्डव कर रही हैं और जब इस व्यवस्था का क्रूर जनविरोधी चेहरा दिन के उजाले के समान सबके सामने आ चुका है, ‘जय भीम’ जैसी फ़िल्में हमारे समीक्षकों और बुद्धिजीवियों को दलितों-आदिवासियों-अल्पसंख् यकों-शोषितों-उत्पीड़ितों के ख़ून से लथपथ व्यवस्था की न्यायप्रियता पर भरोसा बनाये रखने का एक कारण देती हैं। ऐसी फ़िल्में देखकर उनका यह यक़ीन पुख़्ता हो जाता है कि दरअसल दोष इस व्यवस्था का नहीं है बल्कि कुछ लोगों का है जो अपनी ताक़त का दुरुपयोग करके कमज़ोर तबकों पर ज़ुल्म ढाते हैं। इसलिए फ़िल्म देखकर वे आश्वस्त हो जाते हैं कि ज़रूरत इस व्यवस्था को आमूलचूल रूप से बदलने की नहीं है बल्कि चन्द्रू जैसे वकीलों और कुछ समाज सुधारकों की है जो आदिवासियों, दलितों , शोषितों और उत्पीड़ितों के पक्ष में सही दलील दे सकें और कुछ सुधारवादी आन्दोलनों के ज़रिये जनमत तैयार कर सकें। अगर ऐसा हो तो इस व्यवस्था के शीर्ष स्तर पर बैठे गणमान्य न्यायप्रिय न्यायाधीश और पुलिस के आला अधिकारी यह सुनिश्चित करेंगे कि उत्पीड़़ितों के पक्ष में सामाजिक न्याय हो और दोषियों को कड़ी सज़ा मिलेगी।
उत्पीड़ितों पर हो रहे ज़ुल्म में व्यवस्था की भूमिका का प्रश्न उठाने पर इस फ़िल्म के प्रशंसक यह दलील दे रहे हैं कि दरअसल यह फ़िल्म एक सच्ची घटना पर बनी ‘यथार्थवादी’ फ़िल्म है जिसमें निर्देशक ने घटना को बस फ़िल्म के पर्दे पर ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया है। लेकिन ऐसी दलील देने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि कोई भी फ़िल्म सम्पूर्ण सामाजिक यथार्थ का चित्रण नहीं होती है बल्कि यथार्थ के किसी पहलू की कलात्मक पुनर्सृजन होती है। सामाजिक यथार्थ के किस पहलू को उभारना है और उसे किस प्रकार प्रस्तुत करना है, यह हर फ़िल्मकार अपने विश्वदृष्टिकोण के अनुसार तय करता है। मिसाल के लिए आज के सामाजिक यथार्थ का मुख्य पहलू यह है कि मौजूदा व्यवस्था में आदिवासियों, दलितों , शोषितों और उत्पीड़ितों को न्याय मिलने की सम्भावना बेहद कम होती है क्योंकि व्यवस्था की सभी संस्थाओं पर उन्हीं वर्गो को क़ब्ज़ा है जो इन शोषित-उत्पीड़ित तबकों पर होने वालो ज़ुल्म के लिए ज़िम्मेदार हैं। लेकिन इस व्यापक यथार्थ को नज़रअन्दाज़ करके निर्देशक टी. जे. ज्ञानवेल सामाजिक यथार्थ के एक ऐसे पहलू का फ़िल्मांकन करने को चुना जिसमें उत्पीड़ित पक्ष को अन्तत: न्याय मिल जाता है और पीड़ित परिवार का व्यवस्था पर भरोसा क़ायम हो जाता है। यह सभी जानते हैं कि मौजूदा व्यवस्था में अपवादस्वरूप ही ऐसा होता है, लेकिन इस अपवाद को फ़िल्मांकित करके ज्ञानवेल कुछ कहना चाहते हैं। आइए देखते हैं कि निर्देशक महोदय कहना क्या चाहते हैं?
सबसे पहले तो फ़िल्म में तमिलनाडु की इरुला जनजाति, जिसे अंग्रेज़ों ने क्रिमिनल ट्राइब की श्रेणी में रखा था, के जीवन और उनके ऊपर होने वाले ज़ुल्मों को ग्राफ़िक डिटेल में प्रस्तुत करती है। हाल के वर्षों में तमिल सिनेमा में पा रंजीत, मारी सेल्वाराज और वेत्रीमारण जैसे निर्माता-निर्देशकों ने दलित उत्पीड़न पर केन्द्रित कई फ़िल्में बनायी हैं, मिसाल के लिए कर्णन, असुरन, पेरियेरम पेरुमल आदि। इन फ़िल्मों में दलितों के जीवन और उनके उत्पीड़न के कई दृश्यों को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है जिनके ज़रिये ये निर्देशक दलितों और आदिवासियों पर होने वाले ज़ुल्मों के तथ्य को उभारना चाहते हैं। दक्षिण भारत और ख़ास तौर पर तमिलनाडु में ब्राह्मणवाद-विरोधी द्रविड़ आन्दोलन के इतिहास की वजह से इन फ़िल्मों को कमर्शियल सफलता भी मिली है जिसकी वजह से ऐसी फ़िल्मों का एक बाज़ार भी पैदा हुआ है। ज्ञानवेल की फ़िल्म ‘जय भीम’ भी इन फ़िल्मों की ही निरन्तरता में है, हालाँकि इस फ़िल्म में निर्देशक ने पुलिस कस्टडी में आदिवासियों की प्रताड़ना के दृश्यों को और अपनी अस्मितावादी-व्यवहारवादी विचारधारा को अन्य फ़िल्मों के मुक़ाबले ज़्यादा ‘लाउड’ रूप में प्रस्तुत किया है। इन फ़िल्मों में हमें दलित-आदिवासी उत्पीड़न की वीभत्स घटनाओं के कारणों और इनकी ऐतिहासिकता की ओर कोई इशारा तक नहीं मिलता है। मिसाल के लिए ‘जय भीम’ में हमें अन्त तक यह नहीं पता चलता कि आखिर इरुला जनजाति के लोगों के साथ ऐतिहासिक रूप से इतना भेदभाव और ज़ुल्म क्यों होता आया है और आज के पूँजीवादी भारत में भी यह क्यों जारी है। ज़ाहिर है इन निर्देशकों की अस्मितावादी-जीवनदृष्टि ऐसे मूलभूत प्रश्नों के जवाब ढूँढने में बाधा पैदा करती है। चूँकि इन निर्देशकों के पास ऐसी घटनाओं के मूल कारणों और मौजूदा व्यवस्था के साथ उनके रिश्तों की समझ नहीं है इसलिए ऐसी फ़िल्में हमारे सामाजिक यथार्थ के अहम मुद्दे उठाने के बावजूद अन्त में मौजूदा व्यवस्था के दायरे में निहायत ही बचकाना सुधारवादी समाधान प्रस्तुत करती हैं। मिसाल के लिए ‘जय भीम’ में अन्त में इरुला जनजाति की बच्ची को अख़बार पढ़ते हुए दिखाया गया है जिसके ज़रिये निर्देशक महोदय हमें बताना चाह रहे हैं कि दलितों-आदिवासियों की शिक्षा ही समाधान है।
इस फ़िल्म की ग़ैर-क्रान्तिकारी और सुधारवादी अन्तर्वस्तु के बारे में भ्रम की कोई गुंजाइश न छूट जाये इसके लिए निर्देशक महोदय ने बौद्धिक ईमानदारी का परिचय देते हुए फ़िल्म का नाम ‘जय भीम’ रखा है। यह बात दीगर है फ़िल्म के कई दृश्यों में अम्बेडकर के साथ पेरियार और मार्क्स-लेनिन की तस्वीरों-बुतों का इस्तेमाल करके और कम्युनिस्टों के कुछ आन्दोलनों के दृश्य दिखाकर अम्बेडकर, पेरियार और मार्क्स के विचारों का स्पष्ट रूप से घालमेल करके एक-दूसरे से बिल्कुल अलग विचार-सरणियों के बीच के अन्तर को मिटाकर इन सभी को एक ही प्रकार के समाज सुधारक के रूप में पेश करने की कोशिश भी की है जिसकी वजह से भी अस्मितावादी और सामाजिक जनवादी इस फ़िल्म पर लहालोट हो रहे हैं। फ़िल्म में वकील चन्द्रू को मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद से प्रभावित दिखाया गया है। पूर्व जस्टिस चन्द्रू ने मीडिया में जो इन्टरव्यू दिये हैं उनसे भी यह स्पष्ट होता है कि वे मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद दोनों से प्रभावित हैं। अपनी युवावस्था में वे सीपीएम से जुड़े भी थे। उनकी इस पृष्ठभूमि को जानने के बाद इसमें ताज्जुब नहीं रह जाता है कि उनका मार्क्सवाद महज़ उत्पीड़ितों के पक्ष में दलील देने और उनके हित में सुधारवादी आन्दोलन करने तक सीमित है। मार्क्स और लेनिन से उन्हें इस व्यवस्था की मूलत: जनविरोधी अन्तर्वस्तु की शिनाख़्त करने और उसके आमूलचूल बदलाव की प्रेरणा नहीं मिलती बल्कि इसी व्यवस्था के भीतर ही लोगों को न्याय दिलाने की प्रेरणा ही मिलती है।
फ़िल्म में निचले स्तर के पुलिसवालों को बेहद क्रूर और बर्बर दिखाया गया है लेकिन आला अधिकारियों और न्यायाधीशों को निहायत ही संवेदनशील और न्यायप्रिय दिखाया गया है। इसमें न्यायालय को निष्पक्ष दिखाते हुए बन्दी प्रत्यक्षीकरण (habeas corpus) के संवैधानिक उपचार का महिमा मण्डन किया गया है। सच तो यह है कि अव्वलन तो ऐसे संवैधानिक उपचार इस देश की अधिकांश आबादी की पहुँच से बाहर है, और अगर किसी तरह इसकी पहुँच होती भी है तो यह अपने आप में न्याय की कोई गारण्टी नहीं है, जैसाकि जेएनयू के छात्र नजीब के मामले में साबित हुआ।
फ़िल्म में वकील चन्द्रू पीड़िता सेंगेनी से ज़ोर देकर कहता है कि केवल सच बोलो क्योंकि सच ही हमें बचाएगा, मानो भारतीय न्यायालयों में सच का ही बोलबाला है! अगर किसी नागरिक को बदनसीबी से भारत के न्यायालय में एक दिन भी बिताने का भी मौक़ा मिला है तो वह जानता है कि अगर वहाँ किसी चीज़ का बोलबाला है तो वह है मुद्रा!
फ़िल्म के अन्त में जब न्यायाधीश फ़ैसला सुनाते हैं तो उस समय न्यायालय के दृश्य को टॉप एंगल से प्रस्तुत किया गया है जिससे दर्शकों के ऊपर व्यवस्था की भव्य और अजेय छवि क़ायम होती है। न्यायाधीश महोदय ख़ून से लथपथ पुलिस के दामन को धोते हुए और व्यवस्था को बरी करते हुए गर्व से कहते हैं, ‘‘कुछ ऑफ़िसर्स की वजह से पुलिस डिपार्टमेण्ट के माथे पर जो कलंक लगा था उसे मिटाकर लोगों का भरोसा फिर से जीतने के लिए आईजी पेरुमल स्वामी ने जो इन्वेस्टिगेशन किया वो क़ाबिले तारीफ़ है।’’ ऐसे दृश्यों और डॉयलॉग के ज़रिये निर्देशक महोदय साफ़ तौर पर यह कहना चाह रहे हैं कि दरअसल व्यवस्था सत्यनिष्ठ और न्यायप्रिय है, बस कुछ बुरे लोग, जो ख़ास तौर पर निचले पदों पर आसीन होते हैं, क़ानून को अपने हाथों में ले लेते हैं जिसकी वजह से दलितों और आदिवासियों के ऊपर ज़्यादती हो जाती है। फ़ैसले के बाद सभी आदिवासी दीन-हीन मुद्रा में हाथ जोड़कर खड़े हुए दिखायी देते हैं जो समूची व्यवस्था के प्रति उनके कृतज्ञता के भाव को दिखाता है।
कोई भी शोषणकारी और उत्पीड़नकारी व्यवस्था केवल ज़ोर-ज़बर्दस्ती के सहारे समाज में नहीं टिकी रहती, आम लोगों के बीच व्यवस्था के प्रति भ्रम भी उसकी उत्तरजीविता के लिए बहुत ज़रूरी होती है। निर्देशक टी.जे. ज्ञानवेल और उनकी टीम ने ‘जय भीम’ के रूप में महज़ एक फ़िल्म का निर्माण नहीं किया है, उन्होंने व्यवस्था के प्रति भ्रम का भी थोक भाव से उत्पादन किया है। कुछ लोगों ने इस फ़िल्म की सीमाओं को स्वीकार करते हुए भी इसे बालीवुड या टॉलीवुड में इस विषय पर बनने वाली अन्य फ़िल्मों की तुलना में बेहतर बताया है। लेकिन ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि आभासी तौर पर रैडिकल दिखने वाली जो फ़िल्में समाज के सापेक्षत: उन्नत तत्वों के बीच व्यवस्था के प्रति भ्रम पैदा करती हैं वो व्यवस्था के वर्चस्व को समाज में ज़्यादा प्रभावी ढंग से स्थापित करती हैं। ‘जय भीम’ ऐसी ही एक फ़िल्म है।
‘𝐉𝐚𝐢𝐁𝐡𝐢𝐦’: 𝐀 𝐟𝐢𝐥𝐦 𝐮𝐩𝐡𝐨𝐥𝐝𝐢𝐧𝐠 𝐭𝐡𝐞 𝐩𝐫𝐮𝐝𝐞𝐧𝐜𝐞 𝐨𝐟 𝐚 𝐬𝐲𝐬𝐭𝐞𝐦 𝐭𝐡𝐚𝐭 𝐢𝐬 𝐬𝐨𝐚𝐤𝐞𝐝 𝐢𝐧 𝐭𝐡𝐞 𝐛𝐥𝐨𝐨𝐝 𝐨𝐟 𝐭𝐡𝐞 𝐨𝐩𝐩𝐫𝐞𝐬𝐬𝐞𝐝
Anand Singh
When questions are raised on the role of the system in the atrocities against the oppressed, the admirers of this movie are arguing that actually it is a ‘realistic’ movie based on a real-life incident which has been portrayed as it is. But they forget the fact that 𝐚 𝐟𝐢𝐥𝐦 𝐢𝐬 𝐧𝐨𝐭 𝐣𝐮𝐬𝐭 𝐚 𝐩𝐨𝐫𝐭𝐫𝐚𝐲𝐚𝐥 𝐨𝐟 𝐭𝐡𝐞 𝐜𝐨𝐦𝐩𝐥𝐞𝐭𝐞 𝐬𝐨𝐜𝐢𝐚𝐥 𝐫𝐞𝐚𝐥𝐢𝐭𝐲, 𝐫𝐚𝐭𝐡𝐞𝐫 𝐢𝐭 𝐢𝐬 𝐚𝐧 𝐚𝐫𝐭𝐢𝐬𝐭𝐢𝐜 𝐫𝐞-𝐜𝐫𝐞𝐚𝐭𝐢𝐨𝐧 𝐨𝐟 𝐚𝐧 𝐚𝐬𝐩𝐞𝐜𝐭 𝐨𝐟 𝐫𝐞𝐚𝐥𝐢𝐭𝐲. 𝐈𝐭 𝐢𝐬 𝐭𝐡𝐞 𝐰𝐨𝐫𝐥𝐝-𝐨𝐮𝐭𝐥𝐨𝐨𝐤 𝐨𝐟 𝐭𝐡𝐞 𝐟𝐢𝐥𝐦-𝐦𝐚𝐤𝐞𝐫 𝐰𝐡𝐢𝐜𝐡 𝐝𝐞𝐭𝐞𝐫𝐦𝐢𝐧𝐞𝐬 𝐰𝐡𝐢𝐜𝐡 𝐚𝐬𝐩𝐞𝐜𝐭 𝐨𝐟 𝐭𝐡𝐞 𝐬𝐨𝐜𝐢𝐚𝐥 𝐫𝐞𝐚𝐥𝐢𝐭𝐲 𝐢𝐬 𝐭𝐨 𝐛𝐞 𝐡𝐢𝐠𝐡𝐥𝐢𝐠𝐡𝐭𝐞𝐝 𝐚𝐧𝐝 𝐡𝐨𝐰 𝐢𝐭 𝐢𝐬 𝐭𝐨 𝐛𝐞 𝐩𝐨𝐫𝐭𝐫𝐚𝐲𝐞𝐝. For instance, we all know that the tribals, Dalits and all exploited and oppressed section of the people rarely get justice in the current system as the institutions of the system are in control of the same classes who are responsible for the atrocities in the first place. But the film director T.J. Gnanavel chose to disregard this wider reality and instead chose to portray an aspect of reality that is an exception. We now turn to Gnanavel’s portrayal of this rare aspect of the reality to know what he wants to convey:
Firstly the films portrays the life and struggle of the people belonging to the Irula tribe of Tamil Nadu and the atrocities committed against them. In recent years, the Tamil film-makers like Pa Ranjith, Mari Selvaraj and Vetrimaran have made several movies based on the Dalit oppression, e.g. Karnan, Asuran and Periyerum Perumal to name a few. These films portray various aspects of the life and struggles of the Dalits and Tribals in creative manner through which these film-makers seek to highlight the fact of the atrocities against the oppressed communities. In south India in general and in Tamil Nadu in particular such movies have achieved commercial success as well because of the history of anti-Brahmanical Dravidian movement in the region and a market has also been created for such movies. ‘Jai Bhim’ needs to be seen in the continuity of such movie, even though director of the movie has portrayed the scenes of custodial torture and his identitarian-pragmatic world-view in a louder manner as compared to the other movies. A common element in these movies is that they they don’t even allude to the root causes and historicity of the horrific incidents of Dalit-tribal atrocities. For instance, in ‘Jai Bhim’ we never get to know as to why the people belonging to Irula tribe are historically discriminated against and why they continue to be oppressed in the capitalist India of today. Evidently the identitarian-pragmatic world-view of these film-makers prevent then to seek the answer of these questions of fundamental importance. Since they don’t have an understanding of the root causes and their connection with the current socio-economic structure of the society, after raising a crucial issue of the social reality, they end up presenting a childish and reformist solution within the confines of the existing system. For instance, ‘Jai Bhim’ ends with a scene wherein a girl child of Irula tribe silling alongside the lawyer Chandru has been shown reading the newspaper. 𝐓𝐡𝐫𝐨𝐮𝐠𝐡 𝐭𝐡𝐢𝐬 𝐬𝐜𝐞𝐧𝐞, 𝐭𝐡𝐞 𝐟𝐢𝐥𝐦-𝐦𝐚𝐤𝐞𝐫 𝐰𝐢𝐬𝐡𝐞𝐬 𝐭𝐨 𝐜𝐨𝐧𝐯𝐞𝐲 𝐭𝐡𝐚𝐭 𝐭𝐡𝐞 𝐬𝐨𝐥𝐮𝐭𝐢𝐨𝐧 𝐭𝐨 𝐭𝐡𝐞 𝐩𝐫𝐨𝐛𝐥𝐞𝐦 𝐨𝐟 𝐭𝐡𝐞 𝐩𝐫𝐨𝐛𝐥𝐞𝐦𝐬 𝐨𝐟 𝐨𝐩𝐩𝐫𝐞𝐬𝐬𝐞𝐝 𝐩𝐞𝐨𝐩𝐥𝐞 𝐥𝐢𝐞𝐬 𝐢𝐧 𝐞𝐝𝐮𝐜𝐚𝐭𝐢𝐧𝐠 𝐭𝐡𝐞𝐦.
The film-maker has shown intellectual honesty by naming the movie as ‘Jai-Bhim’ as it leaves no scope for any illusion about the non-revolutionary and reformist content of the movie. However, the differences between completely different schools of thoughts of Ambedkar, Periyar and Marx-Lenin are sought to be erased by showing their images and busts in many scenes and presenting all of them as similar kinds of social reformers. This ideological muddle-headedness is also one of the reasons why the post-modernists and social-democrats of various hues are cheerleading this movie. The film shows the lawyer Chandru as being influenced by Marxism and Abedkarism. In real life also the ex-justice Chandru is influenced by both Marxism and Abedkarism as is evident from the interviews he has given in the media. He was also associated with CPM in his youth. After knowing his past one does not get surprised that he is inspired by Marxism only to the extent of providing argument in the defence of the oppressed and waging some reformist movement! It can be understood why he does not take inspiration from Marx and Lenin to identify the anti-people kernel of the existing system and strive for its revolutionary transformation and rather confining himself to provide justice to the people within its confines.
The film shows the police officers at the lower rung as extremely brutal, but higher level officials and judges are shown as very sensitive and pro-people. The judiciary is shown as impartial and the judicial instrument of habeas corpus has been glorified. We all know that in reality the the constitutional remedies like habeas corpus is beyond the reach of most of the people and even when people get access to it in rare cases, there is no guarantee of getting justice as was seen in the case of the missing JNU student Najeeb.
There is a scene in the movie in which the lawyer Chandru repeatedly insists the victim Sengeni that she must speak the truth and only truth would save her. The scene is shown as if it is only truth that reigns in the Indian judiciary. Anyone having the misfortune of visiting even once in the courts in India knows well that if there is anything that reigns there, it is money!
Towards the end of the movie when the judge delivers the verdict, the top view of the courtroom is shown which leaves an imposing picture of an infallible system in the minds of viewers. The honourable judge while white washing the blood-soaked system pronounces: “𝑾𝒆 𝒓𝒆𝒄𝒐𝒓𝒅 𝒐𝒖𝒓 𝒂𝒑𝒑𝒓𝒆𝒄𝒊𝒂𝒕𝒊𝒐𝒏 𝒇𝒐𝒓 𝒕𝒉𝒆 𝒕𝒆𝒂𝒎 𝒉𝒆𝒂𝒅𝒆𝒅 𝒃𝒚 𝒕𝒉𝒆 𝑰𝑮 𝒊𝒏 𝒓𝒆𝒅𝒆𝒆𝒎𝒊𝒏𝒈 𝒕𝒉𝒆 𝒊𝒎𝒂𝒈𝒆 𝒍𝒐𝒔𝒕 𝒃𝒚 𝒕𝒉𝒆 𝒑𝒐𝒍𝒊𝒄𝒆 𝒃𝒆𝒇𝒐𝒓𝒆 𝒕𝒉𝒊𝒔 𝒄𝒐𝒖𝒓𝒕.” Through such scenes and dialogues, the film-maker wants to convey that the system is judicious, it is only a few bad people, particularly at lower rungs, who take law in their own hands and hence some excesses are committed against the Dalits and tribals. After the verdict the tribals are shown with folded hands to indicate that they are grateful that this system has delivered justice to them.
𝐀𝐧𝐲 𝐨𝐩𝐩𝐫𝐞𝐬𝐬𝐢𝐯𝐞 𝐚𝐧𝐝 𝐞𝐱𝐩𝐥𝐨𝐢𝐭𝐚𝐭𝐢𝐯𝐞 𝐬𝐲𝐬𝐭𝐞𝐦 𝐝𝐨𝐞𝐬 𝐧𝐨𝐭 𝐞𝐱𝐢𝐬𝐭 𝐦𝐞𝐫𝐞𝐥𝐲 𝐨𝐧 𝐭𝐡𝐞 𝐛𝐚𝐬𝐢𝐬 𝐨𝐟 𝐟𝐨𝐫𝐜𝐞; 𝐭𝐡𝐞 𝐢𝐥𝐥𝐮𝐬𝐢𝐨𝐧 𝐚𝐦𝐨𝐧𝐠 𝐭𝐡𝐞 𝐩𝐞𝐨𝐩𝐥𝐞 𝐚𝐛𝐨𝐮𝐭 𝐭𝐡𝐞 𝐩𝐫𝐮𝐝𝐞𝐧𝐜𝐞 𝐨𝐟 𝐭𝐡𝐞 𝐬𝐲𝐬𝐭𝐞𝐦 𝐢𝐬 𝐞𝐬𝐬𝐞𝐧𝐭𝐢𝐚𝐥 𝐟𝐨𝐫 𝐭𝐡𝐞 𝐬𝐮𝐫𝐯𝐢𝐯𝐚𝐥 𝐨𝐟 𝐬𝐮𝐜𝐡 𝐚 𝐬𝐲𝐬𝐭𝐞𝐦. The film-maker T. J. Gnanavel has not just made a film but he has also produced illusions about the system in bountiful. Some have accepted the limitations of the movie but have termed it as better than the movies based on the subject that are made in Bollywood and Tollywood. However, such people miss the fact that the apparently ‘radical’ movies which affect the consciousness of the relatively advance section of people end up establishing the hegemony of the system much more effectively. ‘Jai Bhim’ is one such movie.
The best
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