कृषि क़ानून विवाद के पहले दौर में खेतिहर पूँजीपति वर्ग की औद्योगिक-वित्‍तीय बड़े पूँजीपति वर्ग पर जीत: मज़दूर वर्ग के लिए इसके निहितार्थ

कृषि क़ानून विवाद के पहले दौर में खेतिहर पूँजीपति वर्ग की औद्योगिक-वित्‍तीय बड़े पूँजीपति वर्ग पर जीत: मज़दूर वर्ग के लिए इसके निहितार्थ

अभिनव सिन्‍हा 

For English, Marathi and Punjabi version, please scroll down 

धनी कुलक और किसान, यानी पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के खेतिहर पूँजीपति वर्ग ने पहले दौर में भारत के औद्योगिक-वित्‍तीय बड़े पूँजीपति वर्ग पर तात्‍कालिक जीत हासिल की है। मोदी सरकार के इस क़दम के कारण क्‍या हैं? आइए देखते हैं:

कल मेघालय के राज्‍यपाल सत्‍यपाल मलिक ने मीडिया के ज़रिये मोदी सरकार को यह सन्‍देश दिया था कि उत्‍तर प्रदेश के आगामी विधान सभा चुनावों में भाजपा की पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में करारी हार होने वाली है। आरएसएस का ज़मीनी तंत्र भी भाजपा के नेतृत्‍व को ऐसी ही रिपोर्टें दे रहा था। सामान्‍य तौर पर उत्‍तर प्रदेश और ख़ासकर पूर्वी उत्‍तर प्रदेश में रोज़गार, खाद्य सुरक्षा और ग़रीबी के मोर्चे पर भाजपा सरकार की ख़राब हालत देखते हुए भाजपा को उत्‍तर प्रदेश की गद्दी छिनने का भय सता रहा है। अगर ऐसा होता है तो 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के जीतने की सम्‍भावना भी कम हो जाएगी। इसलिए मोदी सरकार ने तात्‍कालिक राजनीतिक ज़रूरतों की वजह से कृषि क़ानूनों को रद्द करने का फ़ैसला किया है। इसका बस इतना मतलब है कि कम से कम तात्‍कालिक रूप से खेतिहर बुर्जुआ वर्ग मोदी सरकार को कृषि क़ानूनों के मोर्चे पर झुकाने में सफल रहा।     


ग़ौरतलब है कि भाजपा के एक नेता श्रीमान जाटव जी ने अभी-अभी एनडीटीवी पर कहा है कि कुछ समय बाद कृषि क़ानूनों का कोई और संस्‍करण पेश किया जाएगा और तब तक ‘’सभी किसानों’’ को राजी कर लिया जाएगा! मोदी ने भी कहा कि चूँकि उनकी सरकार ‘’किसानों के एक छोटे हिस्‍से’’ को राजी नहीं कर पायी, इसलिए वह कृषि क़ानूनों को वापस ले रही है! यह मोदी सरकार की मंशा की ओर साफ़ इशारा करता है। बड़ी औद्योगिक-वित्‍तीय पूँजी देर-सबेर न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य (एमएसपी) के तंत्र को ध्‍वस्‍त करना चाहती है और मोदी सरकार किसी न किसी तरीक़े से फिर से ऐसा करने का प्रयास करेगी। 

जैसाकि स्‍पष्‍ट है, तात्‍कालिक राजनीतिक ज़रूरतों (2022 में उत्‍तर प्रदेश विधान सभा चुनाव और 2024 में लोक सभा चुनाव) की वजह से मोदी सरकार ने कृषि क़ानूनों पर क़दम पीछे खींचा है। ग़ौरतलब है कि इस बार पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश और ब्रज क्षेत्र बूथ मैनेजमेण्‍ट की दृष्टि से सीधे अमित शाह की निगरानी में है। इस वजह से भाजपा नेतृत्‍व पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में कोई दाँव नहीं लगाना चाह रहा है। हरियाणा की तरह पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में ग़ैर-जाट वोटों की लामबन्‍दी करने की सम्‍भावना नहीं है। इसकी वजह है पर्याप्‍त रूप से बड़ी मुस्लिम आबादी जिसे शायद ही भाजपा अपनी ओर कर पाये और अगर जाट वोट बैंक भी उसके हाथ से खिसक जाता है तो वह जाट-मुस्लिम अन्‍तरविरोध का फ़ायदा नहीं उठा सकेगी। इसलिए उनके लिए हरियाणा की तरह पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में जाट वोट बैंक को नज़रअन्‍दाज़ करना भारी पड़ सकता है। पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में जाटों की आबादी 17 प्रतिशत है और इस क्षेत्र में मुस्लिम आबादी 25  प्रतिशत है। हाल ही में भाजपा ने जाट और गुर्जर समुदाय के नेताओं को सम्‍मानित करके उनका तुष्टिकरण किया था। अलीगढ़ में एक विश्‍वविद्यालय का नाम बदलकर एक जाट राजा के नाम पर रखा गया है! भाजपा ने कृषि क़ानूनों को रद्द करने के साथ ही इन क़दमों को इसीलिए उठाया है ताकि जाटों के बीच उसके हाल के वर्षों में बने आधार में पड़ी दरारों को पाटा जा सके। और यही ताज़ा घटनाक्रम के पीछे का प्रमुख अन्‍तरविरोध है। दूसरे शब्‍दों में, उत्‍तर प्रदेश में भाजपा की जीत का रास्‍ता पश्चिमी उत्‍तर से होकर जाता है और लोक सभा में भाजपा की जीत का रास्‍ता उत्‍तर प्रदेश में जीत से होकर जाता है।अब टिकैत बन्‍धुओं को भी भाजपा का चुनावों में समर्थन करने या यहां तक कि इसके लिए प्रचार करने के लिए तैयार किया जा सकता है। इसके लिए भाजपा उत्‍तर प्रदेश विधान सभा चुनाव से पहले एक बार फिर से पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में जाटों और मुस्लिमों के बीच साम्‍प्रदायिक तनाव भड़का सकती है, या फिर टिकैट बन्‍धुओं को कुछ अन्‍य लुभावने विकल्‍प दे सकती है।  

इसलिए भाजपा के लिए पहला विचारणीय पहलू स्‍पष्‍ट रूप से पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश और 2022 के उत्‍तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में जीत पर ख़तरा रहा है जिसकी वजह से 2024 के लोकसभा चुनावों में भी भाजपा की चुनावी मशीनरी पटरी से उतर सकती है। लेकिन केवल यही पहलू नहीं जिसपर भाजपा ने विचार किया। 

दूसरा पहलू है पंजाब। वहाँ कृषि क़ानून लाने और फार्मर आन्‍दोलन के बाद भाजपा की स्थिति राजनीतिक रूप से अछूत जैसी हो गयी है। यह अपने आप में भाजपा के लिए बड़ी चिन्‍ता का विषय नहीं होता, लेकिन उत्‍तर प्रदेश चुनावों में सम्‍भावित हार के साथ मिलकर यह भाजपा के लिए और ज्‍़यादा नुक़सान की बात बन जाएगी। तीन कृषि क़ानूनों को रद्द करने के बाद पंजाब में राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं। पंजाब में भाजपा के लिए कैप्‍टन अमरिन्‍दर सिंह तुरुप का पत्‍ता साबित हो सकते हैं जिन्‍होंने तुरन्‍त मोदी सरकार को ट्वीट करते हुए लख-लख बधाइयाँ भेजीं! अमरिन्‍दर सिंह यह बयान देते आये हैं कि वह भाजपा सरकार को कृषि क़ानून रद्द करने के लिए राजी करने के प्रयास कर रहे हैं। अब अमरिन्‍दर सिंह खुले रूप में या पर्दे के पीछे भाजपा के सहयोगी बन सकते हैं क्‍योंकि अब भाजपा की स्थिति पंजाब में राजनीतिक अछूत वाली नहीं रह जाएगी (यह टिप्‍पणी लिखे जाने के कुछ समय बाद ही अमरिन्‍दर सिंह ने भाजपा के साथ काम करने का एलान कर दिया है - लेखक)। अमरिन्‍दर सिंह जैसे मित्रों की सहायता से पंजाब में भाजपा के लिए बन्‍द हो चुका दरवाज़ा खुलेगा। यह इस बात से भी साबित होता है कि आज के भाषण में मोदी ने गुरुपरब के मौक़े पर सिख धर्मग्रन्‍थ से उद्धृत करके सिखों की धार्मिक भावनाओं का तुष्टिकरण करने की कोशिश की जिसकी निश्चित रूप से किसान आन्‍दोलन में एक भूमिका थी। इसी मकसद से परसों करतारपुर गलियारे को भी खोल दिया गया था।

संक्षेप में, शासक वर्गों के दो हिस्‍सों, यानी बड़े औद्योगिक-वित्‍तीय बुर्जुआ वर्ग और मुख्‍य कृषि क्षेत्रों में खेतिहर बुर्जुआ वर्ग, के बीच जारी आन्तरिक वर्गीय अन्‍तरविरोध में खेतिहर बुर्जुआ वर्ग पहले दौर में कम से कम तात्‍कालिक रूप से विजयी हुआ है। सत्‍तासीन पार्टी की तात्‍कालिक राजनीतिक ज़रूरतें इस निर्णय का कारण रही हैं। इसकी वजह से फ़‍िलहाल कृषि क्षेत्र में विनियोजित अधिशेष की हिस्‍सेदारी फिलहाल खेतिहर बुर्जुआ के के पक्ष में ही बनी रहेगी और इससे निश्‍चित ही उसे फ़ायदा होगा; जबकि औद्योगिक-वित्‍तीय बुर्जुआ वर्ग को धनी पूँजीवादी किसानों और कुलकों को इजारेदार लगान देने वाले एमएसपी के तंत्र, जिसकी वजह से मज़दूरी पर बढ़ने का दबाव पैदा होता है जिससे उनकी पहले से ही गिर रही मुनाफ़े की दर और नीचे जाती है, को ध्‍वस्‍त करने के लिए किसी अन्‍य उपयुक्‍त अवसर की तलाश करनी होगी। कृषि क़ानूनों के रद्द होने से एक बार फिर लेनिन की यह बात साबित होती है राजनीति ही निर्णायक होती है!

कृषि क़ानूनों के रद्द होने के बाद क़रीब 10 करोड़ छोटे और सीमान्‍त किसानों तथा 15 करोड़ खेतिहर मज़दूरों के जीवन में कोई बदलाव नहीं आने वाला है। कृषि क़ानूनों के लागू होने के बाद भी उसमें कोई बदलाव नहीं आता, होता बस यह कि उनके श्रम की लूट का बड़ा हिस्‍सा औद्योगिक-वित्‍तीय बुर्जुआ के पास जाता और धनी किसानों और कुलकों को लूट के छोटे हिस्‍से से ही संतोष करना पड़ता और एमएसपी के तंत्र का ख़ात्‍मा हो जाता। 

मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसानों का कार्यभार बड़ी वित्‍तीय-औद्योगिक बुर्जुआजी और धनी कुलकों व पूँजीवादी किसानों दोनों का विरोध करने का है क्‍योंकि दोनों ही कृषि क्षेत्र में विनियोजित होने वाले बेशी मूल्‍य में बड़ा हिस्‍सा हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जो मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी की लूट से ही पैदा होता है। निश्‍चय ही एमएसपी का तंत्र जन-विरोधी है क्‍योंकि इसकी वजह से समूची कामगार आबादी की मज़दूरी में कटौती होती है क्‍योंकि एमएसपी की वजह से मज़दूरी पर बढ़ने का दबाव पैदा होने की परिणति हमेशा बढ़ी हुई मज़दूरी के रूप में नहीं हासिल होती है। मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसानों को एमएसपी, जो भारत के मज़दूर वर्ग की कीमत पर और साथ ही साथ औद्योगिक पूँजीपति वर्ग के उद्यमशील मुनाफ़े की कीमत पर खेतिहर पूँजीपति वर्ग का बेशी मुनाफ़ा सुनिश्चित करने वाला इज़ारेदार लगान है, का समर्थन महज़ इसलिए नहीं करना चाहिए क्‍योंकि औद्योगिक-वित्‍तीय बड़ा बुर्जुआ वर्ग अपने कारणों से एमएसपी का विरोध कर रहा है। मज़दूर वर्ग की अपनी राजनीतिक रूप से स्‍वतंत्र अवस्थिति होगी, यानी सापेक्षत: छोटे खेतिहर पूँजीपति वर्ग का पिछलग्‍गू बने बिना औद्योगिक-वित्‍तीय बड़े पूँजीपति वर्ग का वि‍रोध करना और मज़दूर वर्ग के शोषण से पैदा होने वाले विनियोजित बेशी मूल्‍य में बन्‍दरबाँट के लिए झगड़ रहे पूँजीपति वर्ग के दोनों ही धड़ों का विरोध करना और अपनी विचारधारा व स्‍वतंत्र राजनीति के साथ अपना स्‍वतंत्र माँगपत्रक प्रस्‍तुत करना होगा। यही वह कार्यभार है जो आज भारत के मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनसमुदायों के समक्ष है।

(अंग्रेज़ी से अनुवाद: आनन्‍द सिंह)


AGRARIAN BOURGEOISIE WINS THE FIRST ROUND AGAINST THE INDUSTRIAL-FINANCIAL BIG BOURGEOISIE IN THE FARM LAWS DISPUTE: THE IMPLICATIONS FOR THE WORKING CLASS

Abhinav Sinha
The rich kulaks and farmers, that is, the agricultural bourgeoisie of Punjab, Haryana and Western UP have won the first round of battle from the big indusrial-financial bourgeoisie of India, at least for now. What are the reasons behind this step of Modi government? Let us see.
Yesterday, Satyapal Malik, governor of Meghalaya, had conveyed through media to the Modi government that the BJP is going to lose big time in Western UP in the coming legislative assembly elections in UP. Similar reports have been received by the BJP leadership from the grass-root machinery of RSS. Given the not-so-good situation of the BJP government on the front of employment, food security and poverty in Eastern UP and in UP in general as well, the throne of UP could slip out of the hands of BJP. This would jeopardize BJP's chances in the Lok Sabha elections of 2024 as well. The consideration of reconsolidation of Jat vote bank was necessary for the BJP to ensure its winning chances in UP. Therefore, the Modi government decided to repeal the three farm laws due to the immediate political exigencies. This only means that at least immediately the agricultural bourgeoisie has succeeded in forcing the Modi government to make a retreat on the farm laws.
It is noteworthy that a BJP leader Mr. Jatav just now told the NDTV that after some time, some other version of the laws will be brought back and till then "all the farmers" will be convinced! Modi too said that since his government could not convince "a minor section of farmers", it is repealing the farm laws! These are clear indications of the intent of the Modi government. The big industrial-financial capital wants the MSP system dismantled and sooner or later, the Modi government will try again to do the same in this or that way.
As is clear, the immediate political needs (UP legislative assembly elections in 2022 and the Lok Sabha elections in 2024) have obliged the Modi government to backtrack on the farm laws. It is noteworthy that this time the area of Braj and Western UP are under the direct supervision of Amit Shah for booth-management. The BJP leadership does not want to gamble in Western UP precisely for this reason. The possibility of mobilizing non-Jat votes is not possible in Western UP, as it was in Haryana. The reason is a sizeable Muslim population, which the BJP cannot win over possibly and the Jat-Muslim contradiction cannot be made good of by the BJP if it loses ground in the Jat vote bank. Thus, ignoring the Jat vote bank is not an option for them in Western UP, unlike Haryana. Jats constitute almost 17 percent of votes in Western UP. Muslim population is more than 25 percent in this area. Recently, Jat and Gurjar community were appeased by the BJP by honoring their leaders. A university in Aligarh was named after a Jat king! These steps have been taken by the BJP along with the repeal of the farm laws precisely to cement the cracks in its recently-formed base among Jats. And it is this task that was the principal contradiction behind this latest development. In other words, the Western UP holds the key to ensure BJP's victory in UP elections and the victory in the UP elections holds the key for BJP's victory in the Lok Sabha elections. Now Tikait brothers too might be induced to support the BJP and even campaign for the BJP. For this, the BJP might try to fan the communal tensions between the Jats and Muslims once again in the Western UP before the UP assembly elections, or offer some other lucrative option to the Tikait brothers.
Therefore, the first consideration evidently has been the Western UP for the BJP and risking the chances of winning the UP elections in 2022, which might derail the electoral machinery of the BJP in the Lok Sabha elections of 2024 as well. However, this is not the only consideration.
The other consideration is Punjab. Here the BJP had become an outcaste after introducing the farm laws and farmers' protest, which in itself, was not a big concern for the BJP. However, along with the possible debacle in the UP elections, this could mean more damage for the BJP. Due to the repeal of the three farm laws, the equations might change in Punjab. The key link for the BJP in Punjab is Capt. Amrinder Singh, who has congratulated the Modi government in an immediate tweet, profusely! Amrinder Singh has been making statements that he is the one who has been persuading the BJP government to repeal the laws. Now, Amrinder Singh can become an ally of the BJP, openly or behind the doors, as BJP will no more be an outcaste. The closed doors for the BJP will open a bit in Punjab with the help of friends like Amrinder Singh. Modi using the rhetoric from Sikh scriptures on his address today on the occasion of Gurpurab to appease the Sikh sentiments, which have doubtlessly played a role in the farmers' protests, only confirm this dynamic.
In short, in the internal class contradictions of the two factions of the ruling bloc, namely, the big industrial-financial bourgeoisie and the agrarian bourgeoisie of the main agricultural producer regions, the latter has emerged victorious, at least for now, in the first round. The immediate political needs of the ruling party have been the cause of this decision. This will leave the sharing of appropriated surplus value in the agricultural sector in the favour of the agricultural bourgeoisie for now and therefore certainly benefit them; whereas, the industrial-financial bourgeoisie will have to content itself with waiting for another opportune moment to begin the dismantling of the system of MSP, that is, a monopoly price ensuring a monopoly rent to the rich capitalist farmers and kulaks, which leads to upward pressure on wages and therefore threatens the already dismal profitability. The repeal of the farm laws is a reminder of the Leninist dictum that politics determines!
The fate of almost 10 crore of the small and marginal peasantry and the 15 crore of agricultural proletariat are not going to be any different with the repeal of the farm laws. It was not going to be any different with the implementation of the farm laws as well, except the change that the loot and plunder of their labour will then would have been shared between the industrial-financial big bourgeoisie, in principal, and, secondarily, the rich kulaks and farmers and the regime of MSP would have come to an end.
The task of the working class and the poor peasantry is to oppose the big financial-industrial bourgeoisie as well as the rich kulaks and capitalist farmers, both of whom are striving to win a greater share in the appropriated surplus value in the agricultural sector. The system of MSP is indeed an anti-people system as it is also a deductions from the wages of entire working population, because the upward pressure caused by the MSP on the wages are not always translated into higher wages. The fact that industrial-financial big bourgeoisie is opposed to the MSP for its own reasons, is no reason for the working class and poor peasants to support the system of MSP, which is monopoly rent ensuring surplus profit to the agricultural bourgeoisie at the cost of the working population of India as well as at the cost of entrepreneurial profit of the industrial bourgeoisie. The working class must maintain its politically-independent position of opposing the industrial-financial big bourgeoisie without siding with the comparatively smaller agrarian bourgeoisie, but by opposing both these factions involved in a tussle for greater share in the appropriated surplus value, generated by the exploitation of the working class, with its own charter of demands, with its own independent politics and with its own ideology. That is the task that faces the working class and working masses of India.

कृषी कायद्यातील वादात औद्योगिक-आर्थिक मोठ्या भांडवलदारांविरुद्ध पहिल्या फेरीत कृषी भांडवलदारांनी विजय मिळवला: कामगार वर्गासाठी अन्वयार्थ

अभिनव सिन्हा
श्रीमंत कुलक आणि शेतकरी, म्हणजे पंजाब, हरियाणा आणि पश्चिम उत्तर प्रदेशच्या कृषी भांडवलदारांनी, भारतातील मोठ्या औद्योगिक-आर्थिक भांडवलदारांवर, किमान आत्तापर्यंतच्या लढाईच्या पहिल्या फेरीत तरी, विजय मिळवला आहे. मोदी सरकारच्या या पावलामागे कोणती कारणे आहेत? बघूयात.
काल, मेघालयचे राज्यपाल सत्यपाल मलिक यांनी प्रसारमाध्यमांद्वारे मोदी सरकारला कळवले होते की यूपीमधील आगामी विधानसभा निवडणुकीत पश्चिम यूपीमध्ये भाजपचा मोठा पराभव होणार आहे. आरएसएसच्या तळागाळातील यंत्रणांकडून भाजप नेतृत्वाला तशाच प्रकारचे अहवाल प्राप्त झाले आहेत. रोजगार, अन्नसुरक्षा आणि गरिबी या आघाडीवर भाजप सरकारची पूर्व उत्तर प्रदेश आणि सर्वसाधारणपणे यूपीमधील परिस्थिती पाहता, यूपीचे सिंहासन भाजपच्या हातातून निसटू शकते. यामुळे २०२४ च्या लोकसभा निवडणुकीतही भाजपची जिंकण्याची शक्यता धोक्यात येईल. यूपीमध्ये भाजपच्या विजयाची शक्यता सुनिश्चित करण्यासाठी जाट व्होटबँकेला पुनर्संचयित करणे गरजेचे होते. त्यामुळे, तात्काळ राजकीय अत्यावश्यकतेपोटी मोदी सरकारने तीन शेती कायदे रद्द करण्याचा निर्णय घेतला. याचा अर्थ एवढाच की किमान तात्कालिक रित्या तरी कृषी भांडवलदारांनी मोदी सरकारला शेतीविषयक कायदे मागे घेण्यास भाग पाडण्यात यश मिळवले आहे.
उल्लेखनीय आहे की भाजपचे एक नेते श्री. जाटव यांनी आत्ताच एनडीटीव्हीला सांगितले की काही काळानंतर कायद्यांची दुसरी आवृत्ती परत आणली जाईल आणि तोपर्यंत "सर्व शेतकऱ्यांची" खात्री पटवली जाईल! मोदी असेही म्हणाले की त्यांचे सरकार "शेतकऱ्यांच्या एका अल्पसंख्य वर्गाला पटवून देऊ शकले नाही" म्हणून सरकार शेतीविषयक कायदे रद्द करत आहे! मोदी सरकारच्या हेतूचे हे स्पष्ट संकेत आहेत. मोठ्या औद्योगिक-आर्थिक भांडवलाला एमएसपी प्रणाली संपुष्टात आणायची आहे आणि उशिरा का होईना, मोदी सरकार या किंवा त्या मार्गाने तेच करण्याचा पुन्हा प्रयत्न करेल.
स्पष्ट आहे की, तात्कालिक राजकीय गरजांनी (2022 मध्ये यूपी विधानसभेच्या निवडणुका आणि 2024 मध्ये लोकसभा निवडणुका) मोदी सरकारला शेतीविषयक कायद्यांपासून मागे हटण्यास भाग पाडले आहे. उल्लेखनीय आहे की यावेळी ब्रज आणि पश्चिम उत्तर प्रदेशचा परिसर बूथ-व्यवस्थापनासाठी अमित शहांच्या थेट देखरेखीखाली आहे. याच कारणासाठी भाजप नेतृत्वाला पश्चिम उत्तर प्रदेशात जुगार खेळायचा नाही. जाटेतर मतांची जमवाजमव करण्याची शक्यता पश्चिम उत्तर प्रदेशात तशी नाही जशी हरयाणामध्ये होती. याचे कारण म्हणजे मुस्लीम लोकसंख्या मोठ्या प्रमाणात आहे, ज्यांना भाजप शक्यतो जिंकू शकत नाही आणि भाजपने जाट व्होटबँकेत स्थान गमावल्यास जाट-मुस्लिम विरोधाभासाचा फायदा उचलणे जमू शकत नाही. त्यामुळे हरियाणाप्रमाणे पश्चिम उत्तर प्रदेशात जाट व्होट बँकेकडे दुर्लक्ष करणे हा त्यांच्यासाठी पर्याय नाही. पश्चिम उत्तर प्रदेशात जाटांची जवळपास १७ टक्के मते आहेत. या भागात मुस्लिम लोकसंख्या २५ टक्क्यांहून अधिक आहे. अलीकडेच जाट आणि गुर्जर समाजातील नेत्यांचा सन्मान करून भाजपने त्यांना खुश केले होते. अलिगडमधील एका विद्यापीठाला जाट राजाचे नाव दिले गेले! जाटांमध्ये नुकत्याच तयार झालेल्या आधाराला पडलेल्या चिरा बुजवण्यासाठी भाजपने कृषी कायदे रद्द करण्याबरोबरच ही पावले सुद्धा उचलली आहेत. आणि हे कारणच ताज्या घडामोडीमागील प्रमुख विरोधाभास होते. दुसऱ्या शब्दांत सांगायचे तर, यूपी निवडणुकीत भाजपचा विजय सुनिश्चित करण्याची गुरुकिल्ली पश्चिम यूपीकडे आहे आणि यूपी निवडणुकीत विजय हा लोकसभा निवडणुकीत भाजपच्या विजयाची गुरुकिल्ली आहे. आता टिकैत बंधूंचेही मन भाजपला पाठिंबा देण्यासाठी आणि भाजपचा प्रचार करण्यासाठी वळवले जाऊ शकते. यासाठी, भाजप यूपी विधानसभा निवडणुकीपूर्वी पश्चिम यूपीमध्ये पुन्हा एकदा जाट आणि मुस्लिमांमधील जातीय तणाव वाढवण्याचा प्रयत्न करू शकतो किंवा टिकैत बंधूंना आणखी काही फायदेशीर पर्याय देऊ शकतो.
त्यामुळे, भाजपसाठी पहिला चिंता स्पष्टपणे पश्चिम यूपी आणि 2022 मध्ये यूपी निवडणुका हरण्याच्या शक्यतेची आहे ज्यामुळे 2024 च्या लोकसभा निवडणुकीतही भाजपचा निवडणूक रथ रुळावरून घसरू शकतो. परंतु, ही एकमेव चिंता नाही.
दुसरी चिंता पंजाबची आहे. येथे शेतीविषयक कायदे आणि शेतकऱ्यांचा विरोध चालू केल्यानंतर भाजप बहिष्कृत झाला होता, जो स्वत:हून भाजपसाठी फार मोठा चिंतेचा विषय नव्हता. तथापि, यूपी निवडणुकीतील संभाव्य पराभवाशी जोडून याचा अर्थ भाजपसाठी जास्त नुकसान झाले असते. तीन शेतीविषयक कायदे रद्द केल्यामुळे पंजाबमधील समीकरणे बदलू शकतात. पंजाबमधील भाजपसाठी महत्त्वाचा दुवा म्हणजे कॅप्टन अमरिंदर सिंग, ज्यांनी मोदी सरकारचे तात्काळ ट्विट करून हार्दीक अभिनंदन केले आहे! अमरिंदर सिंग आता मीच हे कायदे रद्द करण्यासाठी भाजप सरकारला प्रवृत्त केले अशी विधाने करत आहेत. आता, अमरिंदर सिंग हे उघडपणे किंवा दारामागे भाजपचे मित्र बनू शकतात, कारण भाजप आता बहिष्कृत राहणार नाही. अमरिंदर सिंग यांच्यासारख्या मित्रांच्या मदतीने पंजाबमध्ये भाजपसाठी बंद झालेले दरवाजे थोडे उघडतील. मोदींनी आज गुरुपूरबनिमित्त त्यांच्या भाषणात शीख (ज्यांनी शेतकऱ्यांच्या आंदोलनात नि:संशयपणे भूमिका बजावली आहे) धर्मग्रंथातील उद्धरणांचा वापर शीख भावना शांत करण्यासाठी करणे या घडामोडींना पुष्टीच देते.
थोडक्यात, सत्ताधारी गटाच्या दोन गटांच्या अंतर्गत वर्ग अंतर्विरोधात, म्हणजे, मोठा औद्योगिक-आर्थिक भांडवलदार विरूद्ध मुख्य कृषी उत्पादक प्रदेशातील कृषी भांडवलदार वर्ग, यात दुसऱ्या गटाचा विजय झाला आहे, निदान आत्ता पहिल्या फेरीत तरी. सत्ताधारी पक्षाच्या तात्कालिक राजकीय गरजा या निर्णयाला कारणीभूत ठरल्या आहेत. यामुळे कृषी क्षेत्रातील विनियोजित अतिरिक्त मूल्याची वाटणी सध्या कृषी भांडवलदारांच्या बाजूने राहील आणि त्यामुळे त्यांना निश्चितच फायदा होईल; उलट औद्योगिक-आर्थिक भांडवलदार वर्गाला MSP ची (म्हणजे श्रीमंत भांडवलदार शेतकरी आणि कुलकांना मक्तेदारी भांडवली खंड मिळण्याची हमी देणारी एकाधिकार किंमत जी वेतनावर उर्ध्वगामी दबाव आणते आणि त्यामुळे आधीच निराशाजनक स्थितीला पोहोचलेल्या नफ्याच्या दराला धोक्यात आणते) व्यवस्था संपुष्टात आणण्यासाठी दुसऱ्या योग्य क्षणाची वाट पाहण्यातच समाधान मानावे लागेल . शेतीविषयक कायदे रद्द करणे हे "राजकारणच निर्णायक असते" या लेनिनवादी वचनाची आठवण करून देते!
शेतीविषयक कायदे रद्द झाल्याने जवळपास 10 कोटी अल्पभूधारक शेतकरी आणि 15 कोटी कृषी सर्वहारा वर्गाचे भवितव्य काही वेगळे होणार नाही. शेतीविषयक कायद्यांच्या अंमलबजावणीनंतरही काही फरक पडणार नव्हता, याशिवाय की त्यांच्या श्रमाची लूट मुख्यत्वे औद्योगिक-आर्थिक बड्या भांडवलदारांमध्ये आणि दुय्यमरित्या, श्रीमंत कुलक आणि शेतकरी वर्गामध्ये वाटली गेली असती आणि एमएसपीची राजवट संपुष्टात आली असती.
मोठ्या आर्थिक-औद्योगिक भांडवलदारांना तसेच श्रीमंत कुलक आणि भांडवलदार शेतकऱ्यांना (जे दोघेही कृषी क्षेत्रातील विनियोजित वरकड मूल्यामध्ये मोठा वाटा मिळविण्यासाठी प्रयत्नशील आहेत) विरोध करणे हे कामगार वर्ग आणि गरीब शेतकरी यांचे काम आहे . MSP ची प्रणाली खरोखरच जनविरोधी प्रणाली आहे कारण ती संपूर्ण कामकरी लोकसंख्येच्या वेतनातून कपात देखील घडवते, कारण MSP मुळे वेतनावर येणारा उर्ध्वगामी दबाव नेहमीच वेतन वाढवत नाही. औद्योगिक-आर्थिक मोठे भांडवलदार स्वतःच्या कारणास्तव MSP ला विरोध करतात ही वस्तुस्थिती, कामगार वर्ग आणि गरीब शेतकऱ्यांनी MSP च्या व्यवस्थेला (हमीभाव, जो एक एकाधिकार भाडे आहे आणि भारतातील कामकरी लोकसंख्या तसेच उद्यमी-बुर्झ्वा वर्गाच्या उद्यमी नफ्याच्या जीवावर कृषी भांडवलदारांना किमतीवर अतिरिक्त नफा मिळवून देतो.) समर्थन देण्याचे कारण बनत नाही. कामगार वर्गाने तुलनेने लहान असलेल्या कृषी भांडवलदारांची बाजू न घेता औद्योगिक-आर्थिक मोठ्या भांडवलदारांना विरोध करण्याची आपली स्वतंत्र राजकीय स्थिती कायम राखली पाहिजे, आणि सोबतच कामगार वर्गाच्या शोषणातून निर्माण झालेल्या विनियोजित वरकड मूल्यामध्ये अधिक वाटा मिळविण्यासाठी भांडणात गुंतलेल्या या दोन्ही गटांना विरोध करत कामगार वर्गाची स्वतःच्या मागण्यांची सनद, स्वतःचे स्वतंत्र राजकारण आणि स्वतःची विचारधारा घेऊन विरोध केला पाहिजे. हे काम भारतातील कामगार वर्ग आणि कष्टकरी जनतेसमोर आहे.
अनुवाद: अभिजित

ਖੇਤੀ ਕਨੂੰਨ ਵਿਵਾਦ ਦੇ ਪਹਿਲੇ ਗੇੜ ’ਚ ਖੇਤੀ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਉਦਯੋਗਿਕ-ਵਿੱਤੀ ਵੱਡੀ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਜਮਾਤ ’ਤੇ ਜਿੱਤ: ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਲਈ ਇਸਦੇ ਸਿੱਟੇ

ਅਭਿਨਵ

ਧਨੀ ਕੁਲਕ ਅਤੇ ਕਿਸਾਨ, ਭਾਵ ਪੰਜਾਬ, ਹਰਿਆਣਾ ਅਤੇ ਪੱਛਮੀ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ਦੀ ਖੇਤੀ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਜਮਾਤ ਨੇ ਪਹਿਲੇ ਗੇੜ ’ਚ ਭਾਰਤ ਦੀ ਉਦਯੋਗਿਕ-ਵਿੱਤੀ ਵੱਡੀ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਜਮਾਤ ’ਤੇ ਫੌਰੀ ਜਿੱਤ ਹਾਸਲ ਕੀਤੀ ਹੈ। ਮੋਦੀ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਇਸ ਕਦਮ ਦੇ ਕੀ ਕਾਰਨ ਹਨ? ਆਓ ਦੇਖਦੇ ਹਾਂ:
ਕੱਲ੍ਹ ਮੇਘਾਲਿਆ ਦੇ ਰਾਜਪਾਲ ਸੱਤਪਾਲ ਮਲਿਕ ਨੇ ਮੀਡੀਆ ਰਾਹੀਂ ਮੋਦੀ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ਇਹ ਸੁਨੇਹਾ ਦਿੱਤਾ ਸੀ ਕਿ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ਦੀਆਂ ਆਗਾਮੀ ਵਿਧਾਨ ਸਭਾ ਚੋਣਾਂ ’ਚ ਭਾਜਪਾ ਦੀ ਪੱਛਮੀ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ’ਚ ਕਰਾਰੀ ਹਾਰ ਹੋਣ ਵਾਲੀ ਹੈ। ਆਰਐੱਸਐੱਸ ਦਾ ਜ਼ਮੀਨੀ ਤੰਤਰ ਵੀ ਭਾਜਪਾ ਦੀ ਲੀਡਰਸ਼ਿਪ ਨੂੰ ਇਸੇ ਕਿਸਮ ਦੀਆਂ ਰਿਪੋਰਟਾਂ ਦੇ ਰਿਹਾ ਸੀ। ਆਮ ਤੌਰ ’ਤੇ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ਅਤੇ ਖਾਸਕਰ ਪੂਰਬੀ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ’ਚ ਰੁਜ਼ਗਾਰ, ਭੋਜਨ ਸੁਰੱਖਿਆ ਅਤੇ ਗ਼ਰੀਬੀ ਦੇ ਮੋਰਚੇ ’ਤੇ ਭਾਜਪਾ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਮਾੜੀ ਹਾਲਤ ਨੂੰ ਦੇਖਦਿਆਂ ਭਾਜਪਾ ਨੂੰ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ਦੀ ਗੱਦੀ ਖੁੱਸ ਜਾਣ ਦਾ ਡਰ ਸਤਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਜੇਕਰ ਅਜਿਹਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਤਾਂ 2024 ਦੀਆਂ ਲੋਕਸਭਾ ਚੋਣਾ ’ਚ ਭਾਜਪਾ ਦੇ ਜਿੱਤਣ ਦੀ ਸੰਭਾਵਨਾ ਵੀ ਘਟ ਜਾਵੇਗੀ। ਇਸ ਕਰਕੇ ਮੋਦੀ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਫੌਰੀ ਸਿਆਸੀ ਲੋੜਾਂ ਦੇ ਮੱਦੇਨਜ਼ਰ ਖੇਤੀ ਕਨੂੰਨਾਂ ਨੂੰ ਰੱਦ ਕਰਨ ਦਾ ਫੈਸਲਾ ਕੀਤਾ ਹੈ। ਇਸਦਾ ਬੱਸ ਐਨਾ ਮਤਲਬ ਹੈ ਕਿ ਘੱਟੋ-ਘੱਟ ਫੌਰੀ ਤੌਰ ’ਤੇ ਖੇਤੀ ਬੁਰਜੂਆ ਜਮਾਤ ਮੋਦੀ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ਖੇਤੀ ਕਨੂੰਨਾਂ ਦੇ ਮੋਰਚੇ ’ਤੇ ਝੁਕਾਉਣ ’ਚ ਸਫਲ ਰਹੀ ਹੈ।
ਧਿਆਨ ਗੋਚਰੇ ਹੈ ਕਿ ਭਾਜਪਾ ਦੇ ਇੱਕ ਆਗੂ ਸ਼੍ਰੀਮਾਨ ਜਾਟਵ ਜੀ ਨੇ ਹੁਣੇ-ਹੁਣੇ ਐਨਡੀਟੀਵੀ ’ਤੇ ਕਿਹਾ ਹੈ ਕਿ ਕੁਝ ਸਮੇਂ ਬਾਅਦ ਖੇਤੀ ਕਨੂੰਨਾਂ ਦਾ ਕੋਈ ਹੋਰ ਸੰਸਕਰਣ ਪੇਸ਼ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇਗਾ ਅਤੇ ਉਦੋਂ ਤੱਕ “ਸਾਰੇ ਕਿਸਾਨਾਂ” ਨੂੰ ਰਾਜੀ ਕਰ ਲਿਆ ਜਾਵੇਗਾ! ਮੋਦੀ ਨੇ ਵੀ ਕਿਹਾ ਹੈ ਕਿ ਕਿਉਂਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਸਰਕਾਰ “ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੇ ਇੱਕ ਛੋਟੇ ਹਿੱਸੇ” ਨੂੰ ਰਾਜੀ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕੀ, ਇਸ ਕਰਕੇ ਉਹ ਖੇਤੀ ਕਨੂੰਨਾਂ ਨੂੰ ਵਾਪਸ ਲੈ ਰਹੀ ਹੈ! ਇਸ ਤੋਂ ਸਾਫ਼ ਪਤਾ ਚੱਲਦਾ ਹੈ ਕਿ ਮੋਦੀ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਇਰਾਦੇ ਕੀ ਹਨ। ਵੱਡਾ ਉਦਯੋਗਿਕ-ਵਿੱਤੀ ਸਰਮਾਇਆ ਦੇਰ-ਸਵੇਰ ਘੱਟੋ-ਘੱਟ ਸਮਰਥਨ ਮੁੱਲ (ਐਮਐਸਪੀ) ਦੀ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਨੂੰ ਖਤਮ ਕਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਮੋਦੀ ਸਰਕਾਰ ਕਿਸੇ ਨਾ ਕਿਸੇ ਢੰਗ ਨਾਲ ਮੁੜ ਤੋਂ ਅਜਿਹਾ ਕਰਨ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰੇਗੀ।
ਜਿਹਾ ਕਿ ਸਾਫ਼ ਹੈ, ਫੌਰੀ ਸਿਆਸੀ ਲੋੜਾਂ (2022 ’ਚ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ਵਿਧਾਨ ਸਭਾ ਚੋਣਾਂ ਅਤੇ 2024 ’ਚ ਲੋਕ ਸਭਾ ਚੋਣਾਂ) ਕਰਕੇ ਮੋਦੀ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਖੇਤੀ ਕਨੂੰਨਾਂ ਤੋਂ ਪੈਰ ਪਿੱਛੇ ਖਿੱਚਿਆ ਹੈ। ਧਿਆਨ ਗੋਚਰੇ ਹੈ ਕਿ ਇਸ ਵਾਰ ਪੱਛਮੀ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ਅਤੇ ਬਰੱਜ ਖੇਤਰ ਬੂਥ ਮੈਨੇਜਮੈਂਟ ਪੱਖੋਂ ਸਿੱਧਾ ਅਮਿਤ ਸ਼ਾਹ ਦੀ ਨਿਗਰਾਨੀ ’ਚ ਹੈ। ਇਸ ਕਰਕੇ ਭਾਜਪਾ ਦੀ ਲੀਡਰਸ਼ਿਪ ਪੱਛਮੀ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ’ਚ ਕੋਈ ਦਾਅ ਨਹੀਂ ਖੇਡਣਾ ਚਾਹੁੰਦੀ। ਹਰਿਆਣਾ ਵਾਂਗ ਪੱਛਮੀ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ’ਚ ਗੈਰ-ਜਾਟ ਵੋਟਾਂ ਦੀ ਲਾਮਬੰਦੀ ਕਰਨ ਦੀ ਸੰਭਾਵਨਾ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਇਸਦਾ ਕਾਰਨ ਹੈ ਵੱਡੀ ਮੁਸਲਮਾਨ ਅਬਾਦੀ ਜਿਸਨੂੰ ਸ਼ਾਇਦ ਹੀ ਭਾਜਪਾ ਆਪਣੇ ਵੱਲ ਕਰ ਪਾਵੇ ਅਤੇ ਜੇਕਰ ਜਾਟ ਵੋਟ ਬੈਂਕ ਵੀ ਉਸਦੇ ਹੱਥੋਂ ਖਿਸਕ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਉਹ ਜਾਟ-ਮੁਸਲਮਾਨ ਅੰਤਰਵਿਰੋਧ ਦਾ ਲਾਹਾ ਨਹੀਂ ਚੁੱਕ ਸਕੇਗੀ। ਇਸ ਲਈ ਉਨ੍ਹਾਂ ਵਾਸਤੇ ਹਰਿਆਣਾ ਵਾਂਗ ਪੱਛਮੀ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ’ਚ ਜਾਟ ਵੋਟ ਬੈਂਕ ਨੂੰ ਨਜ਼ਰਅੰਦਾਜ਼ ਕਰਨਾ ਨੁਕਸਾਨਦਾਇਕ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਪੱਛਮੀ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ’ਚ ਜਾਟਾਂ ਦੀ ਅਬਾਦੀ 17 ਫੀਸਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸ ਖੇਤਰ ’ਚ ਮੁਸਲਮਾਨ ਅਬਾਦੀ 25 ਫੀਸਦੀ ਹੈ। ਹਾਲ ਹੀ ਵਿੱਚ ਭਾਜਪਾ ਨੇ ਜਾਟ ਅਤੇ ਗੁੱਜਰ ਭਾਈਚਾਰੇ ਦੇ ਆਗੂਆਂ ਨੂੰ ਸਨਮਾਨਿਤ ਕਰਕੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਤੁਸ਼ਟੀਕਰਨ ਕੀਤਾ ਸੀ। ਅਲੀਗੜ੍ਹ ’ਚ ਇੱਕ ਯੂਨੀਵਰਸਿਟੀ ਦਾ ਨਾਂ ਬਦਲਕੇ ਇੱਕ ਜਾਟ ਰਾਜਾ ਦੇ ਨਾਂ ’ਤੇ ਰੱਖਿਆ ਗਿਆ ਹੈ! ਭਾਜਪਾ ਨੇ ਖੇਤੀ ਕਨੂੰਨਾਂ ਨੂੰ ਰੱਦ ਕਰਨ ਦੇ ਨਾਲ ਹੀ ਇਹ ਕਦਮ ਇਸ ਲਈ ਚੁੱਕਿਆ ਹੈ ਤਾਂ ਜੋ ਜਾਟਾਂ ਦਰਮਿਆਨ ਉਸਦਾ ਹਾਲ ਦੇ ਸਾਲਾਂ ’ਚ ਜੋ ਅਧਾਰ ਬਣਿਆ ਹੈ, ਉਸ ਵਿੱਚ ਆਈਆਂ ਤਰੇੜਾਂ ਨੂੰ ਭਰਿਆ ਜਾ ਸਕੇ। ਅਤੇ ਇਹੀ ਤਾਜਾ ਘਟਨਾਕ੍ਰਮ ਮਗਰਲਾ ਮੁੱਖ ਅੰਤਰਵਿਰੋਧ ਹੈ। ਦੂਜੇ ਸ਼ਬਦਾਂ ’ਚ, ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ’ਚ ਭਾਜਪਾ ਦੀ ਜਿੱਤ ਦਾ ਰਾਹ ਪੱਛਮੀ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ਤੋਂ ਹੋ ਕੇ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਲੋਕ ਸਭਾ ’ਚ ਭਾਜਪਾ ਦੀ ਜਿੱਤ ਦਾ ਰਾਹ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ’ਚ ਜਿੱਤ ਤੋਂ ਹੋ ਕੇ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਹੁਣ ਟਿਕੈਤ ਭਰਾਵਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਭਾਜਪਾ ਦੀ ਚੋਣਾਂ ’ਚ ਹਮਾਇਤ ਕਰਨ ਜਾਂ ਇੱਥੋਂ ਤੱਕ ਕਿ ਇਸਦੇ ਲਈ ਪ੍ਰਚਾਰ ਕਰਨ ਵਾਸਤੇ ਤਿਆਰ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਵਾਸਤੇ ਭਾਜਪਾ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ਵਿਧਾਨ ਸਭਾ ਚੋਣਾਂ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਇੱਕ ਵਾਰ ਫੇਰ ਪੱਛਮੀ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ’ਚ ਜਾਟਾਂ ਅਤੇ ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਫਿਰਕੂ ਤਣਾਅ ਭੜਕਾ ਸਕਦੀ ਹੈ, ਜਾਂ ਫੇਰ ਟਿਕੈਤ ਭਰਾਵਾਂ ਨੂੰ ਕੁਝ ਹੋਰ ਲੁਭਾਉਣੇ ਵਿਕਲਪ ਦੇ ਸਕਦੀ ਹੈ।
ਇਸ ਲਈ ਭਾਜਪਾ ਵਾਸਤੇ ਪਹਿਲਾ ਵਿਚਾਰ ਕਰਨਯੋਗ ਪੱਖ ਸਪਸ਼ਟ ਤੌਰ ’ਤੇ ਪੱਛਮੀ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ਅਤੇ 2022 ਦੀਆਂ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ਵਿਧਾਨ ਸਭਾ ਚੋਣਾਂ ’ਚ ਜਿੱਤ ’ਤੇ ਮੰਡਰਾ ਰਿਹਾ ਖਤਰਾ ਰਿਹਾ ਹੈ ਜਿਸਦੇ ਕਾਰਨ 2024 ਦੀਆਂ ਲੋਕ ਸਭਾ ਚੋਣਾਂ ’ਚ ਵੀ ਭਾਜਪਾ ਦੀ ਚੁਣਾਵੀ ਮਸ਼ੀਨਰੀ ਲੀਹੋਂ ਲੱਥ ਸਕਦੀ ਹੈ। ਪਰ ਸਿਰਫ਼ ਇਹੀ ਪੱਖ ਨਹੀਂ ਹੈ ਜਿਸ ਉੱਪਰ ਭਾਜਪਾ ਨੇ ਵਿਚਾਰ ਕੀਤਾ ਹੈ।
ਦੂਜਾ ਪੱਖ ਹੈ ਪੰਜਾਬ। ਉੱਥੇ ਖੇਤੀ ਕਨੂੰਨ ਲਿਆਉਣ ਅਤੇ ਫਾਰਮਰ ਲਹਿਰ ਤੋ ਬਾਅਦ ਭਾਜਪਾ ਦੀ ਹਾਲਤ ਸਿਆਸੀ ਤੌਰ ’ਤੇ ਅਛੂਤ ਜਿਹੀ ਹੋ ਗਈ ਹੈ। ਇਹ ਆਪਣੇ-ਆਪ ’ਚ ਭਾਜਪਾ ਲਈ ਕੋਈ ਵੱਡੀ ਚਿੰਤਾ ਦਾ ਸਬੱਬ ਨਾ ਹੁੰਦਾ, ਪਰ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ਚੋਣਾਂ ’ਚ ਸੰਭਾਵੀ ਹਾਰ ਨਾਲ ਮਿਲਕੇ ਇਹ ਭਾਜਪਾ ਲਈ ਹੋਰ ਜਿਆਦਾ ਨੁਕਸਾਨ ਵਾਲੀ ਗੱਲ ਹੋ ਜਾਵੇਗੀ। ਤਿੰਨ ਖੇਤੀ ਕਨੂੰਨਾਂ ਨੂੰ ਰੱਦ ਕਰਨ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਪੰਜਾਬ ’ਚ ਸਿਆਸੀ ਸਮੀਕਰਨ ਬਦਲ ਸਕਦੇ ਹਨ। ਪੰਜਾਬ ’ਚ ਭਾਜਪਾ ਲਈ ਕੈਪਟਨ ਅਮਰਿੰਦਰ ਸਿੰਘ ਗਰੁਪ ਦਾ ਪੱਤਾ ਸਿੱਧ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ ਜਿਸਨੇ ਤੁਰੰਤ ਮੋਦੀ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ਟਵੀਟ ਕਰਕੇ ਲੱਖ-ਲੱਖ ਵਧਾਈਆਂ ਭੇਜੀਆਂ! ਅਮਰਿੰਦਰ ਸਿੰਘ ਇਹ ਬਿਆਨ ਦਿੰਦਾ ਆਇਆ ਹੈ ਕਿ ਉਹ ਭਾਜਪਾ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ਖੇਤੀ ਕਨੂੰਨ ਰੱਦ ਕਰਨ ਲਈ ਰਾਜੀ ਕਰਨ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਹੁਣ ਅਮਰਿੰਦਰ ਸਿੰਘ ਖੁੱਲ੍ਹੇ ਤੌਰ ’ਤੇ ਜਾਂ ਪਰਦੇ ਪਿੱਛੇ ਭਾਜਪਾ ਦਾ ਸਹਿਯੋਗੀ ਬਣ ਸਕਦਾ ਹੈ ਕਿਉਂਕਿ ਹੁਣ ਭਾਜਪਾ ਦੀ ਹਾਲਤ ਪੰਜਾਬ ’ਚ ਵੀ ਸਿਆਸੀ ਅਛੂਤ ਵਾਲੀ ਨਹੀਂ ਰਹਿ ਜਾਵੇਗੀ (ਇਹ ਟਿੱਪਣੀ ਲਿਖੇ ਜਾਣ ਦੇ ਕੁਝ ਸਮੇਂ ਬਾਅਦ ਹੀ ਅਮਰਿੰਦਰ ਸਿੰਘ ਨੇ ਭਾਜਪਾ ਦੇ ਨਾਲ ਕੰਮ ਕਰਨ ਦਾ ਐਲਾਨ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ - ਲੇਖਕ)। ਅਮਰਿੰਦਰ ਸਿੰਘ ਵਰਗੇ ਦੋਸਤਾਂ ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਨਾਲ ਪੰਜਾਬ ’ਚ ਭਾਜਪਾ ਲਈ ਬੰਦ ਹੋ ਚੁੱਕਿਆ ਦਰਵਾਜਾ ਖੁੱਲ੍ਹੇਗਾ। ਇਹ ਇਸ ਗੱਲੋਂ ਵੀ ਸਿੱਧ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਅੱਜ ਦੇ ਭਾਸ਼ਣ ’ਚ ਮੋਦੀ ਨੇ ਗੁਰੂਪੂਰਬ ਮੌਕੇ ਸਿੱਖ ਧਰਮ ਗ੍ਰੰਥ 'ਚੋਂ ਹਵਾਲੇ ਦੇ ਕੇ ਸਿੱਖਾਂ ਦੀਆਂ ਧਾਰਮਿਕ ਭਾਵਨਾਵਾਂ ਦਾ ਤੁਸ਼ਟੀਕਰਨ ਕਰਨ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ ਜਿਸਦੀ ਯਕੀਨੀ ਤੌਰ ’ਤੇ ਕਿਸਾਨ ਲਹਿਰ ਵਿੱਚ ਭੂਮਿਕਾ ਸੀ। ਇਸੇ ਮਕਸਦ ਲਈ ਪਰਸੋਂ ਕਰਤਾਰਪੁਰ ਲਾਂਘਾ ਵੀ ਖੋਲ਼੍ਹ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਸੀ।
ਸੰਖੇਪ ’ਚ, ਹਾਕਮ ਜਮਾਤਾਂ ਦੇ ਦੋ ਹਿੱਸਿਆਂ, ਯਾਨੀ ਵੱਡੀ ਉਦਯੋਗਿਕ-ਵਿੱਤੀ ਬੁਰਜੂਆ ਜਮਾਤ ਅਤੇ ਮੁੱਖ ਖੇਤੀ ਖੇਤਰਾਂ ’ਚ ਖੇਤੀ ਬੁਰਜੂਆ ਜਮਾਤ, ਵਿਚਕਾਰ ਜਾਰੀ ਅੰਦਰੂਨੀ ਜਮਾਤੀ ਅੰਤਰਵਿਰੋਧ ’ਚ ਖੇਤੀ ਬੁਰਜੂਆ ਜਮਾਤ ਪਹਿਲੇ ਗੇੜ ’ਚ ਘੱਟੋ-ਘੱਟ ਫੌਰੀ ਤੌਰ ’ਤੇ ਜੇਤੂ ਹੋਈ ਹੈ। ਸੱਤਾ ’ਚ ਬੈਠੀ ਪਾਰਟੀ ਦੀਆਂ ਫੌਰੀ ਸਿਆਸੀ ਲੋੜਾਂ ਇਸ ਫੈਸਲੇ ਦਾ ਕਾਰਨ ਰਹੀਆਂ ਹਨ। ਇਸਦੇ ਕਰਕੇ ਫਿਲਹਾਲ ਖੇਤੀ ਖੇਤਰ ’ਚ ਨਿਚੋੜੇ ਜਾਂਦੇ ਵਾਫਰ ਦੀ ਹਿੱਸੇਦਾਰੀ ਫਿਲਹਾਲ ਖੇਤੀ ਬੁਰਜੂਆਜੀ ਦੇ ਪੱਖ ’ਚ ਹੀ ਬਣੀ ਰਹੇਗੀ ਅਤੇ ਇਸ ਤੋਂ ਯਕੀਨੀ ਤੌਰ ’ਤੇ ਉਸਨੂੰ ਫਾਇਦਾ ਹੋਵੇਗਾ; ਜਦਕਿ ਉਦਯੋਗਿਕ-ਵਿੱਤੀ ਬੁਰਜੂਆ ਜਮਾਤ ਨੂੰ ਧਨੀ ਸਰਮਾਏਦਾਰਾ ਕਿਸਾਨਾਂ ਅਤੇ ਕੁਲਕਾਂ ਨੂੰ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਲਗਾਨ ਦੇਣ ਵਾਲੇ ਐਮਐਸਪੀ ਦੇ ਤੰਤਰ, ਜਿਸਦੇ ਕਰਕੇ ਮਜ਼ਦੂਰੀ ’ਤੇ ਵਧਣ ਦਾ ਦਬਾਅ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਜਿਸ ਨਾਲ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਪਹਿਲਾਂ ਤੋਂ ਹੀ ਡਿੱਗ ਰਹੀ ਮੁਨਾਫੇ ਦੀ ਦਰ ਹੋਰ ਥੱਲੇ ਜਾਂਦੀ ਹੈ, ਨੂੰ ਖਤਮ ਕਰਨ ਲਈ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਢੁਕਵੇਂ ਮੌਕੇ ਦੀ ਭਾਲ ਕਰਨੀ ਹੋਵੇਗੀ। ਖੇਤੀ ਕਨੂੰਨਾਂ ਦੇ ਰੱਦ ਹੋਣ ਨਾਲ ਇੱਕ ਵਾਰ ਫੇਰ ਲੈਨਿਨ ਦੀ ਇਹ ਗੱਲ ਸਿੱਧ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਕਿ ਸਿਆਸਤ ਹੀ ਫੈਸਲਾਕੁਨ ਹੁੰਦੀ ਹੈ!
ਖੇਤੀ ਕਨੂੰਨਾਂ ਦੇ ਰੱਦ ਹੋਣ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਲਗਭਗ 10 ਕਰੋੜ ਛੋਟੇ ਅਤੇ ਸੀਮਾਂਤ ਕਿਸਾਨਾਂ ਅਤੇ 15 ਕਰੋੜ ਖੇਤ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਦੀ ਜਿੰਦਗੀ ’ਚ ਕੋਈ ਤਬਦੀਲੀ ਨਹੀਂ ਆਉਣ ਵਾਲੀ ਹੈ। ਖੇਤੀ ਕਨੂੰਨਾਂ ਦੇ ਲਾਗੂ ਹੋਣ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਵੀ ਉਸ ਵਿੱਚ ਕੋਈ ਤਬਦੀਲੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਆਉਣੀ, ਹੁੰਦਾ ਬੱਸ ਇਹ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਕਿਰਤ ਦੀ ਲੁੱਟ ਦਾ ਵੱਡਾ ਹਿੱਸਾ ਉਦਯੋਗਿਕ-ਵਿੱਤੀ ਬੁਰਜੂਆ ਕੋਲ ਜਾਂਦਾ ਅਤੇ ਧਨੀ ਕਿਸਾਨਾਂ ਅਤੇ ਕੁਲਕਾਂ ਨੂੰ ਲੁੱਟ ਦੇ ਛੋਟੇ ਹਿੱਸੇ ਨਾਲ ਹੀ ਸਬਰ ਕਰਨਾ ਪੈਂਦਾ ਅਤੇ ਐਮਐਸਪੀ ਦੇ ਤੰਤਰ ਦਾ ਖਾਤਮਾ ਹੋ ਜਾਂਦਾ।
ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਅਤੇ ਗ਼ਰੀਬ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦਾ ਕਾਰਜ ਵੱਡੀ ਵਿੱਤੀ-ਉਦਯੋਗਿਕ ਬੁਰਜੂਆਜੀ ਅਤੇ ਧਨੀ ਕੁਲਕਾਂ ਅਤੇ ਸਰਮਾਏਦਾਰਾ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੋਹਾਂ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕਰਨਾ ਹੈ ਕਿਉਂਕਿ ਦੋਵੇਂ ਹੀ ਖੇਤੀ ਖੇਤਰ ’ਚ ਨਿਚੋੜੀ ਜਾਣ ਵਾਲੀ ਵਾਫਰ ਕਦਰ ਚੋਂ ਵੱਡਾ ਹਿੱਸਾ ਹਾਸਲ ਕਰਨ ਲਈ ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ, ਜੋ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਅਤੇ ਆਮ ਕਿਰਤੀ ਅਬਾਦੀ ਦੀ ਲੁੱਟ ਤੋਂ ਹੀ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਯਕੀਨੀ ਤੌਰ ’ਤੇ ਐਮਐਸਪੀ ਦਾ ਤੰਤਰ ਲੋਕ-ਵਿਰੋਧੀ ਹੈ ਕਿਉਂਕਿ ਇਸਦੇ ਕਾਰਨ ਸਮੁੱਚੀ ਕਿਰਤੀ ਅਬਾਦੀ ਦੀ ਮਜ਼ਦੂਰੀ ’ਚ ਕਟੌਤੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਕਿਉਂਕਿ ਐਮਐਸਪੀ ਕਰਕੇ ਮਜ਼ਦੂਰੀ ’ਤੇ ਵਧਣ ਦਾ ਦਬਾਅ ਪੈਦਾ ਹੋਣ ਦਾ ਨਤੀਜਾ ਹਮੇਸ਼ਾਂ ਵਧੀ ਹੋਈ ਮਜ਼ਦੂਰੀ ਦੇ ਰੂਪ ’ਚ ਨਹੀਂ ਹਾਸਲ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਅਤੇ ਗ਼ਰੀਬ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ਐਮਐਸਪੀ, ਜੋ ਭਾਰਤ ਦੀ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਕੀਮਤ ’ਤੇ ਅਤੇ ਨਾਲ ਦੀ ਨਾਲ ਉਦਯੋਗਿਕ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਜਮਾਤ ਦੇ ਉੱਦਮੀ ਮੁਨਾਫੇ ਦੀ ਕੀਮਤ ’ਤੇ ਖੇਤੀ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਜਮਾਤ ਦਾ ਵਾਫਰ ਮੁਨਾਫਾ ਯਕੀਨੀ ਬਣਾਉਣ ਵਾਲਾ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਲਗਾਨ ਹੈ, ਦੀ ਹਮਾਇਤ ਸਿਰਫ਼ ਇਸ ਲਈ ਨਹੀਂ ਕਰਨੀ ਚਾਹੀਦੀ ਕਿਉਂਕਿ ਉਦਯੋਗਿਕ-ਵਿੱਤੀ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੂਆ ਜਮਾਤ ਆਪਣੀ ਹਿੱਤਪੂਰਤੀ ਲਈ ਐਮਐਸਪੀ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕਰ ਰਹੀ ਹੈ। ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਆਪਣੀ ਸਿਆਸੀ ਤੌਰ ’ਤੇ ਸੁਤੰਤਰ ਪੋਜੀਸ਼ਨ ਹੋਵੇਗੀ, ਯਾਨੀ ਮੁਕਾਬਲਤਨ ਛੋਟੀ ਖੇਤੀ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਪਿੱਛਲੱਗੂ ਬਣੇ ਬਿਨਾਂ ਉਦਯੋਗਿਕ-ਵਿੱਤੀ ਵੱਡੀ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਜਮਾਤ ਵਿਰੋਧ ਕਰਨਾ ਅਤੇ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਲੁੱਟ ਤੋਂ ਨਿਚੋੜੀ ਗਈ ਵਾਫਰ ਕਦਰ ਦੀ ਬਾਂਦਰਵੰਡ ਲਈ ਝਗੜ ਰਹੇ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਜਮਾਤ ਦੇ ਦੋਹਾਂ ਹੀ ਧੜਿਆਂ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕਰਨਾ ਅਤੇ ਆਪਣੀ ਵਿਚਾਰਧਾਰਾ ਅਤੇ ਸੁਤੰਤਰ ਸਿਆਸਤ ਦੇ ਨਾਲ ਆਪਣਾ ਸੁਤੰਤਰ ਮੰਗਪੱਤਰ ਪੇਸ਼ ਕਰਨਾ ਹੋਵੇਗਾ। ਇਹੀ ਉਹ ਕਾਰਜ ਹੈ ਜੋ ਅੱਜ ਭਾਰਤ ਦੀ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਅਤੇ ਆਮ ਕਿਰਤੀ ਲੋਕ-ਸਮੂਹਾਂ ਦੇ ਦਰਪੇਸ਼ ਹੈ।

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