दुष्टों अथवा दुर्जनों की अपरम्पार महिमा
दुष्टों अथवा दुर्जनों की महिमा अपरम्पार होती है।
कविता कृष्णपल्लवी
दुष्ट कई प्रकार के होते हैं। जैसे राजनीतिक-सामाजिक दुष्टता जहाँ
अपने शिखर पर पहुँचकर जघन्यतम और अमानवीयतम हो जाती है, वह पराकोटि या परिणति-बिंदु फासिज्म है।
वर्गीय दुष्टता एक ऐतिहासिक-सामाजिक परिघटना है। जैसे एक पूँजीपति
व्यक्तिगत तौर पर शरीफ़ हो सकता है, पर उसका वर्ग ही दुष्ट वर्ग है क्योंकि वह शोषक है, मज़दूरों से अधिशेष निचोड़ना ही उसके सामाजिक अस्तित्व का आधार है।
इस वर्गीय दुष्टता से हम व्यक्तिगत प्रतिशोध नहीं ले सकते। इस वर्गीय दुष्टता को
वर्ग-संघर्ष की ऐतिहासिक प्रक्रिया से ही समाप्त किया जा सकता है। एक वर्ग के रूप
में जबतक पूँजीपति मौजूद रहेगा, तबतक उसकी वर्गीय
दुष्टता मौजूद रहेगी।
जहाँतक व्यक्तिगत दुष्टता का सवाल है, दुष्टों या दुर्जनों की कई कोटियाँ होती हैं। ऐसे दुर्जन आपको समाज के आम लोगों में भी बहुतायत में मिल जायेंगे --आम मध्य वर्ग और मज़दूरों में भी मिल जायेंगे। आम लोगों में यह दुर्जनता कई बार , वर्ग समाज में जीने वाले नागरिक के सामाजिक (और इसलिए मानवीय) व्यक्तित्व के विघटन से पैदा होता है। कई बार जनवादी और तार्किक चेतना की कमी के कारण, दिमाग़ के पोर-पोर में बैठे धार्मिक, जातिगत और जेंडरगत कुसंस्कार और पूर्वाग्रह भी हमें मानवद्रोही और दुष्ट बना देते हैं।
ऐसा भी होता है कि बुर्जुआ समाज में दिन रात, सतत, अंधी प्रतिस्पर्द्धा में जीते हुए, कुत्ता दौड़ में दौड़ते हुए, भेड़ियाधसान करते हुए हम अपनी मनुष्यता खोते चले जाते हैं और तुच्छ
और कूपमंडूक होने के साथ ही ईर्ष्या और दुष्टता में जीने को भी कुछ यूँ एन्जॉय
करने लगते हैं जैसे खाज का रोगी खुजली कर-करके आनंदित होता है। ज़िंदगी की
कुत्ता-दौड़ में जो पीछे छूट गया वह आगे वाले को लंगी मारने की पूरी कोशिश करता है।
और आगे बढ़ने के लिए हर व्यक्ति किसी को भी रौंद-कुचल देना चाहता है। जो विजयी है, वह विशिष्ट है और जो पीछे छूट गया वह दीन-हीन, तिरस्करणीय है।
इसतरह बुर्जुआ समाज दुष्टता का कोरोना से भी घातक वायरस फैलाता
रहता है। न्यायशील और तार्किक विचारों, न्यायशील सामूहिक कर्म तथा कला-साहित्य और प्रकृति के गहन सानिध्य
से जिस हद तक हमारी प्रतिरोधक क्षमता विकसित हुई रहती है, उसी हद तक हम दुष्टता के संक्रामक वायरस से बच पाते हैं। आज हम जिस
रुग्ण, बर्बर, ज़रा-जीर्ण पूँजीवादी समाज में जी रहे हैं, उसमें दुष्टता के वायरसों का पूरा परिवार नाना संक्रामक
आत्मिक-सांस्कृतिक व्याधियों से समाज को त्रस्त किये हुए है।
जब कोई व्यक्ति या सामाजिक समूह बार-बार की पराजयों या सुदीर्घ
दासता के चलते गहरे पराजय-बोध से भर जाता है तो उसके भीतर भी एक किस्म का
यथास्थितिवाद और चालाकी एवं कायरता भरी दुनियादारी पैदा हो जाती है। तब उसके पास उन्नत
मानवीय आदर्श और सपने देखने की क्षमता नहीं रह जाती, उसके व्यक्तित्व में उदात्तता और सरलता का लेश मात्र भी नहीं रह
जाता। ऐसे व्यक्तित्व तुच्छता, जलन-कुढ़न और
ईर्ष्या से लबालब भरे रहते हैं, अपने से अधिक
सक्षम और ताक़तवर के आगे एकदम साष्टांग हो जाते हैं और अपने से नीचे वाले को, अपने से कमजोर को एकदम रगड़-कुचल देना चाहते हैं और फिर उनकी छाती
पर बैठकर हुकूमत करना चाहते हैं। उत्पादन की प्रक्रिया से कटे हुए सर्वहारा के एक हिस्से का भी
विमानवीकरण हो जाता है। उनमें से कई आत्मघाती ढंग से खुद को ही नष्ट करते रहते हैं, पर कई ऐसे दुष्ट भी बन जाते हैं जो फासिस्टों के भाड़े के लठैत बन जाते हैं, मानवीय हर चीज़ से
बेगाने हो जाते हैं, उससे नफ़रत करने लगते हैं और
जघन्य-वीभत्स दुष्कर्मों के लिए भी तैयार रहते हैं। दुष्टता के सभी रूप बुर्जुआ
समाज की रुग्णता के, या यूँ कहें कि वर्ग-समाज की
रुग्णता के मूर्त रूप होते हैं।
बहरहाल, मैंने तो अपने जीवन में सबसे अधिक, भाँति-भाँति के दुर्जन और दुष्ट खाते-पीते मध्यवर्गीय समाज में ही
पाए हैं। व्यापारियों, प्रॉपर्टी डीलरों और
वकीलों-डाक्टरों-प्रोफेसरों जैसे पेशेवर बुद्धिजीवियों के अतिरिक्त
कवियों-लेखकों-कलाकारों की दुनिया में भी तरह-तरह के दुष्ट जीव देखे हैं --
ईर्ष्यालु, हर बनते काम को बिगाड़ने के लिए
तत्पर रहने वाले, चुगलखोर और कुटने, निहायत स्वार्थी, मतलबी, पद-पुरस्कार लोलुप, रसिया और रंगबाज़ ... ...। शायद यह भारतीय समाज में पुनर्जागरण और
प्रबोधन के प्रोजेक्ट के खंडित-विकलांग चरित्र तथा दो सौ वर्षों की गुलामी से पैदा हुई जनवादी व तार्किक चेतना की
कमी ही है जिसने हमारे मध्यवर्गीय बौद्धिक समाज के भी एक बड़े हिस्से को इसक़दर
दुष्ट बनाया है। हमारे समाज के ताने-बाने में जनवाद की कमी के कारण यहाँ का मानसिक
श्रम करने वाला तबका शारीरिक श्रम करने वालों से सिर्फ़ अपने को बहुत श्रेष्ठ ही
नहीं समझता, बल्कि उनसे घृणा करता है।
पुरुष-स्वामित्ववाद और सवर्ण-श्रेष्ठतावाद के संस्कार इस अमानवीय सामाजिक दुष्टता
को और मज़बूत बनाते हैं। इस वस्तुगत सामाजिक स्थिति का पूरा लाभ फासिज्म की राजनीति
को मिलता है। यानी आज जो ब्राह्मणवाद/सवर्ण-श्रेष्ठतावाद की और मर्दवाद की
संस्कृति और राजनीति है वह फासिज्म का टूल बन गया है। यूँ कहें कि ब्राह्मणवाद और
मर्दवाद आज पूँजीवाद की सेवा में सन्नद्ध हैं।
तो चलिए, दुष्टों के बारे में फिर कुछ और
बातें की जाएँ। दरअसल, जो भी दुष्टों के सताए हुए लोग हैं, उन्हें दुष्टों की निंदा से सुख प्राप्त होता है।
संस्कृत का एक कवि (नाम मुझे पता नहीं) कहता है :
"दुर्जनं प्रथमं वन्दे सज्जनं तदनंतरम
मुखप्रक्षालानात्पूर्व गुद्प्रक्षालनं यथा I"
अर्थात्, पहले मैं दुर्जन की वन्दना करता हूँ, उसके बाद सज्जन की, ठीक उसीप्रकार, जैसे
मुख-प्रक्षालन के पहले गुदा-प्रक्षालन किया जाता है।(यहाँ तत्सम शब्दों के
इस्तेमाल से बात थोड़ी सभ्यतापूर्ण लग रही है। इसी बात को अगर देशज और तद्भव शब्दों
में कह दिया जाए तो बात फूहड़ और अश्लील लगने लगेगी। तत्सम शब्दों या अंग्रेज़ी में
कहने पर गाली गाली नहीं लगती और गंदी बात भी शालीनतापूर्ण लगने लगती है।।)
लेकिन दुष्ट जनों के सूक्ष्म पर्यवेक्षण के मामले में तुलसीदास का
कोई जोड़ नहीं है। साथ ही दुष्टों के गुण बताते हुए जिस ह्यूमर और विट का प्रदर्शन
तुलसीदास ने किया है, वह भी बेजोड़ है। 'रामचरित मानस' के 'बालकाण्ड' की शुरुआत में ही तुलसी दुष्टों की
वन्दना करते हैं ताकि वे उनका सत्कार्य पूरा होने दें। हालांकि अंत में वह यह
संदेह भी प्रकट करते हैं कि इस वन्दना से दुष्टों पर कोई प्रभाव पड़ेगा। वह कहते
हैं कि अत्यंत प्यार से पालने पर भी कौव्वा निरामिषभोजी नहीं हो सकता। तुलसी की इस
पूरी खल-वन्दना का आनंद लीजिये :
"बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥
हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥
तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही॥
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥
दोहा-उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥
मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥"
अब सुविधा के लिए इस 'खल-वन्दना' का भावार्थ भी पढ़ लीजिये :
अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों की वन्दना करता हूँ जो बिना किसी
प्रयोजन के दायें-बायें होते रहते हैं। दूसरों की हानि करना ही इनके लिये लाभ होता
है तथा दूसरों के उजड़ने में इन्हें हर्ष होता है और दूसरों के बसने में विषाद। ये
हरि (विष्णु) और हर (शिव) के यश के लिये राहु के समान हैं (अर्थात् जहाँ कही भी
भगवान विष्णु या शिव के यश का वर्ण होता है वहाँ बाधा पहुँचाने वे पहुँच जाते
हैं)। दूसरों की बुराई करने में ये सहस्त्रबाहु के समान हैं। दूसरों के दोषों को
ये हजार आँखों से देखते हैं। दूसरों के हितरूपी घी को खराब करने के लिये इनका मन
मक्खी के समान है (जैसे मक्खी घी में पड़कर घी को बर्बाद कर देती है और स्वयं भी मर
जाती है वैसे ही ये दूसरों के हित को बर्बाद कर देते हैं भले ही इसके लिये उन्हें
स्वयं ही क्यों न बर्बाद होना पड़े)। ये तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि
और क्रोध में यमराज के समान हैं और पाप और अवगुणरूपी धन में कुबेर के समान धनी
हैं। इनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के समान केतु (पुच्छल तारा) के समान है। ये
कुम्भकर्ण के समान सोये रहें, इसी में सभी की
भलाई है। जिस प्रकार से ओला खेती का नाश करके खुद भी गल जाता है उसी प्रकार से ये
दूसरों का काम बिगाड़ने के लिये खुद का नाश कर देते हैं। ये दूसरों के दोषों का बड़े
रोष के साथ हजार मुखों से वर्णन करते हैं इसलिये मैं दुष्टों को (हजार मुख वाले)
शेष जी के समान समझकर उनकी वन्दना करता हूँ। ये दस हजार कानों से दूसरों की निन्दा
सुनते हैं इसलिये मैं इन्हें राजा पृथु (जिन्होंने भगवान का यश सुनने के लिये दस
हजार कान पाने का वरदान माँगा था) समझकर उन्हें प्रणाम करता हूँ। सुरा जिन्हें नीक
(प्रिय) है ऐसे दुष्टों को मैं इन्द्र (जिन्हे सुरानीक अर्थात देवताओं की सेना
प्रिय है) के समान समझकर उनका विनय करता हूँ। इन्हें वज्र के समान कठोर वचन सदैव
प्यारा है और ये हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं। दुष्टों की यह रीत
है कि वे उदासीन रहते हैं ( अर्थात् दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिये यह नहीं
देखते कि वह मित्र है अथवा शत्रु)। मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक दुष्टों की
वन्दना करता हूँ।
मैंने अपनी ओर से वन्दना तो की है किन्तु अपनी ओर से वे चूकेंगे
नहीं। कौओं को बड़े प्रेम के साथ पालिये , किन्तु क्या वे मांस के त्यागी हो सकते हैं?
(तुलसी की चौपाइयों का भावार्थ मैंने जी.के. अवधिया के ब्लॉग
"धान के देश में।" से यथावत ले लिया है )
इति श्री दुष्ट-महाख्यानम् समाप्तं भवति।
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