कोविड-19, बुर्जुआ सामाजिक-राजनीतिक ढाँचा और बुर्जुआ मानवतावाद


कोविड-19, बुर्जुआ सामाजिक-राजनीतिक ढाँचा और बुर्जुआ मानवतावाद
कविता कृष्णपल्लवी

कोविड-19 की भयावह विभीषिका के दौरान जितना पूँजीवाद का सामाजिक-राजनीतिक ढाँचा और उसका पैशाचिक मानवद्रोही चरित्र नंगा हुआ है, उतना ही चैरिटी और बुर्जुआ मानवतावाद का चरित्र भी नंगा हुआ है।
यह तथ्य अब एकदम साफ़ हो चुका है कि जनवरी में कोरोना का पहला केस आने के बाद मोदी सरकार ने आपराधिक लापरवाही की। सुरक्षा-किट्स आदि का मार्च तक निर्यात होता रहा। जाँच की पहले से कोई तैयारी नहीं हुई। इस महामारी का मुकाबला करने के लिए 15 हज़ार करोड़ का बजट तय हुआ, जबकि राजधानी के सेंट्रल विस्टा के निर्माण का बजट 20,000 करोड़ था। सरकार ने इस संकटकाल में इतना भी नहीं किया कि सेंट्रल विस्टा के निर्माण और एन.पी.आर. के लिए निर्धारित बजट को ही तात्कालिक तौर पर कोरोना के मुकाबले में लगा दिया जाता। होना तो यह चाहिए था कि स्पेन की तरह सभी निजी चिकित्सा-संस्थानों का अधिग्रहण करके वहाँ कोविड-19 के लिए निःशुल्क जाँच, क्वैरेन्टाइन और आइसोलेशन बेड आदि का इंतज़ाम किया जाता। पर इसके उलट, सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में निजी जाँच-केन्द्रों की पैरवी की और सर्वोच्च न्यायालय ने निःशुल्क जाँच के अपने पूर्व आदेश को पलटते हुए यह फैसला दिया कि निजी लैब अब जाँच के 4500 रुपये वसूलेंगे। अभी भी कोरोना के कम केस बताकर सरकार जो अपनी पीठ ठोंक रही है, उसका एकमात्र कारण यह है कि भारत में टेस्ट ही अभी भी बहुत कम हो रहे हैं। इस मामले में भारत दुनिया के देशों में 114वें स्थान पर है, यानी, बांगला देश, पाकिस्तान, श्रीलंका से भी नीचे। आगे भी लॉकडाउन बढाने के अलावा सरकार के पास इंतज़ार के अतिरिक्त कोई भी कारगर रणनीति नहीं है।
मात्र चार घंटे की नोटिस देकर लॉकडाउन करने से देश के करोड़ों आप्रवासी मज़दूरों पर भूख और दर-बदर होने का जो कहर टूट पड़ा, उस विभीषिका से अपने घरों में बंद होकर ताली-थाली बजाने और दीया जलाने वाले उस चोट्टे-मुफ्तखोर, भ्रष्टाचारी, कूपमंडूक, खुशहाल मध्यवर्ग की कोई हमदर्दी नहीं है, जो मज़दूरों से पहले से ही नफ़रत करता रहा है। पूँजीपति और सरकार और समाज के धनिक लोगों ने जुबानी जमाखर्च के अलावा मज़दूर आबादी के लिए जो कुछ भी किया वह ऊँट के मुँह में जीरे के समान था।
इस दौरान भी, लॉकडाउन का फ़ायदा उठाकर सरकार लगातार सी.ए.ए.-एन.पी.आर.-एन. आर.सी. विरोधी आन्दोलन में सक्रिय लोगों को गिरफ्तार कर रही है, प्रसिद्ध मानवाधिकारकर्मियों को जेलों में ठूँस रही है और जाहिल तबलीगियों की एक गलती का (जिसके लिए सरकार भी बराबर ज़िम्मेदार थी) लाभ उठाकर बेहद खतरनाक ढंग से 'हिन्दू-मुस्लिम' का गेम खेल रही है। इसी बीच कई हिन्दू धार्मिक जमावड़े भी हुए और कई राजनीतिक जमावड़े भी हुए, कनिका कपूर की पार्टियों में सैकड़ों नामचीन हस्तियों और राजनेताओं ने हिस्सा लिया, पर चर्चा उस तथाकथित 'कोरोना जेहाद' की ही चल रही है जिसके लिए पूरे देश में गरीब मुसलमानों को अलग-थलग करने और उनके बहिष्कार का माहौल बनाया जा रहा है। एकतरह से मॉब लिंचिंग का माहौल बनाया जा रहा है।
कोरोना की तैयारी में तो सरकार ने भयंकर चूकें कीं, पर सभी सरकारी अस्पतालों में दूसरे रोगों के इलाज भी ठप्प हो गए हैं। ओ पी डी बंद पड़े हैं। आप सोचिये, इस पूरे दौरान जिसतरह भूख और कुपोषण से मरने वालों के आँकड़े कभी भी सामने नहीं आयेंगे, उसीतरह इलाज के अभाव में सामान्य और गंभीर बीमारियों से मरने-वालों के आँकड़े भी कभी सामने नहीं आयेंगे। लेकिन अगर आप कहीं ज़मीनी तौर पर गरीब मज़दूर आबादी के बीच काम करते हैं और देश के विभिन्न हिस्सों में इसतरह काम करने वाले लोगों से आपका संपर्क है तो आपको इस भयंकर, ऐतिहासिक मानवीय विभीषिका का एक हद तक अनुमान ज़रूर हो जाता है। कोरोना से कई गुना अधिक कोरोना-प्रबंधन की सरकारी नीति ने मज़दूरों और गरीबों को मौत और बीमारियों और असहनीय दुर्दशाओं का शिकार बनाया है। और यह सिर्फ़ फासिस्ट मोदी सरकार की बात नहीं है। यूरोप और अमेरिका के समृद्धिशाली समाजों में भी अगर कोरोना का कहर भयंकर रूप में बरपा हुआ है तो इसका एकमात्र कारण यह है कि इन पूँजीवादी समाजों में मुनाफाखोरों के बीच प्रतिस्पर्द्धा के चलते भयंकर अराजकता है,तथा, स्वास्थ्य-चिकित्सा सरकार की ज़िम्मेदारी न होकर मुनाफ़ा कमाने का उपक्रम है। कोरोना की विपदा ने सिद्ध कर दिया है कि मुनाफे की धुरी पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था कभी भी एक मानव-केन्द्रित व्यवस्था हो ही नहीं सकती।
जैसाकि हमने पहले ही कहा, कोरोना की विपदा ने जितना सिस्टम को नंगा किया है, उतना ही बुर्जुआ मानवतावाद के लिजलिजे घिनौने चरित्र को भी नंगा किया है। यह ठीक है कि ऐसे समय में हर मानवीय व्यक्ति विभिन्न रूपों में आपदा-राहत-कार्य में लगा हुआ है, पर इस देश के बड़े-बड़े उद्योगपति-व्यापारी-नेता आदि जो अरबपति-खरबपति हैं, उनका राहत-कार्यों में योगदान नगण्य है। अगर ये दान दे भी रहे हैं तो प्रधान मंत्री द्वारा अभी स्थापित पी एम केयर फण्ड में दे रहे हैं। इस फण्ड में काफी पैसा आ गया है, पर अभी भी उसमें से खर्च की कोई घोषणा सामने नहीं आई है।
बहुतेरे ऐसे मानवतावादी हैं जो कहते हैं कि इस समय, विपत्ति की घड़ी में हमें सरकार की आलोचना करने की जगह उसका साथ देना चाहिए। अरे गोबर-गणेशो, जब हमारा मानना है कि सारी तबाही को सरकार की पूँजी-परस्त नीतियों और घटिया राजनीति ने सामान्य से पचास गुना बढ़ा दिया है, तो आखिर हम इस बात को कब उठायेंगे? अगर हम मानते हैं कि स्वास्थ्य-चिकित्सा के पूरे तंत्र के निजीकरण का इस तबाही में अहम रोल है, तो इस बात को हम कब उठायेंगे? अगर कोरोना से निपटने के लिए सरकारी बजट बहुत कम है, जबकि इससे कई गुना अधिक निहायत गैर-ज़रूरी खर्चे सरकार कर रही है, तो हम इस सवाल को उठाने के लिए क्या इस सरकार की तेरही तक इंतज़ार करेंगे? अगर हम देख रहे हैं कि लोग जब इतनी बड़ी परेशानी में फँसे हुए हैं और लॉकडाउन की स्थिति में वे सड़क पर भी नहीं आ सकते तो सरकार ने बड़े पैमाने पर मानवाधिकार कर्मियों और शाहीन बाग़ टाइप आन्दोलनों के अगुआ चेहरों को गिरफ्तार करके जेलों में ठूँस रही है, तब क्या इसके ख़िलाफ़ आवाज़ न उठायी जाए? अगर ये फासिस्ट कोरोना को भी बहाना बनाकर मुस्लिम आबादी को अलगाव में डालने का गेम खेल रहे हैं, तो इस सवाल को कब उठाया जाएगा? लेकिन नहीं, मानवतावादी की आत्मा दुखी हो जायेगी।
दरअसल ये मानवतावादी या तो एकदम घामड़ और गावदी टाइप भलमानस होते हैं, या फिर निहायत धूर्त लोग होते हैं जो मानवतावाद की खाल ओढ़कर जन-समुदाय की राजनीतिक समझ को, वर्ग-बोध को भोथरा बनाने का काम करते हैं। मानवतावादियों के आँसू वास्तव में ग्लिसरीनी आँसू होते हैं। ये वर्ग-सामंजस्य और सत्ता से तालमेल का पाठ पढ़ाते हुए जनता की संघर्षशील चेतना पर चोट करते हैं और उसे 'एडजस्ट' करके जीने की शिक्षा देते हैं। आपदा के समय में आपदा के बुनियादी कारणों की पड़ताल करके सत्ताधारियों को कटघरे में खड़ा करने की जगह जो लोग "राजनीति न करने" की या "सत्ता का साथ देने " की या "सत्ता के साथ तालमेल करके चलने " की नसीहत देते हैं, उन मानवतावादियों के सभी उपदेश और परामर्श सड़क पर पड़े हुए कुत्ते के गू से अधिक महत्वपूर्ण नहीं होते।


Comments

  1. आपके लेख में एकदम से आम लोगों का दर्द बयान करती हुई दास्तान अस्पष्ट हो रही है यह ही आज की सच्चाई है आम जनता में त्राहिमाम मची हुई है और सरकार कान में तेल डालकर सोई हुई है.

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  2. कोरोना तो विश्व विख्यात हो चुका है इस लड़ाई में हरेक वर्ग को तन मन धन से सेवा करना चाहिए था बिना झूठ,बिना अफवाह बिना राजनीति ।आज के अखबार एक बार पढ़लो तो दूर दिन रद्दी में डालने के शिवाय कोई चारा नहीं,टीवी चैनल में रेटिंग की होड़ सी लग गई है क्योंना समाचार झूठी ही दिखाना पड़े,सारे न्यूज़ एक जैसे कभी कभी सच्चे न्यूज़ भी झूठे लगने लगते है क्योंकि सारे मीडिया एक जैसे लकवाग्रस्त हो गए हैं ।जय 🇮🇳 ।

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