दीवाली के अवसर पर......


दीवाली के अवसर पर......

आज दीवाली का दिन है और मोबाइल पर लगातार दीवाली की बधाइयों के संदेश आ रहे हैं। कल रात (6 नवम्‍बर) लगातार पटाखे फूट रहे थे और आज शायद उससे भी ज्‍यादा फूूटेंगे। दीवाली और होली यह दो त्योहार हमारे देश में फसलों की कटाई से सीधे सीधे जुड़े हुए थे और धार्मिक कहानियां इन में बाद में जोड़ी गई और दीवाली में पटाखे तो अभी 100 साल पहले ही दो व्यापारियों द्वारा जोड़े गए। किसानी समाज में जब फसलें कटकर घर पहुंचती थी तो यह हर्षोल्लास का समय होता था। बहुत ज्यादा नहीं अगर 25-30 साल पहले की भी बात करें तो कुछ हद तक यह त्यौहार बड़ी आबादी के लिए असल जिंदगी से जुड़ता था। साथ ही ज्यादातर उद्योगों में भी दिवाली के समय बोनस आदि देने की परंपरा थी पर आज के समय में भारत किसानी प्रधान समाज से औद्योगिक समाज बन गया है और खेती में भी फर्टिलाइजर और संचार उपकरणों के दम पर फसलों का समय बदल गया है, साथ ही उद्योग लगातार मंदी से गुजर रहे हैं और बोनस तो छोड़ दीजिए लगातार नौकरियां ही कम की जा रही है और कॉन्टैक्ट, ठेका प्रथा की वजह से तनख्वाह कई सालों से लगातार स्थिर है। ऐसे में लोगों की जिन्‍दगी में इस दिन कोई असल खुशी नहीं आती है। जो लोग इस पूरी परिघटना को नहीं समझते हैं वो भी आपको कहते मिल जायेंगे कि अब कहां पहले जैसी दीवाली। मध्‍यम वर्ग इस खुशी को पाने के लिए खूब पैसे खर्च करता है, खूूब पटाखे छोड़ता है पर खुशी है कि फिर भी नहीं आती और उनके चेहरे देखकर इसका आभास भी हो जाता है। मजदूर वर्ग के लिए तो अब त्‍यौहार भी कोई खुशी लेकर नहीं आते। शायद आपको पता होगा कि हमारे देश में बनने वाले पटाखों का 90 फीसदी हिस्‍सा शिवकाशी से आता है जहां 7 लाख मजदूर काम करते हैं। इन मजदूरों में बहुत सारी महिलाएं और बच्‍चे भी हैं व 90 फीसदी मजदूर अस्‍थमा व टीबी जैसी गम्‍भीर बीमारियों से ग्रस्‍त हैं। जाहिर है कि जिन पटाखों के दम पर मध्‍यम वर्ग अपनी खुशी जाहिर करता है वो किसी की जिन्‍दगी बर्बाद करते हैं। आज अगर सच में कोई त्‍यौहार मनाना है तो उसके लिए ये समझना होगा कि वर्तमान मुनाफे की व्‍यवस्‍था अब बहुसंख्‍यक आबादी को कोई खुशी नहीं दे सकती है। इंसान के साथ-साथ ही ये व्‍यवस्‍था प्रकृति को भी तबाह-बर्बाद कर रही है। सच्‍ची खुशी पाने के लिए इस भयंकर मानवद्रोही व्‍यवस्‍था को बदलने के लिए शिद्दत से काम में लगना होगा।
दीवाली के अवसर पर आज आपके लिए पेश हैं कुछ कविताएं
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शिवकाशी में पटाखे़ बनाने वाले बच्चे की कविता
कात्यायनी

बचपन में
बनवाते हो पटाख़े
और
नौजवानी में बम बनाने से
रोकते हो?
आज जीने के लिए
बनाते हैं पटाख़े
कल जीने के लिए
क्यों न बनाएँ बम?
आज
तुम्हारे मुनाफ़े की शर्त है
हमारा जीना
लेकिन मत भूलना
कि हमारे जीने की शर्त है
तुम्हारे मुनाफ़े का ख़ात्मा।
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जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
गोपालदास "नीरज"
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए।

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
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शहर अँधेरे में
कुमार रवीन्द्र

बहुत रोशनी
राजमहल के परकोटे में
सारा शहर अँधेरे में डूबा है

ऊँचे-ऊँचे कंगूरों पर
धूप बड़ी है
नीचे परछाईं में सिमटी
प्रजा खड़ी है

लंबी-चौड़ी दीवारें हैं
राजभवन की
किरणों का पल इनके घेरे में डूबा है

उजली मीनारों में बंदी
नई रश्मियाँ
नीचे वही पुरानी
धुँधली कुहा-भस्मियाँ

मैली हैं साँसें बस्ती के
कोलाहल की
वातावरण धुएँ के डेरे में डूबा है

स्वप्नलोक में
ऊपर-ऊपर तैर रहे हैं
नीचे अंधकार के
सागर बहुत बहे हैं

बड़े चतुर हैं राजपथों के
सारे प्रहरी
सूरज तहख़ानों के फेरे में डूबा है
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अँधेरे चंद लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
द्विजेन्द्र 'द्विज'

अँधेरे चंद लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते

न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते

फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते

तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी हमें कब तक
वहाँ भी तो बसेरे हैं जहाँ गुम्बद नहीं होते

चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर— घने बरगद नही होते
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निहारिका पाण्डेय  की कविता...

एक ओर पटाखों का शोर है
पाँच से पाँच सौ के पटाखे धीं धीं करके जल रहे हैं
रात के अंधेरे आसमां को अपनी रंगीन रौशनी से भर रहे हैं
दूजी ओर सड़कों के भूखे नंगे
आज की रात अपने लिए छत तलाश रहे हैं
दिये की रोशनी से रौशन घरों की परछत्ती के नीचे
अपने लिए एक रात का बसेरा बना रहे हैं
रौशनी का ये त्योहार आज इन सब पर भारी है
आसमान को सजाते ये पटाखे
मौत बनकर इन बेघरों पर बरसते हैं
आज की रात लक्ष्मी चाहे जिस घर बसेरा बसाये
पर ये नंगे आज की रात छत के लिए सबसे ज्यादा तरसते हैं।
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दीप का उत्सव मनेगा
आदित्य कमल

दीपमाला की कतारों से
अँधेरा क्या छंटेगा ?...
धरा की बेचैन सिसकी
तिमिर की काली घटाएँ
रौंदी इस वसुधा पे फैली आह
और कुंठित हवाएँ
एक तरफ़ समृद्धि-वैभव
एक तरफ़ नम वेदनाएँ
धन-कुबेरों की बनी हैं ग्रास
हर संवेदनाएँ
यह है अँधा युग-
अँधेरा बहुत भीतर तक धंसा है
आदमी प्रतिगामी कितने
अंधकूपों में फँसा है
दम धरो , लाखों-करोड़ों लोग
जिस दिन ठान लेंगे
ज्ञान के दीपक ,
ध्वजा विज्ञान के जब तान लेंगे
दूर तब होगा अँधेरा
दीप का उत्सव मनेगा !
दीपमाला की कतारों से
अंधेरा क्या छंटेगा ?.....
तमस के सत्ता-शिखर पर
भूखे जब हमला करेंगे
लुट चुके ये लोग , जब
हर चीज़ पर कब्ज़ा करेंगे
रौशनी के दावे ले
हर हाथ में मश्आल होगा
चेतना का जश्न होगा
नृत्य होगा , ताल होगा
सदियों की तन्द्रा को तोड़े
संगठित मानव जगेगा
तोड़ेगा जब अंध - कारा
अंधकारों से भिड़ेगा
एकता के गीत और
संगीत से जब सुर सजेगा
दूर तब होगा अँधेरा
दीप का उत्सव मनेगा !
दीपमाला की कतारों से
अँधेरा क्या छंटेगा ?.....
मुक्त तन-मन के खुले
आकाश के फैले क्षितिज को
उषा की किरणें बिखर जब
लालिमा का रंग देंगी
प्राणों में आह्लाद जैसे
झुंड में गाते पखेरू
सारी कुदरत ज़िंदगी से
ज़िंदादिल अनुबंध लेगी
कर्मरत मानव के श्रम का
फल जब पूरा मिलेगा
मुक्तिदायी स्वप्न होगा
खुशियों का मेला लगेगा
कालिमा हर चीरता
जब मुक्ति का सूरज उगेगा
दूर तब होगा अँधेरा
दीप का उत्सव मनेगा !
दीपमाला की कतारों से
अँधेरा क्या छंटेगा ?.....


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