एमील ज़ोला के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास अंकुर (जर्मिनल) की पीडीएफ फाइल PDF File of the Emile Zola's World-famous Novel Germinal

एमील ज़ोला के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास अंकुर (जर्मिनल) की पीडीएफ फाइल खदान मजदूरों के जीवन और संघर्ष का एक जीवंत चित्रण

PDF File of the Emile Zola's World-famous Novel Germinal

A vivid depiction of the life and struggle of coal-mine workers


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इस उपन्यास की हिंदी पीडीएफ जो हम आपको पहुंचा रहे हैं वह अनुवाद रमेश चंद्र जोशी का है और अंकुर शीर्षक से प्रकाशित हुआ है‌। राजकमल प्रकाशन ने विश्व क्लासिक श्रृंखला के अंतर्गत इसी उपन्यास को 'उम्मीद है, आएगा वह दिन' नाम से प्रकाशित किया है। (अनुवाद - द्रोणवीर कोहली) अगर आप पीडीएफ की बजाय प्रिंट कॉपी से पढ़ना चाहते हैं तो राजकमल से खरीद सकते हैं। उपन्यास का एक विस्तृत परिचय हमने इस पोस्ट में नीचे शेयर किया है जो राजकमल द्वारा ही प्रकाशित उपन्यास की संपादकीय प्रस्तावना से लिया गया है। यह संपादकीय प्रस्तावना सत्यम और कात्यायनी द्वारा लिखी गई है।

उम्मीद है, आएगा वह दिन

'जर्मिनल' (उम्मीद है, आएगा वह दिन) को ज्यादातर आलोचक जोला की सर्वोत्कृष्ट रचना मानते हैं। यहाँ आकर ज़ोला एक बार फिर मज़दूर जीवन के चित्रण की ओर वापस लौटता है। लेकिन 'जर्मिनल' के मज़दूर 'दि ड्रामशॉप' के मज़दूरों की तरह अपनी इच्छाओं-आवश्यकताओं के बन्दी नहीं हैं, बल्कि वे दमनकारी परिस्थितियों का प्रतिरोध करने और विद्रोह करने में सक्षम सर्वहारा हैं। वे 'क्लास इन इटसेल्फ' से आगे बढ़कर 'क्लास फॉर इटसेल्फ' में रूपान्तरित हो रहे हैं। सरगर्मियों का रंगमंच भी यहाँ तक आते-आते बदल चुका है। 'दि ड्रामशॉप' के मज़दूर जहाँ छोटे-छोटे वर्कशापों की पुरानी दुनिया से अभी बाहर निकल ही रहे होते हैं, वहीं 'जर्मिनल' की घटनाएँ उन कोयला खदानों की बड़ी दुनिया में घटित होती हैं जिन्हें फ्रांस के उदीयमान पूँजीवाद के लिए ऊर्जा का प्रमुख स्रोत होने के नाते उस समय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उद्योग का दर्जा हासिल हो चुका था। बेहद खतरनाक स्थितियों में धरती के अँधेरे गर्भ में उतरकर हाड़तोड़ मेहनत करने वाले अनुशासित मज़दूरों की भारी आबादी खनन उद्योग की बुनियादी जरूरत थी। आधुनिक युग के ये उजरती गुलाम खदानों के आसपास बसे खनिकों के गाँवों में नारकीय जीवन बिताते थे। एकजुटता इस नये वर्ग की उत्पादक कार्रवाई से निर्मित चेतना का एक बुनियादी अवयव थी और उसकी एक बुनियादी जरूरत भी। ‘जर्मिनल’ खदान मज़दूरों की जिन्दगी के वर्णन के साथ-साथ मज़दूर वर्ग और बुर्जुआ वर्ग के बीच के सम्बन्धों का प्रामाणिक चित्र उपस्थित करता है। साथ ही, यह खदान मज़दूरों की एक हड़ताल के दौरान और उसके बाद घटी घटनाओं का मूल्यांकन प्रकारान्तर से उस दौर के उन राजनीतिक आन्दोलनों के सन्दर्भ में भी करता है जो सर्वहारा वर्ग की समस्याओं के अलग-अलग समाधान तथा उनके अलग-अलग रास्ते प्रस्तुत कर रहे थे। मोटे तौर पर ऐसी तीन धाराएँ उस समय यूरोप में मौजूद थीं-मार्क्सवाद, अराजकतावाद और ट्रेडयूनियवाद। ज़ोला द्वारा कोयला खदानों की इंसानों को लील जाने वाले राक्षस से तुलना और मज़दूरों के चरित्र-चित्रण के लिए पशुजगत और वनस्पति विज्ञान के बिम्बों का प्रयोग ऐसे उपन्यास की महाकाव्यात्मक सम्भावनाओं को उद्घाटित करने में सहायक बनते हैं जो अभिशाप और पुनरुद्धार के प्राचीन मिथक की आधुनिक सन्दर्भों में प्रतिकृति तैयार करता है।

उपन्यास का शीर्षक फ्रांसीसी क्रान्ति के बाद, 1792 में लागू क्रान्तिकारी कैलेण्डर के एक महीने के नाम से लिया गया है। जर्मिनल का महीना मार्च-अप्रैल के आसपास, यानी बसन्त के दौरान आता है और अंकुरण (जर्मिनेशन) और आशाओं का महीना माना जाता है। लेकिन इसके अतिरिक्त उपन्यास के शीर्षक-चयन के पीछे ऐतिहासिक प्रतीकात्मकता का भी एक महत्त्वपूर्ण पहलू था। तीसरे वर्ष के बारहवें जर्मिनल (1 अप्रैल 1795) को पेरिस में भूखी जनता की भीड़ ने सड़कों पर जबर्दस्त हंगामा मचाया था तथा “रोटी और 1793 के संविधान को लागू करने" की माँग की थी। इन्हीं घटनाओं ने पहले क्रान्तिकारी समाजवादी बाब्येफ को अपने गुप्त संगठन 'आर्गनाइजेशन ऑफ ईक्वल्स' की स्थापना की प्रेरणा दी थी। 'जर्मिनल' उपन्यास में ज़ोला का उद्देश्य कोयला खदान मज़दूरों के जीवन और संघर्ष के ग्राफिक और प्रामाणिक चित्रण से भी कहीं अधिक शायद यह दिखलाना था कि अपनी क्रान्ति पूरी कर लेने के बाद बुर्जुआ वर्ग नीचे से उठने वाली क्रान्ति की किसी भी नयी लहर को हर कीमत पर कुचल देना चाहता था।

'जर्मिनल' के पहले भाग में भूमिगत कोयला खदानों से कोयला निकालने की प्रक्रिया का लम्बा वर्णन है। निस्सन्देह, किसी क्षेत्र-विशेष की उत्पादन-प्रक्रिया का प्रामाणिक ब्योरा प्रस्तुत करने वाले शुरुआती उपन्यासों में 'जर्मिनल' का स्थान सबसे ऊपर आता है। उपन्यास का दूसरा खण्ड मज़दूरों की हड़ताल की गतिकी पर केन्द्रित है। इसके पहले के किसी भी उपन्यास में किसी औद्योगिक संघर्ष का इतना विस्तृत और प्रामाणिक चित्रण नहीं मिला। यहाँ तक कि बीसवीं शताब्दी में भी ऐसे गिने-चुने उपन्यास ही देखने को मिलते हैं जो इस मायने में 'जर्मिनल' के आसपास ठहरते हों। उपन्यास का केन्द्रीय चरित्र एतिएन लेंतिए, जर्वेस मकार का बेटा और नाना का सौतेला भाई है जो खनिकों के गाँव के लिए एक बाहरी आदमी है। वह एक मज़दूर बुद्धिजीवी है जो शराबखोरी और आवारागर्दी में डूबे आम खदान मज़दूरों से अलग किस्म की जिन्दगी बिताता है, समाजवादी अखबार और पैम्फलेट्स पढ़ा करता है और रूसी प्रवासी सूवारीन से बातें करता है। मैनेजमेंट जब वेतन-दरों में कटौती करता है और हड़ताल की शुरुआत होती है तो एतिएन हड़ताली मज़दूरों के नेता के रूप में उभरकर सामने आता है। भीड़ का मिजाज भाँपते हुए मज़दूरों की जनसभा में एतिएन प्रभावशाली भाषण देता है। आन्दोलन की लहरों पर सवार, लोकप्रियता के नशे में चूर एतिएन संसद में पहुँचने वाला पहला मज़दूर होने तक के सपने देखने लगता है। लेकिन संघर्ष जब आगे बढ़ता है तो संगठन के विचारों-परम्पराओं से अनभिज्ञ आम मज़दूर एतिएन के नियंत्रण से बाहर निकल जाते हैं। हड़ताल तोड़ने की कोशिश करने वाले गद्दारों-भेदियों के विरुद्ध हिंसात्मक कार्रवाई करने और मशीनों को तोड़ने जैसी गतिविधियों से वह मज़दूरों को रोकने की कोशिश करता है। हड़ताल जब लम्बी खिंच जाती है तो वही मज़दूर एतिएन को खारिज कर देते हैं और अपेक्षतया अधिक नरमपंथी रासेनोर की ओर मुड़ जाते हैं जिसे कभी एतिएन ने ही आगे बढ़ाया था।

हड़ताल अंततः विफल होती है और पराजित खनिक काम पर वापस लौट आते हैं, तो एतिएन उनमें हड़ताल के एक अगुआ मज़दूर और अपने एक भरोसेमंद सथी को देखकर अवाक रह जाता है। सदमे और ताज्जुब से भरकर वह पूछता है : "तुम भी?” वह आदमी बेबसी दिखाते हुए उत्तर देता है : “मैं और करता भी क्या? मैं एक शादीशुदा आदमी हूँ।'

ज़ोला न तो मज़दूर आन्दोलन का सिद्धान्तकार था, न ही कोई मज़दूर नेता, लेकिन ‘जर्मिनल’ उपन्यास में स्वतःस्फूर्तता से संगठन की मंजिल तक हड़ताल के विकास का और फिर उसकी पराजय का विस्तृत प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत करते हुए उसने आम हड़ताली मज़दूरों के मनोविज्ञान का उनकी चेतना की गतिकी का जो चित्रण किया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस मुकाम तक आते-आते उसके कृतित्व में आनुवांशिकता और जैविक नियतत्ववाद का स्थान मूल चालक शक्ति के रूप में नहीं रह गया था। उनका स्थान सामाजिक मनुष्य के बारे में ऐतिहासिक दृष्टिकोण ने ले लिया था। सर्वहारा वर्ग को ज़ोला अब एक ऐसे सामाजिक समूह के रूप में देख रहा था जो अमानवीकृत कर देने वाली सामाजिक परिस्थितियों की उपज था और जो उन परिस्थितियों का प्रतिरोध करने में, उनके विरुद्ध विद्रोह करने में सक्षम था।

'जर्मिनल' मज़दूर आन्दोलन में स्वतःस्फूर्तता की महत्ता स्पष्ट करते हुए संघर्ष में सचेतनता के आविर्भाव और क्रमिक विकास की जटिल और मंथर प्रक्रिया को तथा संघर्ष की विभिन्न मंजिलों को इतने प्रभावी ढंग से दर्शाता है कि मज़दूर आन्दोलन में सक्रिय कार्यकर्ताओं के लिए आज भी यह एक जरूरी अध्ययन-सामग्री लगने लगता है। ज़ोला ने इस प्रक्रिया का प्रभावशाली चित्रण किया है कि किस प्रकार अल्पविकसित चेतना वाले मज़दूर नये विचारों के कायल होते हैं, किस प्रकार अपनी जीवन-स्थिति को नियति मानकर जीने वाले मज़दूरों के सोचने-समझने का ढंग हड़ताल के प्रभाव में बदलने लगता है और किस प्रकार वे आन्दोलन द्वारा उठाये गये सवालों को समझने और उनके हल के बारे में सोचने की कोशिश करने लगते हैं। उपन्यास मज़दूरों की हड़ताल के दौरान कार्यनीति या रणकौशल (टैक्टिक्स) से जुड़े प्रश्नों पर भी विस्तार में जाता है। मिसाल के तौर पर इसमें हड़ताल के दौरान तोड़फोड़ की कार्रवाई और 'फ्लाइंग पिकेट्स' की सम्भावित भूमिकाओं पर भी विचार किया गया है। 'फ्लाइंग पिकेट्स' की हड़ताल के दौरान एक विशेष भूमिका दर्शायी गयी है। यह इतिहास का तथ्य है कि फ्रांसीसी कोयला खदानों में इनकी स्थापित परम्परा रही थी और 1869 की ल्वार हड़ताल के दौरान इनका विशेष रूप से इस्तेमाल किया गया था। हड़ताल के दौरान, उसकी अलग-अलग मंजिलों में, मज़दूर वर्ग के नेतृत्व के प्रश्न को भी ज़ोला ने व्यावहारिक धरातल पर कुछ इसे तरह से उठाया है कि उससे कुछ सैद्धान्तिक निष्पत्तियाँ भी निगमित की जा सकती हैं मज़दूर नेतृत्व को ज़ोला ने एक नियत सोपानबद्ध सम्बन्ध के रूप में नहीं बल्कि एक निरन्तर परिवर्तनशील अन्तर्सम्बन्ध के रूप में दर्शाने की कोशिश की है।

हड़ताल में स्त्रियों की भूमिका पर जोला ने विशेष रूप से ध्यान दिया है। इन स्त्रियों में खदान मज़दूरों की पत्नियाँ और खदान मज़दूर स्त्रियाँ दोनों ही शामिल हैं। उस समय तक खदानों में स्त्री-श्रम के इस्तेमाल पर अभी रोक नहीं लगी थी। उस समय तक लगभग सर्वमान्य 'वीकर सेक्स' की परम्परागत अवधारणा के विपरीत 'जर्मिनल' की स्त्रियाँ असाधारण रूप से दृढ़ संकल्प, स्वतंत्र व्यक्तित्व और युयुत्सु चरित्र वाली हैं और इनमें भी मेह्यूद विशेष रूप से उल्लेखनीय है। सदा अपमान, अतिशोषण और यौन उत्पीड़न झेलने वली स्त्रियाँ विद्रोह की ज्वाला भड़क उठने पर किस कदर क्रूर प्रतिशोध ले सकती हैं, यह दूकानदार मेग्रा की हत्या के बाद वाले प्रसंग से स्पष्ट हो जाता है। मेग्रा कर्ज नहीं चुका पाने वाली स्त्रियों का प्रायः यौन-शोषण करता रहा था। एक हमले में जब वह मारा जाता है तो स्त्रियाँ उसका गुप्तांग काटकर एक डण्डे पर टाँगकर सड़कों पर जुलूस निकालती हैं।

'जर्मिनल' एक तरह से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के यूरोपीय मजूदर आन्दोलन का एक लघु प्रतिरूप प्रस्तुत करता है। खदान मज़दूरों के एक छोटे से गाँव में तीन राजनीतिक धाराओं के सुस्पष्ट-सटीक प्रतिनिधियों की उपस्थिति हमें देखने को मिलती है। रासेनोर एक सुधारवादी है जो टकराव के बजाय वार्ताओं की राजनीति में विश्वास रखता है। सूवारीन अराजकतावादी है। एतिएन की अवस्थिति इन दोनों के बीच की बनती है। अनुभववादी ढंग से वह जुझारू वर्ग संघर्ष की सोच की ओर क्रान्तिकारी जनदिशा की सोच की ओर आगे बढ़ता हुआ चरित्र है। पेरिस कम्यून के पूर्व, पहले इण्टरनेशनल में भी यही तीन राजनीतिक धाराएँ कमोबेश प्रभावी रूप में मौजूद थीं।

सूवारीन उपन्यास के सर्वाधिक दिलचस्प चरित्रों में से एक है। वह एक रूसी अराजकतावादी क्रान्तिकारी है जिसने जार की ट्रेन उड़ाने की एक विफल कोशिश की थी और अब फ्रांस में शरणार्थी के रूप में रह रहा था। उसकी प्रेमिका जार की पुलिस की पकड़ में आ गयी थी और उसे सूवारीन की आँखों के सामने फाँसी दे दी गयी थी। सूवारीन सभी ट्रेड यूनियन कार्रवाइयों को फालतू मानता था। उसकी एकमात्र आशा थी 'अराजकता, प्रत्येक चीज का अन्त, जब पूरी दुनिया खून से नहायेगी और अग्नि द्वारा शुद्ध की जायेगी।' बहादुरी और कुर्बानी के तमाम जज्बे के बावजूद, सूवारीन द्वारा वर्ग-संघर्ष के अस्वीकार के पीछे आम जनता के प्रति गहन अविश्वास से भरा हुआ वही कुलीनतावाद और नायक-पूजा की वही भावना है जो हर किस्म के आतंकवाद में अन्तर्निहित होती है। लेकिन हड़ताल की पराजय के बाद ही वह वैकल्पिक कार्रवाई के बारे में सोचता है और खदान में तोड़फोड़ की योजना को अंजाम देता है। ज़ोला ने आतंकवाद को कमजोरी की निशानी के तौर पर, सामूहिक कार्रवाई में भरोसे की कमी के तौर पर और आन्दोलन के उतार के दौर में पैदा होने वाली निराशा की अभिव्यक्ति के रूप में देखा है, लेकिन उल्लेखनीय बात यह है कि उसकी भर्त्सना करने के बजाय उसने एक राजनीतिक प्रवृत्ति या परिघटना के रूप में उसे समझने की कोशिश की है।

'जर्मिनल' मज़दूर हड़ताल के विविध पक्षों का प्रामाणिक ब्योरा प्रस्तुत करते हुए भी यहीं तक सीमित नहीं रहता। वह शक्तिशाली कलात्मकता के साथ पूँजीवादी समाज के मानवद्रोही चरित्र की मर्मभेदी ऐतिहासिक आलोचना प्रस्तुत करता है। ज़ोला ने प्रकृति और जीवन के शक्तिशाली बिम्बों और रूपकों के माध्यम से उस पूँजीवाद की विमानवीकारी (डीह्यूमनाइजिंग) शक्ति को दर्शाने की प्रभावी कोशिश की है जिसमें असंख्य आम स्त्री-पुरुष अपनी स्वतंत्रता, मानवीय सम्पूर्णता और नैसर्गिकता खोकर एक अनैसर्गिक तर्क-प्रक्रिया के वशीभूत होकर जीने लगते हैं जिसमें माल का उत्पादन मनुष्य के जीवन से हजारों गुना अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, मनुष्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए मनुष्य के ही द्वारा निर्मित मशीनें और उनके द्वारा उत्पादित माल मनुष्य के जीवन पर शासन करने लगते हैं और मनुष्य मानो मशीन रूपी मानवभक्षी दैत्यों का निर्जीव चारा बन जाता है। जोला ने भूमिगत कोयला खदान की तुलना एक जीवित दैत्य से की है जो मनुष्यों को लगातार निगलता रहता है और फिर भी उसकी भूख मिटने का नाम नहीं लेती।

अपने एक पत्र में ज़ोला ने लिखा था कि 'जर्मिनल' क्रान्ति का ही नहीं बल्कि करुणा का कृतित्व है, लेकिन इसके साथ ही, इसी पत्र में उसने यह भी लिखा था : “मैं चाहता यह था कि जो इस दुनिया के खुशकिस्मत लोग हैं, जो मालिक लोग हैं, उनसे चीखकर कहूँ: 'सावधान हो जाओ, धरती के नीचे देखो, उन अभिशप्तों को देखो जो खट रहे हैं और तकलीफें झेल रहे हैं। शायद अभी भी अन्तिम महाविपदा को टाला जा सकता है। लेकिन न्यायशील बनने में देर न करो अन्यथा खतरा यह है कि धरती फट पड़ेगी और इतिहास के सर्वाधिक भयंकर महाविप्लवों में से एक, सभी राष्ट्रों को निगल जायेगा।” कहा जा सकता है कि यह एक क्रान्तिकारी द्वारा क्रान्ति का आह्वान नहीं, बल्कि एक मध्यवर्गीय सुधारक की चेतावनी है, लेकिन साथ ही इतना अवश्य जोड़ा जाना चाहिए कि इस सुधारक के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में क्रान्ति की सम्भावना समाहित है। 'जर्मिनल' के लेखन के समय, (और उसके बाद के लगभग एक दशक के समय तक) ज़ोला की वैचारिक अवस्थिति दरअसल इसी मुकाम तक विकसित हुई थी। फ्लॉबेयर और गोंकूर बंधुओं की ही तरह वह बुर्जुआ वर्ग से और मुद्रा की सत्ता के वर्चस्व से गहरी घृणा करता था, लेकिन उन्हीं की तरह सर्वहारा वर्ग की इतिहास-निर्मात्री शक्ति में उसे भी रंचमात्र भरोसा नहीं था। वह उसे रुग्ण समाज के व्रण और विनाश के दूत के रूप में देखता था और इसके लिए पूँजीवादी अन्याय को जिम्मेदार मानता था। लेकिन यहीं पर हमें वह अन्तरविरोध भी अपने गहन रूप में देखने को मिलता है जो ज़ोला की वैचारिक अवस्थिति तथा उसके द्वारा यथार्थ के कलात्मक पुनर्मृजन के रूप में मौजूद है। कहना न होगा कि ऐसे ही अन्तरविरोध हमें अलग-अलग रूपों में तोल्स्तोय, बाल्ज़ाक या दोस्तोयेव्स्की जैसे आलोचनात्मक यथार्थवाद के अन्य पुरोधाओं में भी देखने को मिलते हैं। हड़ताल की पराजय के बावजूद 'जर्मिनल' की कथावस्तु पूँजीवादी उत्पादन-प्रक्रिया को वस्तुपरक ढंग से प्रस्तुत करती हुई समग्र प्रभाव के तौर पर पाठक को इस तार्किक परिणति तक पहुँचाती प्रतीत होती है कि पूँजीवाद को "न्यायशील" बनाना पूँजीवादी समाज के सूत्रधारों की इच्छा पर निर्भर नहीं करता और यह कि सामाजिक क्रान्ति का महाविस्फोट ही इसकी आन्तरिक गति की अन्तिम निष्पत्ति है। साथ ही, इसके मज़दूर चरित्र हमें आन्दोलन के तूफान के दौरान क्रमशः चेतनशील होते जाने वाली सक्रिय सामाजिक शक्ति के रूप में देखने को मिलते हैं, जो बात ज़ोला की तत्कालीन वैचारिक अवस्थिति से मेल नहीं खाती। यहीं पर उपन्यास के समापन-बिन्दु पर भी गौर करना जरूरी हो जाता है। एतिएन खनिक गाँव छोड़ देता है, इसलिए नहीं कि मज़दूर वर्ग से उम्मीद रखना उसने छोड़ दिया है, बल्कि इसलिए कि प्लूशार ने उसके सामने पेरिस में नौकरी का प्रस्ताव रखा है। चूँकि प्लूशार पहले इण्टरनेशनल का एक संगठनकर्ता था और चूँकि उपन्यास का कालखण्ड 1867 के आसपास का है, इसलिए ऐसा सोचना सर्वथा तर्कसंगत है कि ज़ोला पेरिस कम्यून की सरगर्मियों में भागीदारी की दिशा में एतिएन के प्रयास की ओर इंगित करना चाहता है।

सोचने की बात है कि मध्यवर्गीय जीवन और सोच वाला एक उपन्यासकार एक औद्योगिक हड़ताल और उसके विभिन्न चरणों में मज़दूरों की मनःस्थिति का इतना प्रामाणिक और बोधगम्य ब्योरा प्रस्तुत करने में किस तरह से सफल हो सका? 1884 तक फ्रांसीसी मज़दूर वर्ग कम्यून की पराजय के झटके से उबरने लगा था। आंज़ां के खदान मज़दूर जब हड़ताल पर गये, तो 'जर्मिनल' की सामग्री बटोरने के लिए ज़ोला ने स्वयं को वामपंथी सांसद जिआर का सेक्रेटरी दिखलाते हुए हड़ताल प्रभावित खदान क्षेत्र का दौरा किया और हड़ताल के दौरान मज़दूरों के जीवन और उसकी सारी गतिविधियों को नजदीक से और बारीकी से देखा। मैनेजमेण्ट की इजाजत लेकर वह 675 मीटर नीचे तक घुटनों के बल रेंगते हुए भूमिगत खदान के भीतर भी गया। आज़ा में जोला की मुलाकात एमील बास्ली नामक एक भूतपूर्व खदान मज़दूर से भी हुई। 'जर्मिनल' के सुधारवादी रासेनोर का चरित्र बास्ली को ही मॉडल मानकर गढ़ा गया है। इस प्रत्यक्ष अनुभव के साथ ही 'जर्मिनल' के ब्योरों की बारीकियों और प्रामाणिकता का एक स्रोत ज़ोला का जूल वाले के साथ निकट सम्पर्क भी था। जूल वाले उस दौर का एक महत्त्वपूर्ण समाजवादी लेखक था, हालाँकि फ्रांस में वाम धारा के साहित्येतिहास के लेखकों और समालोचकों द्वारा भी बहुधा उसकी उपेक्षा ही की जाती रही है। साथ ही, वह पेरिस कम्यून का एक नेतृत्वकारी संगठनकर्ता भी था। 1880 में आम माफी दिये जाने तक वाले ने लन्दन में निर्वासित जीवन बिताया। ज़ोला ने कठिन दिनों में उसे अखबारों से कुछ काम दिलाया था। वाले की सशक्त आत्मकथात्मक उपन्यास-त्रयी के लेखन के पीछे ज़ोला के निरन्तर प्रोत्साहनों का काफी हाथ रहा था। वाले ने 1869 और 1870 की खदान मज़दूरों की उन हड़तालों पर कई लेख लिखे थे, जिनके दमन के लिए सेना तक का इस्तेमाल करना पड़ा था। 12 मार्च 1884 को भी वाले ने आंज़ां के खदान मज़दूरों के समर्थन में एक जनसभा में भाषण दिया था। उसी वर्ष गर्मियों में, 'जर्मिनल' के लेखन के दौरान जोला मोंत-दोर में जूल वाले के साथ रोज ही घण्टों इस विषय पर बातचीत करता रहता था।

'जर्मिनल' की जिस महत्ता को अकादमिक-साहित्यिक दुनिया में वामपंथी धारा के लोग भी नहीं समझ सके, उसे मज़दूर आन्दोलन में सक्रिय कार्यकर्ताओं ने अपनी नैसर्गिक वर्गदृष्टि से सहज ही पहचान लिया। 1984-85 के दौरान मार्गरेट थैचर के शासनकाल में जब ब्रिटेन की कोयला खदानों की प्रसिद्ध लम्बी हड़ताल जारी थी तो एक जुझारू खदान मज़दूर ने अपने संघर्ष और 'जर्मिनल' की घटनाओं के बीच कई महत्त्वपूर्ण सादृश्यताओं को रेखांकित करते हुए लिखा था : “इस पुस्तक की घटनाओं और वर्तमान खदान मज़दूर हड़ताल के दौरान घट रही घटनाओं के बीच कई समानताएँ हैं। दोनों ही मामलों में मैनेजमेण्ट ने जानबूझकर हड़ताल को भड़काने का काम किया क्योंकि वे आश्वस्त थे कि खदान मज़दूरों की हार होगी और उसके बाद वे अपनी सत्ता को और मजबूत बनाने में सफल होंगे। दोनों ही मामलों में, मज़दूरों ने एक व्यक्ति पर, एतिएन और स्कारगिल पर, जरूरत से ज्यादा भरोसा किया। फ्रांसीसी मज़दूरों ने, पराजय के रूप में इसकी कीमत चुकायी। हालाँकि संगठन की कमी, भूख और गोली के द्वारा मज़दूर पराजित किये जा चुके थे, लेकिन संघर्ष के द्वारा वे बदल दिये गये थे। अब जिन्दगी के अपने हिस्से को वे उसी रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे, विद्रोह के बीज बोये जा चुके थे” (नार्मन स्ट्राइक, 'सोशलिस्ट वर्कर', 21 जुलाई, 1984 )

संघर्ष द्वारा मज़दूरों की चेतना में आया परिवर्तन ही उपन्यास का वह सकारात्मक पहलू है जो हड़ताल की पराजय के बिन्दु पर कथा के समापन के बावजूद इसे पराजयवादी नहीं होने देता और पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक संरचना की प्रखर आलोचना के साथ जुड़कर यह पहलू पाठक की चेतना को एक न्यायसंगत वैकल्पिक सामाजिक ढाँचे की परिकल्पना की दिशा में उन्मुख करता है। समग्रता में, यह उपन्यास मज़दूरों के कष्टों और स्वतःस्फूर्त विद्रोह के विवरण से आगे बढ़कर, उन्हें वर्गचेतस बनाने तथा उनके प्रतिरोध को संगठित करने के रास्ते का भी वर्णन करता है, या कम से कम इस दिशा में किये जाने वाले कुछ प्रयासों का नमूना पेश करता है।

कोयला खदानों के मज़दूरों के जीवन को उपन्यास का विषय बनाने वाला ज़ोला कोई पहला फ्रांसीसी लेखक नहीं था। 'जर्मिनल' के लेखन से लगभग एक दशक पहले कोयला खदानों के जीवन के विविध पक्षों पर कम से कम छह उपन्यास लिखे गये थे हालाँकि यह भी सच है कि उन्नीसवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रान्ति के देश ब्रिटेन की अपेक्षा फ्रांस में मज़दूर वर्ग के जीवन पर केन्द्रित उपन्यासों की परम्परा कमजोर थी। 1880 में कम्युनार्डों को आम माफी दिये जाने के बाद के चार वर्षों के दौरान, जब फ्रांसीसी मज़दूर आन्दोलन नये सिरे से उठ खड़े होने की प्रक्रिया में था, फ्रांस में 'जर्मिनल' के अतिरिक्त तीन और ऐसे उपन्यास प्रकाशित हुए जो खदान मज़दूरों के जीवन पर केन्द्रित थे। ये थे : मोरिस ताल्मीर का उपन्यास 'ग्रिसू' (1880), यीव्स गुदो का उपन्यास 'ला फैमिल पिशो' (1882) और जी. मेसनोव का उपन्यास 'प्लेबिएन' (1884)। जोला का उद्देश्य जहाँ मध्यवर्गीय पाठक समुदाय की चेतना को जागृत करते हुए उन्हें मज़दूरों के अमानवीय जीवन और बर्बर उत्पीड़न की समस्या के प्रति संवेदनशील बनाना तथा पूँजीवादी समाज की मानवद्रोही प्रकृति की आलोचना प्रस्तुत करते हुए इसके मानवीय और न्यायसंगत विकल्प की दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करना था : वहीं ताल्मीर, गुदो और मेसनोव के उपन्यास किसी न किसी रूप में मज़दूरों के बारे में मध्यवर्गीय पूर्वाग्रहों को और अधिक मजबूत बनाने का ही काम करते थे।

ताल्मीर पेरिस कम्यून को कुचलने वाली थियेर की सेना में शामिल था। बाद में उसने पत्रकार के रूप में कुछ समाजवादी और गणतंत्रवादी अखबारों में लेखन किया। उसका उपन्यास मुख्यतः जाकमिन नामक खदान मज़दूर की अतिनाटकीय जीवन-कथा और उसके मनोविज्ञान पर केन्द्रित है। खदान मज़दूरों के जीवन और हड़ताल का इस्तेमाल एक तरह से पृष्ठभूमि के रूप में किया गया है। ताल्मीर प्रकारान्तर से शोषण के विमानवीकारी (डीह्यूमनाइजिंग) प्रस्ताव को तो स्वीकार करता है, लेकिन वह मजूदरों को आत्ममुक्ति में अक्षम एक विमानवीकृत सामाजिक समुदाय के रूप में ही देखता है।

गुदो मूलतः आर्थिक मामलों का विशेषज्ञ लेखक और एक उदारवादी राजनीतिज्ञ था जो समाजवादी “वितण्डावाद” और “अत्याचार" के विरुद्ध पहले ही कुछ पुस्तकें लिख चुका था और हर तरह की हड़ताल का घोर विरोधी था। उसका उपन्यास एक खान दुर्घटना और फिर 'म्युचुअल एड फण्ड' के सवाल पर हुई एक विफल हड़ताल की पृष्ठभूमि में एक खदान मज़दूर परिवार की कहानी बयान करते हुए सामाजिक व्यवस्था की कुछ सामान्य आलोचनाएँ प्रस्तुत करता है, लेकिन कोई सकारात्मक विकल्प नहीं प्रस्तुत करता। गुदो के अनुसार, मज़दूर अराजक हिंसात्मक कार्रवाई के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकते और यह कि विफलता ही किसी भी हड़ताल की एकमात्र नियति हो सकती है। गुदो अज्ञान को सारी समस्या की जड़ मानता है और इसका समाधान ज्ञान-प्रसारण के उपक्रमों में ढूँढ़ता है।

मेसनोव का उपन्यास कई छद्म नामों वाले एक मज़दूर आन्दोलनकर्ता जुलिएं की जीवन-कथा है, जिसका विध्वसंवादी मानस उसके बचपन और पारिवारिक पृष्ठभूमि की देन है। 1870 के दशक में जेनेवा यात्रा के दौरान निर्वासित कम्युनार्डों से मिलने के बाद वह किसी रहस्यमय गुप्त संगठन का सदस्य बन जाता है और किसी गुप्त बॉसनुमा व्यक्ति के निर्देश पर मासूम खदान मज़दूरों को पथभ्रष्ट करने तथा हड़ताल उकसाने का काम करता है। मेसनोव सभी क्रान्तिकारियों और मज़दूर नेताओं को विकृतमानस में प्रस्तुत षड्यंत्रकारी के रूप में तथा सभी हड़तालों को विध्वंस की कार्रवाई के रूप करता है। वह इस सच्चाई को सिरे से खारिज करता है कि वर्ग हितों के टकराव असमाधेय होते हैं। खदान मज़दूरों को वह ऐसे नेकदिल मासूम लोगों के रूप में प्रस्तुत करता है जो दुष्टात्मा क्रान्तिकारियों द्वारा दिग्भ्रमित कर दिये जाते हैं।

बुनियादी तौर पर, समाजवाद-विरोधी और मज़दूर-विरोधी इन तीनों उपन्यासों में मज़दूर वर्ग के जीवन एवं संघर्षों के बारे में मध्यवर्गीय पूर्वाग्रहों के आधार पर कुछ 'स्टीरियोटाइप' चरित्र गढ़े गये हैं और इन सभी में जो चीज सिरे से गायब है वह है मज़दूरों की वर्ग-चेतना। तीनों उपन्यास खदान मज़दूरों को निर्मम-बर्बर जंगली लोगों या फिर एकदम भेड़वृत्ति की शिकार जमात के रूप में दिखलाते हैं जो मालिकों के साथ अपने हितों के साझेपन को समझ नहीं पाते और प्रायः आन्दोलनकारियों के उकसावे में आ जाते हैं।

इन्हीं उपन्यासों के साथ ज़ोला का उपन्यास 'जर्मिनल' प्रकाशित हुआ जिसने मज़दूर वर्ग की ऐतिहासिक क्रान्तिकारी भूमिका की पहचान न करने के बावजूद, उसके विमानवीकरण के लिए पूँजीवादी आर्थिक-सामाजिक ढाँचे को जिम्मेदार ठहराया और मज़दूर वर्ग के नारकीय जीवन को उसकी नियति मानने के बजाय उसके लिए पूँजीपति वर्ग को कठघरे में खड़ा किया। ज़ोला ने हड़ताल को शोषण-उत्पीड़न की तार्किक परिणति के रूप में चित्रित किया और तत्कालीन मज़दूर संघर्ष की अलग-अलग राजनीतिक दिशाओं का प्रामाणिक चित्रण करते हुए न्याय-निर्णय की जिम्मेदारी अपने पाठकों पर डाल दी। जैसा कि स्वयं उसने लिखा था, 'जर्मिनल' सभ्य समाज से न्यायशील होने का पुरजोर आग्रह था और इस बात की चेतावनी भी कि ऐसा न होने की स्थिति में सामाजिक क्रान्तियों के तूफान में सब कुछ तबाह हो जाना अवश्यम्भावी होगा।

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