लुगदी साहित्य : कुछ बातें
लुगदी साहित्य : कुछ बातें
कात्यायनी
फिल्मकार
कोस्ता गावरास ने एक बार किसी साक्षात्कार के दौरान कहा था कि हर फिल्म राजनीतिक फिल्म
होती है, जिस फिल्म में
अजीबोग़रीब हथियार लिए लोग पृथ्वी़ को परग्रहीय प्राणियों के हमले से बचाते होते
हैं, वे फिल्में भी
राजनीतिक ही होती हैं। बात सही है। अक्सर हम जो घोर अराजनीतिक किस्म की रूमानी या
मारधाड़ वाली मसाला फिल्म देखते हैं, वह किसी न किसी रूप में हमारे समय का, या उसके किसी
पक्ष का ही रूपक रचती होती है। जाहिर है कि देशकाल के इस रूपक के पीछे सर्जक की एक
विशेष वर्ग-दृष्टि होती है और उसे ध्यान में रखकर ही उस रूपक को समझा जा सकता है।
चालू मसाला
फिल्मोंं की तरह ही, समाज में बड़े पैमाने पर जो चलताऊ, लोकप्रिय साहित्य या लुगदी
साहित्य पढ़ा जाता है, वह भी किसी न किसी रूप में सामाजिक यथार्थ को ही परावर्तित
करता है। सचेतन तौर पर लेखक कत्तई ऐसा नहीं करता, लेकिन रोमानी, फैमिली ड्रामा
टाइप या जासूसी लुगदी साहित्य भी किसी न किसी सामाजिक यथार्थ का ही रूपक होता है,
या अपने आप
सामाजिक यथार्थ ही वहाँ एक फन्तासी रूप में ढल जाता है। कई बार होता यह है कि सतह
पर कहानी का जो नाट्य घटित होता रहता है, सतह के नीचे की दूसरी या तीसरी परत पर कथा के
कुछ दूसरे अर्थ उद्घाटित होते चलते हैं और सामाजिक जीवन का किसी और यथार्थ का खेला
चालू रहता है। इन अर्थ-सन्दर्भों में, मुझे लगता है कि जिसे हम ज्यादातर लुगदी साहित्य
मानते हैं, उसका भी एक
सामाजिक-राजनीतिक चरित्र होता है जिसे ऐसे साहित्य की ‘पॉलिफोनिक’ (बहुस्तरीय,
बहुसंस्तरीय)
संरचना और स्थाापत्य को समझकर ही समझा जा सकता है।
भारत में इस
तरीके के गम्भीर मार्क्सवादी अध्ययन लगभग न के बराबर हुए हैं। देवकी नन्दन खत्री
की तिलस्म और ऐय्यारी वाली रचनाओं (‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता संतति’) पर एक
अध्ययन डा. प्रदीप सक्सेना का है जो यह स्थापना प्रस्तु्त करता है कि इन कृतियों
के कथात्मक ताना-बाना और विन्यास के माध्यम से औपनिवेशिक सत्ता के विरोध का एक
नाट्य रचा गया है, या एक फन्तासी बुनी गयी है। मेरा मानना है कि ठीक
इसीप्रकार का शोधकार्य गोपाल राम गहमरी के कृतित्व पर भी हो सकता है, जिन्होंने
हिन्दी में जासूसी उपन्यासों के लेखन की शुरुआत की थी। हिन्दी भाषा के विस्तार और
विकास में गहमरी का योगदान शायद खत्री से कम नहीं था। आज यह एक अल्प ज्ञात तथ्य है
कि गोपालराम गहमरी एक जाने-माने पत्रकार थे, जिन्होंने ‘हिन्दुस्तान
दैनिक’ (कालाकांकर), ‘बम्बई व्यापार सिन्धु’, ‘गुप्तगाथा’, ‘भारत मित्र’,
‘श्री
वेंकटेश्वर समाचार’ आदि कई पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया था और कई अन्य के लिए
नियमित लेखन किया था। वह अकेले ऐसे हिन्दी पत्रकार थे जिन्होंने बाल गंगाधर तिलक
के पूरे मुकदमे की कार्यवाही अपने शब्दों में दर्ज़ की
थी।
राष्ट्रीय
आन्दोलन के दौर में और आज़ादी के कुछ वर्षों बाद तक भारतीय समाज में लुगदी साहित्य
का दायरा बहुत संकुचित था। दरअसल इसके उपभोक्ता आम शहरी
मध्यवर्ग का संख्यात्मक अनुपात ही समाज में बहुत कम था। इससे भी अहम बात यह थी कि
राष्ट्रीय आन्दोलन ने समाज में जो सांस्कृतिक-आत्मिक गतिशीलता और ऊर्जस्विता का
माहौल पैदा किया था, उसमें अच्छे साहित्य की पहुँच समाज के आम पढ़े-लिखे लोगों
तक हो रही थी। देश के सुदूरवर्ती इलाकों तक कुछ साहित्य प्रेमी
रियासतदारों-ज़मीन्दारों, कुछ व्या्पारियों और कुछ राष्ट्रीय चेतना सम्पन्न शिक्षित
नागरिकों (शिक्षक, वकील, डॉक्टर आदि) की पहल पर पुस्तकालय खुल गये थे और
पत्र-पत्रिकाएँ-पुस्तकों तक लोगों की पहुँच बनने लगी थी। देवकीनन्दन खत्री और
गहमरी ही नहीं, प्रेमचन्द, सुदर्शन, जैनेन्द्र आदि का साहित्य भी लोकप्रिय साहित्य की तरह पढ़ा
जाने लगा था। बंकिम चन्द्र, टैगोर, शरतचन्द्र आदि भी अनूदित होकर हिन्दी पाठकों तक
पहुँचने लगे थे। इससे पीछे की चेतना वाले लोग ज्यादातर धार्मिक साहित्य पढ़ते थे
और मेला-बाज़ारों में बिकने वाली ‘राजा भर्तृहरि’, ‘सोरठी बृजभार’, ‘आल्हा’,
‘किस्सा हातिमताई’,
‘अलिफ लैला ‘
आदि किताबें पढ़ते थे।
1950 और 1960 का दशक नेहरूकालीन सार्वजनिक क्षेत्र, सेवा क्षेत्र
और दफ़्तरों-कचहरियों के फैलाव के साथ शिक्षित मध्यवर्ग के भारी फैलाव का काल था।
यह समय था जब राष्ट्रीय आन्दोलन से समाज में पैदा हुई गतिशीलता और ऊर्जस्विता
छीजती जा रही थी। मध्यवर्ग का एक ऐसा हिस्सा तेज़ी से फैलता जा रहा था जो शिक्षित
था, लेकिन बस नौकरी
करना और परिवार चलाना उसका जीवन-लक्ष्य था। कला-साहित्य-संस्कृति से उसका कोई
लेना-देना नहीं था। आज़ादी के पहले के दिनों के मुकाबले, इस दौर का मध्यवर्ग कहीं
अधिक अराजनीतिक था। यह एक आत्मतुष्ट, कूपमण्डूक और गँवार-कुसंस्कृत शिक्षित समुदाय
था। इसमें से जो थोड़ा-बहुत साहित्य,-प्रेमी था भी, उसकी पहुँच गुरुदत्त से
लेकर चतुरसेन शास्त्री के उपन्यासों तक थी। फिर
इसी पाठक समुदाय तक पहुँचने वाले बहुत सारे लेखक पैदा हुए जो ज्यादातर परम्पराओं
का महिमामण्डन करने वाले, सामाजिक सुधारवादी या सतही रूमानी किस्म के गल्प लिखा
करते थे। यही हिन्दी का प्रारम्भिक लुगदी साहित्य था। लुगदी साहित्य के दायरे में
शुरुआती दौर का सर्वाधिक चर्चित नाम कुशवाहा कान्त का था, हालाँकि उनके रूमानी
उपन्यासों में प्राय: परम्पराभंजन का भी एक पक्ष हुआ करता था और उन्होंने एक
उपन्यास ‘लाल रेखा’ ऐसा भी लिखा था जो क्रान्तिकारी राष्ट्रीय आन्दोलन पर
केन्द्रित था। एक दूसरा नाम गोविन्द सिंह का था, जिनके लेखन में
यौन-प्रसंगों की छौंक-बघार के बावजूद सामाजिक तौर पर परम्परा-भंजन की अंतर्वस्तु
हुआ करती थी !
1960 और 1970 के दशकों में गुलशन नन्दा लुगदी साहित्य या फुटपाथिया साहित्य नामधारी सस्ते लोकप्रिय साहित्य की दुनिया के बेताज़ बादशाह रहे। गुलशन नन्दा के बाद रानू, राजवंश, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश काम्बोज, ओमप्रकाश शर्मा, अनिल मोहन, मनोज आदि पिछले पचास वर्षों के दौरान लुगदी साहित्य के शीर्षस्थ रचनाकार रहे हैं। इनमें गुलशन नन्दा के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय शायद वेद प्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक ही रहे हैं। वेद प्रकाश शर्मा के बहुचर्चित उपन्यास ‘वर्दी वाला गुण्डा’ की पहले ही दिन 15 लाख प्रतियाँ बिक गयी थीं। सुरेन्द्र मोहन पाठक के एक-एक उपन्यास के एक-एक संस्करण 30 हजार से अधिक प्रतियों तक के हुआ करते हैं। लुगदी साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण नाम प्यारे लाल आवारा का भी है, जिन्हें आज बहुत कम लोग जानते हैं लेकिन साठ के दशक में उनकी तूती बोलती थी। इलाहाबाद स्थित अपने रूपसी प्रकाशन से वह हर माह ‘रूपसी’ नामक पुस्तकाकार मासिक पत्रिका निकालते थे जिसके हर अंक में एक सम्पूर्ण उपन्यास प्रकाशित होता था, चाहे वह जासूसी हो, रूमानी हो या सामाजिक हो। ज्यादातर प्यारेलाल आवारा के ही उपन्यास होते थे, कभी-कभी दूसरे (प्राय: अल्पचर्चित) लेखकों के भी हुआ करते थे। बहुत कम लोग आज इस बात को जानते हैं कि राजकमल चौधरी का विवादास्पद उपन्यास ‘देहगाथा’ सबसे पहले ‘सुनो ब्रजनारी’ नाम से ‘रूपसी’ में ही प्रकाशित हुआ था। एक महत्वपूर्ण नाम ओमप्रकाश शर्मा का भी है जिनके उपन्यासों में वाम राजनीति के रंग भी यदा-कदा दीख जाते थे ! लुगदी उपन्यासों का लेखन शुरू करने से पहले वह एक कारख़ाना मज़दूर थे और ट्रेड यूनियन आन्दोलन में सक्रिय थे !
1970 के दशक में लुगदी साहित्य पर फिल्मों के बनने की
शुरुआत हुई। शुरुआत गुलशन नन्दा से हुई, फिर और लेखकों
की कृतियों पर भी फिल्में बनीं। इनसे लुगदी साहित्य की लोकप्रियता
और बिक्री पर काफ़ी प्रभाव पड़ा। लेकिन गत शताब्दी के अन्तिक दशक
से, जब घर-घर में
टी.बी. पर्दों पर लोकप्रिय सामाजिक-पारिवारिक-रूमानी-पौराणिक-छद्म ऐतिहासिक
धारावाहिकों की बाढ़ आ गयी, तो घरों में लुगदी साहित्य का स्पेस किसी हद तक कम हुआ।
प्लेटफार्मों के स्टालों पर अभी भी इनकी ढेरी लगी रहती है और ट्रेनों में यात्रा
के दौरान वक्त काटने के लिए लोग इन्हें खूब खरीदते
हैं। लेकिन स्मार्टफोन आने के बाद और फेसबुक-ट्विटर-इंस्टाग्राम-ह्वाट्सअप आदि का
चलन बढ़ने के साथ ट्रेनों-बसों में भी लोगों के हाथों में किताबें नहीं, स्मार्टफोन ही
अधिक दीखने लगे हैं। मज़दूरों की बस्तियों और निम्न मध्यवर्गीय बस्तियों पर फिर भी
लुगदी साहित्य की पकड़ किसी हद तक कायम है।
लुगदी साहित्य
की एक श्रेणी के रूप में अगर जासूसी उपन्यासों की बात करें तो इस मामले में इब्ने
सफ़ी को एक ‘ट्रेण्ड सेटर’ कहा जा सकता है। गहमरी के जासूसी उपन्यासों के बाद
दशकों तक अल्पख्यात लेखकों द्वारा छिटपुट जो जासूसी उपन्यास लिखे जाते रहे,
उनमें
सेक्स-प्रसंगों का तड़का ज़रूर होता था। अपने दो दोस्तों -- राही मासूम रज़ा और इब्ने
सईद द्वारा यह कहे जाने पर असरार अहमद उर्फ़ इब्ने सफ़ी ने इसे एक चुनौती की तरह
लिया और ऐसे साफ़-सुथरे जासूसी उपन्यासों की शुरुआत की जिनमे हास्य के प्रसंग तो
होते थे लेकिन अश्लीलता बिल्कु्ल नहीं होती थी। पहले उनके उपन्यास उर्दू में छपे,
फिर हिन्दी में
छपने लगे। ‘जासूसी दुनिया’ पत्रिका में उनके उपन्यासों की श्रृंखला प्रकाशित होती
थी। 1950 के दशक के अन्त
में जब वह पाकिस्तान चले गये, तब भी वहाँ से उनकी पाण्डुलिपियाँ आती रही और उनके उपन्यास
इलाहाबाद से छपते रहे। जासूसी उपन्यासों में इब्ने सफ़ी जैसी लोकप्रियता फिर किसी
और लेखक को नहीं मिली। इसके बाद किसी हद तक कर्नल रंजीत चर्चित रहे, पर जल्द ही उनके
उपन्यासों में भी सेक्स-प्रसंगों की छौंक-बघार खूब नज़र आने लगी। गत कुछ दशकों के
दौरान परशुराम शर्मा, प्रेम वाजपेयी, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र् मोहन पाठक,
केशव पण्डित
आदि कुछ चर्चित जासूसी उपन्यासकार रहे हैं, पर इनके ज्यादातर उपन्यासों
में कोई रहस्य जटिल नहीं बन पाता। वे सामान्य अपराध कथाएँ होती हैं और साहित्यिक
शैली की दृष्टि से काफ़ी कमज़ोर होती हैं।
पश्चिम में
अगाथा क्रिस्टी और आर्थर कानन डॉयल जैसे कई लेखकों ने जासूसी उपन्यासों के
साहित्यिक स्तर को काफ़ी ऊँचा उठा दिया था। उनमें कई पात्रों के जटिल मनोविज्ञान
का प्रभावी चित्रण होता था और अपराध शास्त्र (क्रिमिनोलॉजी) और विधि शास्त्र (ज्युरिस्प्रूडेंस)
की अच्छी समझ के साथ ही सामाजिक परिवेश और व्यक्तित्वों का भी उम्दा
चित्रण होता था। भारत में विशेषकर बांग्ला भाषा में कुछ लेखकों ने जासूसी गल्प को
ऐसे उत्कृष्ट मनोरंजक साहित्य के स्तर तक ऊपर उठाने का काम किया, जिसमें किसी हद
तक सामाजिक यथार्थ और मनोवैज्ञानिक गुत्थियाँ भी उत्कृष्ट ढंग से चित्रित होती
थीं। सारदेन्दु बंदोपाध्याय का पत्र ब्योमकेश बक्शी टी.वी. सीरियल बनने के पहले ही
बंगाल के घर-घर में लोकप्रिय था। जासूसी कहानियों में सत्यजीत रे ने भी
सफलतापूर्वक हाथ आजमाया था और उनके जासूस फेलू दा की भी घर-घर में लोकप्रियता थी।
हिन्दी –उर्दू में स्थापित साहित्यकारों में से एक – कृश्नचन्दर ने ‘हांगकांग की
हसीना’ नाम से एक जासूसी उपन्यास लिखा भी तो एक चलताऊ जासूसी उपन्यास से आगे वह
अपना कोई विशेष साहित्यिक मूल्य स्थापित नहीं कर पाया।
मेरा विचार है
कि जासूसी उपन्यासों की इस दुरवस्था पर विशेष ऐतिहासिक-सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ
ही विचार किया जा सकता है। पश्चिम में पूँजी की दुनिया के ऐतिहासिक विकास के
साथ-साथ जो सभ्य समाज विकसित हुआ, उसमें सम्पत्ति-विषयक अपराधों, जटिल आपराधिक मानसिकता,
रुग्ण मानसिकता,
अपराधशास्त्र ,
विधिशास्त्र और
फोरेंसिक साइन्स आदि का विकास हुआ। यही वह ज़मीन थी, जिसपर रहस्य-रोमांच और जटिल
ताना-बाना वाले, साहित्यिक स्तर वाले जासूसी उपन्यासों का विकास हुआ। भारत
में स्वतन्त्रता पश्चात काल में, विलम्बित और मंथर गति से जिस पूँजीवाद का विकास हुआ,
उसमें प्राकपूँजीवादी
सामाजिक-आर्थिक सम्बन्ध लम्बे समय तक बने रहे। भारतीय पूँजीवाद ने मध्यकालीन
संस्कृति और संस्थाओं को पुन:संस्कारित करके अपना लिया। अपनी प्राच्य विशिष्टताओं
वाला भारतीय पूँजीवाद तर्कणा के मूल्यों से काफ़ी हद तक रिक्त है। यही कारण है कि
इस समाज में तिलस्म, जादू, भूत-प्रेत और सामान्य अपराध-कथाओं की ज़मीन ज्यादा व्यापक
रूप में मौजूद है, जबकि जटिल अपराध-कथाओं की ज़मीन यहाँ बहुत कमज़ोर और
संकुचित रूप में मौजूद है। ज्यादा उन्नत स्तर के जासूसी
उपन्यास प्राय: उन्नत पूँजीवादी समाजों में ही लिखे जा सकते हैं, जहाँ
सम्पत्ति-विषयक सम्बन्ध जटिल होते हैं और बुर्जुआ नागरिकों के मानस की रुग्णता तथा
अन्तर-वैयक्तिक सम्बन्ध भी अधिक जटिल होते हैं। ऐसे समाजों में अपराधों और अपराध
शास्त्र के अधिक जटिल स्वरूप विकसित होते हैं और उन्नत स्तर के
जासूसी उपन्यासों की ज़मीन भी मौजूद रहती है और पाठक भी।
लुगदी साहित्य
के दायरे में, जिसतरह के रूमानी, सामाजिक और पारिवारिक किस्म के उपन्यास गत
शताब्दी के अन्त तक हिन्दी संसार में बड़े पैमाने पर लिखे और पढ़े जाते थे,
उनके उत्पादन
और खपत में गिरावट का एकमात्र कारण टी.वी. और कम्प्यूटर की घर-घर पहुँच ही हो,
ऐसी बात नहीं
है। इससे भी अहम बात यह है कि पिछले लगभग 20-25 वर्षों के दौरान, नवउदारवाद के
प्रभाव में भारतीय समाज का ताना-बाना तेज़ी से बदला है। जीवन की गति तेज़ हो गयी
है, लेकिन विचारों
और भावनाओं का गुरुत्व कम होता चला गया है। समाज के पोर-पोर में अलगाव (एलियनेशन)
का ज़हर भिनता चला गया है। भाग-दौड़ और अलगाव भरे जीवन में रोमांस का स्वरूप भी अब
पहले जैसा नहीं रह गया है। सामाजिक और पारिवारिक जीवन भी अब पहले जैसा नहीं रह गया
है। लुगदी साहित्य के ज्यादातर लेखक सफलता की पुरानी लीक को पीटने के चक्कर में
बदलते समय की नब्ज़ को नहीं पकड़ पा रहे हैं और लोकप्रियता के नये मंत्र ढूँढ पाने
में विफल होने के कारण पुराने अनुष्ठानों को ही दुहरा रहे हैं। यही मुख्य कारण है कि नयी
पीढ़ी में अब आपको लुगदी साहित्य के पाठक कम मिलेंगे। उसे अपने मनोरंजन की खुराक़
इण्टरनेट और स्मार्ट फोन के ज़रिए मिल जा रही है। लुगदी साहित्य की ज्यादातर
खपत इनदिनों पढ़े-लिखे मज़दूरों में और अधेड़ वय के आम मध्यवर्गीय नागरिकों में हो
रही है। आबादी का एक छोटा-सा हिस्सा जो नयी चीज़ों से घबराकर
नॉस्टैल्जिक होकर अतीत को शरण्य बनाता है, उसे टी.वी. सीरियल्स से और बीच-बीच
में आने वाली ‘बागवान’ और ‘विवाह’ जैसी कुछ फिल्मों से ख़ुराक मिल
जाया करती है। अब फिल्मों में अतीत का प्रेत अगर जगाया भी जाता है तो पुरानी कथा
को नये अन्दाज़ में सुनाना पड़ता है।
लगे हाथों
‘लोकप्रिय’ और ‘कलात्मक-वैचारिक रूप से स्तरीय’ के बीच के द्वंद्व पर भी विचार कर
लिया जाना चाहिए। सभ्यता के इतिहास में श्रम-विभाजन के प्रवेश और मानसिक श्रम -
शारीरिक श्रम के बँटवारे के साथ ही कला-साहित्य की दुनिया में इस द्वंद्व की
शुरुआत हो गयी थी। मिथक कथाओं के काल में यह अन्तरविरोध नहीं था। मिथकों का रचयिता
वही जन समुदाय था जो समस्त सामाजिक सम्पदा का निर्माता था। लेकिन ग्रीक और
संस्कृत महाकाव्यों के रचयिता अपने युग के व्यक्ति-बुद्धिजीवी थे। उस समय सभी आम
लोग इन कलाकृतियों को नहीं पढ़ते थे। उनका अपना लोक-साहित्य था, लोक-कलाएँ थीं।
पूँजीवाद के युग की खास बात यह है कि वह (प्रिण्टिंग प्रेस से लेकर कम्प्यूटर आदि
तक के जरिए) कलात्मक-साहित्यिक सामग्री का ‘मास-प्रोडक्शन’ कर सकता है, लेकिन बुर्जुआ
श्रम-विभाजन वाले समाज में किसी भी तरह से यह सम्भव ही नहीं है कि व्यापक आम
मेहनतक़श आबादी और नीरस कलमघिस्सू जीवन जीने भर की शिक्षा पाई
हुई आम मध्यवर्गीय आबादी उच्च स्तर के कलात्मक अमूर्तन और वैचारिकता का आस्वाद ले
सके। ‘आर्ट एप्रीसियेशन’ का वह प्रशिक्षण उसे बुर्जुआ सामाजिक ढाँचे में नसीब ही
नहीं होता। इसलिए यह तय है कि आम तौर पर हम कलात्मक-वैचारिक रूप से स्तरीय साहित्य
से लुगदी साहित्य जैसी लोकप्रियता की अपेक्षा नहीं कर सकते। यह सम्भव नहीं है। हाँ,
यह ज़रूर है कि
किसी समाज में जब बदलाव की सरगर्मी, वैचारिक उथल-पुथल और उम्मीदों का माहौल होता है,
तो आम जनमानस
उस कला-साहित्य को लेकर उत्सुक-उत्कण्ठित हो जाता है जो अपने समय और उसके भविष्य के बारे में
संजीदगी से बातें करते हैं और सवाल उठाते हैं। यही कारण था कि आज़ादी के पहले
स्तरीय लेखन ही पढ़ी-लिखी आबादी में लोकप्रिय था। अलग से लुगदी साहित्य का
अस्तित्व नहीं था। कमोबेश यह स्थिति 1950 के दशक तक बनी रही। इस बात
को फिल्मों के उदाहरण से भी किसी हद तक स्पष्ट किया जा सकता है। 1950 के दशक के अन्त
तक शान्ता राम, बिमल राय, गुरुदत्त, राजकपूर आदि की जो फिल्में स्तरीय कलात्मक मानी जाती थीं,
उनकी व्यापक
लोकप्रियता भी थी। 1960 के दशक के मध्य से एक ओर व्यावसायिक सिनेमा मुखर
सामाजिक-राजनीतिक अन्तर्वस्तु और स्तरीयता को खोता चला
गया (हालाँकि गहरे अर्थों में, वह राजनीतिविहीन नहीं था), दूसरी ओर इन मसाला फिल्मों
के बरक्स कला सिनेमा या समान्तर सिनेमा की एक समान्तर धारा अस्तित्व में आयी।
लुगदी साहित्य
को लेकर इन दिनों एक नया विमर्श चलन में है। कुछ साहित्यकार इसकी व्यापक
लोकप्रियता को ही साहित्यिक मूल्य का मान बनाकर पेश कर रहे हैं। वे जनता में इसकी
व्यापक पहुँच और इसके व्यापक प्रभाव को पैमाना बनाकर उन्नत कलात्मक स्तर और कम
पहुँच वाले साहित्य की भर्त्सना तक पर आमादा दीख रहे हैं। यह बेहद बचकानी, लोकरंजक और
हास्यास्पद बात है। माना कि उन्नतस्तरीय साहित्य को यथासम्भव व्यापक लोगों तक
पहुँच बनानी चाहिए, और माना कि कई बार इसमें सफलता भी मिल सकती है (प्रेमचन्द
से लेकर परसाई तक की लोकप्रियता उदाहरण हैं), पर लोकप्रियता को
कलात्मक-वैचारिक स्तर का पैमाना नहीं बनाया जा सकता। भले ही ‘हार्पर कालिंज’ इब्ने
सफ़ी के उपन्यासों के पुनर्प्रकाशन के बाद अब सुरेन्द्र मोहन पाठक को भी छापने जा
रहा हो और ‘राजकमल प्रकाशन’ भी लुगदी साहित्य के प्रकाशन के
लिए ‘फंडा’ नाम का उपकरण शुरू करने जा रहा हो, लुगदी साहित्य को स्तरीय
साहित्य का दर्जा़ कभी नहीं मिल सकता।
हाँ, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि लेखक की सचेतनता से स्वतंत्र होकर सामाजिक यथार्थ लुगदी साहित्य में भी परावर्तित होता है। जाने-अनजाने लुगदी साहित्य भी अपने समय और समाज का ही रूपक रचता है। उसमें सामाजिक यथार्थ की फ़न्तासी का संधान अवश्य किया जा सकता है। इन अर्थों और सन्दर्भों में, लुगदी साहित्य समाजशास्त्रीय अध्ययन और समाजेतिहासिक अध्ययन की बेहद उपयोगी सामग्री है, इसमें कत्तई कोई सन्देह नहीं है।
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