लेनिन के जन्मदिवस (22 अप्रैल) पर उनकी कुछ यादें
लेनिन के जन्मदिवस (22 अप्रैल) पर उनकी कुछ यादें
आजकल
लोगों की एक बहुत
बड़ी तादाद ऐसी है जो
कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी नेताओं के जीवन और
उनके कामों के बारे में
वही जानती है जो 'नेशनल
ज्योग्राफ़िक' और 'हिस्ट्री चैनल'
पर या पश्चिम में
हर साल थोक भाव
से लिखवाई जाने वाली मसालेदार
जीवनियों में उसे बताया
जाता है। ख़ासकर युवा
पीढ़ी पर इन माध्यमों
के फैलाये झूठ का बहुत
अधिक प्रभाव है। इनमें लेनिन,
स्तालिन या माओ को
क्रूर, वहशी तानाशाह दिखाने
वाली ढेरों फीचर और डॉक्युमेंट्री
फिल्में भी हैं और
'द ट्रेन' जैसी फिल्में भी
हैं जो बारीकी से
मार करती हैं। ऐसे
में इन महान नेताओं
के क्रान्तिकारी विचारों को जानने-समझने
के साथ ही लोगों
को उनके व्यक्तित्व और
जीवन से परिचित कराना
भी ज़रूरी है।
यहाँ प्रस्तुत हैं प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार अल्बर्ट रीस विलियम्स की किताब 'लेनिन के साथ दस महीने' के कुछ अंश। रीस विलियम्स उन पाँच अमेरिकी पत्रकारों में शामिल थे जिन्होंने रूसी क्रान्ति के दौरान वहाँ रहकर उन युगान्तरकारी घटनाओं की न केवल रिपोर्टिंग की थी बल्कि इतिहास बनाने में ख़ुद भी भूमिका निभायी थी। 'दस दिन जब दुनिया हिल उठी' के लेखक जॉन रीड भी इन पाँच अमेरिकी पत्रकारों में से एक थे। इन संस्मरणों में हम देख सकते हैं कि क्रान्तिकारी विचारधारा को जीवन में आत्मसात किया जाये तो किस प्रकार के सच्चे, दृढ़ और बेहद मानवीय व्यक्तित्वों का निर्माण होता है – या फिर यह कि किस प्रकार के ईमानदार, निष्छल, कठोर संकल्पशक्ति वाले और अपने लोगों तथा इंसानियत से बेहद प्यार करने वाले लोग ही किसी क्रान्तिकारी विचार को यथार्थ की ज़मीन पर उतार सकते हैं।
*लेनिन
- पहली नज़र में*
जब अपनी क्रान्ति की
विजय से प्रफुल्ल एवं
हर्षोन्मत्त गाते हुए मज़दूरों
और सैनिकों के समूह स्मोल्नी
के बड़े हॉल में
जमा हो रहे थे
और क्रूज़र ‘अव्रोरा’की तोपों की
गर्जना पुरानी व्यवस्था के अन्त और
नूतन सामाजिक व्यवस्था के आविर्भाव की
उद्घोषणा कर रही थी,
उसी समय लेनिन सौम्य
भाव से मंच की
ओर बढ़े तथा अध्यक्ष
ने सूचित किया, ''अब कामरेड लेनिन
कांग्रेस के सामने अपने
विचार प्रस्तुत करेंगे।''
हम यह देखने को
उत्सुक थे कि लेनिन
के व्यक्तित्व का जो चित्र
हमारे मानस-पटल पर
बना हुआ था, वे
उसके अनुरूप हैं या नहीं।
किन्तु हम संवाददाता जहाँ
बैठे थे; वहाँ से
वे शुरू में दिखायी
नहीं पड़ रहे थे।
नारों, तालियों की ज़ोरदार गड़गड़ाहट
तथा हर्षध्वनियों, सीटियों और पाँव पटकने
के शोर में वे
सभा-मंच से गुज़रे
और ज्यों ही मंच पर
पहुँचे, जो हमसे 30 फुट
से अधिक दूरी पर
नहीं था, तो लोगों
का जोश अपनी चरम
सीमा पर पहुँच गया।
अब वे हमें साफ़-साफ़ दिखायी पड़
रहे थे। उन्हें देखकर
हमारे दिल बैठ गये।
हमने
उनका जो चित्र अपने
मस्तिष्क में बना रखा
था, वे उसके बिल्कुल
प्रतिकूल थे। हमने सोचा
कि वे लम्बे क़द
के होंगे और उनका व्यक्तित्व
प्रभावशाली होगा, परन्तु वे ठिगने और
मज़बूत काठी के थे।
उनकी दाढ़ी और बाल
रूखे और अस्त-व्यस्त
थे। तुमुल हर्षध्वनि को मन्द करने
का संकेत करते हुए उन्होंने
कहा, ''साथियो, अब हमें समाजवादी
राज्य की रचना का
काम अपने हाथ में
लेना चाहिए।'' इसके बाद वे
शान्त भाव से ठोस
तथ्यों का उल्लेख करने
लगे। उनकी वाणी में
वक्तृत्वशक्ति की अपेक्षा कठोरता
एवं सादगी अधिक थी। वे
अपनी बग़ल के पास
वास्केट में अँगूठों को
खोंसते हुए एवं एड़ी
के बल आगे-पीछे
झूलते हुए भाषण दे
रहे थे। हम यह
पता लगाने की आशा से
एक घण्टा तक उनका भाषण
सुनते रहे कि वह
कौन-सी गुप्त सम्मोहन-शक्ति है, जिससे उन्होंने
इन स्वतन्त्र, युवा एवं दबंग
लोगों का मन मोह
रखा है। किन्तु यह
प्रयास निष्फल सिद्ध हुआ।
हमें
निराशा हुई। बोल्शेविकों ने
अपने जोशीले एवं साहसपूर्ण कार्यों
से हमारे दिल जीत लिये
थे। हमें आशा थी
कि इसी प्रकार उनका
नेता भी हमें अपनी
ओर आकृष्ट कर लेगा। हम
चाहते थे कि इस
दल का नेता इन
गुणों के प्रतीक, सारे
आन्दोलन के प्रतीक एक
''महा बोल्शेविक'' (अतिकाय व्यक्ति) के रूप में
हमारे सामने आये। इसके विपरीत,
हमने एक ''मेन्शेविक'' जैसे
- एक बहुत ही छोटे-से व्यक्ति - को
अपने सामने देखा।
अंग्रेज़
संवाददाता जुलियस वेस्ट ने धीरे-से
कहा, ''यदि वे थोड़ा
भी बने-ठने होते,
तो आप उन्हें एक
छोटे ''फ़्रांसीसी नगर का पूँजीवादी
मेयर अथवा बैंकर समझते।''
उक्त संवाददाता के दोस्त ने
भी फुसफुसाकर कहा, ''हाँ, निस्सन्देह एक
बड़े कार्य के लिए अपेक्षाकृत
एक छोटा आदमी।''
हम जानते थे कि बोल्शेविकों
ने कितने बड़े काम का
बीड़ा उठा रखा था।
क्या वे इस महान
कार्य को पूरा कर
पायेंगे? शुरू में हमें
उनका नेता कमज़ोर लगा।
ऐसा था पहली नज़र
का प्रभाव। इस प्रकार के
प्रथम प्रतिकूल प्रभाव के बावजूद 6 महीने
बाद मैंने अपने को भी
वोस्कोव, नैबुत, पेटेर्स, वोलोदास्र्की और यानिशेव के
खेमे में पाया, जिनकी
दृष्टि में निकोलाई लेनिन
यूरोप के सर्वोत्कृष्ट व्यक्ति
और राज्यदर्शी थे।
... ... ...
*लेनिन
के व्यक्तिगत जीवन में कठोर
अनुशासन*
लेनिन
सामाजिक जीवन में जिस
कठोर अनुशासन की भावना का
संचार कर रहे थे,
उसी प्रकार वे अपने व्यक्तिगत
जीवन में भी कठोर
अनुशासन का पालन करते
थे। श्ची और बोर्श्च
(दो प्रकार के शोरबे जो
चुकन्दर और आलू से
तैयार होते हैं), काली
रोटी के टुकड़े, चाय
और दलिया - यही स्मोल्नी में
आने वालों का आहार था।
लेनिन, उनकी पत्नी और
बहन का भी यही
भोजन होता था। क्रान्तिकारी
प्रतिदिन 12 से 15 घण्टे तक अपने काम
पर डटे रहते थे।
लेनिन प्रतिदिन 18 से 20 घण्टे तक काम करते
थे। वे अपने हाथ
से सैकड़ों पत्र लिखते थे।
काम में संलग्न वे
अन्य किसी बात की,
यहाँ तक कि अपने
खाने-पीने की भी
कोई चिन्ता नहीं करते थे।
लेनिन जब बातचीत में
खोये होते, तो इस अवसर
का लाभ उठाकर उनकी
पत्नी चाय का गिलास
हाथ में लिये वहाँ
आकर कहतीं, ''कामरेड, यह चाय रखी
है, इसे पीना न
भूल जाइयेगा।'' चाय में अक्सर
चीनी न होती, क्योंकि
लेनिन भी शेष लोगों
की भाँति राशन में जितनी
चीनी पाते थे; उसी
पर गुज़र करते थे।
सैनिक और सन्देशवाहक बड़े-बड़े, ख़ाली और
बैरक-सदृश कमरों में
लोहे की चारपाइयों पर
सोते थे। लेनिन और
उनकी पत्नी भी इसी प्रकार
की चारपाइयों पर सोते। वे
थके-माँदे कड़े पलंग पर
सो रहते और किसी
भी आकस्मिक घटना या संकट
के समय तत्काल उठ
बैठने के ख़याल से
अक्सर कपड़े भी नहीं
उतारते थे। लेनिन ने
किसी तपस्वी की भावना से
इन कष्टों को झेलने का
व्रत ग्रहण नहीं किया था।
वे तो केवल कम्युनिज़्म
के प्रथम सिद्धान्तों को व्यावहारिक स्वरूप
प्रदान कर रहे थे।
इनमें
एक सिद्धान्त यह था कि
किसी भी कम्युनिस्ट अधिकारी
का वेतन एक सामान्य
मज़दूर के वेतन से
अधिक नहीं होना चाहिए।
शुरू में अधिकतम वेतन
600 रूबल निर्धारित किया गया था।
बाद में इसमें कुछ
वृद्धि हुई।
लेनिन
ने जब ‘नेशनल’ होटल
की दूसरी मंज़िल पर अपने लिए
कमरा लिया, तो उस समय
मैं भी वहीं ठहरा
हुआ था। सोवियत शासन
का पहला क़दम लम्बी
और बहुत ख़र्चीली व्यंजन-सूची को ख़त्म
करना था। भोजन में
कई प्रकार के व्यंजनों की
जगह केवल दो प्रकार
के व्यंजन की सूची निश्चित
हुई। कोई भी व्यक्ति
भोजन में शोरबा और
गोश्त अथवा शोरबा और
काशा (दलिया) ले सकता था।
और कोई भी व्यक्ति
चाहे वह जन-कमिसार
हो, अथवा रसोईघर में
काम करने वाला हो,
उसे यही भोजन मिल
सकता था, क्योंकि कम्युनिस्टों
के सिद्धान्त में यह बात
अंकित है कि ''जब
तक प्रत्येक व्यक्ति को रोटी न
मिल जाये, तब तक किसी
को भी केक सुलभ
न होगा।'' ऐसे दिन भी
आते जब लोगों के
लिए रोटी की भी
कमी पड़ जाती। तब
भी लेनिन को उतनी ही
रोटी मिलती थी, जितनी प्रत्येक
व्यक्ति को। कभी-कभी
तो बिल्कुल रोटी न होती।
उन दिनों लेनिन को भी रोटी
नहीं मिलती थी।
लेनिन
की हत्या करने के प्रयास
के बाद जब मृत्यु
उनके सिर पर मँडराती
प्रतीत होती, तो डॉक्टरों ने
उनके लिए खाने-पीने
की कुछ ऐसी चीज़े़ं
निर्दिष्ट कीं, जो नियमित
भोजन-कार्ड के अनुसार सुलभ
नहीं थीं और जो
बाज़ार में किसी मुनाफ़ाखोर
से ही ख़रीदी जा
सकती थीं। अपने दोस्तों
के तमाम अनुनय-विनय
के बावजूद उन्होंने किसी ऐसे खाद्य-पदार्थ को स्पर्श करने
से भी इन्कार कर
दिया, जो वैध राशन-कार्ड का अंग न
हो।
बाद
में जब लेनिन स्वास्थ्यलाभ
कर रहे थे, तो
उनकी पत्नी और बहन ने
उनके भोजन की मात्रा
बढ़ाने की एक तरक़ीब
निकाली। यह देखकर कि
वे अपनी रोटी मेज़
की दराज़ में रखते
हैं, वे उनकी अनुपस्थिति
में चुपके से उनके कमरे
में जातीं और जब-तब
रोटी का अतिरिक्त टुकड़ा
उसी दराज़ में डाल
देतीं। अपने काम में
लीन लेनिन यह जाने बिना
ही कि रोटी का
वह टुकड़ा नियमित राशन से अधिक
है, उसे मेज़ की
दराज़ से निकालकर खा
लेते।
लेनिन
ने यूरोप और अमेरिका के
मज़दूरों के नाम अपने
एक पत्र में लिखा,
''रूस की जनता ने
कभी भी इतने कष्ट,
भूख की इतनी पीड़ा
सहन नहीं की थी
जैसाकि इस समय मित्रराष्ट्रों
के फौजी हस्तक्षेप के
कारण भोग रही है।''
इन सारी कठिनाइयों को
लेनिन भी जनता के
साथ झेल रहे थे।
लेनिन
के विरुद्ध एक महान राष्ट्र
के जीवन के साथ
जुआ खेलने और व्याधिग्रस्त रूस
पर एक प्रयोगवादी की
भाँति प्रमादपूर्ण ढंग से अपने
कम्युनिस्ट सूत्रों को लागू करने
का आरोप लगाया गया
है। परन्तु इन सूत्रों में
विश्वास के अभाव का
आरोप उनके विरुद्ध नहीं
लगाया जा सकता। उन्होंने
केवल रूस पर नहीं,
बल्कि अपने ऊपर भी
इन सूत्रों का प्रयोग किया।
उन्होंने दूसरों को जो औषधि
दी, वह स्वयं भी
पी। दूर से कम्युनिज़्म
के सिद्धान्तों के प्रति आस्था
प्रकट करना एक बात
है, परन्तु लेनिन की भाँति कम्युनिस्ट
सिद्धान्तों को कार्यान्वित करने
में कष्टों और दारुण स्थितियों
का सामना करना बिल्कुल दूसरी
ही बात है।
... ... ...
*लेनिन
का असाधारण आत्मनियन्त्रण*
लेनिन
सभी अवसरों पर पूर्ण आत्मनियन्त्रण
क़ायम रखते थे। जिन
घटनाओं से अन्य लोग
बहुत आवेश में आ
जाते, उस परिस्थिति में
भी वे शान्त रहते
और धैर्य का परिचय देते।
संविधान
सभा के एक ऐतिहासिक
अधिवेशन में उसके दो
गुट एक-दूसरे का
गला काटने को तैयार थे
और इससे कोलाहलपूर्ण वातावरण
पैदा हो गया था।
प्रतिनिधि चीख़-चिल्ला रहे
थे और अपनी मेज़ों
को पीट रहे थे,
वक्ता उच्चतम स्वरों मे धमकियाँ और
चुनौतियाँ दे रहे थे
और दो हज़ार प्रतिनिधि
जोश और आवेश में
अन्तरराष्ट्रीय एवं क्रान्तिकारी अभियान-सम्बन्धी गान गा रहे
थे। वातावरण बहुत ही उत्तेजनापूर्ण
हो गया था। ज्यों-ज्यों रात गुज़रती गयी,
त्यों-त्यों उत्तेजना और बढ़ती गयी।
दर्शकदीर्घाओं में हम लोग
रेलिंग को कसकर पकड़े
हुए थे, तनाव से
होंठ भिंचे हुए थे। हमारा
धैर्य जवाब देने वाला
था। पहली पंक्ति के
बॉक्स में बैठे हुए
लेनिन ऊबे-से दिखायी
पड़ रहे थे।
अन्त
में वे अपनी जगह
से उठे और मंच
के पीछे जाकर लाल
गलीचे से आच्छादित सीढ़ियों
पर बैठ गये। जब-तब वे प्रतिनिधियों
के समूह पर दृष्टि
डाल लेते। उस समय ऐसा
प्रतीत होता जैसे वे
कह रहे हों, ''यहाँ
इतने व्यक्ति अपनी स्नायविक शक्ति
यूँ ही नष्ट कर
रहे हैं। पर खै़र,
यहाँ एक व्यक्ति है,
जो उसका संचय करने
जा रहा है।'' अपनी
हथेलियों पर सिर रखकर
वे सो गये। वक्ताओं
का वक्तृत्व-कौशल और श्रोताओं
की चिल्लाहट उनके सिर पर
गूँजती रही, परन्तु वे
शान्तिपूर्वक ऊँघते रहे। एक या
दो बार उन्होंने अपनी
आँखें खोलीं, पलभर को इधर-उधर देखा और
फिर सो गये। अन्ततः
वे उठे, अँगड़ाई ली
और धीरे-धीरे पहली
पंक्ति में अपने स्थान
पर जाकर बैठ गये।
...
बड़ी-बड़ी बहसों के
तनावपूर्ण वातावरण में, जब उनके
विरोधी बहुत ही निर्ममता
के साथ उनकी आलोचना
किया करते थे, उस
समय भी लेनिन अनुद्विग्न
बैठे रहते और यहाँ
तक कि उस स्थिति
में भी हास-परिहास
द्वारा अपना मनोरंजन कर
लेते। सोवियतों की चौथी कांग्रेस
में अपना भाषण समाप्त
करने के बाद अपने
पाँच विरोधियों की आलोचनाओं को
सुनने के लिए वे
मंच पर ही बैठ
गये। जब भी उन्हें
यह आभास होता कि
विरोधी ने कोई उचित
बात कही है, तो
लेनिन खुलकर मुस्कुराते और हर्षध्वनि में
शामिल होते। जब भी वे
समझते कि हास्यास्पद और
बेसिर-पैर की बात
कही गयी है, तो
लेनिन व्यंग्यात्मक ढंग से मुस्कुराते,
खिल्ली उड़ाने की भावना से
अँगूठों को सटाये हुए
ताली बजाते।
... ... ...
*लेनिन
व्यक्तिगत बातचीत में*
मैंने
केवल एक बार ही
लेनिन को थका-हारा
देखा। जन-कमिसार परिषद
की आधी रात तक
चलने वाली बैठक के
बाद वे ‘नेशनल’ होटल
में अपनी पत्नी और
बहन के साथ लिफ़्ट
में क़दम रख रहे
थे। परिश्रान्त स्वर में उन्होंने
अंग्रेज़ी में कहा, ''गुड
ईवनिंग।'' फिर अपनी भूल
सुधारते हुए बोले, ''इट
इज़ गुड मॉर्निंग। मैं
सारा दिन और रात
को भी बातचीत करता
रहा हूँ और थक
गया हूँ। बस एक
ही मंज़िल ऊपर चढ़ना है,
फिर भी मैं लिफ़्ट
से जा रहा हूँ।''
मैंने
केवल एक ही बार
उन्हें जल्दी-जल्दी अथवा झपटते हुए
आते देखा। यह फरवरी की
बात है, जब ताब्रीचेस्की
प्रासाद फिर से तीखी
नोक-झोंक - जर्मनी के साथ युद्ध
या शान्ति के प्रश्न की
बहस - का केन्द्र बना
हुआ था।
वे तेज़ी से लम्बे
डग भरते और प्रवेश-कक्ष को लाँघते
हुए सभागार के मंच-द्वार
की ओर बढ़े जा
रहे थे। प्रोफसर चार्ल्स
कून्त्स तथा मैं वहाँ
खड़े उनकी प्रतीक्षा कर
रहे थे। हमने उनका
अभिवादन करते हुए कहा,
''कामरेड लेनिन, ज़रा रुकिये तो
एक मिनट।''
उन्होंने
तेज़ी से बढ़ते हुए
अपने क़दमों को रोक लिया
और लगभग एक फौजी
की भाँति सावधान खड़े होते हुए
गम्भीरतापूर्वक सिर झुकाया और
कहा, ''साथियो, कृपया इस समय मुझे
मत रोकिए! मेरे पास एक
सेकण्ड का भी समय
नहीं है। वे हॉल
में मेरी प्रतीक्षा कर
रहे हैं। कृपया, इस
समय मुझे क्षमा करें,
मैं रुक नहीं सकता।''
उन्होंने फिर से सिर
झुकाया, हम दोनों से
हाथ मिलाया और पुनः तेज़ी
से आगे बढ़ गये।
बोल्शेविक-विरोधी विलकॉक्स ने लोगों के
साथ लेनिन के मधुर व्यवहार
पर अपना मत प्रकट
करते हुए लिखा है
कि एक अंग्रेज़ सौदागर
एक नाज़ुक स्थिति में अपने परिवार
की रक्षा के उद्देश्य से
लेनिन की निजी सहायता
प्राप्त करने के लिए
उनके पास गया। उसे
यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ
कि ''रक्त का प्यासा
क्रूर शासक'' मृदुस्वभाव का, शालीन व्यक्ति
है, उसका बरताव सहानुभूतिपूर्ण
है और वह अपनी
शक्तिभर सभी सहायता प्रदान
करने को प्रायः उत्सुक
है।
सचमुच
कभी-कभी वे हद
से अधिक अतिरंजित रूप
में शालीनता और विनम्रता प्रकट
करते थे। हो सकता
है कि अंग्रेज़ी भाषा
के प्रयोग के कारण ऐसा
होता रहा हो - वे
पुस्तकों से प्राप्त शिष्ट
बातचीत के परिष्कृत रूपों
का पूर्णतया प्रयोग करते रहे हों।
लेकिन इस बात की
अपेक्षाकृत अधिक सम्भावना है
कि यह उनके सामाजिक
आचार-व्यवहार के ढंग का
अभिन्न अंग हो, क्योंकि
अन्य क्षेत्रों की भाँति लेनिन
सामाजिक शिष्टाचार में भी बहुत
ही दक्ष थे। वे
गै़र-महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से बातचीत में
अपना समय नष्ट नहीं
करते थे। आसानी से
उनसे भेंट नहीं हो
सकती थी। उनके भेंट-कक्ष में यह
सूचना-पत्र लगा हुआ
था:
''मुलाकातियों
से यह ध्यान में
रखने को कहा जाता
है कि उन्हें ऐसे
व्यक्ति से बातचीत करनी
है, जो काम की
अधिकता के कारण बहुत
ही व्यस्त रहता है। अनुरोध
है कि भेंट करने
वाले अपनी बात संक्षेप
में साफ-साफ कहें।''
लेनिन
से मिलना कठिन था, पर
ऐसा हो जाने पर
वे मुलाकाती की हर बात
पर कान देते। उनका
सारा ध्यान मुलाकाती पर ऐसे संकेन्द्रित
हो जाता कि उसे
घबराहट तक अनुभव होने
लगती। विनम्र एवं प्रायः भावनात्मक
अभिवादन के पश्चात वे
भेंट करने वाले के
इतने निकट आ जाते
कि उनका चेहरा एक
फुट से भी कम
दूरी पर रह जाता।
बातचीत के दौरान वे
और भी सटते चले
जाते और भेंटकर्ता की
आँखों में ऐसे टकटकी
लगाकर देखते मानो उसके मस्तिष्क
के अन्तस्तल की थाह ले
रहे हों, उसकी आत्मा
में झाँक रहे हों।
केवल मलिनोव्स्की जैसा निर्लज्ज झूठा
व्यक्ति ही ऐसी पैनी
निगाह के दृढ़ प्रभाव
का प्रतिरोध कर सकता था।
(मलिनोव्स्की एक ऐसा धूर्त
जासूस था जो पार्टी
की केंद्रीय कमेटी तक पहुँच गया
था।-सं.)
एक ऐसे समाजवादी से
हम लोग अक्सर मिला
करते थे, जिसने 1905 में
मास्को की क्रान्ति में
भाग लिया था और
जो मोर्चेबन्दी पर भी जमकर
लड़ चुका था। सुख
और आराम का जीवन
व्यतीत करने तथा व्यक्तिगत
सफलता एवं उन्नति की
भावना से वह अपनी
प्रथम ज्वलन्त निष्ठा से विचलित हो
चुका था। वह अब
अनेक पत्र-पत्रिकाओं को
प्रकाशित करने वाली एक
अंग्रेज़ी संस्था के पत्रों एवं
प्लेख़ानोव के पत्र ‘येदीन्स्त्वो’का संवाददाता था
और ख़ूब बना-ठना
रहता था। पूँजीवादी लेखकों
से भेंट करने को
लेनिन अपना समय बरबाद
करना मानते थे; परन्तु इस
व्यक्ति ने अपने पुराने
क्रान्तिकारी कारनामों का उल्लेख कर
लेनिन से मुलाकात का
समय प्राप्त कर लिया था।
जब वह उनसे भेंट
करने जा रहा था,
तो बहुत ही उत्साहपूर्ण
मुद्रा में था। मैंने
कुछ घण्टे बाद उसे बहुत
ही बेचैन देखा। उसने बताया :
''जब
मैं उनके कमरे में
पहुँचा, तो मैंने 1905 की
क्रान्ति में अपने कार्य
का उल्लेख किया। लेनिन मेरे पास आकर
बोले, ‘हाँ, कामरेड, मगर
इस क्रान्ति के लिए अब
आप क्या कर रहे
हैं?’ उनका चेहरा मुझसे
6 इंच से अधिक दूरी
पर नहीं था और
उनकी आँखें एकटक मेरी आँखों
की ओर देख रही
थीं। मैंने मास्को में मोर्चेबन्दी के
दिनों के अपने कार्यों
की चर्चा की और एक
क़दम पीछे हट गया।
परन्तु लेनिन एक क़दम आगे
बढ़ आये और मेरी
आँखों में आँखें डाले
हुए ही उन्होंने पुनः
कहा, ‘हाँ, कामरेड, मगर
इस क्रान्ति के लिए अब
आप क्या कर रहे
हैं? ऐसा प्रतीत हुआ
मानो वे मेरी आत्मा
का एक्स-रे कर
रहे थे - मानो पिछले
10 वर्षों के मेरे सारे
कारनामों को साफ-साफ
देख रहे थे। मैं
उनकी इस नज़र की
ताब न ला सका।
एक दोषी बालक की
भाँति मेरी नज़र झुक
गयी। मैंने बातचीत करने की कोशिश
की, मगर असफल रहा।
मैं उनके सामने ठहर
न सका और चला
आया।'' कुछ दिनों बाद
इस व्यक्ति ने इस क्रान्ति
में अपने को झोंक
दिया और सोवियतों का
कार्यकर्ता बन गया।
... ... ...
*लेनिन
की निष्कपटता और स्पष्टवादिता*
लेनिन
की शक्ति का एक रहस्य
उनकी उत्कट ईमानदारी थी। वे अपने
मित्रों के प्रति सत्यनिष्ठ
थे। क्रान्ति के प्रत्येक नये
पक्षपाती की वृद्धि से
उन्हें ख़ुशी होती, परन्तु
काम की स्थिति अथवा
भावी सम्भावनाओं के सब्ज़बाग़ दिखाकर
वे कभी एक व्यक्ति
को भी अपने पक्ष
में शामिल न करते। इसके
प्रतिकूल जैसी वास्तविक स्थिति
थी, वे उसे और
भी बुरे रूप में
प्रस्तुत करने की ओर
प्रवृत्त रहते थे। लेनिन
के अनेक भाषणों की
प्रमुख विषयवस्तु इस प्रकार की
थी: ''बोल्शेविक जिस लक्ष्य की
प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील
हैं, वह निकट नहीं
है - कुछ बोल्शेविक जैसा
सोचते हैं, उससे दूर
है। हमने ऊबड़-खाबड़
मार्ग से रूस को
आगे बढ़ाया है, परन्तु हम
जिस पथ का अनुसरण
कर रहे हैं, उसमें
हमें और अधिक शत्रुओं
एवं अकाल का सामना
करना होगा। भूतकाल जितना कठिन था, भविष्य
में हमें उसकी अपेक्षा
और आपके अनुमान से
भी अधिक दुष्कर परिस्थितियों
का सामना करना होगा।'' यह
कोई प्रलोभनकारी आश्वासन नहीं है। यह
संघर्ष-क्षेत्र में कूदने के
लिए प्रेरित करने का परम्परागत
आह्नान नहीं है। फिर
भी जिस प्रकार इटली
की जनता गैरीबाल्डी के
गिर्द जमा हो गयी
थी, जिन्होंने यह कहा था
कि इस पथ पर
आने वालों का यन्त्रणा, कारावास-दण्ड और मौत
ही स्वागत करेगी, उसी प्रकार रूसी
जनता लेनिन के साथ हो
गयी। उन लोगों को
इस बात से कुछ
निराशा हुई, जो यह
उम्मीद लगाये थे कि उनका
नेता अपने ध्येय की
बड़ी सराहना करते हुए सम्भावित
व्यक्तियों को इस कार्य
में शामिल होने के लिए
प्रेरित करेगा। मगर लेनिन ने
इस बात को उनके
मन की प्रेरणा पर
ही छोड़ दिया।
लेनिन
अपने कट्टर शत्रुओं के प्रति भी
निष्कपट थे। उनकी स्पष्टवादिता
पर टिप्पणी करते हुए एक
अंग्रेज़ का कहना है
कि उनका दृष्टिकोण इस
प्रकार का था: ''व्यक्तिगत
रूप में आपके विरुद्ध
मेरे मन में कुछ
नहीं है। किन्तु राजनीतिक
दृष्टि से आप मेरे
शत्रु हैं और आपके
विनाश के लिए मुझे
हर सम्भव उपाय का इस्तेमाल
करना चाहिए। आपकी सरकार भी
मेरे विरुद्ध ऐसा ही कर
रही है। अब हमें
यह देखना है कि किस
सीमा तक हम साथ-साथ चल सकते
हैं।''
उनके
सभी सार्वजनिक भाषणों पर इस निश्छलता
की छाप है। झाँसा
देने, शब्दजाल फैलाने और ग़लत-सही
किसी भी तरीके से
कामयाबी हासिल करने का व्यवहार-कुशल राजनीतिज्ञों का
जो रूप है, लेनिन
उससे सर्वथा भिन्न थे। कोई भी
इसे महसूस करता था कि
यदि वे चाहें, तो
भी दूसरों को धोखा नहीं
दे सकते। सो भी इसी
कारण कि वे स्वयं
अपने को भी धोखा
नहीं दे सकते थे:
उनका मानसिक दृष्टिकोण वैज्ञानिक था और तथ्यों
में अटूट विश्वास था।
वे अनेक स्रोतों से
सूचनाएँ प्राप्त करते और इस
प्रकार उनके पास ढेरों
तथ्य जमा हो जाते।
वे इनको आँकते, छान-बीन और मूल्यांकन
करते। तब दाँव-पेंच
में कुशल नेता की
भाँति, निपुण समाजशास्त्री और गणितज्ञ की
भाँति, वे इन तथ्यों
का उपयोग करते। वे समस्या की
ओर इस प्रकार बढ़ते
:
''इस
समय हमारे पक्ष में ये
तथ्य हैं: एक, दो,
तीन, चार...'' वे संक्षेप में
उनकी गणना करते। ''और
हमारे विरुद्ध जो तथ्य हैं,
वे ये हैं।'' उसी
प्रकार वे इनकी भी
गणना करते, ''एक, दो, तीन,
चार... क्या इनके अतिरिक्त
भी हमारे खि़लाफ़ कुछ तथ्य हैं?''
वे यह प्रश्न पूछते।
हम दिमाग़ पर ज़ोर डालकर
कोई अन्य तथ्य खोजने
की कोशिश करते, मगर आम तौर
पर नाकाम रहते। पक्ष-विपक्ष पर
विस्तारपूर्वक विचार करके वे अपनी
गणना-अनुमान के साथ उसी
प्रकार आगे बढ़ते जैसे
गणित के प्रश्न को
हल करने के लिए
आगे बढ़ा जाता है।
वे तथ्यों के महत्त्व का
वर्णन करने में विल्सन
के सर्वथा प्रतिकूल हैं। विल्सन शब्दों
के जादूगर की भाँति सभी
विषयों पर लच्छेदार एवं
मुहावरेदार उक्तियों में अपने विचार
व्यक्त करते थे, लोगों
को चकाचैंध कर उन्हें अपने
वश में करते थे
और घृणास्पद वास्तविक स्थितियों एवं भोंड़े आर्थिक
तथ्यों से अनभिज्ञ रखते
थे। लेनिन एक शल्यचिकित्सक के
तेज़ चाकू की भाँति
खरी भाषा में वस्तुस्थिति
का विश्लेषण प्रस्तुत करते। वे साम्राज्यवादियों की
आडम्बरपूर्ण भाषा के पीछे,
जो सहज आर्थिक स्वार्थ
छिपे होते, उनकी क़लई खोलते।
रूसी जनता के नाम
उनकी उद्घोषणाओं को स्पष्ट व
नग्न रूप में प्रस्तुत
कर देते और उनके
सुखद-मधुर वादों के
पीछे शोषकों के कुत्सित तथा
लोलुप हाथों का भण्डाफोड़ करते।
वे जिस प्रकार दक्षिणपन्थी
लफ़्फ़ाजों के प्रति निर्मम
थे, उसी प्रकार वामपन्थी
लफ़्फ़ाजों के प्रति भी
कठोर थे, जो यथार्थ
से मुँह मोड़कर क्रान्तिकारी
नारों का सहारा लिया
करते हैं। वे ''क्रान्तिकारी-जनवादी वाग्मिता (शब्दजाल बाँधने) के मीठे जल
में सिरका और पित्तरस मिला
देना'' अपना कर्तव्य मानते
थे और भावुकतावादियों एवं
रूढ़िवादियों का मर्मबेधी उपहास
उड़ाया करते थे।
जब जर्मन फौजें लाल राजधानी की
ओर बढ़ रही थीं,
तो स्मोल्नी में रूस के
कोने-कोने से प्राप्त
आश्चर्य, आतंक और घृणा
की भावनाएँ व्यक्त करने वाले तारों
का अम्बार लग गया। इन
तारों के अन्त में
इस प्रकार के नारे लिखे
होते, ''अजेय रूसी सर्वहारा
वर्ग जिन्दाबाद!'', ''साम्राज्यवादी लुटेरे मुर्दाबाद!'', ''हम अपने रक्त
की अन्तिम बूँद बहाकर क्रान्तिकारी
रूस की राजधानी की
रक्षा करेंगे!''
लेनिन
इन तारों को पढ़ते और
उसके बाद उन्होंने सभी
सोवियतों को एक ही
आशय का तार भिजवाया,
जिसमें कहा गया था
कि तार द्वारा पेत्रोग्राद
में क्रान्तिकारी नारे भेजने की
जगह फौजें भेजें, स्वेच्छा से सेना में
भरती होने वालों की
सही संख्या, हथियारों, गोला-बारूद एवं
खाद्य-सामग्री की वास्तविक स्थिति
की सूचना दें।
लेनिन
के प्रेरणादायी जीवन के बारे
में और अधिक जानने
के लिए अल्बर्ट रीस
विलियम्स की दो पुस्तकें
‘रूसी क्रान्ति के दौरान’ और
‘लेनिन: व्यक्ति और उनके कार्य’
अवश्य पढ़ें जिन्हें एक ही जिल्द
में 'अक्टूबर क्रान्ति और लेनिन' के
नाम से राहुल फ़ाउण्डेशन
द्वारा प्रकाशित किया गया है।
पुस्तक की पीडीएफ इस लिंक से डाउनलोड की जा सकती है
प्रिंट कॉपी ऑर्डर करने के इस लिंक पर जाएं
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