भारत के बहुलांश बौद्धिकों की नीचतापूर्ण कायरता
भारत के बहुलांश बौद्धिकों की नीचतापूर्ण कायरता
कविता कृष्णपल्लवी
ये प्रोफेसर टाइप बौद्धिक जंतु अक्सर ऐसे क्यों होते हैं? सोचा
है कभी?
भारत के उच्च शिक्षा संस्थान मूलतः और मुख्यतः अकादमीशियनों (इनमें
साहित्य, समाज विज्ञान और प्रकृति विज्ञान -- तीनों क्षेत्रों के लोग शामिल
हैं) को समाज-विमुख, कूपमंडूक, ऐंठी गर्दनों वाले घमण्डी, नौकरशाह प्रवृत्ति वाला, ग़ैर-जनवादी,
कायर,
सुविधाभोगी,
क्रूर
और निर्लज्ज कैरियरवादी और सत्ताधर्मी बनाते हैं।
अगर कोई ऐसा नहीं है तो एक विरल अपवाद है। इसमें व्यक्तिगत रूप से
किसी का दोष नहीं है। शिक्षा तंत्र संस्कृति और
संचार के तंत्र के अतिरिक्त, आज्ञाकारी नागरिक पैदा करने वाला सबसे
महत्वपूर्ण 'आइडियोलॉजिकल स्टेट ऑपरेटस' है। छात्र के रूप में ऐसा आज्ञाकारी,
अनुशासित
नागरिक पैदा करने वाले शिक्षक इसकी रीढ़ हैं। इनपर निगाह रखने और स्वयं इनके बीच
के बेकाबू तत्वों पर चौकसी और नियंत्रण बरतने के लिए शिक्षा क्षेत्र की बेहद घाघ
और दूरदर्शी किस्म की नौकरशाही होती है।
चूँकि यहाँ मामला ज्ञान-विज्ञान और युवाओं और बौद्धिकों का होता है,
इसलिए
यहाँ ज़ोर-ज़बरदस्ती का इस्तेमाल सापेक्षत: कम होता है और मानसिक अनुकूलन का काम
बौद्धिक हेजेमनी के सूक्ष्म हथकंडों के द्वारा किया जाता है। यहाँ अभिव्यक्ति की
सीमित आज़ादी भी दी जाती है, कैम्पस में धन और बल के बूते चलने वाली
नंगी बुर्जुआ राजनीति के साथ-साथ सोशल डेमोक्रेटिक
और बुर्जुआ लिबरल छद्म प्रगतिशीलता को भी पर्याप्त स्पेस दिया जाता है हालाँकि
पश्चिमी देशों जितना नहीं। जिन साम्राज्यवादी देशों के पास पूँजी की अकूत ताक़त है
वहाँ की राज्य सत्ताओं के पास कैम्पस और समाज में "अराजक" स्थितियों और
आंदोलनों से निपटने की क्षमता भी बहुत अधिक है, इसलिए जनवाद और
छद्म प्रगतिशील सुधारवाद की अधिक मात्रा जनसमुदाय और छात्रों-युवाओं को दे पाना
साम्राज्यवादी देशों के शासक वर्गों के लिए अधिक 'अफोर्डेबल'
है
लेकिन तभी तक, जबतक व्यवस्था का कोई गंभीर आर्थिक संकट न पैदा हो जाये या/और
उत्पादन और शासन के सुचारु संचालन में बाधा पैदा करने वाली कोई गंभीर अशांति
जुझारू आन्दोलन की शक़्ल न अख़्तियार कर ले। पूरी बीसवीं शताब्दी का इतिहास ही अगर
देख लें तो अमेरिकी और यूरोपीय शासक वर्गों द्वारा अपनी ही जनता, विशेषकर
मज़दूरों और फिर रेडिकल छात्रों-युवाओं के बर्बर दमन के पचासों उदाहरण देखने को
मिल जायेंगे। लेकिन कैम्पसों के बुद्धिजीवियों पर तब भी वे बहुत सीमित और बहुत
सम्हल कर हाथ डालते हैं।
भारत और भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों की स्थिति काफ़ी भिन्न है।
यहाँ किसी सम्मानित बौद्धिक को न केवल विश्वविद्यालय और शोध संस्थानो की नौकरशाही
मानसिक यंत्रणा और अपमान के द्वारा पागल बना सकती है, बल्कि सत्ता
सीधे उसके ऊपर देशद्रोह का मुकदमा चला सकती है और जेलों में सड़ा सकती है। यह
स्थिति तो पहले भी थी लेकिन हिंदुत्ववादी फासिस्टों ने सत्ता में आने के बाद इसे
पचास गुना बढ़ा दिया है। किसी भी बुद्धिजीवी या प्रोफेसर या वैज्ञानिक को 'अर्बन
नक्सल' या देशद्रोही बताकर सालों बिना मुकदमा चलाये जेल में सड़ाना, उनके
घरों पर बजरंग दली टाइप फासिस्ट दस्तों का हमला, गोदी मीडिया के
जरिए पूरे देश के सामने उन्हें खलनायक या ख़ूँख्वार आतंकी तक सिद्ध कर देना आज आम
बात है।
ऐसे में विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के प्रोफेसर और वैज्ञानिक, जो आम मध्यवर्गीय नागरिक की तुलना में भी काफ़ी सुविधाजनक जीवन जीने लायक़ पगार उठाता है, वह आसानी से सोच लेता है कि अपने परिवार को, जीवन को और सुविधाओं को जोखिम में डालने वाले पचड़ों में वह भला क्यों पड़े! और अपनी इस ग़लीज़ कायरता भरे स्वार्थ के लिए वह काफ़ी तर्क दे लेता है जिनमें से कुछ निहायत भोंड़े तो कुछ अत्यंत विद्वत्तापूर्ण और अमूर्त हुआ करते हैं।
इन बौद्धिकों की नीचतापूर्ण कायरता के पीछे एक तो सापेक्षत:
सुविधापूर्ण जीवन की आदत की ग़ुलामी होती है, दूसरे इसी जीवन से पैदा हुआ उनका
अपना अलगाव (एलियनेशन) और उस अलगाव से पैदा हुआ भय का मनोविज्ञान होता है। एक
तीसरी बात भी है। उत्तर-औपनिवेशिक भारतीय समाज के
सामाजिक-सांस्कृतिक तानाबाना में जनवाद के तत्व इतने कम हैं और बौद्धिक समाज के
निचले संस्तरों की भी आम जनों से दूरी इतनी अधिक है कि किसी बुद्धिजीवी पर यदि
सत्ता का दमन हो तो कुछ बुद्धिजीवी ही सिर्फ़ बौद्धिक मंचों, सोशल
मीडिया या जंतरमंतर जैसी जगहों पर आवाज़ उठायेंगे, आम लोगों में
लगभग कोई सुगबुगाहट तक नहीं होगी। इसके अपवाद भी इसी नतीजे को पुष्ट करते हैं।
बौद्धिक समाज के जो लोग जनता के जीवन और संघर्षों से जुड़े, उनके
लिए एकदम आम लोग भी सड़कों पर उतरे और जुझारू ढंग से लड़े।
इन बौद्धिकों के लिए सबसे आसान तो यही है कि जनसमुदाय में जनवादी
चेतना के अभाव और भारतीय समाज के तानाबाना में ऐतिहासिक कारणों से जनवाद की कमी का
हवाला देकर स्वयं अपनी स्वार्थपूर्ण कायरता को छुपा ले जायें। लेकिन यह सवाल तो
फिर भी पीछा करता रहेगा कि इतिहास-प्रदत्त स्थितियों को नियतिवादी ढंग से स्वीकार
कर मजा मारते रहने की जगह स्थितियों को बदलने के लिए सचेतन तौर पर आपने क्या किया?
जाति,
जेंडर
के सवाल, काले क़ानूनों या सत्ता के उत्पीड़न की किसी भी कार्रवाई के ख़िलाफ़
क्या किसी जुझारू आन्दोलन में आप सड़क पर उतरे? क्या आपने कभी
राष्ट्रीय आंदोलन के दौर की तरह जेल जाने, लाठियाँ खाने और नौकरी को दाँव पर
लगाने का जोखिम मोल लिया? लिया, लेकिन बहुत कम
लोगों ने लिया।
इसीलिए हम बार-बार कहते हैं कि राष्ट्रीय मुक्ति और जनवादी क्रांति
के ऐतिहासिक कार्यभारों के, क्रमिक प्रक्रिया में, अधूरे
और विकृत-विकलांग ढंग से ही सही, लेकिन मूलतः और मुख्यतः पूरा होने के
बाद, भारतीय मध्यवर्ग की ऊपरी और मँझोली परतें (मुख्यतः बौद्धिक समाज) अब
आम मेहनतकश जनों का पक्ष छोड़ चुकीं हैं, उनके साथ ऐतिहासिक विश्वासघात कर चुकी
हैं और उच्च सुविधाप्राप्त, विशिष्ट 'अल्पसंख्यक
उपभोक्ता समाज' का हिस्सा बन चुकी हैं। इस कमीने समुदाय से न तो जाति और जेंडर के
प्रश्न पर किसी जुझारू सामाजिक आंदोलन में ईमानदार भागीदारी की उम्मीद की जा सकती
है, न ही यह कल्पना की जा सकती है कि ये लोग साम्राज्यवाद, देशी
पूँजीवाद और विशेषकर फासिज्म के विरुद्ध नये मुक्ति संघर्ष के किसी दीर्घकालिक
प्रोजेक्ट के हिस्सेदार बनेंगे। इनमें से कुछ लोग यह हिम्मत जुटा सकते हैं,
लेकिन
उनकी संख्या बहुत कम होगी। ऐतिहासिक महासंघर्ष के नये दौर में आम मेहनतकश जनता
अपने नये 'ऑर्गेनिक बुद्धिजीवी' भी ख़ुद पैदा करेगी। इसका मतलब यह कतई
नहीं कि यह काम एकदम अपने आप, स्वयंस्फूर्त ढंग से होगा।
इसके लिए सामाजिक आन्दोलनों को प्रमुखता से एजेण्डा पर लेना होगा,
शिक्षा
और संस्कृति की नयी वैकल्पिक संस्थाएँ तृणमूल स्तर से खड़ी करनी होंगी, अपने
वैकल्पिक मीडिया का तानाबाना खड़ा करना होगा और बिखर चुके जनवादी अधिकार आन्दोलन
को भी रस्मी और प्रतीकात्मक बौद्धिक-वैधिक चौहद्दियों से बाहर निकाल कर व्यापक
जनाधार पर, यानी व्यापक जनआंदोलन के तौर पर खड़ा करना होगा।
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