कहानी - कितने खूबसूरत फूल! / जोसेफ जोबेल
कहानी - कितने खूबसूरत फूल!
जोसेफ जोबेल
सेनेगल के कथाकार जोसेफ जोबेल Joseph Zobel (1915-2006) उच्च सरकारी पद पर काम करते हुए साम्राज्यवाद विरोधी कहानियाँ लिखने में लगे रहे। उनकी कहानियों में आम जनजीवन का चित्रण है और देश के सुविधासम्पन्न धनिक वर्ग की मानसिकता के मुकाबले आम आदमी की मानसिकता को सामने रखा गया है, जो औपनिवेशिक व्यवस्था में दिनोंदिन बदहाली की जिन्दगी जीने के लिए विवश होता जा रहा है।
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शायद ही पहले कभी बसन्त इतनी देर से आया हो। मई की पहली तारीख भी आ
गयी, पर घाटी में लिली का एक भी फूल नहीं दिखलाई दिया। बारिश अभी भी जारी
थी और आसमान का रंग मैला भूरा हो रहा था। सभी लोगों का यही कहना था कि फूल बेचने
वालों की किस्मत खुल गयी है-जिसने भी जंगलों में इक्के-दुक्के फूलों वाली चन्द
टहनियों का जुगाड़ कर लिया, वह इस समय हजारों फ्रैंक बना रहा होगा।
दरअसल चारों तरफ फूल के नाम पर महज पत्तियाँ ही बिक रही थीं। पत्तियों से ढँकी कोई
छोटी-सी टहनी जिसके सिरे पर हरापन लिये हुए एक गाँठ हो। इससे कुछ-कुछ अन्दाजा
लगाया जा सकता है कि इस बार बसन्त आने में कितनी देर हुई थी।
फिर भी यह एक सच्चाई थी कि जंगल की सारी कलियाँ खिलने के कगार पर थीं,
सभी
चीजें बिल्कुल हम लोगों की ही तरह बसन्त के लिए बेताब थीं, और इसमें कोई शक
नहीं रह गया था कि सूरज के दिखाई देते ही मौसम बेहद सुहाना हो जाएगा-इतना सुहाना
कि लोगों को अस्त-व्यस्त कर देगा।
“क्योंकि जब भी ऐसा होता है, बसन्त जल्दी आता है,” नुक्कड़ों
पर किराने की दुकानों पर खड़ी औरतें आपस में ऐसा ही कहती थीं।
और इस इतवार को मौसम बढ़िया हो ही गया था। किसी को उम्मीद नहीं थी कि
इतना खूबसूरत मौसम हो जाएगा।
लंच होते ही समूचा शहर जंगल की ओर उमड़ चला, जहाँ प्रत्येक
कार वाले को अपनी कार खड़ी करने के लिए छाँवदार जगह ढूँढने में खासी दिक्कत हो रही
थी। अकेला आदमी भी अगर साये में लेटकर कुछ पढ़ना या आराम करना चाहता तो उसे भी
भटकना पड़ रहा था। समूचा शहर प्रेमी-प्रेमिकाओं एवं नव-विवाहित जोड़ों के साथ वहाँ
पहुँच गया था, बच्चों की गाड़ियाँ, धूप-भरे गर्म मौसम में भी काला सूट पहनने वाले मूल बाशिन्दे, जिन्हें सरकार
ने आदरपूर्वक क्रिश्चियन बना दिया था, वे भी इधर-उधर घूम रहे थे। यह बतलाने
की जरूरत नहीं कि हर परिवार में कम-से-कम एक व्यक्ति ऐसा था, जो
पेरिस हो आया था और बच्चे, माँ-बाप एवं बूढ़े फोल्डिंग टेबुलों के
गिर्द बैठकर ताश खेल रहे थे या प्लास्टिक की बोतलों में भरे
रंगीन पेयों को पीते हुए बहस कर रहे थे।
कुछ लोग अपनी कार में ही बैठकर किसी फुटबाल मैच की कमेंट्री सुन रहे
थे, जो पार्क द प्रिंसेज मैदान में खेला जा रहा था।
कुछ ऐसे भी थे जो गेंद खेलने में लगे थे। घुटी चाँद वाले कुछ तोंदियल
बूढ़े अपने नाती-पोतों के साथ दौड़ रहे थे और गुजरी हुई जवानी को वापस लाने की
कोशिश कर रहे थे। औरतें इन्हें मुस्कराते हुए हैरत से देख रही थीं।
खुली धुप में हँसना कितना अच्छा लग रहा था।
काफी संख्या में हाफ पैण्ट या जीन पहने वे जवान लड़के-लड़कियाँ भी
घूम रहे थे, जो हर इतवार को हर मौसम में जंगल में जरूर आते थे।
साल में पहली बार आइस्क्रीम वाला फिर अपनी छोटी-सी गाड़ी के साथ
प्रकट हो गया था। भेड़ों की तरह दौड़ते हुए बच्चों ने उसे घेर लिया था और बीस या
तीस सेन्टीम में वह उन्हें आइस्क्रीम देता जा रहा था। आइस्क्रीमों के भी अनेक रंग
थे-गुलाबी, पीला, भूरा। दूर से देखने से लगता था गोया बच्चों के हाथों में रंगीन फूल
हों।
जंगल में जहाँ ओक और सफेदे के पेड़ों के बीच हरी घास थी, वहाँ
कुछ महिलाएँ अपनी रंगीन स्कर्ट को संभालते हुए नीचे झुककर डेजी, चौपतिया
घास और घास के पीले फूल इकट्ठा कर रही थीं।
हरे मैदान को चीरती हुई एक सड़क गयी थी, जिसे आप पार
नहीं कर सकते थे, क्योंकि दोनों तरफ से कारों के आने-जाने का न टूटने वाला सिलसिला लगा
हुआ था और ऐसी हालत में किनारे पर खड़े होकर केवल यह महसूस कर सकते थे, जैसे
किसी नदी के तट पर खड़े हों और नदी के बीच से गुजरती दो विरोधी धाराओं को देख रहे हों।
कारों की तेज रफ्तार से किनारे पर खड़ी औरतों के स्कर्ट हवा में लहरा
उठते और धूल से बचने के लिए पुरुष अपनी आँखों पर रूमाल रख लेते।
ऐसे में केवल वही एक था, जो सड़क के किनारे खड़ा होकर कारों के
नजदीक आने पर पीछे हटने की बजाय आगे झुक जाता था और अपना हाथ बढा देता था। कार
जितनी ही तेज होती, वह उतना ही आगे की ओर झुक जाता, बल्कि एक-दो कदम भी बढ़ा देता और अपने हाथ इस तरह हिलाता जैसे कार को हिप्नोटाइज
कर रहा हो... और ताज्जुब था कि हर बार कार वहाँ तक आते-आते धीमी हो जाती, जैसे
कोई चिड़िया उड़ते-उड़ते बैठने जा रही हो और वह सफेद फूल के दो गुच्छों को हिलाता हुआ कार तक दौड़ पड़ता ।
खूबसूरत मौसम के आने का अन्दाज उसे सम्भवतः एक दिन पहले लग गया था और
उसने घाटी के लिली के उन तमाम पौधों के बारे में सोच डाला था, जो
पहली मई तक भी नहीं खिले थे और जिनके बारे में लोगों का ख्याल था कि “एक
या दो हफ्ते लगेंगे. . . या धूप होते ही खिल जाएँगे.
इसके अलावा वह हर मौसम में जंगलों में घूमता रहता- कभी कुकुरमुत्तों
की तलाश में, कभी नरगिस के फूलों के लिए तो कभी सूखी लकड़ियों के लिए ही । इसीलिए
उसे यह भी पता था कि घाटी के किस कोने में लिली के फूल जल्दी खिल गये हैं।
उसे समूचे जंगल के बारे में जानकारी थी।
इसलिए वह तड़के उठा। उसके लिए यह कोई गजब बात नहीं थी, क्योंकि
वह डींग मारता था कि वह कभी सोता ही नहीं और वह उठकर वेनेइल की तरफ चल पड़ा जो
लिली की खान था वैसे ही जैसे टिक्लोनेज नरगिस के फूलों की खान है। इसे सभी लोग
जानते थे, पर उसे यकीन था कि उससे पहले वहाँ कोई नहीं पहुँच पाएगा, क्योंकि
वेनेइल की दूरी भी काफी थी।
और जैसी कि उसे उम्मीद थी, घाटी लिली के फूलों से पटी पड़ी थी।
फूलों से भरी लताएँ इतनी ज्यादा थीं कि यदि बहुत बढ़ा-चढ़ाकर न कहें तो वह एक-एक
टहनी की बजाय हँसिया से काटकर कई बोझा ला सकता था। धूप निकलने तक वह तोड़ता रहा और
खुशी के मारे बत्तखों की तरह फुदकता रहा, जैसा अक्सर बच्चे खुश होने पर करते
हैं। उसकी पीठ और कन्धे में चोट लग गयी और जाँघें ऐसी दुखने लगीं जैसे किसी ने
डंडे से पीट दिया हो। इसीलिए वह मचकता हुआ चल रहा था, लेकिन ईश्वर
साक्षी है कि सारे समय वह जंगल में अकेला रहा और प्यास के मारे जीभ तलुवे से सटने
लगी। उसे इतनी प्यास लगी कि उसने अपने आपसे ही कहा, 'बोहनी हो या न
हो, मैं पहले ही ढाबे पर जाकर एक गुच्छा लताएँ देकर ढाबे की मालकिन से
कुछ लेकर पीऊँगा।' दुकान की मालकिन को इस सौदे में घाटा नहीं रहेगा।
मीठी-मीठी गन्ध वाले फूलों से लदी खूबसूरत टहनियों को उसने जितने
अच्छे ढंग से सजाया था, उसे देखकर वह खुद खुश हो जाता।
अपना काम खत्म करने के बाद सूरज की रोशनी में अपनी फैली टाँगों के
बीच लिली की लताओं को रखकर वह बैठ गया।
टहनियों के सिरों पर खिले छोटे-छोटे सफेद फूल उसके जूतों तक पहुँच रहे थे। उसने
अपने जूतों पर निगाह दौड़ाई-वे इतने गन्दे लग रहे थे जैसे मिट्टी के बने हों और
कड्रॉई की पैंट किसी सूखी खाल की हो। उसने एक-एक टहनी
को आहिस्ता-आहिस्ता अपनी मुट्ठी में रखते हुए कई गुच्छे बनाये और एक सूत से
उन्हें बाँधता गया।
'अब वे गुच्छे इस लायक हो गये, जिन्हें एक-एक
फ्रैंक में बेचा जा सकता है, उसने सोचा।
और सचमुच यह धन्धा बड़ा अच्छा रहा। उसने खास तौर से यही जगह चुनी थी।
आगे चलकर एक मोड़ था और फिर पहाड़ी। यहाँ कारें आसानी से रुक सकती थीं।
हाँ, कुछ कारें तो ऐसी थीं जो अपनी धुआँधार रफ्तार में ही उसके करीब तक
चली आतीं और वह डरकर सड़क के एक किनारे कूद पड़ता, पर उसके दोनों
हाथों में लिली के गुच्छे देखकर उन खूबसूरत कारों की गति धीमी पड़ती और इस तरह
धीमे-धीमे उसके करीब तक आतीं जैसे कोई भला कुत्ता मिठाई के करीब पहुँचता है।
ओह, ये कित्ते सुन्दर हैं।" हर कार में से इसी तरह की आवाज आती और
उन्हें लगता कि इनकी कीमत एकदम वाजिब है।
“ओह, ब्यूटीफुल," कार की खिड़कियों से झाँकती हुई
खूबसूरत लड़कियाँ चीखतीं।
और वह बोलता : “मैडम, इसकी खुश्बू तो
देखिए।"
फिर वे मैडम रुकतीं, बड़ी-बड़ी काली लैसेज से सजी खूबसूरत
पलकों को ऊपर-नीचे झपकातीं, जो गन्दे हाथों द्वारा उनके नाजुक
खूबसूरत चेहरे के लिए पेश किया जाता था। कभी-कभी महिलाएँ उन फूलों को लेने से
इनकार कर देतीं, जिसे वह स्वयं देता था और उसे कार के नजदीक बुलातीं ताकि अपनी पसन्द
का गुच्छा छाँट सकें।
दो गुच्छे, तीन गुच्छे और कभी-कभी रेजगारी रख लेने
के लिए कहा जाता। फिर तेज रफ्तार से वह कार आगे बढ़ जाती और तुरन्त ही दूसरी कार आ
पहुँचती । वह मुस्कराते हुए अपने बैग को यूँ सहलाता जैसे किसी पालतू जानवर के रोएँ
पर हाथ फेर रहा हो और मन में सोचता-'काश, हरदम ऐसा ही
होता.
लेकिन फौरन ही वह फिर अपनी जगह पर आ जाता और बाँहें हवा में फैलाकर
आगे झुकता, एक कदम आगे बढ़ाता, फिर तेज रफ्तार में आती कार के रुकने
के साथ कदम पीछे लौटाकर कार की तरफ बढ़ता। दरअसल कार को रोकना इतना आसान काम नहीं था।
कुछ देर के लिए उसे यह एक खेल जैसा मजा देने लगा और वह गिनने लगा
उसने अब तक कितने दाँव जीते।
इस चक्कर में वह देख ही नहीं सका कि उसके पीछे कुछ दूरी पर एक गाड़ी
आकर खड़ी हो गयी है। एक काली गाड़ी जो किसी जंगली मधुमक्खी के रंग की थी तथा जिस
पर सड़क की धूल भरी पड़ी थी। गाड़ी के आगे एक ऊँचा-सा एरियल हवा में इधर-उधर लहरा
रहा था और चमक रहा था।
गाड़ी में से नीली वर्दी, ऊँची टोपी और चमचमाते हुए चुस्त बूट
पहने दो गारद के सिपाही उतरे। उन्हें देखकर ऐसा लगता था जैसे किसी केश में से एकदम
नये दो खिलौने बाहर निकल आये हों।
उसने उन्हें देखा ही नहीं।
और देख भी लेता तो क्या?
इस बीच उसने अपने पीछे से अचानक एक आवाज सुनी-"क्यों
बे, तू यहाँ क्या कर रहा है?"
सच बात कहें तो उसे पुलिस से कभी डर लगा ही नहीं, क्योंकि
जैसा वह सुनता आया था, न तो उसने किसी की हत्या की थी और न कभी चोरी ही की थी। फिर भी उसे
लगा कि पुलिस वाले का आना या इस तरह बोलना कोई शुभ लक्षण नहीं है।
दोनों हाथों में लिली के गुच्छे थामे वह पीछे मुड़ा और बोला,
"मैं?”
“हाँ, तू ही।” एक पुलिस वाले ने जवाब दिया और उसके करीब आते हुए चीखा,
"मैं पूछ रहा हूँ कि तू यहाँ क्या कर रहा है?"
"लेकिन सार्जेंट...मैं तो... मैं”
“तेरा आइडेंटिटी कार्ड कहाँ है?"
“लेकिन मैं कुछ कर नहीं रहा था.. सार्जेंट...”
बिजली से झुलसी हुई शाखों की मानिन्द उसकी बाँहें उसकी बगल में झूल
गयीं और ठीक उसी समय दोनों मुट्ठियों में कसकर पकड़े हुए लिली के गुच्छों की चमक
मद्धिम पड़ गयी।
"मैं कहता हूँ, अपना कार्ड निकाल," पुलिस
वाला फिर चीखा।
लिली की लताओं को थैले में रखते हुए उसने अपनी पुरानी जैकेट के अन्दर
एक हाथ डाला और दूसरे से बटन खोलता हुआ सड़ी हुई पत्तियों जैसा कोई बंडल निकाला,
जिसे
खोलकर काँपते हाथों से उसने सार्जेंट की ओर बढ़ा दिया।
होंठ चाबाते हुए उन्होंने कार्ड को उलट-पुलट कर देखा और उसमें कोई
गलती निकालने की गुंजाइश तलाशते रहे। दूसरा पुलिस वाला करीब आकर अपने साथी के
कन्धे पर झुकते हुए कार्ड पढ़ने लगा और फिर काले चमड़े में लिपटी मोटी डायरी निकाल ली।
"लेकिन मैं कुछ कर नहीं रहा था सर...”
“कहाँ रहता है?"
"सर...”
“मैं पूछता हूँ, कहाँ रहता है?"
“उस गाँव में।"
उसने बारबिगू की तरफ उंगली उठाई जो दिखलाई तो नहीं पड़ता था, पर
काफी नजदीक था- मुश्किल से दो किलोमीटर दूर।
“गाँव में किसके यहाँ?"
“सर, असल में मैं उन लोगों के लिए काम करता हूँ।"
“और अभी तू किसके लिए काम कर रहा है?"
“सर, इस समय जाड़ा खत्म न होने से अभी काम शुरू नहीं हुआ है। लेकिन कुछ
लोगों ने मुझे पहले से काम के लिए कह रखा है...”
डायरी के साथ धागे में बँधी एक पेंसिल से पुलिस वाला डायरी में कुछ
लिखता रहा और बीच-बीच में अपने साथी के हाथ में पकड़े कार्ड पर निगाह फेंकता रहा।
“लेकिन मैंने कोई अपराध नहीं किया है।"
और पुलिस वाले का लिखना अब भी जारी रहा तो वह चीख पडा - “मैंने किया क्या
है? हद है जुल्म की।"
"जंगल से लिली के फूल लाकर यहाँ बेचने का तुझे कोई अधिकार नहीं है।"
एक
पुलिस वाले ने कहा।
"मुझे कोई हक नहीं। क्या मतलब? जंगल की लताएँ
तो सबकी हैं।"
दूसरा पुलिस वाला, जो अभी तक लिख ही रहा था, अपनी
पेंसिल ऊपर उठाता हुआ बोला, “एकदम दुरुस्त। यह सबकी हैं, पर
जब तू इसे तोड़कर बेचेगा तो लोगों की सम्पत्ति की
चोरी कही जाएगी। क्या तुझे यह पता नहीं है?"
अब तक कई सारे बच्चे और कुछ बड़े-बूढ़े इर्द-गिर्द जमा हो गये थे। वह और भी चीखते हुए बोला, “मैंने
कुछ नहीं किया है। "
“क्या यह भी बतलाना पड़ेगा कि रास्ते में कारें रुकवाकर तू दुर्घटना
की गंजाइश पैदा कर रहा था।" पुलिस वाले ने कहा, फिर
कार्ड उसे वापस कर दिया।
"मैं कसम खाकर कहता हूँ मुझे बिल्कुल पता नहीं था कि यह गैर-कानूनी है...सर
अभी पिछले हफ्ते सब लोग...”
“हाँ, लेकिन लिली बेचने की छूट केवल पहली मई को है। नादान बनने से कोई
फायदा नहीं।”
सड़क की दूसरी तरफ से उसके सारे हावभाव, बोलते समय झुकते
जाना और पुलिस के सामने छाती पीटना देखा जा सकता था। पुलिस वाले ने उसकी जेब में
कार्ड डालते हुए कहा, “ठीक है, हम देखेंगे। "
सारे लोग उसे देख रहे थे- चट्टानों पर बैठे या घास पर अधलेटे लोग यूँ
देख रहे थे जैसे उनका इससे कोई खास सरोकार न हो।
कारों का पागल कारवाँ गुजरता जा रहा था।
अचानक लोगों ने देखा कि वह सारे फूल बाँट रहा है : एक इस व्यक्ति को
तो दूसरा उस महिला को तो तीसरा उस लड़के को जो फूल लेकर तेजी से भागा। कुछ बच्चे
उसकी तरफ दौड़े, जबकि कुछ एकदम झपट ही पड़े और उसके मुँह से बेसाख्ता चीख निकल पड़ी-
“मम्मी!
डैडी! ये देखो। "
सड़क के पार जो खड़े थे, वे कारों की वजह से इस ओर नहीं आ पा
रहे थे। चार या पाँच ने जाने की तैयारी की, फिर पीछे हट
गये। अन्ततः एक कार को चकमा देते हुए सब कुत्ते की तरह लपके।
एक महिला अपने बेटे को लगातार आवाज दे रही थी- “ज्याँ
क्लाद, ज्याँ क्लाद, ओह.. हे भगवान! "
लेकिन अब काफी देर हो चुकी थी।
बैग खाली हो गया था।
अब वह अपने पैर पटक रहा था और झुंझला रहा था। वह अपनी टोपी हवा में
उछालता, फिर पकड़ लेता और चारों ओर अपनी बाँहें फेंकता। ऐसा लग रहा था जैसे
वह अभी फट पड़ेगा।
बच्चे हैरानी में पीछे हट गये। उन्हें डर था कि कहीं वह नाराज न हो
जाए, पर एक महिला उसके करीब जाकर बोली, “तुम्हारी ये
लिली, लताएँ सचमुच बहुत प्यारी हैं। मेरी बच्ची को तुमने एक गुच्छा दिया,
इसके
लिए शुक्रिया।"
महिला ने उसको वह गुच्छा दिखाया जो उसकी उंगलियों के बीच दबा था,
पर
उसने कुछ ध्यान नहीं दिया।
“क्या आपमें से कोई बतला सकता है कि मैंने क्या गुनाह किया था?"
वह
चीख पड़ा।
"सुनो, यह लो।" महिला ने कहा। महिला के हाथ में सिक्का
देखकर वह उबल पड़ा–“अपना पैसा अपने पास ही रखिए मदाम। मैं आवारा हूँ, लफंगा
हूँ जैसा कि उन्होंने मुझे दर्ज कर रखा है। मेरा कोई परिवार नहीं है। मुझे पेट
भरने का भी कोई हक नहीं है। "
"ओह, " महिला ने कहा, “इतने परेशान मत
होओ।"
"मुझे घरेलू नौकर होने का भी हक नहीं," वह बोलता जा रहा
था, "मेरे लिए केवल जेल में ही जगह है। "
उसके गुस्से के बीच महिला ने किसी तरह सिक्का उसके जैकेट की जेब में
डाल दिया और लिली के फूलों को सूँघते हुए वापस चली गयी।
फिर अपने-आप पर ही बड़बड़ाता हुआ वह तेजी से सड़क के किनारे से बढ़ा,
लड़खड़ाते
कदमों से और अन्त में घास पर जाकर गिर पड़ा। वहीं पड़ा रहा, करवट बदलता रहा
और दोनों हथेलियों से चेहरे को कसकर ढाँपे रहा।
वह चीख नहीं रहा था।
वह बार-बार इधर-उधर लोटता रहा। बीच-बीच में उसके मुँह से ऐसी कराह
निकलती जैसे कोई घायल जानवर मर रहा हो या कोई आवारा शराबी बेशर्मी के साथ लोट रहा
हो।
लेकिन अब कोई उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा था।
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