त्योहारों के बारे में कुछ विचार
त्योहारों के बारे में कुछ विचार
कात्यायनी
त्योहारों का जन्म कृषि-आधारित पुरातन समाजों में फसलों की बुवाई और कटाई के मौसमों पर आधारित था। ये सामूहिक जन-उल्लास के संस्थाबद्ध रूप थे। जादुई विश्वदृष्टिकोण और प्राकृतिक शक्तियों के अभ्यर्थना के आदिम काल में इन त्योहारों के साथ टोटकों की कुछ सामूहिक क्रियाऍं जुड़ी हुई थीं। फिर संस्थाबद्ध धर्मों ने शासकवर्गों के हितों के अनुरूप इन त्योहारों का पुन:संस्कार और पुनर्गठन किया और इनके साथ तरह-तरह की धार्मिक मिथकीय कथाऍं और अनुष्ठान जोड़ दिये गये। इसके बावजूद प्राक् पूँजीवादी समाजों में आम उत्पादक जन समुदाय इन त्योहारी उत्सवों को काफी हद तक अपने ढंग से मनाता रहा। त्योहार आम उत्पीडि़तों के लिए काफी हद तक सामूहिकता का जश्न बने रहे। जिन्दगी भर उत्पीड़न का बोझ ढोने वाले लोग कम से कम एक दिन कुछ खुश हो लेते थे, कुछ गा-बजा और नाच लेते थे।
लेकिन पूँजी की चुड़ैल ने आम लोगों के जीवन का यह रस भी चूस लिया। जीवन में हर चीज माल में तब्दील हो गयी और सबकुछ बाजार के मातहत हो गया। होली-दिवाली-दशहरा---- सभी त्योहार समाज में अमीरों के लिए 'स्टेटस सिंबल' बनकर रह गये हैं। जिसकी गॉंठ में जितना पैसा, उसका त्योहार उतना ही रौशन और रंगीन। आम लोगों के लिए तो त्योहार बस भीषण तनाव ही लेकर आते हैं। थोड़े दिये जला लेने और पटाखे फोड़ लेने या थोड़ा अबीर-गुलाल लगा लेने और गुझिया खा लेने की बच्चों की चाहत पूरा करने में और थोड़ी बहुत सामाजिक औपचारिकताऍं पूरी करने के दबाव में गरीब मेहनतकशों और निम्न मध्यवर्ग के लोगों का सारा कसबल निकल जाता है। जो अमीर लोग त्योहार जोर-शोर से मनाते हैं, उन्हें भी सारी खुशी वास्तव में अपनी दौलत की नंगी नुमाइश से ही मिलती है। पूँजीवादी समाज में श्रम-विभाजन से पैदा होने वाले सर्वग्रासी अलगाव (एलियनेशन) ने सामूहिकता की भावना को विघटित करके उत्सवों के प्राणरस को ही सोख लिया है। अलगाव के शिकार केवल उत्पादक मेहनतकश ही नहीं हैं, बल्कि उससे भी अधिक परजीवी समृद्धशाली तबके हैं। जो पूँजी को लगाम लगाकर सवारी करना चाहते हैं, उल्टे पूँजी उन्ही की पीठ पर सवार होकर उनकी सवारी करने लगती है। एक सामाजिक प्राणी के रूप में खुशी मनुष्य को केवल सामूहिक रूप से मिलती है। सामूहिकता से वंचित दौलतमंद परजीवी एक शापित मनुष्य होता है जो केवल अपनी दौलत-हैसियत के प्रदर्शन से खुशी पाने की मिथ्याभासी चेतना का शिकार होता है या फिर एक ऐसा '' सभ्य पशु'' होता है जो तरह-तरह से खा-पीकर, तरह-तरह से यौन क्षुधा को तुष्ट करके और रुग्ण फन्तासियों में जीकर खुश होने की आदत डाल लेता है।
आम जनता के लिए त्योहारों की अप्रासंगिकता का एक और ऐतिहासिक कारण है। ज्यादातर त्योहार कृषि-उत्पादन की प्रधानता के युग के त्योहार हैं। कारखाना-उत्पादन की प्रधानता और कृषि-उत्पादन के मशीनीकरण तथा फसलों के बदलते मौसम, पैटर्न और व्यवसायीकरण के युग में इन त्योहारों के आनन्द का मूल स्रोत सूख चुका है। पश्चिमी देशों में 'पुनर्जागरण-प्रबोधन-जनवादी क्रान्ति' की प्रक्रिया में जब पूँजीवाद आया तो उसने सामूहिक नृत्य, सामूहिक संगीत (ऑपेरा,बैले, सिम्फनी संगीत के कंसर्ट आदि), आधुनिक नाटक आदि के साथ सामूहिक जश्न के तमाम रूप विकसित किये तथा कुछ प्राचीन एवं मध्ययुगीन त्योहारों का भी पुन:संस्कार करके उनके धार्मिक अनुष्ठान वाले पक्ष को गौण बना दिया और सामूहिक उत्सव के पहलू को प्रधान बना दिया। हालॉंकि उन पश्चिमी समाजों में भी बढ़ती पूँजीवादी रुग्णताओं ने सामूहिकता के उत्सवों की आत्मा को मरणासन्न बना दिया है। फिर भी उन समाजों के सामाजिक ताने-बाने में इतने जनवादी मूल्य रचे-बसे हैं कि स्त्री-पुरुष खास मौकों पर फिर भी सड़कों पर निकलकर गा-बजा-नाच लेते हैं, खाते और पीते हैं।
भारत जैसे उत्तर-औपनिवेशिक समाज में पूँजीवाद भी जनवादी क्रान्ति के रास्ते नहीं, बल्कि एक क्रमिक प्रक्रिया से आया। इन जन्मना रुग्ण-विकलांग पूँजीवाद ने जनता को सामूहिकता के उत्सव को कोई भी नया रूप नहीं दिया ---- न तो सामूहिक जीवन में, न ही कला में। पुराने मध्ययुगीन धार्मिक आयोजनों को ही थोड़ा संशोधित-परिष्कृत करके अपना लिया गया, जिनका एक धार्मिक पहलू था, दूसरा पूँजीवादी दिखावे और बाजार का पहलू था। त्योहारों के इस धार्मिक पहलू का इस्तेमाल राष्ट्रीय आन्दोलन के जमाने में रूढि़वादी और पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवादियों ने किया और आज इनका इस्तेमाल मुख्यत: धार्मिक कट्टरपंथी फासिस्ट कर रहें हैं। त्योहारों के पूँजीवादी सामाजिक आचार वाला पहलू नवउदारवाद के दशकों के दौरान हमारे सामाजिक जीवन के पूरे वितान पर छा गया है और रंध्र-रंध्र में घुस गया है।
अब पुराने त्योहारों का पुन:संस्कार करके उन्हें सामूहिकता के ऊर्जस्वी-आवेगमय, आनन्दोल्लास से भरपूर उत्सवों में रूपान्तरित कर पाना सम्भव नहीं रह गया है। मजदूर वर्ग के हरावलों को वर्गसंघर्ष के प्रबल वेगवाही झंझावात का फिर से आवाहन करते हुए सचेतन तौर पर सामूहिकता के जश्न के अपने नये-नये रूप ठीक उसी प्रकार ईजाद करने होंगे, जिसप्रकार उन्हें सर्वहारावर्गीय सामूहिक वाद्य संगीत, स्वर संगीत (केवल लोकप्रिय ही नहीं बल्कि शास्त्रीय भी), थियेटर,सिनेमा आदि के नये-नये रूपों का संधान करना होगा। वर्ग संघर्ष का रूप आज लम्बे समय तक जारी रहने वाले अवस्थितिगत युद्ध ('पोजीशनल वारफेयर') का हो चुका है। इस 'पोजीशनल वारफेयर' के दौरान शत्रु ने अपनी खंदके खोद रखी हैं और हमें भी अपनी खंदकें खोदनी होंगी और बंकर बनाने होंगे। यानी हमें भी अपनी समांतर संस्थाऍं विकसित करनी होगी, सामूहिक सांस्कृतिक-सामाजिक आयोजनों, उत्सवों के वैकल्िपक रूप विकसित करने होंगे। यह प्रक्रिया तृणमूल स्तर पर लोकसत्ता के वैकल्िपक रूपों के भ्रूणों के विकास से अविभाज्यत: जुड़ी हुई होगी। सर्वहारा के दूरदर्शी हरावलों को जनसमुदाय की पहलकदमी को संगठित करने के नानाविध प्रयासों के साथ-साथ अक्टूबर क्रान्ति दिवस, मई दिवस, भगतसिंह-राजगुरु-सुखदेव जैसे क्रान्तिकारियों के शहादत दिवस आदि-आदि अवसरों पर घिसे-िपटे रुटीनी आयोजनों से आगे बढ़कर मेले, कार्निवाल, उत्सव, त्योहार के विविध नये-नये रूप विकसित करने चाहिए। सांस्कृतिक टोलियों को प्रचारात्मक लोकप्रिय प्रस्तुतियों और कार्यक्रमों के दायरों से बाहर आना होगा और स्टेज-कंसर्ट के साथ ही स्ट्रीट कंसर्ट के नये-नये रूप, थियेटर के नये-नये प्रयोग आदि विकसित करने होंगे।
संघर्षरत जीवन को भी सर्जनात्मकता का उत्प्रेरण चाहिए। उत्पीडि़त निराश लोगों को और विद्रोह के लिए उठ खड़े हुए लोगों को ---- दोनों के ही जीवन में मनोरंजन का, उत्सव का स्थान होना चाहिए। क्रान्तिकारी परिवर्तन चन्द दिनों का काम नहीं है। यह हू ब हू सामरिक युद्ध जैसा नहीं हो सकता। यह जीवन जैसा होता है। जीने का यह तरीका है। क्रान्ति में लगे लोगों के अपने उत्सव और कार्निवाल होने चाहिए और जिन्हे क्रान्ति की जरूरत है, उन 'धरती के अभागों' को भी यदि खुशी मनाने के लिए, सर्जनात्मक ऊर्जा हासिल करने के लिए, उम्मीदों की फिर से खोज के लिए प्रेरित करने के लिए, नये-नये भविष्य-स्वप्न देने के लिए सामूहिकता के नये-नये उत्सवों के, कार्निवालों के रूप नहीं विकसित किये जायेंगे, तो वे अतीत की सामूहिकता की पुनर्प्राप्ति की मृगमरीचिका में जीते रहेंगे, धार्मिक मिथ्याभासी चेतना को शरण्य बनाते रहेंगे और धार्मिक कट्टरपंथी आखेटकों और मुनाफाखोर परभक्षियों के आखेट बनते रहेंगे।
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