26 जनवरी के घटनाक्रम के बाद किसान आन्‍दोलन के बारे में कुछ प्राथमिक प्रेक्षण

 26 जनवरी के घटनाक्रम के बाद किसान आन्दोलन के बारे में कुछ प्राथमिक प्रेक्षण

अभिनव सि‍न्हा
26 जनवरी के घटनाक्रम के बाद मौजूदा धनी किसानों के आन्दोलन के विषय में कुछ प्राथमिक प्रेक्षण रखना आवश्यक है। लगातार ट्रेन यात्राओं में रहने के कारण कुछ दिन देर से यह कार्य कर पा रहा हूं।
बहरहाल, सबसे पहले तो यह कह देना आवश्यक है कि हम इस आन्दोलन की मांगों और उसके वर्ग चरित्र के प्रति असहमति रखते हुए भी विरोध करने के उसके जनवादी अधिकार की हिमायत करते हैं और राज्यसत्ता द्वारा उसके दमन के प्रयासों के भी विरुद्ध हैं। 26 जनवरी की घटनाओं के बाद आन्दोलन के कई नेताओं के ऊपर राजद्रोह और यूएपीए जैसे काले कानूनों के मातहत जो मुकदमे दर्ज किये गये हैं वे सरासर ग़लत हैं और किसी के ऊपर भी इन कानूनों के तहत मुकदमे दर्ज करने को हम जनता के बुनियादी नागरिक व जनवादी अधिकारों का हनन मानते हैं। विशेष तौर पर, उत्तर प्रदेश की फासीवादी योगी सरकार जबरन किसानों के विरोध के जनवादी अधिकार का दमन करने पर आमादा है। हम इसका पुरज़ोर विरोध करते हैं। यह टिप्पणी लिखे जाते समय तक भी उत्तर प्रदेश-दिल्ली सीमा पर तनावपूर्ण हालात बने हुए हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि स्वयं फासीवादी शक्तियों को छोड़कर हम किसी के भी जनवादी-नागरिक अधिकार के राजकीय दमन की पुरज़ोर मुख़ालफ़त करते हैं। इस बात को हम पहले भी अपने लेखों और टिप्पणियों में बार-बार इंगित कर चुके हैं।

लेकिन यहां हम आन्दोलन के भावी सम्भावित विकास पथ के विषय में कुछ वस्तुपरक प्रेक्षण रखना चाहते हैं, विशेष तौर पर 26 जनवरी के दिन हुई घटनाओं के बाद पैदा हुई स्थितियों के मद्देनज़र। 26 जनवरी को हुई घटनाओं ने कई नयी सम्भावनाओं को जन्म दिया है और साथ ही उन तमाम बातों को सही सिद्ध किया है, जो हम पिछले दो माह से आन्दोलन के वर्ग चरित्र और उसके नेतृत्व की मौकापरस्ती के बारे में कहते आ रहे हैं। हम यहां इन पर बिन्दुवार कुछ बातें रखेंगे।
1. पहली बात, जो कि 26 जनवरी के घटनाक्रम से स्पष्ट हुई है वह यह है कि नरोदवादी और वाम रुझान रखने वाली तमाम यूनियनों के नेतृत्व ने किसान आन्दोलन पर से अपना नियंत्रण काफी हद तक खो दिया है। यह हो जाने के बाद इन यूनियनों के प्रधान तरह-तरह के बयान दे रहे हैं, दीप सिद्धू, लक्खा सिधाना और किसान-मज़दूर संघर्ष समिति व उसके नेताओं सतनाम सिंह पन्नू और सरवन सिंह पंढेर जैसों पर इल्ज़ाम डाल रहे हैं कि उनकी वजह से अराजकता फैली और आन्दोलन बदनाम हुआ। लेकिन अब ये बातें कहने का कोई विशेष लाभ नहीं है क्योंकि यह भी सच है इन्हीं यूनियनों ने सिख धार्मिक कट्टरपंथीऔर फिरकापरस्त अलगाववादी शक्तियों और तत्वों को अपने मंच पर जगह भी दी थी और आन्दोलन में एक ऐसा माहौल भी बनाया था जो इन फिरकापरस्त ताक़तों को एक उपजाऊ ज़मीन मुहैया कराता था। सच तो यही है चाहे कोई इसे माने या न माने। बी.के.यू. (एकता-उग्राहां) के नेता जोगिन्दर सिंह उग्राहां ने एक स्वीकारोक्ति देते हुए कहा है कि इन शक्तियों और तत्वों को आन्दोलन के हाशिये पर धकेलने और फिर बाहर करने का काम वे लोग नहीं कर पाए और यह आन्दोलन के नेतृत्व की ग़लती रही। लेकिन यह पूरी तरह ईमानदार स्वीकारोक्ति भी नहीं है क्योंकि इससे ऐसा प्रतीत होता है मानो आन्दोलन का नेतृत्व शुरू से ऐसा कोई प्रयास कर रहा था जिसमें कि वह कामयाब नहीं हो पाया। लेकिन यह सच नहीं है। अगर आन्दोलन का नेतृत्व वास्तव में ऐसा प्रयास कर रहा होता तो दीप सिद्धू जैसे लोग उनके मंच से चढ़कर भाषण नहीं दे रहे होते। दीप सिद्धू ने भी 26 जनवरी के घटनाक्रम के बाद ही दो वीडियो जारी कर अपना स्पष्टीकरण दिया है, जिसमें एक बात ग़ौर करने वाली है। दीप सिद्धू ने पूछा है कि अब आन्दोलन का नेतृत्व उस पर इल्ज़ाम लगा रहा है कि वह आर.एस.एस. और भाजपा का एजेण्ट है और उसने आन्दोलन को नुकसान पहुंचाया है, तो फिर इस नेतृत्व पर भी सवाल उठता है कि वह किस प्रकार का नेतृत्व है कि आन्दोलन के हज़ारों लोगों को एक दीप सिद्धू के बहकावे में जाने से नहीं रोक सका! बात तो सही है, चाहे दीप सिद्धू की राजनीति और विचारधारा कुछ भी हो।
2. दूसरी बात यह कि आन्दोलन के नेतृत्व को यह कब पता चला कि दीप सिद्धू एक संघी एजेण्ट है और उसके बाद उसने उसे आन्दोलन के बीच बेनक़ाब करने और निकाल बाहर करने के लिए क्या किया? यह बात 26 जनवरी के घटनाक्रम के बाद ही क्यों कही जा रही है? उससे पहले कुछ लोगों ने दीप सिद्धू द्वारा भिण्डरांवाले की प्रशंसा के बयान की निन्दा ज़रूर की थी लेकिन उसे भाजपा का एजेण्ट नहीं बताया था और न ही उसे आन्दोलन से बाहर करने की कोई व्यवस्थित कोशिश ही की थी। उल्टे दीप सिद्धू और उसके जैसे तमाम अन्य तत्व लगातार आन्दोलन में मौजूद रहे थे और लगातार अपने फिरकापरस्त विचारों का प्रचार-प्रसार भी कर रहे थे, और आन्दोलन के यूनियन नेतृत्व की मौन या मुखर सहमति के साथ।
स्पष्ट है कि यह मौजूदा किसान आन्दोलन के नेतृत्व की मौकापरस्ती थी कि उसने सिख धार्मिक कट्टरपंथी और फिरकापरस्त अलगाववादी शक्तियों को भी आन्दोलन में स्थान दिया, आन्दोलन का मंच मुहैया कराया। दीप सिद्धू ,ऐसे तत्वों में केवल एक उदाहरण है, जो कि सिख व खालिस्तानी चिन्तक अजमेर सिंह के काफी करीब माना जाता है। यदि आन्दोलन स्थल पर ही ऐसी शक्तियां मौजूद थीं, तो इस आन्दोलन को सही मायने में जनवादी चरित्र देने के लिए धार्मिक कट्टरपंथियों को इससे बाहर करने, धार्मिक झण्डों का इस्तेमाल करने व धार्मिक अलगाववादी प्रतीकों व बैनरों का इस्तेमाल करने के विरुद्ध आन्दोलन के नेतृत्व ने क्या कोई संघर्ष बाकायदा आन्दोलन के मंच से चलाया था? उल्टे इन तमाम यूनियनों के जो कारवें प्रदर्शन स्थल पर आ रहे थे, उनके वाहनों पर यूनियनों के झण्डे के अलावा अक्सर ही धार्मिक झण्डे भी लहरा रहे थे। स्वयं बी.के.यू. (एकता-उग्राहां) के वाहनों के कारवों पर भी यह बात लागू होती है, अब चाहे जोगिन्दर सिंह उग्राहां कुछ भी कहें। किसी को अच्छा लगे या बुरा, सच यह है कि वाम झुकाव वाली यूनियनों के नेतृत्व ने भी इस मामले में निकृष्ट दर्जे का अवसरवाद दिखलाया था और धार्मिक कट्टरपंथी और फिरकापरस्त अलगाववादी शक्तियों और तत्वों को आन्दोलन के मंच पर जगह प्रदान की थी, जो कि कम्युनिस्ट तो दूर एक जनवादी पैमाने पर भी निहायत ग़लत कदम था।
3. तीसरी बात, किसान आन्दोलन के नेतृत्व का यह अवसरवाद कोई अनायास या आकस्मिक चरित्र का अवसरवाद नहीं था, बल्कि वह इस समूचे आन्दोलन के वर्ग चरित्र से ही पैदा होता है। हम पहले भी बार-बार लिख चुके हैं कि मौजूदा आन्दोलन धनी किसानों-कुलकों का आन्दोलन है, चाहे इसमें तमाम ग़रीब व निम्न-मंझोले किसानों की भागीदारी क्यों न रही हो। किसी आन्दोलन का वर्ग चरित्र इससे तय होता है कि उसका मांगपत्रक क्या है, उसकी राजनीति और विचारधारा क्या है। इस आन्दोलन की मूल और केन्द्रीय मांग है लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को बचाने और बढ़ाने की मांग। इस बात को तथ्यत: और तर्कश: सिद्ध किया जा चुका है कि लाभकारी मूल्य की व्यवस्था ग़रीब-विरोधी है और न सिर्फ शहरी और ग्रामीण मज़दूर वर्ग के खिलाफ जाती है, बल्कि मेहनतकश ग़रीब किसान आबादी के खिलाफ भी जाती है क्योंकि ग़रीब व निम्न-मंझोले किसान अनाज के मुख्य रूप से ख़रीदार होते हैं न कि विक्रेता। यह इस आन्दोलन का धनी किसान वर्ग चरित्र ही था, जो इसके नेतृत्व के अवसरवाद में अपने आपको प्रकट कर रहा है। यह अवसरवाद कोई अनायास या आकस्मिक चीज़ नहीं है, बल्कि एक व्यवस्थित अवसरवाद है। और यह व्यवस्थित अवसरवाद इस आन्दोलन के वर्ग चरित्र का ही उसके नेतृत्व की नीतियों में प्रतिबिम्बन है। धनी किसान वर्ग की वर्ग विचारधारा के समुच्चय का एक अनिवार्य अंग हमेशा से ही व्यवहारवाद और अवसरवाद रहा है।
4. कई लिबरल और कम्युनिस्ट तक आजकल एक विचित्र तर्क दे रहे हैं कि सिख किसानों ने लाल किले पर सिख धार्मिक झण्डा (निशान साहिब) फहराया तो इसमें क्या दिक्कत है, भाजपा और संघ के कार्यकर्ताओं ने भी तो उदयपुर में अदालत की इमारत पर भगवा झण्डा फहराया था; कुछ लोग 1980 की एक तस्वीर दिखला रहे हैं कि आर.एस.एस. ने लाल किले के सामने ही भगवा झण्डा फहराकर उसे सलामी दी थी और फिर पूछ रहे हैं 'उसका क्या?' यह भी एक प्रकार की 'व्हाटअबाउटरी' है और इसका इस्तेमाल लिबरल करें, तो ज्यादा ताज्जुब नहीं होता क्योंकि सारे ही लिबरल बिन पेंदी के लोटे होते हैं; लेकिन जब अपने आपको 'कम्युनिस्ट' कहने वाले कई लोग इस प्रकार की 'व्हाटअबाउटरी' करते हैं, तो वह भयंकर ही लगता है। जो व्यक्ति बुनियादी सेक्युलर सिद्धान्तों की भी समझ नहीं रखता है, उसे कम्युनिस्ट कैसे माना जा सकता है? कम्युनिस्ट एक ही स्वर में किसी भी सार्वजनिक इमारत पर, किसी भी आन्दोलन में धार्मिक झण्डों को फहराने, धार्मिक प्रतीकवाद और धार्मिक नारों के इस्तेमाल का पुरज़ोर विरोध करता है। जो बेहूदा तर्क तमाम लिबरल और तथाकथित कम्युनिस्ट व वामपंथी दे रहे हैं, उसके अनुसार तो मौजूदा आन्दोलन को संघ और भाजपा द्वारा किये जाने वाले अन्य घटिया कामों का भी अनुसरण करना चाहिए! हम यदि खुद को कम्युनिस्ट कहते हैं तो हमें कतई लाल किले या किसी भी सार्वजनिक स्थल पर किसी भी धार्मिक झण्डे को फहराने को ग़लत कहना चाहिए क्योंकि यह ग़लत है। इसी से जुड़ी बात यह भी है कि मौजूदा धनी किसान आन्दोलन के नेतृत्व में तमाम ऐसी यूनियनें हैं, जो वाम झुकाव रखती हैं या कम्युनिस्ट संगठनों से करीबी रखती हैं। इस आन्दोलन के दौरान लगातार ही धार्मिक झण्डों, प्रतीकों व नारों का इस्तेमाल होता रहा है और साथ ही फिरकापरस्त अलगाववादी नारों व प्रतीकवाद का भी इस्तेमाल होता रहा है। निश्चित तौर पर, ये तमाम वामपंथी यूनियनों के नेतृत्व की विचारधारा नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने इस प्रकार की ताक़तों को आन्दोलन में स्थान देने की मौकापरस्ती की क्योंकि वे लोकरंजकता का शिकार होकर उसूलों को तिलांजलि देकर रणकौशलात्मक मोर्चा बनाना चाहते थे। क्या उन्होंने आन्दोलन में आने वाली आबादी को आन्दोलन के दौरान मंच से राजनीतिक तौर पर शिक्षित किया? क्या उन्हें बताया गया कि धर्म को हमें पूर्णत: एक निजी मसला मानना चाहिए और हमारे आन्दोलन में धार्मिक झण्डों, प्रतीकों, और नारों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए चाहे वे किसी भी धर्म के हों? यदि अपने आपको कम्युनिस्ट या क्रान्तिकारी कहने वाले नेताओं ने यह बुनियादी जनवादी राजनीतिक शिक्षा भी आन्दोलन में शामिल होने वाली भीड़ को नहीं दी, तो उन्हें अपने आपको कम्युनिस्ट या क्रान्तिकारी कहने का क्या नैतिक अधिकार है? लेकिन जैसा कि हम ऊपर बता चुके हैं, इस सवाल पर पहले ही आन्दोलन का नेतृत्व लगातार लोकरंजकतावाद, तुष्टिकरण और अवसरवाद करता रहा था। यह तो केवल 26 जनवरी की घटनाओं के बाद उसने दीप सिद्धू और लक्खा सिधाना सरीखे लोगों पर कुछ बोलना शुरू किया है, क्योंकि उन्हें इन शक्तियों व तत्वों की मौजूदगी से उनके आन्दोलन को हुए भयंकर नुकसान का अहसास हुआ है।
5. ताज़ा घटनाक्रम ने 'प्रतिबद्ध' और 'ललकार' सरीखे कौमवादियों के ''सिद्धान्तों'' की भी पोल खोलकर रख दी है। इनका कहना था कि मौजूदा खेती कानून पंजाब और अन्य कौमों का कौमी दमन है! अब आप ही सोचिये: ये कैसी दमित कौमों की ट्रैक्टर रैली थी जो कि दमनकारी कौम के झण्डे लगाकर निकाली जा रही थी? कौमी दमन के विरुद्ध लड़ रहा यह कैसा आन्दोलन था जिसका नेतृत्व बार-बार सफाई दे रहा था कि दमनकारी राष्ट्र का राष्ट्रीय ध्वज उसका भी राष्ट्रीय ध्वज है और उसका अपमान करने का उसका कोई इरादा नहीं था? यह कैसा दमनकारी राष्ट्र-विरोधी दमित कौमों का आन्दोलन था जिसने तिरंगे का सम्मान करने के लिए 27 जनवरी को अपने प्रदर्शन स्थल पर रैली निकाली? यह किस प्रकार की दमित कौमों का आन्दोलन था जिनका नेतृत्व बार-बार बता रहा था कि वह कतई अलगाववादी नहीं है, भारत की सम्प्रभुता और अखण्डता में उसका यकीन है और यह तो इन किसानों के बेटे ही हैं जो भारत की सीमाओं की (पाकिस्तान व चीन जैसी ताक़तों के विरुद्ध) रक्षा कर रहे हैं? जाहिर है, मौजूदा आन्दोलन का कौमी दमन से कोई रिश्ता नहीं है। यह देश की और विशेष तौर पर पंजाब और गौण रूप में हरियाणा व कुछ अन्य राज्यों की खेतिहर बुर्जुआजी का आन्दोलन है, जो कि देश के पैमाने पर होने वाले अधिशेष विनियोजन में अपनी हिस्सेदारी को बचाने और बढ़ाने के लिए औद्योगिक-वित्तीय पूंजीपति वर्ग से लड़ रही है। बेशक राजनीतिक चेतना की कमी और विविध प्रकार के आर्थिक बन्धनों से बंधे होने के कारण और आम तौर पर मोदी सरकार के खिलाफ भावना रखने के कारण कई ग़रीब और निम्न-मंझोले किसान भी इसमें हिस्सेदारी कर रहे हैं, लेकिन फिर भी इस आन्दोलन का राजनीतिक वर्ग चरित्र धनी किसानों व कुलकों के आन्दोलन का ही है। यहां एक और बात ग़ौर करने वाली है। 'प्रतिबद्ध' और 'ललकार' के कौमवादी भारत की सभी कौमों को दमित कौम मानने के बावजूद उनके लिए अलग होने के अधिकार समेत राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का अधिकार मांगने में घबरा जाते हैं और दांत निपोरते हुए केवल प्रान्तों के संघीय अधिकार मांगते हैं; अब खालिस्तानी चिन्तक अजमेर सिंह को अपना वैचारिक गुरू मानने वाला दीप सिद्धू भी प्रान्तों के लिए संघीय अधिकार ही मांग रहा है! राजनीति का मामला विज्ञान का मामला होता है। यदि आप किसी विचारधारात्मक रुझान का शिकार हैं, तो आप चाहे जो भी दावा करते रहें, घटनाएं और स्थितियां आपके रुझान को उजागर कर ही देंगी और इसीलिए इस प्रश्न पर हालात ने कुछ ऐसा मोड़ लिया है कि 'प्रतिबद्ध' और 'ललकार' के कौमवादियों को दीप सिद्धू के बगल में लाकर खड़ा कर दिया है। इसमें कोई ताज्जुब नहीं है कि इस मसले पर 'प्रतिबद्ध-ललकार' ग्रुप ने चुप्पी साध रखी है।
6. एक और ग़ौर करने वाली बात यह है कि 26 जनवरी की घटना के बाद देश के तमाम ऐसे कम्युनिस्ट संगठन व वामपंथी बुद्धिजीवी जो कि धनी किसानों के आन्दोलन का समर्थन कर रहे थे, उन्हें सनाका मार गया है। उनका कोई बयान नहीं आ रहा है कि 26 जनवरी की घटनाओं पर उनकी क्या राय है, आन्दोलन के नेतृत्व की मौकापरस्ती के बारे में उनकी क्या राय है, इत्यादि। उनके बीच एक सन्नाटा-सा छाया हुआ है। कुछ लोग यह कहकर अपनी इज्जत बचा रहे हैं कि 26 जनवरी को जो हुआ वह 'सरकार की साजिश' है। जाहिर सी बात है कि मोदी सरकार से आप किसी सदाचार की उम्मीद नहीं कर सकते हैं और वह आन्दोलन के लिए तरह-तरह के ट्रैप बिछाएगी ही, लेकिन यह भी तो बताना पड़ेगा कि आन्दोलन में दीप सिद्धू, लक्खा सिधाना सरीके फिरकापरस्त क्या कर रहे थे, और बाकी नेतृत्व ने उनके खिलाफ पहले कोई संघर्ष चलाकर उन्हें बाहर क्यों नहीं किया, आन्दोलन में धार्मिक कट्टरपंथी और फिरकापरस्त अलगाववादी शक्तियों को मंच क्यों मुहैया कराया गया, क्योंकि 26 जनवरी को जो कुछ हुआ वह आन्दोलन के नेतृत्व की इसी मौकापरस्ती का नतीजा था। कई लोग इस आन्दोलन को क्रान्ति की ओर बढ़ता हुआ बता रहे थे। उनको भी सदमा लगा हुआ है। यह भी एक प्रकार की मौकापरस्ती है। इसलिए ये कम्युनिस्ट संगठन और बुद्धिजीवी भी एक अलग प्रकार की मौकापरस्ती का ही परिचय दे रहे हैं। ऐसा इसलिए भी है कि इनमें से कई संगठन व बुद्धिजीवी ऐसे भी हैं, जो मानते हैं कि भारत एक पूंजीवादी देश है और समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में है। लेकिन इसके बावजूद मौजूदा धनी किसान आन्दोलन पर एक सर्वहारा-वर्गीय नज़रिया अपनाने में उनके घुटने कांप रहे थे। उन्हें डर था कि कहीं वे पीछे न छूट जाएं, और कोई लोकरंजकतावाद में, कोई नरोदवाद में, तो कोई कौमवाद में बहकर धनी किसान आन्दोलन की प्रशंसा और समर्थन में लगा हुआ था। यह भी क्रान्तिकारी साहस के अभाव, मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विज्ञान पर कमज़ोर पकड़ और अवसरवाद को ही दिखलाता है।
7. कुछ कम्युनिस्ट ऐसे भी हैं जो कि 26 जनवरी को हुई अराजकतापूर्ण हिंसा का बचाव कर रहे हैं और कह रहे हैं कि राज्य भी तो हिंसा करता है। बिल्कुल सच है कि राज्य भी हिंसा करता है लेकिन क्रान्तिकारी उसका जवाब देने के लिए अराजकतापूर्ण हिंसा की वकालत नहीं करते, बल्कि संगठित क्रान्तिकारी हिंसा की वकालत करते हैं। 26 जनवरी को जो हुआ वह कोई क्रान्तिकारी हिंसा नहीं थी। अव्वलन तो क्रान्तिकारी हिंसा सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में क्रान्तिकारी वर्गों का मोर्चा करता है और धनी किसान वर्ग समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में कोई क्रान्तिकारी नहीं बल्कि प्रतिक्रियावादी वर्ग होता है। दूसरी बात, क्रान्तिकारी हिंसा कुछ पुलिस वालों पर हमला कर, उन्हें खदेड़कर लाल किले पर धार्मिक झण्डा फहराना नहीं होता है। जिन कम्युनिस्टों को लाल किले पर किसानों के कब्ज़े के साथ ही ऐसी सिहरन चढ़ने लगी थी कि अब तो क्रान्ति नज़दीक है, उन्हें अपने दिमाग़ का इलाज कराना चाहिए और जब ठीक हो जाएं तो गम्भीरता से मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विज्ञान का अध्ययन करना चाहिए।
8. इतना स्पष्ट है कि फासीवादी मोदी सरकार ने मौजूदा धनी किसान आन्दोलन के लिए एक ट्रैप बिछाया था और अपने ही अवसरवाद और लोकरंजकतावाद के कारण धनी किसान आन्दोलन का नेतृत्व पूरे आन्दोलन को लिए-दिये उस ट्रैप में कूद गया। शासक वर्ग के आर्थिक व राजनीतिक रूप से ज्यादा शक्तिशाली धड़े ने कम शक्तिशाली धड़े को स्पष्ट रूप से दांवपेच में एक करारी शिकस्त दी है। इसके बाद आन्दोलन में बिखराव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, हालांकि अभी इसमें काफी वक्त लगेगा और यह प्रक्रिया कुछ दी गयी स्थितियों में पलट भी सकती है और ग्रामीण बुर्जुआजी का आन्दोलन फिर से पुनर्सुदृढ़ीकरण भी कर सकता है। क्या होगा और उसमें कितना वक्त लगेगा, यह बताना मुश्किल है। लेकिन ऐतिहासिक तौर पर भी देखा जाय तो यदि खेतिहर पूंजीपति वर्ग मौजूदा आन्दोलन के ज़रिये खेती में बड़ी इजारेदार पूंजी के प्रवेश को तात्कालिक तौर पर रोक भी देता तो इसे हमेशा के लिए नहीं रोका जा सकता है; यह पूंजीवाद की आन्तरिक गतिकी के अनुसार सम्भव ही नहीं है। इतनी बात तो शरद जोशी जैसे लोग भी समझते हैं। वैसे भी, यह ऐतिहासिक तौर पर प्रतिगामी भी है कि खेती में खेतिहर पूंजीपति वर्ग यानी धनी किसानों-कुलकों की अपेक्षाकृत छोटी पूंजी (केवल बड़े इजारेदार पूंजीपति की पूंजी की अपेक्षा!) हमेशा बची रहे। सर्वहारा वर्ग और ग़रीब किसान वर्ग का इसमें कोई हित भी नहीं है क्योंकि अभी छोटी पूंजी भी उसे लूट ही रही है और कई बार कहीं ज्यादा क्रूरता से लूट रही है। कारपोरेट पूंजी भी उसे लूटेगी ही और उसके खिलाफ भी उसे लड़ना ही पड़ेगा। इसीलिए सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में ग़रीब व निम्न-मंझोले किसानों को अपना राजनीतिक रूप से स्वतंत्र आन्दोलन और राजनीतिक रूप से स्वतंत्र संगठन खड़ा करना होगा और यही एकमात्र सही रास्ता है। इसी के ज़रिये वह खेतिहर पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध भी अपने वर्ग संघर्ष को संचालित कर सकता है और इसी के ज़रिये वह भविष्य में कारपोरेट पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध भी अपने संघर्ष को संचालित कर सकता है। लेकिन खेतिहर पूंजीपति वर्ग और कारपोरेट पूंजीपति वर्ग के आपसी अन्तरविरोध में किसी एक के पक्ष में खड़ा होना सर्वहारा वर्ग और आम ग़रीब मेहनतकश आबादी की भयंकर भूल होगी और अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता खोकर शासक वर्ग के इस या उस धड़े का पुछल्ला बनना होगा। शासक वर्ग के आपसी अन्तरविरोध का रणकौशलात्मक इस्तेमाल भी वह तभी कर सकता है, जबकि उसकी अपनी स्वतंत्र राजनीतिक अवस्थिति हो, जैसा कि लेनिन ने सर्वहारा क्रान्तिकारियों को बार-बार याद दिलाया था। उसके बिना वह शासक वर्ग के आपसी अन्तरविरोधों का इस्तेमाल कर नहीं पाएगा, बल्कि शासक वर्ग के ही किसी धड़े द्वारा उसका इस्तेमाल हो जाएगा। इसलिए मौजूदा अन्तरविरोध में सर्वहारा वर्ग और ग़रीब व निम्न-मंझोले किसानों को अपने वर्ग हितों के आधार पर अपने राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र आन्दोलन को खड़ा करना होगा और मौजूदा अन्तरविरोध में तात्कालिक तौर पर किसी की भी विजय हो, उसके खिलाफ उसे अपनी वर्ग मांगों के साथ संघर्ष करने की तैयारी करनी होगी।
9. अन्त में, अपनी बुनियादी अवस्थितियों को हम फिर से दुहरा देना चाहते हैं ताकि सनद रहे। पहली बात यह है कि मौजूदा आन्दोलन के चार्टर और वर्ग चरित्र से स्पष्ट रूप से असहमति रखते हुए भी हम उसके विरोध करने के जनवादी अधिकार का समर्थन करते हैं और फासीवादी मोदी सरकार और उत्तर प्रदेश की फासीवादी योगी सरकार द्वारा उसके दमन के लिए अपनाए जा रहे हथकण्डों का विरोध करते हैं।
दूसरी बात, यह बिल्कुल स्पष्ट है और बार-बार स्पष्ट हो रहा है कि मौजूदा आन्दोलन का चरित्र वास्तव में धनी किसानों-कुलकों के आन्दोलन का ही चरित्र है। यह किसी भी रूप में ग़रीब व निम्न-मंझोले किसानों व मज़दूर वर्ग की नुमाइन्दगी नहीं करता है, भले ही राजनीतिक चेतना की कमी और आर्थिक बन्धनों में ग्रामीण पूंजीपति वर्ग से बंधे होने के कारण तमाम ग़रीब किसान व निम्न-मंझोले किसान भी इसमें हिस्सेदारी कर रहे हैं।
तीसरा, स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि इस आन्दोलन के नेतृत्व ने अभी तक राजनीतिक मौकापरस्ती का परिचय देते हुए उसमें तमाम फिरकापरस्त ताक़तों को भी जगह दी है और जब 26 जनवरी को इन्हीं ताक़तों की वजह से आन्दोलन पर से वे नियंत्रण खो बैठे तब जाकर उन्होंने इन ताक़तों की निन्दा की, जो कि फिर से उनकी मौकापरस्ती की ही एक मिसाल थी। यह राजनीतिक मौकापरस्ती कोई संयोग या आकस्मिकता नहीं है, बल्कि एक व्यवस्थित अवसरवाद है जो कि इस आन्दोलन के वर्ग चरित्र से ही पैदा हो रही है।
चौथी बात, आज क्रान्तिकारी शक्तियों को गांवों में विशेष तौर पर राजनीतिक उद्वेलन और प्रचार कर गांव के ग़रीबों को यह समझाने की आवश्यकता है कि उनकी मांगें धनी किसानों और कुलकों से अलग हैं; लाभकारी मूल्य की मांग उनके वर्ग हितों के खिलाफ जाती है और ग़रीब किसानों की भी मुख्य मांग है कृषि सब्सिडी को बढ़ाना, लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को समाप्त कर समूची कृषि सब्सिडी को कृषि की आधारभूत संरचना के निर्माण पर, विशेष तौर पर सिंचाई की व्यवस्था के निर्माण पर खर्च करना, धनी भूस्वामियों और फार्मरों समेत पूंजीपति वर्ग पर समृद्धि कर लगाकर ग़रीब और निम्न-मंझोले किसानों को रियायती दरों पर सरकारी तौर पर बीज, खाद, कीटनाशक आदि मुहैया कराना, सभी किसानों तक संस्थागत ऋण की पहुंच को सुनिश्चित करना, आदि। साथ ही, मेहनतकश ग़रीब किसान आबादी को यह भी समझाना दूरगामी तौर पर कम्युनिस्टों का कार्यभार है कि यदि तात्कालिक राहत देने वाली उपरोक्त मांगें पूरी हो भी जाएं तो उन्हें आर्थिक और सामाजिक अनिश्चितता से मुक्ति केवल साझी खेती की समाजवादी व्यवस्था में ही मिल सकती है और पूंजीवाद के रहते छोटी जोत की किसानी की नियति में आम तौर पर ज़मीनों से हाथ धोना और मज़दूर वर्ग की कतार में शामिल होना ही है और यह अपवादों को छोड़कर आम तौर पर आर्थिक गति से ही होता है न कि किसी आर्थिकेतर उत्पीड़न से। इसके अलावा कोई भी भ्रम फैलाना झूठ बोलने और धोखा देने के समान होगा। लेकिन इतना स्पष्ट है कि ग़रीब और निम्न-मंझोले किसानों की मांगें धनी किसानों-कुलकों से अलग हैं, जो कि उजरती श्रम का शोषण करके, सूदखोरी के ज़रिये, कमीशनखोरी के ज़रिये, और लगान के ज़रिये मुनाफा कमाते हैं।
पांचवीं बात, जो लोग हमसे यह सवाल पूछते हैं कि ''आपने आज तक कौन-सा ग़रीब किसानों को संगठित कर लिया!?'' उनका सवाल ही अतार्किक और मूर्खतापूर्ण है। यही सवाल समाजवादी-क्रान्तिकारियों ने 1917 में लेनिन से पूछा था, जब लेनिन किसानों के विभेदीकरण और अलग-अलग संस्तरों की अलग-अलग मांगों की बातें कर रहे थे; लेनिन का जवाब यह था कि किसान आबादी में राजनीतिक विभेदीकरण की मुख्य जिम्मेदारी उन राजनीतिक शक्तियों की बनती थी जिनका ग्रामीण क्षेत्रों में राजनीतिक व सामाजिक आधार है; बोल्शेविकों का 1917 तक गांवों में आधार बहुत ही सीमित था और यही वजह थी कि समाजवादी क्रान्ति के बावजूद अक्तूबर 1917 में बोल्शेविक पार्टी को भूमि के राष्ट्रीकरण और भोगाधिकार के आधार पर और उजरती श्रम के शोषण पर रोक की शर्त के साथ किसान परिवारों को भूमि के टुकड़ों का आबण्टन करना पड़ा था। लेकिन यह सवाल एकदम मूर्खतापूर्ण है कि बोल्शेविकों का जब गांव में कोई विशेष राजनीतिक काम नहीं था, तो वे गांव में वर्ग संघर्ष के बारे में कोई कार्यदिशा ही क्यों प्रतिपादित कर रहे थे? ऐसे सवाल वे ही पूछते हैं, जिनके पास तर्कों का कोई जवाब नहीं होता है। हमने गांव के ग़रीबों में अभी तक क्या कर लिया या क्या नहीं कर लिया, इससे गांवों में वर्ग संघर्ष के विषय में हमारी सर्वहारा कार्यदिशा का कोई रिश्ता नहीं है। जो मुद्दे पर बात नहीं कर सकते, वे ही ऐसे प्रश्न पूछ सकते हैं।
ये कुछ प्राथमिक प्रेक्षण हैं, जिन्हें संजीदा राजनीतिक लोगों के समक्ष रखना आवश्यक था, हालांकि लगातार ट्रेन यात्रा में रहने के कारण मैं इसे कुछ देर से ही सामने रख पा रहा हूं।

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