CAA और NRC देश के हर धर्म के गरीबों के विरुद्ध है, दमन से जनता चुप नहीं बैठेगी


CAA और NRC देश के हर धर्म के गरीबों के विरुद्ध है, दमन से जनता चुप नहीं बैठेगी 

कविता कृष्‍णपल्‍लवी

CAA और NRC के ख़िलाफ़ जनांदोलन समाज में अब और गहराई तक पैठ गया है I उत्तर प्रदेश के छोटे-छोटे शहरों-कस्बों से भारी विरोध-प्रदर्शन की खबरें आयी हैं। दिल्ली तो दिन भर उबलता ही रहा, देश के अन्य हिस्सों से भी ऐसी ही खबरें आती रही हैं।
बदहवास फासिस्ट सत्ताधारी एक और तो टीवी चैनलों पर आकर तरह-तरह की सफाइयाँ दे रहे हैं, पर साथ ही धमका भी रहे हैं। दमन-चक्र एकदम से तेज़ हो गया है। इसमें कनफटा जोगी और येदियुरप्पा की सरकारें सबसे आगे हैं। कर्नाटक के कई शहरों में कर्फ्यू लगा दिया गया है I उ.प्र. में हज़ारों लोग गिरफ्तार किये गए हैं और 6 लोगों के मरने की खबरें आ रही हैं। घायलों की संख्या सैकड़ों में हो सकती है। बदला लेने की अपनी धमकी पर अमल करते हुए जोगी ने प्रसिद्ध मानवाधिकार-कर्मी दारापुरी और अधिवक्ता मो.शोएब को उनके घरों से अपनी पुलिस द्वारा उठवा लिया है। अबतक 3000 लोगों को नोटिसें भेजी जा चुकी हैं, जिनमें से ज्यादातर नागरिक अधिकार कर्मी हैं। अब फर्जी मुक़दमों और गिरफ्तारियों का सिलसिला धुँआधार चलेगा। लेकिन नागपुरी संतरे अभी भी इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि ये दमनात्मक कार्रवाइयाँ जन-प्रतिरोध की आग में घी डालने का ही काम करेंगी। दमन से ऐसे आन्दोलनों को कत्तई दबाया नहीं जा सकता।
एक बहुत अच्छी बात यह है कि आन्दोलन को 'हिन्दू-मुस्लिम' करके बाँटने की हर कोशिश अबतक नाकाम सिद्ध हुई है I सड़कों पर उतरने वालों में मुस्लिमों से बहुत अधिक संख्या हिन्दुओं की रही है। महानगरों में सड़कों पर भारी संख्या छात्रों-युवाओं की नज़र आ रही थी, पर अब छोटे-छोटे शहरों में बहुसंख्यक आम नागरिक सड़कों पर दीख रहे हैं।
अगर कोई नकारात्मक बात अबतक दिखी है तो वह यह कि अचानक प्रदर्शनों में घुस आये मुँह पर रुमाल बाँधे मुट्ठी भर अराजक तत्वों ने कई जगहों पर तोड़फोड़ और हिंसा फैलाने की कोशिश की। कल लखनऊ में ऐसा ही हुआ था और आज शाम को दिल्ली में दिल्ली गेट पर भी ऐसा ही हुआ। उ.प्र. के कई छोटे शहरों में ऐसी भड़काऊ कार्रवाइयाँ थोड़े से अज्ञात तत्वों ने की। ऐसे तत्वों के प्रति बहुत सावधानी बरतनी होगी। ऐसी कार्रवाई करने वाले संघी घुसपैठिये भी हो सकते हैं। उन्हें ऐसी हरक़तों में महारत हासिल होती है। कई बार वे पकड़े भी जा चुके हैं। कल ही ऐसे कुछ लोग बंगाल में पकड़े गए। अगर वे आन्दोलन के भीतर के ही अति-उत्साही अराजक तत्व हों, तो भी उनकी शिनाख्त करके उनके प्रति सख्ती बरतनी होगी और उन्हें धक्के मारकर प्रदर्शनों से बाहर करना होगा।
मोहल्ले-मोहल्ले में मीटिंगें करके लोगों को अराजक तत्वों पर नज़र रखने के लिए कहना होगा। लोगों को बताना होगा कि अराजक हिंसा और तोड़फोड़ से आन्दोलन के मक़सद को भारी नुकसान पहुँचेगा I हर हाल में इस आन्दोलन को लंबा चलाना होगा और यह तभी संभव होगा जब इसका स्वरूप जनता की ओर से शांतिपूर्ण बना रहे।
ज़रूरत इस बात की है कि अब इस आन्दोलन को व्यापक और देशव्यापी नागरिक अवज्ञा आन्दोलन और सत्याग्रह की शक्ल दी जाए। छात्रों को कक्षाओं और परीक्षाओं के सामूहिक बहिष्कार का रास्ता पकड़ना चाहिए I कर्मचारियों का दफ्तरों के बहिष्कार के लिए आह्वान किया जाना चाहिए। मज़दूर यूनियनों पर दबाव बनाया जाना चाहिए कि वे एकदिनी रस्मी हड़ताल का रास्ता छोड़कर लम्बी हड़तालों और घेराव के रास्ते पर उतरें और आम मज़दूरों में व्यापक प्रचार अभियान चलाकर उन्हें बताया जाना चाहिए कि NRC जैसी चीज़ आम गरीबों के सामने कितनी अधिक दिक्कतें पैदा कर देगी। अगर आन्दोलन के लिए मोहल्ला कमेटियाँ बन पातीं तो लोगों को इस बात के लिए तैयार किया जा सकता था कि शहर की किसी सड़क या कचहरी-कलक्ट्रेट जैसे किसी स्थल को चुनकर वे सपरिवार हंडा-परात, बोरिया-बिस्तर सहित वहीं डेरा डाल दें। राजधानी और बड़े शहरों में किसी अहम सार्वजनिक स्थल पर खाने-पीने, रहने के इंतज़ाम के साथ लम्बे समय के लिए भी घेरा-डेरा डाला जा सकता है। भारत में भी तहरीर चौक जैसा जमावड़ा किया जा सकता है। इस बात का भी अध्ययन किया जाना चाहिए कि सांतियागो या हांगकांग जैसे शहरों में लाखों की तादाद में प्रदर्शनकारी अपने प्रदर्शनों को हफ़्तों और महीनों तक किस तरह जारी रख पाते हैं।
चूँकि आन्दोलन स्वतःस्फूर्त है और इसका कोई संगठित क्रांतिकारी नेतृत्व नहीं है, इसलिए ये सारी चीज़ें कठिन ज़रूर हैं, लेकिन इसमें सक्रिय प्रबुद्ध लोग और क्रांतिकारी शक्तियाँ अगर इस बात को समझें और तदनुरूप प्रयास करें तो एकदम असंभव भी नहीं है। अगर इन प्रयासों में पूरी सफलता न मिले तो भी इन प्रयोगों से आगे के लिए कुछ बेहद ज़रूरी शिक्षाएँ ज़रूर मिलेंगी। संघर्ष के ऐसे रूप व्यापक जन-पहलकदमी जागृत करने में विशेष रूप से सहायक सिद्ध होंगे। फिर तो जन-समुदाय की सामूहिक सर्जनात्मकता स्वयं ही संघर्ष के नए-नए सर्जनात्मक रूपों का आविष्कार करने लगती है।
इसलिए, असफलता की चिंता किये बिना ऐसी कोशिशें तो की ही जानी चाहिए। संघर्षों में असफलताओं के बीच से ही सफलता के रास्ते मिलते हैं और असफल प्रयोगों से भी कई बार बेशकीमती सबक हासिल हो जाते हैं।
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बात सही है। फासिस्ट अंधे होते हैं। वे जितनी अक़ल भिड़ाते हैं, उतने ही आत्मघाती कदम उठाते हैं। रंगा-बिल्ला की जोड़ी ने यही किया है। जो सोचा, वह दाव एकदम उलटा पड़ गया।

सोचा यह था कि CAA और NRC लाकर आबादी के साम्प्रदायिक विभाजन को और तेज़ कर देंगे और मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर भय और आतंक के साए तले जीने के लिए मजबूर कर देंगे I हुआ इसके ठीक उलटा। आज देश भर में हुए प्रदर्शनों में छात्रों-युवाओं से भी अधिक जो आम नागरिक आबादी उमड़ पड़ी थी उसमें मुसलमानों से कई गुना अधिक हिन्दू शामिल थे और वे सिर्फ़ बौद्धिक समाज के लोग ही नहीं थे बल्कि उनसे बहुत अधिक एकदम आम लोग थे। साम्प्रदायिक विभाजन की जगह अवाम के बीच साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता की लहर फ़ैलने लगी है जो एक शुभ संकेत है।
दूसरी बात, देश भर में उठ खड़े हुए इस आन्दोलन को कुचलकर मोदी-शाह गिरोह अपने आतंक-राज की हनक और धमक को जनता के दिलों में बैठा देना चाहता था। उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में पूरे राज्य में धारा-144 लगा दिया गया था। अधिकांश जगहों पर प्रदर्शनों को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने पूरा जोर लगा दिया। दिल्ली, बंगलुरु, लखनऊ -- आदि शहरों में जमकर गिरफ्तारियाँ हुईं, आँसू गैस के गोले चले, पानी की बौछारें की गयीं, लेकिन लोग निर्भीक होकर सड़कों पर उतरे और डटे रहे। बात सही है, आतंक फैलाने की कोशिश जब हद से अधिक होती है, तो आतंक ख़तम होने लगता है। जब लोगों को बहुत अधिक डराया जाता है तो लोग डरना बंद कर देते हैं।
तीसरी बात, चन्द जगहों को छोड़कर विरोध-प्रदर्शन पूरे देश में शांतिपूर्ण रहे। सिर्फ़ लखनऊ और मंगलुरु में चन्द अराजक तत्वों ने हिंसा भड़काने की कोशिश की, लेकिन वहाँ भी भारी आबादी शांतिपूर्वक सड़कों पर डटी रही। दिल्ली और बंगलुरु जैसी जगहों पर भारी गिरफ्तारियों और पुलिस ज्यादती के बावजूद लोगों ने संयम बनाए रखा। लोग खुद चौकन्ने थे कि जामिया और अलीगढ़ की तरह खुद हिंसा भड़काकर पुलिस और संघी गुण्डे आन्दोलन को बदनाम करने में सफल न हो सकें। इसका साफ़ मतलब यह है कि लोग इसबार लम्बी लड़ाई के लिए तैयार होकर सड़कों पर उतर रहे हैं। आने वाले दिनों में CAA और NRC के विरुद्ध एक देशव्यापी नागरिक अवज्ञा आन्दोलन की ज़मीन तैयार होने लगी है।
चौथी बात, पहले से ही लकवाग्रस्त संसदीय विपक्षी दलों के कुछ नेता आज के आन्दोलन में शामिल भले ही रहे हों, लेकिन नेतृत्व की कमान कहीं भी किसी चुनावी पार्टी के हाथों में नहीं थी। सबकुछ पूरी तरह से आम लोगों की पहलकदमी से हो रहा था। जनता इन बेईमानों को ठुकराकर अब सड़कों पर उतर रही है। उसे इनसे कोई उम्मीद नहीं है।
पाँचवी बात, 1974 के बाद पहली बार पूरा देश छात्रों-युवाओं के इतने प्रचंड देशव्यापी उभार का साक्षी हो रहा है। न सिर्फ़ देश के अधिकांश प्रमुख उच्च शिक्षा संस्थानों के छात्र सड़कों पर हैं, बल्कि छोटे शहरों और गाँवों-कस्बों के युवा भी आन्दोलन में उतर पड़े हैं। यह बहुत अच्छा संकेत है कि कैम्पसों से बगावत की आवाज़ उठी है। और अब इस आवाज़ के साथ नागरिक भी सड़कों पर उतरने लगे हैं। सिनेकर्मी, रंगकर्मी और लेखक-बुद्धिजीवी ही नहीं, आम लोग भी फासिस्ट आतंक के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर पड़े हैं। अब चुनौती यह है कि इस जनांदोलन की स्वतःस्फूर्तता को एक सुचिंतित दिशा दी जाए और धीरज के साथ लम्बी तैयारी और लम्बे संघर्ष का रास्ता चुना जाए। इस आन्दोलन की लपट को गाँवों और शहरों के मेहनतकशों की बस्तियों तक पहुँचाना होगा। भगतसिंह ने भी किसी क्रांतिकारी आन्दोलन की सफलता के लिए इसे ही बुनियादी गारण्टी बताया था और छात्रों-युवाओं के नाम अपने अंतिम सन्देश में इसी बात पर बल दिया था।
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यह ध्यान रखना होगा कि 1974 दुहराया न जाए और छात्रों-युवाओं के ज्वार को नियंत्रित करने वाला कोई "लोकनायक", "जननायक", "लोकबन्धु", "लोकहृदय-सम्राट", कोई जे.पी.-ठेपी, वी.पी.-पी.पी. या कोई अन्ना-गन्ना ऊपर से टप्प से न टपक पड़े, कोई आन्दोलन में घुसकर प्रेशर कूकर के सेफ्टी वॉल्व का काम न करने लगे, या आन्दोलन की पीठ पर सवार होकर कोई कुटिल-कपटी नौटंकीबाज ख़ुद सत्ता तक पहुँचने की, या बुर्जुआ संसदीय राजनीति में दाखिल होने की राह न बनाने लगे। और हाँ, पराजितमना, कायर-कुलीन सोशल डेमोक्रेट्स के "शान्ति-पाठों" से भी सावधान रहना होगा।
याद रखिये, चन्द आन्दोलनों से फासिस्ट अपनी राह बदलकर बुर्जुआ डेमोक्रेट नहीं बन जायेंगे। फासिस्टों का ह्रदय-परिवर्तन नहीं होता, उन्हें इतिहास की कचरा-पेटी के हवाले करना होता है। इसलिए ढीला पड़ने की ज़रूरत नहीं है। याद रखिये, जहाँ डिटेंशन कैम्प बनेंगे वहाँ कुछ ही दिनों बाद कंसंट्रेशन कैम्प भी बनेंगे और गैस चैम्बर भी बनेंगे। देश को एक खूनी दलदल बनने से रोकने के लिए एक लम्बी लड़ाई सभी मोर्चों पर लड़नी होगी। हत्यारे अगर इतिहास दुहरा रहे हैं तो हमें भी इतिहास के सबकों के हिसाब से ही आचरण करना होगा।
संघर्ष। संघर्ष। और संघर्ष। सिर्फ़ एक लंबा संघर्ष जो लहरों की तरह, आरोहों-अवरोहों से होकर जारी रहे।
अब जबतक यह बीमार, सड़ता हुआ पूँजीवाद रहेगा, तबतक फासिस्ट भेड़िये इंसानी बस्तियों पर हमला बोलते रहेंगे। वे पीछे भी हटेंगे तो लौट-लौटकर आयेंगे। इस सदी में फासिज्म-विरोधी संघर्ष उदार पूँजीवादी जनवाद की बहाली का संघर्ष नहीं हो सकता। उसे पूँजीवाद-विरोधी संघर्ष की ही कड़ी बनाना होगा।



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