शहीदों और शहादत के बारे में कुछ उद्धरण व कविताएं

शहीदों और शहादत के बारे में कुछ उद्धरण व कविताएं

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शहीद भगतसिंह की जेल नोटबुक से कविता - स्वतन्त्रता

वे मृत शरीर नवयुवकों के,
वे शहीद जो झूल गये फाँसी के फन्दे से –
वे दिल जो छलनी हो गये भूरे सीसे से,
सर्द और निष्पन्द जो वे लगते हैं, जीवित हैं और कहीं
अबाधित ओज के साथ।
वे जीवित हैं अन्य युवा-जन में, ओ राजाओ।
वे जीवित हैं अन्य बन्धु-जन में, फिर से तुम्हें चुनौती देने को तैयार।
वे पवित्र हो गये मृत्यु से –
शिक्षित और समुन्नत।
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शहीद भगतसिंह की जेल नोटबुक से कविता - मरे जो सर्वश्रेष्ठ वीर:

मारे गये हैं सर्वश्रेष्ठ वीर। दफ़ना दिये गये वे
चुपचाप, एक निर्जन भूमि में,
कोई आँसू नहीं बहे उन पर
अजनबी हाथों ने उन्हें पहुँचा दिया क़ब्र में,
कोई सलीब नहीं, कोई घेरा नहीं, कोई समाधि-लेख नहीं
जो बता सके उनके गौरवशाली नाम।
घास उग रही है उन पर, एक दुर्बल पत्ती
झुकी हुई, जानती है इस रहस्य को,
बस एकमात्र साक्षी थीं उफनती लहरें,
जो प्रचण्ड आघात करती हैं तट पर,
लेकिन वे प्रचण्ड लहरें भी नहीं ले जा सकतीं
अलविदा के सन्देश
उनके सुदूर घर तक।
वी.एन. फ़िग्नर
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गीत - शहीदों के लिए

ज़िन्दगी लड़ती रहेगी-गाती रहेगी
नदियाँ बहती रहेंगी
कारवाँ चलता रहेगा, चलता रहेगा, बढ़ता रहेगा
मुक्ति की राह पर
छोड़कर साथियो, तुमको धरती की गोद में ।
खो गये तुम हवा बनकर वतन की हर साँस में
बिक चुकी इन वादियों में गन्ध बनकर घुल गये
भूख से लड़ते हुए बच्चों की घायल आस में
कर्ज़ में डूबी हुई फसलों की रंगत बन गये
ख़्वाबों के साथ तेरे चलता रहेगा…
हो गये कुर्बान जिस मिट्टी की खातिर साथियो
सो रहो अब आज उस ममतामयी की गोद में
मुक्ति के दिन तक फिजाँ में खो चुकेंगे नाम तेरे
देश के हर नाम में ज़िन्दा रहोगे साथियो
यादों के साथ तेरे चलता रहेगा….
जब कभी भी लौटकर इन राहों से गुज़रेंगे हम
जीत के सब गीत कई–कई बार हम फिर गायेंगे
खोज कैसे पायेंगे मिट्टी तुम्हारी साथियो
ज़र्रे–ज़र्रे को तुम्हारी ही समाधि पायेंगे
लेकर ये अरमाँ दिल में चलता रहेगा…
✍ शशिप्रकाश
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आदमी की सबसे प्यारी चीज़ होती है उसकी ज़िन्दगी। उसे जीने के लिए बस एक ही ज़िन्दगी मिलती है, और उसे अपनी ज़िन्दगी को इस तरह जीना चाहिए ताकि उसे कभी इस पछतावे की आग में न जलना पड़े कि उसने अपने साल यूँ ही बर्बाद कर दिये, ताकि उसे एक क्षुद्र और तुच्छ अतीत को लेकर शर्मिन्दा न होना पड़े; उसे इस तरह जीना चाहिए ताकि जब वह मृत्युशैया पर हो, तो वह कह सके – मैंने अपनी सारी ज़िन्दगी, अपनी सारी ताक़त दुनिया के सबसे महान लक्ष्य के लिए, इन्सानियत की मुक्ति के लक्ष्य के लिए लगायी है। और इन्सान को अपनी ज़िन्दगी के एक-एक पल का इस्तेमाल करना चाहिए, क्योंकि कौन जाने कब अचानक कोई बीमारी या दुर्घटना उसके जीवन की डोर को बीच में ही काट दे।
✍ निकोलाई आस्त्रोवस्की
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हर आदमी एक न एक दिन ज़रूर मरता है, लेकिन हर आदमी की मौत की अहमियत अलग–अलग होती है।जनता के लिए प्राण निछावर करना थाई पर्वत से भी ज़्यादा भारी अहमियत रखता है, जबकि फासिस्टों के लिए तथा शोषकों व उत्पीड़कों के लिए जान देना पंख से भी ज़्यादा हल्की अहमियत रखता है।
✍ माओ त्से तुङ
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जन्मसिद्ध अधिकार:

हम बेटे हैं उन पितरों के जिन्होंने मात दी थी
तख़्तो-ताज और पुरोहितों के अत्याचार को;
उन्होंने दी थी चुनौती मैदाने-जंग में और फाँसी के तख़्ते से
अपने जन्मसिद्ध अधिकार के लिए – हम भी यही करेंगे!
✍ टी. कैम्पबेल
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लक्ष्य की महिमा:

अरे! बेकार की नफ़रत के लिए नहीं,
न सम्मान के लिए, न ही अपनी शाबासी के लिए
बल्कि लक्ष्य की महिमा के लिए,
किया जो तुमने, भुलाया नहीं जायेगा।
✍ आर्थर क्लो
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दूसरों के लिए प्रकाश की एक किरण बनना, दूसरों के जीवन को देदीप्यमान करना, यह सबसे बड़ा सुख है जो मानव प्राप्त कर सकता है। इसके बाद कष्टों अथवा पीड़ा से, दुर्भाग्य अथवा अभाव से मानव नहीं डरता। फिर मृत्यु का भय उसके अन्दर से मिट जाता है, यद्यपि, वास्तव में जीवन को प्यार करना वह तभी सीखता है। और, केवल तभी पृथ्वी पर आँखें खोलकर वह इस तरह चल पाता है कि जिससे कि वह सब कुछ देख, सुन और समझ सके; केवल तभी अपने संकुचित घोंघे से निकलकर वह बाहर प्रकाश में आ सकता है और समस्त मानवजाति के सुखों और दु:खों का अनुभव कर सकता है। और केवल तभी वह वास्तविक मानव बन सकता है।
✍ एफ. ज़र्जि़न्स्की
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इतिहास उन्हें ही महान मनुष्य मानता है, जो सामान्य लक्ष्य के लिए काम करके, स्वयं उदात्त बन जाते हैं; अनुभव सर्वाधिक सुखी मनुष्य के रूप में उसी व्यक्ति की स्तुति करता है जिसने लोगों की अधिक से अधिक संख्या के लिए सुख की सृष्टि की है।
✍ कार्ल मार्क्स
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हमने यदि ऐसा पेशा चुना है जिसके माध्यम से मानवता की हम अधिक सेवा कर सकते हैं तो उसके नीचे हम दबेंगे नहीं-क्योंकि यह ऐसा होता है जो सबके हित में किया जाता है। ऐसी स्थिति में हमें किसी तुच्छ, सीमित अहम्वादी उल्लास की अनुभूति नहीं होगी, वरन तब हमारा व्यक्तिगत सुख जनगण का भी सुख होगा, हमारे कार्य तब एक शान्तिमय किन्तु सतत् रूप से सक्रिय जीवन का रूप धारण कर लेंगे, और जिस दिन हमारी अर्थी उठेगी, उस दिन भले लोगों की आँखों में हमारे लिए गर्म आँसू होंगे।
✍ युवा कार्ल मार्क्स (‘पेशे का चुनाव करने के सम्बन्ध में एक नौजवान के विचार’ नामक रचना से)
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जो आदमी अपने साथी मनुष्यों द्वारा किये जाने वाले अत्याचार का विरोध करने के प्रयास में, अपनी जान पर खेलते हुए, अपनी सारी ज़िन्दगी निछावर कर देता है, वह अत्याचार और अन्याय के सक्रिय और निष्क्रिय समर्थकों की तुलना में एक सन्त है, भले ही उसके विरोध से उसकी अपनी ज़िन्दगी के साथ-साथ अन्य ज़िन्दगियाँ भी क्यों न नष्ट हो जाती हों। ऐसे व्यक्ति पर पहला पत्थर वही मारने का हक़दार हो सकता है जिसने कभी कोई पाप न किया हो।
✍ अमेरिकी अराजकतावादी एमा गोल्डमान (1869-1940) के एक निबन्ध से
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शिकागो के शहीद:
अब कोई भले ही यह कहे कि उसने भारी ग़लती की, परन्तु यदि उनकी ग़लती दस गुना भी अधिक बड़ी होती, तो भी इसे उसकी क़ुर्बानी मानव-स्मृति पटल से पोंछ ही डालेगी…
चलिए हम यह पूरी तरह मान लेते हैं कि उन्होंने अपनी नज़र में विरोध का जो सबसे अच्छा तरीक़ा अपनाया, उसकी धारणा पूरी तरह ग़लत और असम्भव थी, मान लिया कि उन्होंने कार्रवाई का सबसे अच्छा रास्ता नहीं अपनाया। लेकिन वह क्या चीज़ थी जिसने उन्हें अपनी मौजूदा सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध धावा बोलने के लिए उकसाया? वे और हज़ारों लोग जो उनके साथ उठ खड़े हुए, बुरे आदमी नहीं थे, भ्रष्ट नहीं थे, ख़ून के प्यासे नहीं थे, संगदिल नहीं थे, अपराधी नहीं थे, और न ही स्वार्थी या पागल थे। तब वह क्या चीज़ थी जिसने इतने तीखे और गहरे प्रतिवाद को उकसावा दिया…?
किसी ने भी इस सरल-सीधी बात पर ग़ौर नहीं किया कि मनुष्य अपनेआप को किसी विरोध के लिए बिना इस विश्वास के एकजुट नहीं करते कि कोई न कोई चीज़ ऐसी है जिसका उन्हें विरोध करना है और कि किसी भी संगठित समाज में व्यापक विरोध एक ऐसी चीज़ है जो गहरी छानबीन की दरकार रखती है।
✍ चार्ल्स एडवर्ड रसेल
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शहीद भगतसिंह की जेल नोटबुक से एक कविता

दफ़न न होते आज़ादी पर मरने वाले
पैदा करते हैं मुक्ति-बीज, फिर और बीज पैदा करने को।
जिसे ले जाती दूर हवा और फिर बोती है और जिसे
पोषित करते हैं वर्षा जल और हिम।
देहमुक्त जो हुई आत्मा उसे न कर सकते विच्छिन्न
अस्त्र-शस्त्र अत्याचारी के
बल्कि हो अजेय रमती धरती पर, मरमर करती,
बतियाती, चौकस करती।
✍ वाल्ट हिटमैन
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कविता - वज़न हटा लो

पीली पड़ गयी घास पर से हटा लो वज़न
दो रातें ज़रा उसे ताज़ा हवा, ओस
की छुअन पाने दो
घास फिर हरी हो जायेगी ।
शंघाई से अभी–अभी आया जो
ताज़ा हवा का झोंका
उसे ज़रा घास के ऊपर बहने दो –
घास लहरा–लहराकर
गीत गाने लगेगी, देखना ।
पा जाएगी फिर,
बाधाओं में घिरकर, वज़न सहकर,
मार खाकर भी न मरने का मिजाज़ ।
सब ठीक हो जायेगा
ह्वांग्हो फिर गाने लगेगा ।
ख़ुशी के गीत ।
ऐसा होना ही है
जान से भी प्यारे कामरेडों को
दफनाते हुए
इतने आँसू, इतना खून,
इतना पसीना बहाते हुए
इस रपटीले पथ पर महीनों पर महीने
किसी अरुणाभ सुबह के लिए
हमारा चलना, चलते जाना
बेकार नहीं होगा।
✍ माओ त्से तुङ
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लेनिन की मृत्यु पर कैंटाटा

1.
जिस दिन लेनिन नहीं रहे
कहते हैं, शव की निगरानी में तैनात एक सैनिक ने
अपने साथियों को बताया: मैं
यक़ीन नहीं करना चाहता था इस पर।
मैं भीतर गया और उनके कान में चिल्लाया: ‘इलिच
शोषक आ रहे हैं।’ वह हिले भी नहीं।
तब मैं जान गया कि वो जा चुके हैं।
2.
जब कोई भला आदमी जाना चाहे
तो आप कैसे रोक सकते हैं उसे?
उसे बताइये कि अभी क्यों है उसकी ज़रूरत।
यही तरीक़ा है उसे रोकने का।
3.
और क्या चीज़ रोक सकती थी भला लेनिन को जाने से?
4. 
सोचा उस सैनिक ने
जब वो सुनेंगे, शोषक आ रहे हैं
उठ पड़ेंगे वो, चाहे जितने बीमार हों
शायद वो बैसाखियों पर चले आयें
शायद वो इजाज़त दे दें कि
उन्हें उठाकर ले आया जाये, लेकिन
उठ ही पड़ेंगे वो और आकर
सामना करेंगे शोषकों का।
5. 
जानता था वो सैनिक, कि लेनिन
सारी उमर लड़ते रहे थे
शोषकों के ख़िलाफ़
6.
और वो सैनिक शामिल था
शीत प्रासाद पर धावे में,
और घर लौटना चाहता था
क्योंकि वहाँ बाँटी जा रही थी ज़मीन
तब लेनिन ने उससे कहा था:
अभी यहीं रुको !
शोषक अब भी मौजूद हैं।
और जब तक मौजूद है शोषण
लड़ते रहना होगा उसके ख़िलाफ़
जब तक तुम्हारा वजूद है
तुम्हें लड़ना होगा उसके ख़िलाफ़।
7. 
जो कमज़ोर हैं वे लड़ते नहीं। थोड़े मज़बूत
शायद घंटे भर तक लड़ते हैं।
जो हैं और भी मज़बूत वे लड़ते हैं कई बरस तक।
सबसे मज़बूत होते हैं वे 
जो लड़ते रहते हैं ताज़िन्दगी।
वही हैं जिनके बग़ैर दुनिया नहीं चलती।
8.
कसीदा इंक़लाबी के लिए
अक्सर वे बहुत अधिक हुआ करते हैं
वे ग़ायब हो जाते, बेहतर होगा।
लेकिन वह ग़ायब हो जाये, तो उसकी कमी खलती है।
वह संगठित करता है अपना संघर्ष
मजूरी, चाय-पानी
और राज्यसत्ता की ख़ातिर।
वह पूछता है सम्पत्ति से:
कहाँ से आई हो तुम?
जहाँ भी ख़ामोशी हो
वह बोलेगा
और जहाँ शोषण का राज हो
और क़िस्मत की बात की जाती हो
वह उँगली उठायेगा।
जहाँ वह मेज पर बैठता है
छा जाता है असन्तोष मेज पर
ज़ायका बिगड़ जाता है
और कमरा तंग लगने लगता है।
उसे जहाँ भी भगाया जाता है,
विद्रोह साथ जाता है और जहाँ से उसे भगाया जाता है
असन्तोष रह जाता है।
9.
जब लेनिन नहीं रहे और
लोगों को उनकी याद आई
जीत हासिल हो चुकी थी, मगर
देश था तबाहो-बर्बाद
लोग उठकर बढ़ चले थे, मगर
रास्ता था अँधियारा
जब लेनिन नहीं रहे
फुटपाथ पर बैठे सैनिक रोये और
मज़दूरों ने अपनी मशीनों पर काम बंद कर दिया 
और मुट्ठियाँ भींच लीं।
10.
जब लेनिन गये,
तो ये ऐसा था 
जैसे पेड़ ने कहा पत्तियों से
मैं चलता हूँ।
11. 
तब से गुज़र गये पंद्रह बरस
दुनिया का छठवाँ हिस्सा 
आज़ाद है अब शोषण से।
‘शोषक आ रहे हैं!’: इस पुकार पर
जनता फिर उठ खड़ी होती है
हमेशा की तरह।
जूझने के लिए तैयार।
12.
लेनिन बसते हैं
मज़दूर वर्ग के विशाल हृदय में,
वो थे हमारे शिक्षक।
वो हमारे साथ मिलकर लड़ते रहे।
वो बसते हैं
मज़दूर वर्ग के विशाल हृदय में।
(1935)
 कैंटाटा – वाद्य संगीत के साथ गायी जाने वाली संगीत रचना, जो प्राय: वर्णनात्मक और कई भागों में होती है (कुछ-कुछ हमारे बिरहा की तरह)। इस कैंटाटा के संगीत को अंतिम रूप दिया था ब्रेष्ट के साथी और महान जर्मन संगीतकार हान्स आइस्लर ने। इस रचना का आठवाँ भाग ‘इंक़लाबी की शान में क़सीदा’ ब्रेष्ट ने पहलेपहल 1933 में, गोर्की के उपन्यास ‘माँ’ पर आधारित अपने नाटक के लिए लिखा था।

✍ बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, अनुवाद: सत्यम

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