कविता - हत्यारा कवि / अदनान कफ़ील दरवेश

हत्यारा कवि

अदनान कफ़ील दरवेश

उसकी कविताएँ मुझे चकित करती रहीं 
उसकी लिखी पंक्तियाँ पढ़कर 
अक्सर 
मन करुणा से भर-भर जाता 
कैसे कहूँ कि उसकी कविताएँ पढ़कर रोया हूँ बारहा
आधी रातों के सुनसानों में

बहुत दिनों तक उसे उसकी कविताओं से ही जाना था 
अचानक वो मिल गया किसी गोष्ठी में 
और उससे सीधे पहचान हुई
धीरे-धीरे पता चला उसका राजनीतिक पक्ष 
जो कि हत्यारों की तरफ़ था 
मेरे पाँव से ज़मीन खिसक गई
विश्वास नहीं हुआ कि कैसे मेरा प्रिय कवि 
हत्यारों की ढाल बन सकता है 
जी हुआ उसकी कविताएँ जला दूँ 
जिसे पढ़कर रोया था बार-बार
फिर अचानक उसकी एक और कविता पढ़ी 
फिर मन बदल लिया

कोई कवि इतना अदाकार कैसे हो सकता है कविता में 
अब भी चकित हूँ
नोचूँ हूँ घास 
देखूँ हूँ उसकी तस्वीर, उसका मासूम चेहरा जिसपर फैली है गुनगुनी धूप
सोचूँ हूँ शायद वो कल मेरी हत्या करने मेरे गले पर छुरी रखे 
तो मैं उसका विरोध भी न कर पाऊँ 
अजीब प्रेम है उससे मुझे उफ़्फ़
शायद उसे कहूँ कि भाई गला काट के हाथ धो के जाना
अलमारी में मेरे कपड़े होंगे उन्हें पहन लेना
मुझे तुम्हारी कविताएँ बहुत अच्छी लगती हैं !

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