त्योहारों के बारे में कुछ विचार
त्योहारों के बारे में कुछ विचार कात्यायनी त्योहारों का जन्म कृषि-आधारित पुरातन समाजों में फसलों की बुवाई और कटाई के मौसमों पर आधारित था। ये सामूहिक जन-उल्लास के संस्थाबद्ध रूप थे। जादुई विश्वदृष्टिकोण और प्राकृतिक शक्तियों के अभ्यर्थना के आदिम काल में इन त्योहारों के साथ टोटकों की कुछ सामूहिक क्रियाऍं जुड़ी हुई थीं। फिर संस्थाबद्ध धर्मों ने शासकवर्गों के हितों के अनुरूप इन त्योहारों का पुन:संस्कार और पुनर्गठन किया और इनके साथ तरह-तरह की धार्मिक मिथकीय कथाऍं और अनुष्ठान जोड़ दिये गये। इसके बावजूद प्राक् पूँजीवादी समाजों में आम उत्पादक जन समुदाय इन त्योहारी उत्सवों को काफी हद तक अपने ढंग से मनाता रहा। त्योहार आम उत्पीडि़तों के लिए काफी हद तक सामूहिकता का जश्न बने रहे। जिन्दगी भर उत्पीड़न का बोझ ढोने वाले लोग कम से कम एक दिन कुछ खुश हो लेते थे, कुछ गा-बजा और नाच लेते थे। लेकिन पूँजी की चुड़ैल ने आम लोगों के जीवन का यह रस भी चूस लिया। जीवन में हर चीज माल में तब्दील हो गयी और सबकुछ बाजार के मातहत हो गया। होली-दिवाली-दशहरा---- सभी त्योहार समाज में अमीरों के लिए 'स्...