फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म - शोपेन का नग़मा बजता है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म - शोपेन का नग़मा बजता है छलनी है अँधेरे का सीना, बरखा के भाले बरसे हैं दीवारों के आँसू हैं रवां, घर ख़ामोशी में डूबे हैं पानी में नहाये हैं बूटे, गलियों में हू का फेरा है शोपेन का नग़मा बजता है इक ग़मगीं लड़की के चेहरे पर चाँद की ज़र्दी छाई है जो बर्फ़ गिरी थी इस पे लहू के छींटों की रुशनाई है ख़ूं का हर दाग़ दमकता है शोपेन का नग़मा बजता है कुछ आज़ादी के मतवाले, जां कफ़ पे लिये मैदां में गये हर सू दुश्मन का नरग़ा था, कुछ बच निकले, कुछ खेत रहे आलम में उनका शोहरा है शोपेन का नग़मा बजता है इक कूंज को सखियाँ छोड़ गईं आकाश की नीली राहों में वो याद में तनहा रोती थी, लिपटाये अपनी बाँहों में इक शाहीं उस पर झपटा है शोपेन का नग़मा बजता है ग़म ने साँचे में ढाला है इक बाप के पत्थर चेहरे को मुर्दा बेटे के माथे को इक मां ने रोकर चूमा है शोपेन का नग़मा बजता है फिर फूलों की रुत लौट आई और चाहने वालों की गर्दन में झूले डाले बाँहों ने फिर झरने नाचे छन छन छन अब बादल है न बरखा है शोपेन का नग़मा बजता है फ्रेडरिक शोपिन (1 मार्च 1810-17 अक् टूबर 1849) एक विश् व प्रसिद्ध पियानोवादक व गीतकार थे।